♦ राजेंद्र माथुर >
सभ्यता की एक महान समस्या कचरा है. कचरा सर्वत्र है. वह खेत में है और कारखानों में है. जब खेतों में प्राकृतिक खाद पड़ती थी, तब खेत उसे सोख लेते थे. लेकिन आजकल खेत में रासायनिक खाद नाईट्रेट और फॉस्फेट डाली जाती है, जो नालियों और नहरों में घुल कर बड़े जलाशयों में जाती है. और सारा पानी काई की बहार से मर जाता है. पश्चिम के कुछ तालाब ऐसी काई से नष्ट हो गये हैं. फिर कीट-नाशक दवाइयां हैं. और कोई नहीं जानता कि पृथ्वी पर ज़हर की एक परत बिछाने का क्या नतीजा होगा?
उद्योगों का तो कहना ही क्या. हर कारखाना आजकल कचरा पैदा करता है, जिसे फेंकना एक समस्या बन गया है. उद्योग का कचरा प्रायः नदियों में फेंका जाता है, जिससे नदियां औद्योगिक गटर बन गयी हैं. अमेरिका ने कारखाने की चिमनियों का धुआं छानकर फेंकना शुरू किया है, लेकिन काला धुआं अब अदृश्य ज़हरीली गैसों के रूप में निकलता है और फेफड़ों के अंदर घुसता है. गटरों की गंदगी को साफ़ करने के उसने कारखाने बनाये हैं, लेकिन फिर भी कई रसायन नदियों में बह जाते हैं. मोटरों का धुआं लगातार शहर की हवा को दूषित कर रहा है और एक वैज्ञानिक का कहना है कि सम्भवतः अगली पीढ़ी को सूरज दिखाई नहीं देगा. ऐसे दिन तो अमेरिका में आते हैं, जब धुएं और कुहरे का एक काला पर्दा शहरों पर बिछ जाता है, जो सूरज को छिपा लेता है. कुछ लोगों ने अंदाज़ लगाया है कि कुहरे और कार्बन डाई ऑक्साइड का यह मिश्रण ध्रुवों की बर्फ पिघला देगा और स्वयं समुद्र 300 फीट ऊपर चढ़ जाएगा. और अब जम्बो जेट विमानों का जमाना आने वाला है, जो ऊपरी वातावरण में ज़हर की लकीरें बनाते हुए गुजरेंगे. जितनी अधिक सभ्यता, उतने अधिक डिब्बे और खोके और बोतलें. कहते हैं हर अमेरिकी आदमी एक दिन में ढाई सेर कचरा पैदा करता है, जिसे न जला सकते हैं, न गाड़ सकते हैं. मोटरें स्वयं वहां पर कचरा हैं.
वातावरण के खिलाफ़ मनुष्य का पहला महायुद्ध जब छिड़ा तो जंगल खेत बन गये और सारे पशु मनुष्य की दया के मोहताज हो गये. लेकिन अब औद्योगिक क्रांति के बाद मनुष्य ने दूसरा महायुद्ध छेड़ा है, जिसमें वह ज़मीन, हवा और पानी तीनों को मनमाने ढंग से दूषित कर रहा है. इन दो महायुद्धों का दूरगामी परिणाम क्या होगा, यह कोई नहीं कह सकता. पशु-पक्षियों का उन्मूलन करके तो आदमी ने डार्विन के विकासवाद का सारा खेल ही बिगाड़ दिया है. अगर किसी दुर्घटना से पृथ्वी पर मनुष्य जाति का विलोप हो जाए, तो जगत-नियंता परमात्मा के सामने शायद इतने वैकल्पिक प्राणी ही नहीं बचेंगे कि वह विकास के नृत्य को आगे बढ़ा सके. विकासवाद में यह होता अवश्य है कि सक्षम जंतु अक्षम प्राणियों का सफाया कर देते हैं. लेकिन जानवरों में क्षमता प्रकृति की देन है. चीते ने किसी दर्जी के यहां जाकर चितकबरा सूट नहीं बनवाया, जिसे पहनकर वह जंगल में छिप सके. उसकी चमड़ी उसकी बुद्धि में नहीं उपजी है. कहां से उपजी है, हम नहीं कह सकते. लेकिन जंग में शिकार करने के लिए आदमी ज़रूर दर्जी से कपड़े सिलवाता है. वह कपड़े ही नहीं, दांत, हाथ, गुर्दे, हृदय, सब कुछ सिलवा सकता है. बुद्धि की ये विजयें बहुत उम्दा हैं. लेकिन प्रश्न यह है कि मनुष्य की बुद्धि ज्यादा ऊंची है या विकासवाद की वह अंधी ताकत ज्यादा ऊंची है, जिसने मनुष्य को वह शरीर दिया, वे इंद्रियां दीं, वह बुद्धि दी, जिनके बूते पर वह विकासवाद का खेल उलट सका? प्रश्न यह भी है कि जब दर्जी, डॉक्टर और एयर कंडीशनर नहीं होंगे और कभी आदमी को चितकबरी चमड़ी की ज़रूरत पड़ेगी, तब क्या वह अंधी प्रेरणा हममें बाकी होगी, जो हमें वातानुकूलित (याने प्रकृति के अनुकूल) बना सके? और यदि उस अंधी ताकत का मनुष्य में जीवित रहना ज़रूरी है, तो अन्य सभी जानवरों में क्यों नहीं? सक्षमता और अक्षमता के तोल में क्या हम बुद्धि को तराजू पर रख सकते हैं? क्या ऐसा विश्वास स्वागत योग्य है, जिसमें हर पशु-पक्षी का कोटा मनुष्य की ज़रूरतों के अनुसार तय हो, फिर वे चाहे चूहे हों या बंदर हों या कीड़े हों या
शेर हों?
लेकिन ये प्रश्न और भी तीखे हो जाते हैं, जब आदमी ज़मीन, हवा और पानी को अपने खातिर बदलने लगा. इस सारी प्रक्रिया की शुरूआत जंगल कटने से हुई. सारी पृथ्वी आज या तो मनुष्य की मांद है या भोजनागार है. जब जंगल थे, तब वनस्पति जगत में समय का पैमाना बहुत धीमा और लम्बा था. एक-एक पेड़ हजार वर्षों तक खड़ा रहता, आंधी पानी सहता और हर साल नये पत्ते लेकर जवान हो जाता. आदमी के पहले योग किसी को आता था तो पेड़ों को आता था. योग उनके लिए विद्या नहीं था, सहज वृत्ति था. पता नहीं विकास का देवता पेड़ों के माध्यम से कौन-सा प्रयोग कर रहा था, कौन-सी सम्भावना की वह तैयारी कर रहा था.
आदमी उस प्रयोगशाला में घुसा और उसने सारे यंत्र तितर-बितर कर दिये. आदमी का समय का पैमाना छोटा और उसकी भूख विशाल थी. उसने फसलें पैदा कीं, जो छह-छह महीने में मरने-जीने लगीं. कृत्रिम गर्भाधान और त्वरित प्रसव का ऐसा सिलसिला चला कि बेचारी वनस्पतियों को लगा होगा कि आदमी ने समय के पहिये का हत्था पकड़ लिया है और उसे ज़ोर-ज़ोर से घुमा रहा है. और अब हवा और पानी की बारी है. समुद्र भी कचरा फेंकने का विशाल गड्ढा बन चुका है. कहते हैं 5 लाख रसायन उसमें हर साल फेंके जाते हैं. पेट्रोल से निकलने वाला ढाई लाख टन सीसा हवा से समुद्र में गिरता है. कीटनाशक ज़हर समुद्र में जाते हैं. सेनाएं जो युद्ध रसायन बनाती हैं, उनकी कचरा पेटी समुद्र है.
आदमी अधिक आराम के लिए (यानी अनुकूलता के लिए) मशीन बनाता है, लेकिन वे मशीनें वातावरण को कुछ और प्रतिकूल कर देती हैं. तूलिका लेकर हम चित्र बनाते हैं. चित्र तो बन जाता है, लेकिन रंग में ऐसे तेजाब हैं कि शनैः शनैः केनवास ही फट जाता है. हम उर्वरक छिड़कते हैं तो ज़मीन बांझ हो जाती है. क्या न्यूटन का सिद्धांत सभ्यता पर भी लागू होता है जो कहता है कि क्रिया और प्रतिक्रिया दोनों बराबर और विपरीत होंगी? जितने ऊंचे हम उठ रहे हैं, उतना गहरा गड्ढा क्या हम अपने पतन के लिए भी खोद रहे हैं?
विकासवाद क्या है? चर का अचर के साथ तालमेल. चर जगत को तो आदमी सचमुच चर गया. लेकिन अब वह अचर को भी बदल रहा है. जो ज़मीन, हवा और पानी विकासवाद की पृष्ठभूमि थी, संदर्भ शर्त थी, वही अब बदल रही है. भविष्य के प्राणियों के लिए आवश्यक होगा कि वे प्रकृति के अनुकूल नहीं, बल्कि मनुष्य द्वारा निर्मित विकृति के अनुकूल हों. आदमी वह जानवर है जिसने ईश्वर के सफेद केनवास को काला कर दिया है और इस काले केनवास पर भी चित्र बनाने की इजाज़त आदमी के सिवा किसी को नहीं है. उसने खिलाड़ी खत्म कर दिये और खेल की ज़मीन भी खोद दी. उसने ईश्वर का स्थान ले लिया है, क्योंकि ईश्वर का प्रयोगशाला भवन भी अब नष्ट है और उसके यंत्र भी.
क्या दुनिया का इतना काला चित्र खींचना सही है? शायद न हो. लेकिन समय-समय पर ऐसी घटनाएं हो जाती हैं, जो हमें सभ्यता के कचरे की याद दिलाती हैं. ऐसी ही एक भयावह घटना तब घटी थी जब पश्चिम यूरोप की सबसे बड़ी मछलियां पेट ऊंचा करके मर गयीं और राइन के किनारे जा लगीं. शुरू में तो अधिकारियों ने ध्यान नहीं दिया. लेकिन दो-तीन दिन में सारी नदी मछलियों का कब्रिस्तान बन गयी. साढ़े सात हज़ार टन सड़ी हुई मछलियां पूरी नदी को सड़ाने लगीं. वैज्ञानिक इस ज़हर को पहचानने में भिड़ गये, लेकिन कुछ दिन किसी को समझ में नहीं आया कि माजरा क्या है. अखबारों ने छापा कि हिटलर के सेनापति ने शायद ज़हरीली गैस के कनस्तर नदी में कहीं छिपा दिये थे, जो अब फट रहे हैं. सारे देश में इसी आशंका से तहलका मच गया, क्योंकि युद्ध रसायन से घातक कोई चीज़ नहीं हो सकती. लेकिन जर्मनी से ज्यादा डर हालैंड को लगा. हालैंड अनगिनत नहरों का देश है, जिनमें राइन का पानी जाता है. राजधानी एंस्टरडम के आधे लोग राइन का पानी पीते हैं. हालैंड ने तुरंत नहरों के दरवाजे लगा लिये और राइन के पानी के बजाय दूसरे संकटकालीन इंतजाम किये.
हालैंड के वैज्ञानिकों ने ही पता लगाया कि सल्फ्यूरिक एसिड से बनी एक कीटनाशक दवा राइन में घुल गयी थी, जो मनुष्यों के लिए अपेक्षया निरापद होते हुए भी मछलियों के लिए घातक थी. इसका 200 पौंड का सिर्फ एक बोरा सारी नदी की मछलियों का सफाया करने के लिए पर्याप्त था, क्योंकि पानी के एक अरब हिस्से में यदि इस दवा का एक हिस्सा भी हो तो मछली मर सकती थी. अंदाज़ लगाया गया कि नदी में चल रही किसी नाव से इस दवा का थैला अचानक गिर गया और नदी दूषित हो गयी. कहते हैं कि नदी को अब पुनः मछलियों से आबाद करने में चार साल लगेंगे.
यह घटना नाटकीय थी, इसलिए सारे यूरोप का ध्यान उस पर गया. लेकिन राइन की मछलियां जिस पानी में रहती हैं, उसमें सात देशों के कारखाने कचरा उंडेलते हैं. इस कचरे से वे मरती नहीं. किंतु उसके जीवन पर इसका दूरगामी असर क्या होगा, यह कौन जानता है? दूषित वातावरण का आदमी पर तथा प्रकृति के संतुलन पर क्या असर होगा, यह कौन जानता है?
भविष्य में वन महोत्सव या वन्य पशु सप्ताह मनाने से आदमी का काम नहीं चलेगा. उसे एक वातावरण बचाओ अभियान चलाना पड़ेगा. राष्ट्र संघ के महामंत्री उंथांत ने कहा भी था कि समूचा विश्व वातावरण के संकट का सामना कर रहा है, जिसका यदि हल नहीं हुआ, तो हम विश्वव्यापी आत्महत्या की ओर कदम बढ़ाएंगे. अमेरिका में प्रस्ताव रखा जा रहा है कि एक राष्ट्रीय वातावरण- परिषद बने, जिसकी इजाज़त के बिना न कोई कारखाना खुले, न कचरा फेंका जाए, न वैज्ञानिक आविष्कार हों. विज्ञान अगर इस पृथ्वी को चर कर बंजर और बियाबान बना देगा, तो हमें चांद पर जाने की ज़रूरत नहीं होगी, क्योंकि यह धरती ही एक मृत नक्षत्र बन जाएगी, जहां सब कुछ कृत्रिम रूप से बनाना होगा.
जब गरीबी-अमीरी की लड़ाई खत्म हो जाएगी, तब यही लड़ाई बचेगी. कार्ल मार्क्स और पूंजीवाद की जगह निसर्ग और विज्ञान के द्वंद्व की राजनीति शुरू होगी.