वाल्मीकि रामायण

Ramayan

कोनसप्ततितमः सर्गः

असृक्चन्दनद्गिधाङ्गं चारुपत्रं पतत्रिणम्।

दानवेद्राचलेद्राणामसुराणां च दारुणम्।।19।।

उसका सारा अंग रक्तरूपी चंदन से चर्चित था. पंख बड़े सुंदर थे. वह बाण दानवराजरूपी पर्वतराजों एवं असुरों के लिए बड़ा भयंकर था.

तं दीप्तमिव कालग्निं युगान्ते समुपस्थिते ।

दृष्ट्वा सर्वाणि भूतानि परित्रासमुपागमन्।।20।।

वह प्रलयकाल उपस्थित होने पर प्रज्वलित हुई कालाग्नि के समान उद्दीप्त हो रहा था. उसे देखकर समस्त प्राणी त्रस्त हो गये.

सदेवासुरगन्धर्वं मुनिभिः साप्सरोगणम्।

जगद्वि सर्वमस्वस्थं पितामहमुपस्थितम्।।21।।

देवता, असुर, गंधर्व, मुनि और अप्सराओं के साथ सारा जगत अस्वस्थ हो ब्रह्माजी के पास पहुंचा.

उवाच देवदेवेशं वरदं प्रपितामहम्।

देवानां भयसम्मोहो लोकानां संक्षयं प्रति।।22।।

जगत के उन सभी प्राणियों ने वर देने वाले देवदेवेश्वर प्रपितामह ब्रह्माजी से कहा– ‘भगवन्! समस्त लोकों के संहार-की सम्भावना से देवताओं पर भी भय और मोह छा गया है.

कच्चिल्लोकक्षयो देव सम्प्राप्तो वा युगक्षयः।

नेदृशं दृष्टपूर्वं च न श्रुतं प्रपितामह।।23।।

‘देव! कहीं लोकों का संहार तो नहीं होगा अथवा प्रलय काल तो नहीं आ पहुंचा है? प्रपितामह! संसार की ऐसी अवस्था न तो पहले कभी देखी गयी थी और न सुनने में ही आयी थी.’

तेषां तद् वचनं श्रुत्वा ब्रह्मा लोकपितामहः।

भयकारणमयाचष्ट देवानामभयंकरः ।।24।।

उनकी यह बात सुनकर देवताओं का भय दूर करने वाले लोकपितामह ब्रह्मा ने प्रस्तुत भय का कारण बताते हुए कहा.

उवाच मधुरां वाणीं श्रृणुध्वं सर्वदेवताः।

वधाय लवणस्याजौ शरः शत्रुघ्नधारितः।।25।।

तेजसा तस्य सम्मूढाः सर्वे स्मः सुरसत्तमाः।

वे मधुर वाणी में बोले- ‘सम्पूर्ण देवताओ! मेरी बात सुनो. आज शत्रुघ्न ने युद्धस्थल में लवणासुर का वध करने के लिये जो बाण हाथ में लिया है, उसी के तेज से हम सब लोग मोहित हो रहे हैं. ये श्रेष्ठ देवता भी उसी से घबराये हुए हैं.

एष पूर्वस्य देवस्य लोककर्तुः सनातनः।।26।।

शरस्तेजोमयो वत्सा येन वै भयमागतम्।

‘पुत्रो! यह तेजोमय सनातन बाण आदिपुरुष लोककर्ता भगवान् विष्णु का है. जिससे तुम्हें भय प्राप्त हुआ है.

एष  वै कैटभस्यार्थे मधुनश्च महाशरः।।27।।

सृष्टो महात्मना तेन वधार्थे दैत्ययोस्तयोः।

‘परमात्मा श्रीहरि ने मधु और कैटभ- इन दोनों दैत्यों का वध करने के लिए इस महान बाण की सृष्टि की थी.

एक एव प्रजानाति विष्णुस्तेजोमयं शरम्।।28।।

एषा एव तनुः पूर्वा विष्णोस्तस्य महात्मनः।

‘एकमात्र भगवान विष्णु ही इस तेजोमय बाण को जानते हैं; क्योंकि यह बाण साक्षात परमात्मा विष्णु की ही प्राचीन मूर्ति है.

इतो गच्छत पश्यध्वं वध्यमानं महात्मना।।29।।

रामानुजेन वीरेण लवणं राक्षसोत्तमम्।

‘अब तुम लोग यहां से जाओ और श्रीरामचंद्रजी के छोटे भाई महामनस्वी वीर शत्रुघ्न के हाथ से राक्षसप्रवर लवणासुर का वध होता देखो.’

तस्य ते देवदेवस्य निशम्य वचनं सुराः।।30।।

आजग्मुर्यत्र युध्येते शत्रुघ्नलवणावुभौ।

देवाधिदेव ब्रह्माजी का यह वचन सुनकर देवता लोग उस स्थान पर आये, जहां शत्रुघ्नजी और लवणासुर दोनों का युद्ध हो रहा था.

तं शरं दिव्यसंकाशन शत्रुघ्नकरधारितम्।।31।।

ददृशुः सर्वभूतानि युगान्ताग्निमिवोत्थितम्।

शत्रुघ्नजी के द्वारा हाथ में लिये गये उस दिव्य बाण को सभी प्राणियों ने देखा. वह प्रलयकाल के अग्नि के समान प्रज्वलित हो रहा था.

आकाशमावृतं दृष्ट्वा देवैर्हि रघुनन्दनः।।32।।

सिंहनादं भृशं कृत्वा ददर्श लवणं पुनः।

आकाश को देवताओं से भरा हुआ देख रघुकुलनंदन शत्रुघ्न ने बड़े ज़ोर-से सिंहनाद करके लवणासुर की ओर देखा.

आइतश्च पुनस्तेन शत्रुघ्नेन महात्मना।।33।।

लवणः क्रोधसंयुक्तो युद्धाय समुपस्थितः।

महात्मा शत्रुघ्न के पुनः ललकारने पर लवणासुर क्रोध से भर गया और फिर युद्ध के लिए उनके सामने आया.

आकर्णात् स विकृष्याथ तद् धनुर्धन्विनां वरः।।34।।

स मुमोच महाबाणं लवणस्य महोरसि।

तब धनुर्धरों में श्रेष्ठ शत्रुघ्नजी ने अपने धनुष को कान तक खींचकर उस महाबाण को लवणासुर के विशाल वक्ष-स्थल पर चलाया.

उरस्तस्य विदार्याशु प्रविवेश रसातलम्।।35।।

गत्वा रसातलं दिव्यः शरो विबुधपूजितः।

पुनरेवागमत् तूर्णमिक्ष्वाकुकुलनन्दनम्।।36।।

वह देवपूजित दिव्य बाण तुरंत ही उस राक्षस के हृदय को विदीर्ण करके रसातल में घुस गया तथा रसातल में जाकर वह फिर तत्काल ही इक्ष्वाकुकुलनंदन शत्रुघ्नजी के पास आ गया.

शत्रुघ्नशरनिर्भिन्नो लवणः स निशाचरः।

पपात सहसा भूमौ वज्राहत इवाचलः।।37।।

शत्रुघ्नजी के बाण से विदीर्ण होकर निशाचर लवण वज्र के मारे हुए पर्वत के समान सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ा.

तच्च शूलं महद् दिव्यं हते लवणराक्षसे ।

पश्यतां सर्वदेवानां रुद्रस्य वशमन्वगात्।।38।।

लवणासुर के मारे जाते ही वह दिव्य एवं महान शूल सब देवताओं के देखते-देखते भगवान रुद्र के पास आ गया.

एकेषुपातेन भयं निपात्य, लोकत्रयस्यास्य रघुप्रवीरः।

विनिर्बभावुत्तमचापबाण- स्तमः प्रणुद्येव सहस्ररश्मिः।।39।।

इस प्रकार उत्तम धनुष-बाण धारण करने वाले रघुकुल के प्रमुख वीर शत्रुघ्न एक ही बाण के प्रहार से तीनों लोकों के भय को नष्ट करके उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे त्रिभुवन का अंधकार दूर करके सहस्र किरणधारी सूर्यदेव प्रकाशित हो उठते हैं.

ततो हि देवा ऋषिपन्नगाश्च। प्रपूजिरे ह्यप्सरसश्च सर्वाः।

दिष्टया जयो दाशरथेरवाप्त- स्त्यक्त्वा भयं सर्प इव प्रशान्तः।।40।।

‘सौभाग्य की बात है कि दशरथनंदन शत्रुघ्न ने भय छोड़कर विजय प्राप्त की और सर्प के समान लवणासुर मर गया’ ऐसा कहकर देवता, ऋषि, नाग और समस्त अप्सराएं उस समय शत्रुघ्नजी की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगीं.

(जनवरी 2014)

 

 

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