ललित-निबंध
आंख खुली तो पुष्प को अभ्यर्थना की मुद्रा में पाया. द्वार पर खड़ी गाय आशीर्वाद देती-सी लगी.
सूर्य प्राची से निकला और असंख्य स्रोतों से ऊर्जा का वर्णन होने लगा. पक्षियों के पंखों पर आकाश उतर आया. नदी सकपकाकर जाग उठी और उसके घाट हलचल से भर उठे. कुंओं के मौन को वाणी मिली और बाल्टियों ने अपनी अंजुरियों में जीवन-जल को लहराता पाया. समुद्र के तट की नेह-भींजी गीली रेत में कोई अपने आत्मीय के पांवों के चिह्न-चिखाने ढूंढ़ते-ढूंढ़ते रेत हो गया. सिंधु के जल पर किसी नभचारी ने उड़ान भरकर सिंधु और नभ दोनों की नीलिमा को चीरकर क्षितिज तक जाने का संकल्प दोहराया. मां ने चूल्हे के सिर पर हाथ फेरा और चूल्हे में चिंगारी हंसते-हंसते आग बन गयी. हांडी खदबदायी. तवे की आंखों से बच्चों की आंखों का मिलाप हुआ और पेट के आंगन में उत्सव मनने लगा. पिताजी ने बैल छोड़े और खेत की राह पकड़ी. हल की नोक से खेत के पन्नों पर साहित्य उतर आया. खेत में खुदे हुए कुएं की पाल से टिककर बेटा अपनी किताब में ललित निबंध बांच रहा है. एक निबंध पिता धरती पर लिख रहा है. एक निबंध बेटा किताब में बांच रहा है.
साहित्य-सर्जन कृषक-धर्म है. क्षितिजों तक विस्तारित वसुंधरा के साथ व्यक्ति के पुरुषार्थ ने मिलकर मिट्टी की उर्वर-शक्ति को अंकुरों, पादपों, पुष्पों और नाना प्रकार के अन्नों में आमंत्रित किया है. धरती की ममता को जब श्रम-बिंदुओं से सींचा जाता है, तब वनखंड के बीच, पार्वतीय उपत्यका में, घर के आंगन के कोने में कोई पत्ता अपने हरेपन में, कोई पुष्प अपनी सुवास में, कोई बीज अपनी जीवन-पौष्टिकता में गौरव पाता है. पुरुषार्थ ही कर्म की रेखाओं में आतुर आकांक्षाओं के रंग भरता है. पुरुषार्थ के केंद्र में आस्था की अगिन-शिखा झिलमिलाती है. मिट्टी से जुड़ाव और धरती से आत्मीयता कृषक के पुरुषार्थ की कुंजी है. कृषक मिट्टी की उदास प्रतिमा में मां वसुंधरा का विहंसता प्रतिमान गढ़ता है. यह कृषक की वसुधा के प्रति गाढ़ी आस्था ही है कि वह नीरवता में रव, मौन में वाणी, शून्य में सृष्टि और संघर्ष में सफलता को जन्म देता है.
कृषि के घराने नहीं होते हैं. साहित्य के भी न घराने होते हैं और न करते हैं. कला के पौधे प्रतिभा की भूमि में उपजते हैं और आस्था से सिंचित होते हैं. साहित्य और कला जीवन का सात्विक अनुष्ठान है; इसीलिए और इस अर्थ में वह विधना की सृष्टि के समांतर एक परा भौतिक सृष्टि है. परा भौतिक इसलिए कि शब्द ब्रह्म है और अक्षर का क्षरण नहीं होता है. शब्द आकाश का धर्म है; अत आकाश की विस्तीर्ण नीलिमा और अक्षुण्णता शब्द में भी अंतर्निहित है. शब्द के प्रति सजग और समर्पित शब्द-साधक के भाल पर वाणी की देवी तिलक लगाती है तथा सिर पर आशीषों से भारित हाथ रखती है. ऐसे सर्जक की आस्था के पांव धरती पर चलते हुए मिट्टी का स्पंदन आत्मसात करते हैं तथा उठा हुआ मस्तक सूरज-किरण से रंग लेकर जीवन के सुंदर स्वप्न जगाता है.
कमोबेश इस समय पूरी दुनिया जड़ों की ओर लौटने की बात करने लगी है और भारत है कि ‘इंडिया’ बनने की दौड़ दौड़ रहा है. हर जगह और हर स्तर पर भारत को ‘इंडिया’ बनाने की बेसुध व्याकुलता है. मिट्टी, पानी, आकाश, वायु, अग्नि सब बर्बाद किये जा रहे हैं, भारत को ‘इंडिया’ बनाने के लिए. उधार ली हुई वस्तुओं से घर सज सकता है; परंतु उन वस्तुओं के बीच क्या सुख की नींद आ सकती है ? चैन की बंशी बज सकती है? गमले में खिले बदरंग फूल चटक हो सकते हैं? चौके में घी की सुगंध भर सकती है? पत्नी के उलझे केशों में फूल की पांखुरी अटक सकती है? स्कूल जाती हुई बेटी की पीठ पर लदे बस्ते में से नारी मुक्ति का स्वर फूटकर अस्मिता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित कर सकेगा? बैंकों के कर्ज़ पारम्परिक कृषि का तर्पण करने में उतारू हैं तब घर के सामने खड़ा ट्रेक्टर और बर्बाद होती फसलें किसानों की आत्महत्याओं को रोक सकेंगी? प्लास्टिक के फूलों से सुगंध और कोमलता झरती होती, तो आदमी की निसर्ग कामनाएं फूलों की घाटी और अछोर वनांतों तक पांव-पांव चलकर नहीं जाती. व्यक्ति मात्र हाड़-मांस का पुलता नहीं; वह सृष्टि की सुंदरतम रचना है, जिसे आस्था का सम्बल प्रकृति-प्रदत्त है.
साहित्य-सर्जक की आस्था के मूल में माटी और मनुष्य गहरे बैठे हैं. माटी के क्षितिज-विस्तारित संदर्भ और मनुष्य की भू-नभ के बीच प्रसरित कर्म-तरंगें ही सत् साहित्य में पद्मासन-आरूढ़ हैं. मिट्टी एक संस्कृति रचने के लिए मनुष्य को सहज प्रेरित करती है. मनुष्य अपनी सचेत विकास कर्मनिष्ठा में संस्कृति की फसल बोता, उगाता, काटता रहता है. वह संस्कृति को रचता है. संस्कृति भी उसे रचती है. वह संस्कृति से विभूषित होता है और मनुजत्त्व की पूर्णता पाता चलता है. साहित्य-सर्जन मनुष्य की संस्कृतिनिष्ठ आचरणशीलता का शब्द-अनुष्ठान है.
संस्कृति अपनी सर्जनात्मक प्रक्रिया में मूल्यों का निर्माण और मूल्यों को धारण करती चलती है. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की अवधारणा हजारों वर्षों के जीवनानुभव, चिंतन और उससे निपजे निष्कर्षों का परिणाम है. पुरुषार्थ चतुष्टय धूल के पहाड़ नहीं हैं; ये वे हिमशिखर हैं जिन्हें जीतने पर, पार करने पर शुभ्र-हिम-तुषार से स्नात परिमंडल में प्रवेश की पात्रता मिलती है. ये मूल्य अपने संतुलित आवेग में जीवन का उत्कर्ष आमंत्रित करते हैं. साहित्य-सर्जक की आस्था अपने रचना-विधान में जिन लक्ष्यों की पुकार लगाती आगे बढ़ती है, वे लक्ष्य इन्हीं मूल्यों के पास ही घर बनाकर रहते हैं. शून्य जीवन और मूल्य विहीन साहित्य गूलर के फल सरीखा होता है.
साहित्यकार की आस्था सत्य को भी छानकर पीती है. वेदों, शास्त्राsं, पुराणों, उपनिषदों से लेकर आज तक सत्य का कितनी-कितनी बार और किस-किस तरह से निरीक्षण-परीक्षण किया जाता रहा है और किया जा रहा है. सत्य को ही बार-बार तपाया, पकाया, निखारा जाता है. वह कई-कई प्रकाश की पर्तों के नीचे स्थिर-गतिशील है. साहित्य-सर्जक उन पर्तों को उघाड़कर गर्भ में से अनावृत्त सत्य को उद्भाषित करता है. सामान्य जन और सामान्य दर्शक की पहुंच और दृष्टि यह कार्य नहीं कर सकती. रचनाकार की आस्था उसे जिद्दी बनाती है और वह गहरे कुएं में उतरकर सत्य का मीठा-शीतल जल लाता है. उसे पीकर और पिलाकर स्वांतसुखाय और परहित का पुनश्चरण पूरा करता है.
साहित्य-सर्जन में अटकलों और झूठों एवं चालबाजियों तथा चोरियों से काम नहीं चलता है. इनका आंचल पकड़कर बहुत दूर तक नहीं जाया जा सकता है. साहित्य-इतिहास इसे प्रमाणित करता है. आस्था तो निज के अनुभव की नदी में स्नान करती है और समर्पण की शिला पर आसन जमाकर ध्यानस्थ होती है. वह पाती है कि सृष्टि में अहोरात्र एक भागवत कथा लिखी जा रही है. ज्ञानी लोग उसे तरह-तरह से बांच रहे हैं. अर्थ कर रहे हैं. साहित्यकार की आस्था सृष्टि-कथा में से विषयवस्तु का चयन करती है और सृष्टि-जीवन के जैसा ही किंतु भिन्न जीवन का पुनसृजन करती है. इस कार्य में सर्जक की आस्था जिन स्थानीय उपादानों-भूमि, पर्वत, नदी, जन, जलवायु, पशु, पक्षी, कीट, भृंग, तरु, पादप को संग-साथ लेती हैं; उससे उसका वैशिष्ट्य, भिन्नता, सर्जन-सौंदर्य और निजता की सीमा में असीमता स्पष्ट और मुखर होती है. स्थानिक हुए बिना वैश्विक नहीं हुआ जा सकता है.
साहित्य-सर्जन में मूल्यबोधी दृष्टि और मांगलिक आकांक्षाएं बूंद-बूंद से आस्था-घट को भरती रहती हैं. लोक और लोकमंगल के तत्त्व उस आस्था-घट का स्थापन और पूजन करते हैं. अपने देश और काल में जीवित लोक में गहरी आस्था ही साहित्यकार को रचना का गहरा और व्यापक फलक देती है और अपने प्रण पर दृढ़ रहने का आत्मबल भी संचरित करती है. लोक अपनी स्मृति में अतीत के गर्भ से परम्पराएं, विश्वास और अनुभव सहेजे रहता है. रचनाकार उनसे आत्मसात होकर अपने समय के वर्तमान की राह साहित्य के माध्यम से सुझाता है और मार्ग प्रशस्त करता है. वह लोक साहित्य में प्राण की तरह रमते हुए लोकमंगल और परदुखकातरता की जोत से अपनी आस्था में अग्नि-मंत्र फूंकता है, जिसके स्फुर्लिंगों की चमक उसके सत्साहित्य में अमरता का आनंद गान गाते हैं.
गहरी, सघन और अटूट आस्था ही रचनाकार के देशकाल में सक्रिय जड़-चेतन को अभिव्यक्ति देती है. अभिव्यक्त रचनाकार ही होता है, लेकिन उसकी निर्वैयक्तिकता उसके साहित्य की सीमा और अमरता का विस्तार करती है. उसकी आस्था अभिव्यक्ति की उदात्तता में सृष्टि-जीवन को अभिषेकित करती हुई मंगल-कलश स्थापित करती है.
संसार निसर्ग द्वारा रचित साहित्य ही तो है. इसमें अनेक कथानक-उपकथानक हैं. कहानी-नाटक के संवाद हैं. भूमिका-प्रस्तावना हैं. उपसंहार है. खेल-खिलौने हैं. माटी के उपहार हैं. वस्तुओं के बाज़ार हैं. धूप-छांह के गांव हैं. चालबाजियों-कलाबाजियों से भरे-भरे नगर हैं. अनेक पात्र हैं. एक के बाद एक अनेक यवनिकाएं हैं. कोई निर्देशक नहीं दिखाई देता; परंतु निर्देशक है. मंच एक है. एक ही मंच पर सारा साहित्य नाट्यशास्त्र बन रहा है. दर्शक देख-देख कर हतप्रभ हैं. दर्शक भी सब अपनी-अपनी खोल में दुबके हैं. पार्थ जैसा स्थितिप्रज्ञ एकाध है. आत्मविस्मृति की रेखा को कौन छू पाता है? जो छू जाए वह पार्थ हो जाता है. वह ‘कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः’ हो जाता है. जब तक तटस्थ भाव से देखते-देखते देखने वाला सिर्फ आंख भर नहीं रह जाता है, तब तक असली देखना नहीं होता है. किसान खेती करते-करते खेत हो जाता है. सिद्ध साहित्य सर्जक भी सर्जन की मधुमति भूमि पर जाकर एक तरह से रस ही हो जाता है. ऐसी स्थिति उसी में होती है, जिस रचनाकार का चैत्य जागृत रहता है. वरना इस संसार के हर गली-कूचे में एक अहमन्य साहित्यकार मिल ही जाएगा.
अनुभव की गठरी बड़ी मुस्किल से ठसा-ठस भराती है. अनुभव की निर्बंध स्थिति में आदर्श-यथार्थ सब मिट जाते हैं. केवल सत्य बचा रहता है. यह सत्य ही साहित्य-सर्जक का मूल होता है. ‘अस्ति’ और ‘भवति’ का बोध सत्य को वर्णित करते समय सर्जक में होता है. साहित्य मील का पत्थर भी है और उठी हुई अंगुली भी है. वह अतीत की यात्रा का अनुभव और भविष्य तक पहुंचने का संकल्प दोनों देता है. इसलिए साहित्य-सर्जन मन की निर्मलता और व्यक्ति की गरिमा दोनों की अपेक्षा करता है. उसकी अनुभव-सम्पदा का स्रोत उसके व्यक्तित्व-निर्माण और सर्जन की पीठिका-निर्माण में दूर तक अंतसलिला की तरह प्रवाहित रहता है. इसलिए साहित्य के संस्कारों की महत्ता अक्षुण्ण है. ये जितने मिट्टी और जीवन-धूल से धूसरित होंगे; साहित्य सर्जक उतना ही अपनी भूमि के मातृत्व के ममत्व से सिक्त और जीवन की संवेदनाओं से तरल होगा. मिट्टी बदलती है तो पौधों-तरुओं के रूप-आकार और रस भी आंशिक बदलते हैं; क्योंकि माटी की भी अपनी रसवत्ता और संस्कार होते हैं. साहित्य-सर्जन में भी माटी की रसवत्ता और जीवन-संस्कारों की कुहुक बार-बार उठती है और गूंजती है.
माटी-गंधी जीवनानुभूतियां और संस्कार वहां के जन और साहित्यकार की अभिव्यक्ति को भी एक विशेष शैली, बनक और ठसक देते हैं. मारवाड़ में मीरा, पंजाब में नानक, अवध में तुलसीदास, काशी में कबीर, ब्रज में सूर, पंढरपुर में नामदेव, खानदेश में बहणाबाई की भाषा की कहन और बनक में यह अंतर देखा जा सकता है. निसर्ग का संसर्ग पंत की भाषा में सुकोमलता भरता है. जीवन-मिट्टी का काठिन्य निराला को भाषा की परुष-मसृणता देता है. चिंतन के सांस्कृतिक निर्झरों-सी झरती और लहरों से तरलायित कूलों पर कुसुमित सुमनों की अर्थ-सुवासित भाषा जयशंकर प्रसाद की लेखनी गाती है. जीवन के कठिन प्रस्तर में चिंगारी-सी चिलकती भाषा के साथ अज्ञेय हैं. आम्रमंजरियों के पगडंडियों पर बिखरे कणों-सी वासंती बाट जोहती धर्मवीर भारती की भाषा अंधायुग से निकलकर कनुप्रिया की असमाप्त प्रेमकथा कहती है. जीवन के अंतिम अरण्य में टहलते हुए निर्मल वर्मा की भाषा जीवन के प्रकृति-सत्य का उद्घाटन सहज ही कर जाती है.
शब्द अर्थ चाहते हैं. अपेक्षित अर्थ जीवन-सत्य में आकंठ डूबा हुआ साहित्य-सर्जक ही दे पाता है. जब इन शब्दों को अपने सही अर्थ मिल जाते हैं, तो मघा नक्षत्र में होने वाली वर्षा की तरह रचनाकार की अभिव्यक्ति जन-जन के मानस में झकोर पैदा करती है. हे मेरे युग के साहित्य-सर्जक! शब्द अपने खोये हुए अर्थों को पाने हेतु आतुर हैं. काश! इन्हें अपने खोये हुए अर्थ मिल पाते.
अप्रैल 2016