सागरमाथा पहुंचने का संकल्प  –   रामबहादुर राय

आवरण-कथा

पंडित मदन मोहन मालवीय ने बीज बोया. उसे अपने जीवन में पौधा बनाया. एक आकार दिया. आज वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय शिक्षा जगत का विराट वृक्ष हो गया है. इस 21वीं सदी में मूलत तीन अवधारणाएं काम कर रही हैं, लोकतंत्र, आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण. इन अवधारणाओं को ही ज्ञान की कुंजी माना जा रहा है. हालांकि इनका स्वरूप हर देश में एक सा नहीं है. पर हर जगह इनके मूल तत्व हैं. जिसमें औपनिवेशिकता और साम्राज्यवाद के अंश और उसके विकार भी पहले से अधिक मात्रा में मौजूद हैं. इन अवधारणाओं को संस्कारित करने के लिए ही पंडित मदन मोहन मालवीय ने विश्वविद्यालय बनाने की सोची. फिर भी परिस्थितियों ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय को उस प्रभाव से अछूता नहीं छोड़ा. वह उन दिनों अस्तित्व में आया जब ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज चढ़ान पर था. साम्राज्यवादी शिकंजे के बावजूद पंडित मदन मोहन मालवीय ने अपने लचीले व्यक्तित्व और गहरी भविष्यपरक अंतरदृष्टि से विश्वविद्यालय का सपना साकार किया. जैसी विपरीत परिस्थितियां तब थीं वैसी एक हद तक आज भी बनी हुई हैं. इसे बिना समझे और जाने काशी हिंदू विश्वविद्यालय का शैक्षिक आकलन नहीं किया जा सकता.

तब विश्वविद्यालय के रास्ते में साम्राज्यवादी सोच ‘विंध्याचल पहाड़’ की तरह था. जिसे विश्वविद्यालय के संस्थापक ने अपने वज्र संकल्प से अनावरोधक बना दिया. इसे जानना हो तो पंडित मदन मोहन मालवीय के इंपीरियल लेजिसलेटिव कांउसिल में दिये गये दो भाषण अवश्य पढ़ने चाहिए. पहला भाषण 27 मार्च, 1915 का है. जिस दिन विश्वविद्यालय का विधान विधेयक के रूप में पेश हुआ. और दूसरा भाषण 1 अक्टूबर, 1915 का है. जिस दिन वह पारित हुआ. जानने की बात यह है कि ब्रिटिश शासन काशी हिंदू विश्वविद्यालय को ‘सांप्रदायिक’ मानता था. इसीलिए उसने हर कदम पर रुकावटें डाली. जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय एक इतिहास दृष्टि से हिंदू संस्कृति और उसकी महान परम्परा पर आधारित ज्ञान विज्ञान का अधुनातन विश्वविद्यालय बनाने की कल्पना से प्रेरित थे. इसके लिए उन्होंने बहुत विचार मंथन किया था. पर अंग्रेज़ों ने अपनी अड़ंगेबाजी से विश्वविद्यालय का विधान बनाने में ही 10 साल लगा दिये.

जो दृष्टि ब्रिटिश शासन की थी वही आज़ाद भारत के शासन की भी कमोबेश रही है. नेहरू से मनमोहन सिंह तक हर प्रधानमंत्री उसी दृष्टि और तंत्र के बंधक बने रहे. प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्राr हालांकि 18 महीने ही रहे. लेकिन उनके कार्यकाल में तो हद ही हो गयी. काशी हिंदू विश्वविद्यालय से ‘हिंदू’ शब्द हटाने पर सरकार तुल गयी थी. उसे प्रबल जन-आंदोलन के सामने हार माननी पड़ी. हर शिक्षा मंत्री (1985 से मानव संसाधन मंत्री) काशी हिंदू विश्वविद्यालय के साथ सौतेला बरताव करता रहा है. क्योंकि वह द्वेषभाव से ग्रस्त रहा है. अपवाद स्वरूप एक ही मंत्री का नाम ले सकते हैं. वे माधवराव सिंधिया थे. उन्हें कुछ महीने ही मिले. अगर उनको एक कार्यकाल मिलता तो काशी हिंदू विश्वविद्यालय को बहुत अवसर उपलब्ध हो जाते. यह बात 1996 की है. उस कड़ी में स्मृति इरानी को भी अपवाद मान सकते हैं. वे सद्भाव रखती हैं. पर अपने मंत्रालय का नज़रिया नहीं बदल सकी हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दृष्टि साफ है. लेकिन वे जिस औपनिवेशिक तंत्र पर बैठे हैं वह आज भी काशी हिंदू विश्वविद्यालय को सागरमाथा पर पहुंचने में बड़ी अड़चनें पैदा कर रहा है.

तो क्या यह मान लें कि इन अड़चनों के चलते काशी हिंदू विश्वविद्यालय शिक्षा जगत में रसातल को पहुंच गया है? भारत सरकार के तमाम पुराने जांच आयोगों की रिपोर्ट को अगर कोई पढ़े तो यही धारणा बनती है. आज़ादी के बाद छात्र आंदोलनों के कारण वे जांच आयोग बनाये गये थे. आखिरी आयोग पी.बी. गजेंद्र गडकर का था. यह एक दुर्भाग्यपूर्ण बात रही है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के  बारे में इन आयोगों से दिल्ली में बैठे लोगों ने अपना मत बनाया जो विश्वविद्यालय की विरासत से अनजान रहे हैं. मालवीय जी ने एक मंत्र दिया था- पढ़ाई के साथ आज़ादी की लड़ाई. उसे आज भी छात्र समसामयिक बनाकर साधते रहते हैं.

तमाम तरह की अड़चनों के बावजूद काशी हिंदू विश्वविद्यालय का शैक्षिक स्तर शुरू से ही उत्तम रहा है. विख्यात विद्वानों और विशेषज्ञों को विश्वविद्यालय आकर्षित करता रहा है. वह स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है. उसमें दिनों दिन प्रगति भी हो रही है. हाल के सर्वेक्षणों से भी इसकी पुष्टि हुई है. इससे इतना ही अर्थ निकलता है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय उत्तम तो है. वह सर्वोत्तम भी हो सकता है, पर अभी है नहीं. इसके ऐतिहासिक कारण भी हैं. पंडित मदन मोहन मालवीय ने जब 1905 में इस विश्वविद्यालय के बारे में सोचा तब उसके मूल स्वरूप को अंग्रेज़ी सरकार के दबाव में संशोधित करना पड़ा. जैसा तब हुआ वैसा ही केंद्र के हस्तक्षेप का सिलसिला 2012 तक चला है. एक ताज़ा उदाहरण ज़रूरी है. 2012 में मानव संसाधन मंत्रालय ने विश्वविद्यालय के तकनीक संस्थान को आई आई टी बना दिया. इससे विश्वविद्यालय के स्वरूप को ही खतरा पैदा हो गया. क्योंकि आई आई टी के बनते ही एक ऐसा समुदाय खड़ा हुआ जो अलग परिसर की मांग करने लगा. मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी ने पिछले दिनों इस बारे स्पष्ट निर्णय कर विश्व-विद्यालय के स्वरूप को अक्षुण्ण रखने का भरोसा दे दिया है. अगर आई आई टी का अलग कैंपस बन जाता तो मेडिकल, मैनेजमेंट और सांइस के भी अलग कैंपस की मांग उठती और अंतत काशी हिंदू विश्वविद्यालय सिर्फ कला और समाज विज्ञान संस्थान में सिमट जाता. आई आई टी का बनना हर तरह से उचित था. लेकिन उसकी ओट में विश्वविद्यालय के स्वरूप को छिन्न-भिन्न करने की कहीं साजिश तो नहीं थी!

यह जान लेना ज़रूरी है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय का परिसर 1360 एकड़ में फैला हुआ है. ऐसा परिसर देश के दूसरे किसी विश्वविद्यालय को उपलब्ध नहीं है. पुराने छात्र जिन बातों को अपनी सुखद स्मृति में सजोए रहते हैं उनमें सबसे प्रमुख विश्वविद्यालय परिसर की अनूठी रमणीयता है. परिसर ज्ञान अर्जन का परिवेश बनाता है. उस परिसर में चिकित्सा, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, कृषि, संस्थान के अलावा 200 विभागों में विभिन्न विषय पढ़ाये जाते हैं. इस विश्वविद्यालय में प्राचीन और आधुनिक का समन्वय है. धर्म को उसके शुद्धत्तम रूप में समझने-समझाने की शुरू से ही व्यवस्था है. इसका एक अलग संकाय ही है. काशी हिंदू विश्वविद्यालय के लिए उदारता पूर्वक विभिन्न रूपों में दान मिले थे. मिर्जापुर में बरकछा नामक स्थान पर 2600 एकड़ का एक परिसर विश्व-विद्यालय को प्राप्त है. वहां भी अब अध्ययन अध्यापन और शोध शुरू हो गया है.

विश्वविद्यालय का कुलगीत उसका परिचय है. जिसकी एक पंक्ति है- यह सर्वविद्या की राजधानी. सचमुच काशी हिंदू विश्वविद्यालय इस समय तीस हजार छात्रों को सर्वविद्या उपलब्ध करा रहा है. पंडित मदन मोहन मालवीय ने इसे शैक्षिक विश्वविद्यालय बनाया था. तब देश के जो पांच विश्वविद्यालय थे वे मात्र परीक्षा लेने के केंद्र थे. एक शैक्षिक विश्वविद्यालय के रूप में काशी हिंदू विश्वविद्यालय का निरंतर विकास हुआ है. इस समय भारत के अलावा 65 देशों के छात्र यहां पढ़ रहे हैं. हर संस्थान और विभाग का अपना पुस्तकालय है. इसके अलावा एक केंद्रीय पुस्तकालय है. जिसे गायकवाड़ पुस्तकालय का नाम प्राप्त है. जहां 15 लाख पुस्तकों के अलावा 13 हजार आनलाइन शोध पत्रिकाएं, 50 हजार ई पुस्तकें और डिजिटलाइज्ड पांडुलिपियों का विशाल संग्रह है. पुस्तकालय में ही 200 से अधिक सीटों की एक वातानुकुलित साइबर  लायब्रेरी है जो देर रात तक खुली रहती है. तथ्य यह है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय इस समय देश के उन थोड़े से उन विश्व-विद्यालयों में से है जहां गहन शोध का वातावरण बना हुआ है. हर संस्थान इस दिशा में सराहनीय स्तर पर सक्रिय है.

विश्वविद्यालय ने सौ साल का सफर पूरा कर लिया है. इसे साधारण उपलब्धि नहीं माननी चाहिए. इस पैमाने से भी काशी हिंदू विश्वविद्यालय देश में अग्रणी स्थान पर रहेगा. कुलपति डॉ गिरीश चंद्र त्रिपाठी का कहना है कि 2010 में इंडिया टुडे-नेलसन सर्वेक्षण में काशी हिंदू विश्वविद्यालय का स्थान तीसरा था. अभी ‘जी न्यूज’ ने अपने ताजा सर्वेक्षण में उसे पहला स्थान दिया है. ये सर्वेक्षण शैक्षिक स्थिति को मापने के लिए किये गये. डॉ. त्रिपाठी बताते हैं कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय एशिया का सबसे बड़ा आवासीय और शैक्षिक विश्वविद्यालय हो गया है. किसी को प्रमाण चाहिए तो वह परिसर में स्थित छात्र और छात्राओं के लिए बने 64 छात्रावासों का मुआयना भर कर ले. पिछले ही दिनों विश्वविद्यालय के पुराने छात्रों का एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन सम्पन्न हुआ है. जिसमें विश्वविद्यालय के विकास में पुराने छात्रों के सहयोग पर विमर्श हुआ. उसकी एक रूपरेखा बनायी जा रही है. यहां बताना ज़रूरी है कि विश्वविद्यालय के पुराने छात्र पूरी दुनिया में फैले हुए हैं. बहुत सम्मानित स्थान पर वे हैं. सम्भवत उनके ही प्रयास से इस विश्वविद्यालय का विदेशी विश्वविद्यालयों से अनुबंध का सिलसिला भी जारी है. विश्वविद्यालय एक नया संस्थान बनाने जा रहा है जो जलवायु परिवर्तन पर अध्ययन और शोध करेगा. साफ है कि विश्वविद्यालय नित नूतन और समृद्ध हो रहा है. उसकी सार्थक यात्रा अविराम चल रही है.

शायद ही किसी विश्वविद्यालय के पास अपनी हवाई पट्टी होगी. इस  विश्वविद्यालय के पास है. विश्वविद्यालय के पास अपना संचार नेटवर्क है. जिसमें 100 किलो मीटर लंबी फाइबर आप्टिक नेटवर्क से सभी कम्यूटर केंद्र जुड़े हुए हैं. उसे नेशनल नालेज नेटवर्क की हर सुविधा प्राप्त है. एक खास बात और है. यह सम्भवत अकेला विश्वविद्यालय है जिसमें भारत कला भवन नौ दशक से काम कर रहा है. इसके संग्रहालय में एक लाख से अधिक कलाकृतियां हैं. आधुनिक शिक्षा के साथ प्राचीन कला और संस्कृति के अध्ययन का यह केंद्र अपने आप में अनूठा है. विश्वविद्यालय को यह पूर्णता प्रदान करता है. उससे रवींद्र नाथ ठाकुर, राय कृष्ण दास, प्रो. नंद लाल बोस और वासुदेव शरण अग्रवाल जुड़े रहे हैं. काशी हिंदू विश्वविद्यालय में एक सर्वोंत्तम शैक्षिक संस्थान की हर सम्भावना मौजूद है. उसे सिर्फ कुछ बाधाओं को दूर करना है. इसकी पहली बाधा विधान सम्बंधी है. सुनकर हैरानी हो सकती है, पर है यह सच. सीधा सच. काशी हिंदू विश्वविद्यालय का अपना विधान 1969 में स्थगित कर दिया गया. तब शिक्षा मंत्री ने आश्वासन दिया कि पूरा विधान जल्दी लाएंगे. वह आश्वासन अब तक पूरा नहीं किया गया है. होना यह चाहिए कि मोदी सरकार पंडित मदन मोहन मालवीय के मूल विधान को अद्यतन कर विश्वविद्यालय की आंतरिक संरचना को नया रूप दे. ऐसा अगर किया जा सका तो विश्वविद्यालय की चमक चौगुनी हो जायेगी. दूसरी बाधा विश्वविद्यालय पर वर्चस्व बनाये रखने की होड़ से जुड़ी है. वह प्रारम्भ से ही है. उसका रूप बदलता रहता है. अगर ये बाधाएं दूर की जा सकें तो काशी हिंदू विश्वविद्यालय दुनिया का सबसे नामी शैक्षिक संस्थान हो सकता है.

मार्च 2016

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