लैला खालिद – विमान हरण की विशेषज्ञ

♦   चारुमित्रा      

      एक लैला वह थी, जिस पर फिदा होकर मजनूं मियां दिवाने हो गये थे और जिसके किस्से पूरब के लोगों ने बहुत सुने हैं. फिलस्तीन के हैफा नगर में अप्रैल 1944 के किसी दिन एक दूसरी लैला का जन्म हुआ. इस लैला की विशेषता यह है कि यह लैला खुद फिदा है, मगर मजनूं पर नहीं, फिलस्तीन पर. इसका पूरा नाम है लैला खालिद. लेकिन इसके साथ इसे शादिया अबू-गजली भी कहते हैं.

     शादिया भी फिलस्तीन पर फिदा थी और फिदाई में गेरिल्ला सैनिक बन गयी थी. वह 21 बरस की उम्र में अक्टूबर 1968 में यहूदियों की गोलियों से मर गयी थी. लैला खालिद ने अपने असली व्यक्तित्व को छिपाने के लिए अपना नाम तो शादिया रख ही लिया, उसके व्यक्तित्व को भी पूरी तरह ओढ़ लिया, मानो वह शादिया के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना और उसे अमर बनाये रखना चाहती हो.

     लैला खालिद फिलस्तीनी अरबों के फिदाईन संगठन में गेरिल्ला सैनिक है और दुनिया ने उसका नाम तब जाना, जब 6 सितंबर 1970 को वह एक विमान भगाने की कोशिश में नाकाम होकर इंग्लैंड में पकड़ी गयी और उसके पीछे उसके साथियों ने कई अमेरिकी विमानों को भगाकर उनके यात्रियों को पकड़ लिया और वे लैला की रिहाई की शर्त लगाकर बैठ गये.

     जी हां, यह 26 वर्षीय सुंदरी विमानदस्यु है. यह हवाई-जहाजों को भगा लेती है. इसने पहला विमान पिछले साल 29 अगस्त को भगाया था. लैला यह खतरनाक काम क्यों करती है और वह विमानदस्यु क्यों बन गयी है? यह एक कहानी है.

     लैला खालिद की कहानी मार्च 1948 से शुरू होती है. उस समय वह केवल चार बरस की थी. यह वह समय था जब फिलस्तीन प्रदेश में इजरायल के नये यहूदी राज्य की स्थापना की गयी थी. लैला का परिवार हैफा में रहता था. उसके पिता कोई मालदार आदमी तो नहीं थे, लेकिन उनका अपना मकान था और चंद दुकानें, जिनके किराये से कुछ आमदनी होती थी. पिता कपड़ा बेचते और एक छोटा-सा कहवा-घर चलाते थे. इजरायल की स्थापना होते ही अरबों और यहूदियों में झगड़े-फसाद शुरू हो गये. लैला कहती है- ‘मुझे वह दिन याद आता है, जब हमारे घर की सीढ़ी के नीचे एक आदमी पड़ा था, उसके चेहरे से खून बह रहा था. मां कहती है कि वह वहीं मर गया. वह उन्हीं दंगों का शिकार था.’

     उस दिन लैला के पिता घर पर नहीं थे. उसकी मां समझ गयी थी कि अब ज्यादा दिन फिलस्तीन में नहीं रहा जा सकता. आस-पास के अरब मुसलमान अपना सामान लेकर फिलस्तीन से भाग रहे थे. लैला की मां ने भी अपना सामान बांध-जोड़कर तैयार कर लिया. पिता घर लौटे तो यह माजरा देखकर हैरान रह गये. उन्होंने अपना फैसला सुना दिया कि हम अपना घर छोड़कर कहीं नहीं जायेंगे. लेकिन मां अपने बच्चों को लेकर निकल पड़ी, क्योंकि सड़कों पर दंगे फैलते जा रहे थे.

     फिलस्तीन से चलकर लैला का परिवार लेबनान पहुंचा. लेबनान के समुद्र-वर्ती नगर टायर में ही उसकी मां का जन्म हुआ था. वहां मां के एक चाचा रहते थे. पूरे एक साल तक वे दरिद्रों की तरह उन्हीं के पास रहे. उसके बाद उन्होंने दो कमरे का एक अलग मकान किराये पर ले लिया, जिसमें वे सोलह वर्ष रहे. फिलस्तीन में अराजकता मची हुई थी. वहां से खदेड़े गये लोगों के परिवार टूट गये थे.

     लैला के पिता का काफी समय तक कोई पता नहीं चला. परिवार ने मान लिया था कि उनकी मृत्यु हो चुकी है. लेकिन वे फिलस्तीन से मिस्र जा पहुंचे थे. जब वे परिवार से मिले, तब उन्हें दिल की बीमारी और रक्तचाप की शिकायत थी. उन्हें अपने घर और रोजगार के छूटने का बेहद गम था. 1966 में उनका देहांत हो गया. उस समय तक परिवार में बच्चों की संख्या आठ से बढ़कर 14 हो गयी थी.

     इस काफी बड़े परिवार को पालने के लिए आय का कोई साधन नहीं था. लैला की मां के चाचा उन्हें सौ लेबनानी पौंड यानी केवल 234 रुपये हर महीने भेजते थे. इतने में गुजर नहीं होती थी, इसलिए मजबूर होकर लैला की मां ने परिवार के सदस्यों के नाम शरणाथिर्यों की सूची में लिखवाये और घर में ‘संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी कल्याण संघटन’ की ओर से मुफ्त बांटा जाने वाला राशन आने लगा. लैला ने जब यह देखा तो उसके मन पर इस सब की बहुत गहरी प्रतिक्रिया हुई. वह खुद कतार में खड़ी होकर टिनों और बोरों में राशन लाती थी. उसे लगता, मानो यह राशन लेना भीख लेने की तरह है और वह गैरत के मारे उदास हो जाती.

     उसे यह गैरत 1957 तक उठानी पड़ी- पूरे नौ बरस. उस समय लैला 13 साल की थी. उस साल उसकी दो बहनें स्कूल में पढ़ाने लगीं और उनके घर का राशन बंद कर दिया गया. इससे कठिनाई तो हुई, मगर दान-दया के बजाय अपने पांवों पर खड़े होने का गौरव भी मन में जागा.

     संयुक्त राष्ट्रसंघ की ओर से स्कूल भी खोले गये. लैला स्कूल जाने लगी. पहले तो टायर में ही और बाद में वजीफा लेकर पास के नगर सिदौन के अमरीकी मिशनरी स्कूल में. वहां की पढ़ाई पूरी करने के बाद उसे फिर एक वजीफा मिल गया और वह बेरुत के अमरीकी विश्वविद्यालय में भरती हो गयी. वह फार्मेसी-विज्ञान का अध्ययन करना चाहती थी, लेकिन वजीफे की रकम बहुत कम थी और एक साल बाद लैला को पढ़ाई बंद करके घर लौट आना पड़ा. वह कहती है- ‘इस तरह पढ़ाई का छूट जाना, मेरे जीवन की सबसे बड़ी निराशा थी.’

     इस निराशा से उबरने पर लैला कुवैत चली गयी और वहां एक स्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ाने लगी. यह काम उसने छह साल तक किया. अध्यापन में उसकी रुचि नहीं थी, लेकिन परिवार को पालने के लिए उसे यह काम करना पड़ा. जब उसके दो भाई शिक्षा पूरी करके नौकरी करने लगे, तो लैला ने नौकरी छोड़ दी. उसका एक भाई फिदाईन संघटन में सक्रिय कार्यकर्ता था. लैला भी उसके साथ जुट गयी.

     यों तो वह जब सोलह बरस की हुई, तभी गुप्त रूप से फिदाईन बन गयी थी, अब वह पूरे समय फिदाईन संघटन में काम करने लगी. उसके बड़े भाई-बहन भी फिदाईन बन चुके थे और उसने उनके साथ बैठकर फिलस्तीन अरबों की मुक्ति, फिलस्तीन वापसी और गुप्त संघटन तथा अपने लक्ष्य सिद्ध करने के मुद्दे पर बहुत बार चर्चा की थी. वह कहती है कि फिलस्तीन अरब कभी भी किसी दूसरे अरब देश में वह अपनापन महसूस नहीं कर सकते, जो उन्हें अपने देश में महसूस हो सकता है.

     एक साल के प्रशिक्षण के बाद लैला को विमान का काम सौंपा गया और वह बाकायदा विमानदस्यु बन गयी. उसे फिदाईन के ‘चे ग्वेवारा स्ते’ में शामिल कर लिया गया. एक दिन आदेश मिला- ‘अमरीकी कम्पनी ट्रांस-वर्ल्ड एयर लाइन्स की रोम से एथेंस नंबर की 840 उड़ान के बोइंग 707 को भगाकर सीरिया के दमिश्क हवाई अड्डे पर उतारो.’ इस काम में उसकी मदद के लिए एक अन्य फिदाईन को तैनात किया गया, जिसे उसने कभी पहले नहीं देखा था. मगर उसके पास अपने साथी की तस्वीर थी, जिसके आधार पर वह उसे रोम के हवाई अड्डे पर पहचान सकती थी. अपने इस मिशन को पूरा करने के लिए लैला रोम आ पहुंची.

     उड़ान में आधे घंटे का विलंब हो गया था. लैला हवाई अड्डे पर बने मुसाफिरखाने में बैठी थी. उसे अपने साथी की भी तलाश थी. वह आ गया और दोनों ने संकेत द्वारा एक दूसरे को पहचाना, लेकिन बातचीत नहीं की. इतने में ही एक अमरीकी महिला अपने चार बच्चों को लेकर वहां पहुंची और लैला के पास बैठ गयी. उसे देककर लैला सहम गयी.

     वह कहती है- ‘मुझे बच्चों से बहुत प्यार है. उन बच्चों को देखर मेंने सोचा कि यदि कुछ हो गया, तो इन बच्चों को कभी घर नसीब नहीं होगा. लेकिन उसी समय मुझे फिलस्तीनी अरबों के बच्चों का खयाल आ गया और उनके अनिश्चित भविष्य की कल्पना ने मुझे अपना मिशन पूरा करने की शक्ति दी.’

     आखिर बस आ गयी और लैला दूसरे मुसाफिरों के साथ विमान तक पहुंचने के लिए उस पर चढ़ी. उसके पास वाली सीट पर एक यूनानी तरुण बैठा था. दोनों में परिचय हुआ. लैला ने कहा कि मैं बोलिलिया की रहने वाली हूं. उस तरुण ने लैला को बताया कि मेरी विधवा मां एथेंस के हवाई अड्डे पर मेरी अगवानी करेगी. यह सुनना था कि लैला के मन में फिर से भावुकता का ज्वार उठा, उसे खयाल आया कि मेरी मां भी विधवा है और वह भी घर पे मेरी राह देख रही होगी. मगर लैला ने जी कड़ा कर लिया.

     लैला और उसके साथ के पास पहले दर्जे का टिकट था, इसलिए वे दोनों आगे जाकर बैठे- चालक के कैबिन के पास. उस दर्जे में तीन मुसाफिर और थे. ये दोनों कैबिन के दरवाजे के करीब बैठे. परिचारिकाओं ने खातिर शुरू की. लैला को यह डर था कि अगर हमारे सामने खाने की ट्रे आ गयी, तो हमें उठने और कैबिन में घुसने में दिक्कत होगी. वे दोनों इस इंतज़ार में थे कि कोई परिचारिका खोले, तो हम भी उसमें घुस जायें और हथियार दिखाकर विमान-चालक को काबू में कर लें.

     दोनों ने बीमारी का बहाना बनाकर खाने की मनाही कर दी, मगर परिचारिकाएं उनके लिए उक बड़ी-सी ट्राली में फल और बिस्कुट ले आयीं. वे लोग बहुत परेशान हुए. इन्हें आदेश मिला था कि उड़ान के आधा घंटे बाद तुम्हें अपना काम तीस मिनिट के भीतर पूरा करना है, क्योंकि रोम से एथेंस की उड़ान कुल डेढ़ घंटे की ही तो है. ये लोग परिचारिका को ट्राली हटाने के लिए कहना नहीं चाहते थे, क्योंकि उससे शक पैदा होने का डर था. बहरहाल ट्राली समय रहते ही हटा ली गयी और कैबिन के दरवाजे के पास बैठा एक दूसरा मुसाफिर भी वहां से उठकर चला गया.

     लैला ने तबीयत खराब होने का बहाना बनाकर कंबल मांगा, उसके नीचे हाथ डालकर थेले में से पिस्तौल निकाली और पैंट  के ऊपर भाग में खोंसी ली. उसके बाद उसने साथी को पांच उंगलियां दिखायी. यह इशारा था कि बस पांच मिनट के भीतर हम अपना काम शुरू कर देंगे.

     इतने में ही एक परिचारिका चालक के कैबिन में से ट्रे लेकर आयी. उसने अपनी कुहनी से दरवाजा बाहर की तरफ खोला और बाहर निकलने की कोशिश करने लगी. लैला ने इस अवसर का लाभ उठाया. उसका साथी झट से उठा, उसके एक हाथ में हथगोला था और दूसरे में पिस्तौल. उसने परिचारिका को एक ओर किया और कैबिन में घुस गया. परिचारिका ने पिस्तौल देखी तो मारे डर के ट्रे नीचे फेंक दी और चिल्लायी- ‘नहीं-नहीं!’

     लैला मुसाफिरों की ओर मुंह करके खड़ी हो गयी, उसके हाथ में हथगोला था और दूसरे में पिस्तौल. लैला का साथी विमान-चालक के पीछे जा खड़ा हुआ और बोला- ‘हिलो-डुलो मत, अब तुम्हें नये कप्तान का आदेश सुनना है.’ चालक ने घबराकर रेडियो पर संदेश प्रसारित किया- ‘दो सशस्र व्यक्ति कैबिन में घुस आये हैं और यह विमान भगाने का मामला है.’ फिर वह पीछे मुड़ा और उसने लैला को देखा.

     अब लैला भी चालक के पास जा पहुंची और उससे बोली- ‘मैं इस विमान की नयी कप्तान हूं.’ उसने हथगोले में से सुरक्षा-पिन निकाली कहा- ‘लो, इसे अपने पास यादगार के तौर पर रख लो.’ फिर उसने हथगोला चालक की नाक की ओर बढ़ाया और धमकाकर बोली- ‘यदि तुम मेरे आदेश का पालन नहीं करोगे, तो मैं इस हथगोले का इस्तेमाल करूंगी, जिसका नतीजा यह होगा कि यह विमान और इसके सब यात्री समाप्त हो जायेंगे.’

     अब चालक ने स्थिति की गम्भीरता को समझा और लैला से पूछा- ‘आप चाहती क्या हैं?’ लैला ने तुरंत उत्तर दिया- ‘सीधे लिद्दा चलो.’ लिद्दा इजरायल में है. अरब विमान-दस्यु विमान को भगाकर वहां क्यों ले जायेंगे? यह सोचकर सहचालक ने लैला से पूछा कि क्या सचमुच हमें लिद्दा जाना होगा. लैला ने कड़ककर उससे पूछा- ‘तुम अंग्रेज़ी समझते हो न?’ आदेश के बाद दोनों विमानदस्यु चालक की सीट के ठीक पीछे बैंठ गये.

     विमान-चालकों को यह जताने के लिए कि बोइंग-707 की पूरी जानकार है, उसने उड़ान-इंजीनियर से पूछा- ‘हमारे पास कितने उड़ान-घंटों का ईंधन है?’ जवाब मिला- दो घंटे की उड़ान का. लैला ने ईंधन सूचक सूई की ओर इशारा करते हुए रौब जमाया- ‘तुम झूठ बोलते हो! अगली बार यदि तुमने मुझसे झूठ बोला, तो मैं तुम्हारी गर्दन तोड़ दूंगी.’ वह बेचारा सारे रास्ते खामोश बैठा रहा.

     इधर से निपटकर लैला मुसाफिरों की ओर मुड़ी. उसने कहा- ‘मैं आपकी नयी कप्तान बोल रही हूं. आप अपनी पेटियों को मजबूती से कस लें, ट्रांस-वर्ल्ड एयर-लाइंस की इस उड़ान की कमान फिलस्तीन मुक्ति जनमोर्चे के चे ग्वेवारा कमांडो दस्ते ने सम्भाल ली है. आपको आदेश दिया जाता है कि आप निम्न हिदायतों का पालन करें- बैठे रहिये, और शांत रहिये, ऐसी कोई हरकत मत कीजिये, जिससे विमान में उपस्थित किसी अन्य यात्री की जान को खतरा पैदा हो जाये, अपनी सुरक्षा की खातिर अपने हाथ सिर के पीछे रख लीजिये. हम अपनी योजनाओं की सीमा के भीतर आपकी सभी मांगों पर विचार करेंगे.’

     वास्तव में फिलस्तीन गेरिल्लों को यह बताया गया था कि इजरायल का भूतपूर्व सेनाध्यक्ष जनरल रेबिन उस विमान से यात्रा कर रहा है, मगर जनरल रेबिन अपनी यात्रा स्थगित कर चुका था. वह विमान में नहीं था.

     इस सब व्यवस्था के बाद लैला ने अपना नया मार्ग-चित्र चालक को दे दिया और विमान एथेंस और निकोसिया पर से ले जाने के बजाय यूनान के समुद्र-तट पर से सीधे नीचे उतारकर क्रीट और वहां से लिद्दा की ओर मोड़ दिया गया. विमान सागर-तल से तैंतिस हजार फुट कि ऊंचाई पर चला जा रहा था. चालक विमान को दक्षिण-पश्चिम की दिशा में लीबिया के अमरीकी अड्डे त्रिपोली की ओर ले जाने की कोशिश करने लगा, तो लैला ने कुतुबनुमा से पता लगा लिया और चालक को रस्ता बताना शुरू कर दिया.

     उधर मुसाफिर 15 मिनिट तक हाथ सिर के पीछे बांधे बैठे रहे, लैला का ध्यान उनकी ओर गया ही नहीं. जब उसके साथी ने उसका ध्यान इस ओर दिलाया, तो उसने मुसाफिरों से क्षमा मांगी और परिचारिकाओं को आदेश दिया कि मुसाफिरों को खाने-पीने की सामग्री दी जाये.

     चालकों ने लैला के बारे में कुछ भी जानने की उत्सुकता नहीं दिखायी, न उसके हाथ से सिगरेट ही कबूल की. मुख्य चालक बार-बार पीछे मुड़ता और लैला को देखकर इस तरह गर्दन हिलाता, मानो उसे यकीन ही न हो रहा हो कि कोई लड़की भी विमानदस्यु हो सकती है. लैला बार-बार चालक की बगल में हाथ डालती और अपने हथगोले से उसका कंधा थपथपा देती. चालक घबरा जाता. सबसे मजेदार घटना यह हुई कि सह-चालक ने बिलकुल प्राइमरी स्कूल के बच्चे की तरह उठकर लैला से पूछा- ‘क्या मैं शौचालय जा सकता हूं?’

     विमान इटली, यूनान, मिस्र, लेबनान और सीरिया पर होकर उड़ता जा रहा था. लैला रास्ते-भर इन देशों के नागरिकों से यह अपील करती रही कि आप फिलस्तीनी जनता के न्यायपूर्ण संघर्ष में हमारा साथ दें. वह यात्रियों को भी यह समझाती गयी कि हम इजरायल की आय के स्रोत मिटा देना चाहते हैं, आप अपने मित्रों से कहिये कि वे पर्यटन के लिए इजरायल न जायें. हम लोग इजरायल लौट जाना चाहते हैं, हम यहूदियों के साथ रह चुके हैं. हम यहूदियों के नहीं, यहूदीवाद के विरुद्ध हैं.

     मिस्र पर उड़ान लेते समय काहिरा हवाई अड्डे ने लैला से पूछा कि तुम इजरायल क्यों जा रही हो? लैला ने जवाब दिया कि हम उसे मुक्त कराने के लिए वहां जा रहे हैं. मगर अब इजरायल दूर न था. लिद्दा का आकाश साफ था और विमान ने उतरना शुरू किया.

     लैला को मालूम था कि विमान को यहां उतारना नहीं है, लेकिन वह शत्रु को बता देना चाहती थी कि फिलस्तीनियों में इतना साहस है कि वे उसके नगरों पर उड़ान भर सकते हैं. लेकिन इजरायल के लोग भी बहुत प्रतिशोध-प्रिय हैं. उन्होंने कुछ मिराज लड़ाकू विमान तुरंत भेज दिये, जिन्होंने लैला का विमान घेर लिया. फिर भी लैला का विमान पूरे सात मिनिट तक मंडराता रहा. इसके बाद लैला लिद्दा से आगे चल पड़ी.

     चंद मिनट बाद लैला के जीवन की एक बड़ी साध पूरी होने की घड़ी आ गयी. उसका विमान हैफा के ऊपर था. वह भावातिरेक में चिल्लायी- ‘यह मेरा नगर है,  इसे अच्छी तरह देख लो. मैं यहीं पैदा हुई थी.’ उसने नक्शा देखकर अपना घर पहचानने की कोशिश की, लेकिन इतने में ही विमान हैफा का आकाश पार कर गया.

     जब विमान ने लेबनान की सीमा पार करके सीरिया के आकाश में प्रवेश किया तो इजरायल के मिराज विमानों ने उसका पीछा करना बंद कर दिया और वे लिद्दा लौट गये. लैला ने तुरंत दमिश्क हावाई अड्डे के साथ सम्पर्क स्थापित किया और अरबी में कहा कि हम यहां उतर रहे हैं. उसने यात्रियों से कहा कि आप विमान के रुकते ही उतर जायें, क्योंकि हम विमान को तुरंत नष्ट कर देंगे.

     शाम को 5 बजकर 35 मिनिट पर विमान दमिश्क हवाई अड्डे पर पहुंचा. उस समय लैला खालिद और चालक के बीच बहुत मजेदार संवाद हुआ-

     लैला- ज्यों ही जहाज भूमि का स्पर्श करे, तुम इंजन बंद कर देना.

     चालक- यह सम्भव नहीं है.

     लैला- तुम्हारे लिए यह सम्भव नहीं है, तो कोई बात नहीं, मैं इस काम को बखूबी कर सकती हूं, और देखो ब्रेक तेजी से मत लगाना, वरना मेरा हथगोला गिरकर फट जायेगा.

     चालक डर गया और उसने विमान को धीमे से उतारा.

     विमान के रुकते ही लैला ने मुसाफिरों से कहा कि आप लोग फौरन विमान खाली कर दीजिये. यह सुनना था कि मुसाफिरों में भगदड़ मच गयी और वे हर सम्भव रास्ते से बाहर भागे. उसके बाद लैला खालिद और उसके साथी ने अपने हथगोलों से विमान उड़ा दिया. विमान में से लपटें उठने लगीं. यात्रियों तथा कर्मचारियों में से किसी को भी किसी प्रकार की चोट नहीं आयी.

     लैला जब मुसाफिरों के बीच से गुजरी, तो यूनानी तरुण ने बहुत बेपनाह निगाह से उसकी ओर देखा. लैला उसकी मजबूरी समझ गयी. बोली- ‘मैं अभी तुम्हारी मां को समुद्री तार भिजवाती हूं कि वे परेशान न हों.’  फिर उसने अन्य यात्रियों से कहा- ‘आप लोग हमें अपराधी और दस्यु समझते होंगे, लेकिन हम हरगिज वैसे नहीं हैं. हम तो अपने देश और उसकी आजादी के लिए लड़ रहे हैं.’

     यह किस्सा तो यहीं खत्म हो गया और लैला सोचने लगी कि मालूम नहीं मुझे विमान-अपहरण का कोई दूसरा मौका मिलेगा या नहीं. वह उपने जन्मस्थान हैफा के ऊपर से दुबारा उड़कर अपने घर का सही-सही पता लगाना चाहती थी. उसके मन में मातृभूमि के दर्शनों की बहुत तीव्र लालसा थी.

     लैला की एक इच्छा तो पूरी हो गयी कि उसे एक अन्य विमान के अपहरण का अवसर जल्दी ही मिल गया, लेकिन उसकी दूसरी इच्छा पूरी नहीं हो सकी कि वह उस विमान की नयी कप्तान बनकर हैफा पर से उड़ान भर सके.

     6 सितंबर 1970 की बात है. उस रोज रविवार था. तीसरे पहर के समय लैला खालिद और उसका एक साथी हालैंड की राजधानी एमस्टरडम के हवाई अड्डे पर इजरायली विमान-कम्पनी ‘एल अल’ की उड़ान नं. 219 के बोइंग-707 पर चढ़े. उन्हें पूरी उम्मीद थी कि उनके तीन अन्य साथी उन्हें विमान में ही मिलेंगे. मगर ‘एल अल’ के सुरक्षा-अधिकारियों ने उन तीनों को संदिग्ध मानकर पहले ही विमान पर चढ़ने से रोक दिया था.

     लैला ने जब यह देखा कि विमान पर उसका एक ही साथी है, तो वह पहले तो बहुत परेशान हुई, लेकिन वह कोई मामूली हौसले की लड़की नहीं है. उसने जल्दी ही स्थिति की गम्भीरता को भांप लिया और यह फैसला कर लिया कि इस बार भी मैं केवल एक साथी की मदद से यह काम करूंगी.

     विमान के आकाश में पहुंचते ही लैला और उसका साथी युद्ध की ललकार देते हुए अपनी सीटों पर से उठे. लैला ने हथगोले सम्भाल रखे थे तथा उसके साथी के पास बंदूक थी. दोनों गेरिल्ले विमान-चालक के कैबिन की तरफ लपके. इसी समय उनकी मुठभेड़ एक परिचारक और एक सुरक्षा-अधिकारी से हो गयी. चालक ने विमान को ऐसी तजी से झटका दिया कि लैला और उसका साथी संतुलन खो बैठे. ठीक इसी समय यात्रियों ने लैला को धर दबोचा और नेकटाइयां निकालकर उसे बांध दिया.

     इजरायली सुरक्षा-अधिकारी ने पहले तो लैला के साथी के हाथ से बंदूक छीनने के लिए हाथपाई की, लेकिन बाद में उसे गोली मार दी, जिससे वह फौरन ढेर हो गया. लैला के साथी ने भी मरने से पहले कुछ गोलियां चलायीं, जिनमें से एक तो परिचारक के पेट में लगी और दूसरी चालक के पांव में. कुछ अन्य लोग भी घायल हुए.

     अब चालक ने निश्ंिचत होकर विमान को लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर उतारा वहां पुलिस ने लैला को गिरफ्तार कर लिया और उसके साथी का शव भी अपने कब्जे में कर लिया. इस बार फिलस्तीनी गेरिल्लों ने एक साथ कई विमानों का अपहरण करने की योजना तैयार की थी. लैला की गिरफ्तारी के कोई पौने घंटे बाद जर्मनी के फ्रैंकफुर्त नगर से रवाना होने वाली ट्रांस-वर्ल्ड एयर लाइंस की उड़ान नं.741 के विमान बोइंग-707 को उत्तरी सागर पर गेरिल्लों ने अपने कब्जे में ले लिया.

     लगभग इसी समय फिलस्तीनी अरबी गेरिल्लों ने स्विट्जरलैंड की कम्पनी स्विसएयर के डी.सी. 8 विमान का फ्रांस के आकाश में अपहरण कर लिया. वह विमान जूरिख से न्यूयार्क जा रहा था. अपहरण-कर्त्ताओं की सरदार एक लड़की थी. अपहरण करने के पश्चात उसने संदेश प्रसारित किया- ‘स्विस-एयर उड़ान-100 पूरी तरह हमारे नियंत्रण में है. हमारा संकेत-चिह्न हैफा-1 है.’ उधर अमरीकी विमान के अपहरणकर्ताओं ने 741 वीं उड़ान के विमान का संकेत-चिह्न गाजा-1 बताया.

     हैफा-1 और गाजा-1 जोर्डन की राजधानी अम्मान के 25 मील उत्तर-पूर्व में डाउसन हवाई-पटरी कीओर बढ़ चले. इस पटरी का निमार्ण अंग्रेज़ों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अपने उपयोग के लिए किया था. रात घिर आयी थी. पहली गाजा-1 उतरा. उसका मार्गदर्शन पटरी पर चल रही एक जीप की रोशनी ने किया. इस पटरी पर इससे पहले इतना भारी विमान नहीं उतरा था. गाजा-1 का वजन करीब नौ सौ क्विंटल था. विमान के चालक वुड ने विमान को बहुत कुशलता से उतारा. चालीस  मिनिट बाद हैफा-1 विमान भी उतरा और गाजा-1 विमान से केवल पचास गज की दूरी पर रुका.

     लैला के जो तीन साथी एमस्टरटम में ही छूट गये थे, वे चुप बैठने वाले न थे. उन्होंने पैन-अमरीकन कम्पनी  की उड़ान नं.93 के क्लिपर-747 में प्रथम श्रेणी के टिकट खरीद लिये और उस पर सवार हो गये. ज्यों ही विमान उड़ान भरने को हुआ, त्यों ही ‘एल अल’ के अधिकारियों की चेतावनी गूंज उठी कि जिन तीन यात्रियों को हमने शंकावश अपने विमान से उतार लिया था वे, 93 वीं उड़ान में यात्रा कर रहे हैं और हो सकता है कि वे विमान का अपहरण कर लें.

     विमान के कप्तान जैक प्रिडो ने जब यह सुना, तो वह विमान रोककर यात्रियों के कक्ष में पहुंचा और उसने लैला के तीनों साथियों के शरीर तथा सामान की पूरी तलाशी ली, मगर उसे कुछ आपत्तिजनक सामग्री न मिली. इतना ही नहीं, वे शरीफ लोगों की तरह विमान से उतरने के लिए तैयार हो गये. यह देखकर प्रिडो को लगा कि ‘एल अल’ की शंका निर्मूल है और उसने उन तीनों यात्रियों को लेकर उड़ान भरी.

     लैला के साथियों के पास शस्त्र थे, मगर तलाशी से पहले ही वे उन्हें अपनी सीटों में छिपा चुके थे और उन शस्त्राsं के बल पर वे 28,000 फुट की ऊंचाई से 2,500 क्विंटल भार वाले उस क्लिपर विमान का अपहरण करके उसे बेरुत ले गये और बेरुत से काहिरा, जहां उन्होंने विमान को बारूद से उड़ा दिया.

     इस तरह उस दिन लैला खालिद तो विमान का अपहरण न कर सकी, लेकिन फिलस्तीनी गेरिल्लों ने तीन अन्य विमानों का अपहरण कर लिया. उनके यात्रियों को कैद कर लिया गया, उन्हें रिहा करने की यह शर्त रखी गयी कि लैला खालिद तथा इजरायल, स्विट्जलैंड और यूरोप के अन्य देशों में बंदी बनाये गये अरबों को छोड़ दिया जाये. लेकिन मुश्किल यह थी कि इन बंदियों में ब्रिटिश नागरिकों की संख्या नगण्य थी. उधर ब्रिटिश सरकार का रुख बहुत कड़ा था और वह लैला की रिहाई के लिए किसी भी तरह तैयार न थी.

     फिलस्तीनी अरब गेरिल्लों के सामने इसके सिवा कोई रास्ता नहीं रह गया था कि वे लैला की रिहाई की सौदेबाजी में अपने हाथ मजबूत करने की खातिर किसी ब्रिटिश विमान का अपहरण करें. उन्होंने इसके लिए बहुत जल्दी योजना बना ली और 9 सितंबर को जब ब्रिटिश विमान-कम्पनी बी.ओ.ए.सी. का एक वी. सी-10 विमान बहरीन हवाई अड्डे से उड़ा, त्यों ही तीन फिलस्तीनी गेरिल्लों ने उसका अपहरण कर लिया.

     यह विमान उस दिन सवेरे बंबई के सांताक्रुज हवाई अड्डे से रवाना हुआ था और लंदन जा रहा था. बहरीन से चलते समय विमान पर यात्री और कर्मचारी मिलकर कुल 114 व्यक्ति थे, जिनमें से 14 अरब, 2 सिंहली और 19 भारतीय यात्री भी थे.

     यह विमान भी डाउसन हवाई पट्टी पर उतारा गया, जहां पहले से ही दो अन्य अपहृत विमान खड़े थे.

     अब डाउसन हवाई पटरी पर तीन विशाल विमान खड़े थे. लेकिन उनके यात्रियों को आपस में सम्पर्क स्थापित करने की अनुमति नहीं दी गयी थी. मुसाफिरों ने रात बेचैनी से बितायी. अगले दिन सवेरे उन्हें नीचे उतारा गया और विमान की सफाई की गयी. शाम के समय विमान के सिंहली, भारतीय और पाकिस्तानी यात्रियों को पहरे में जर्का पहुंचाया गया और वहां जोर्डन की सेना के हवाले कर दिया गया. सेना उन्हें सैनिक-क्लब ले गयी और वहां से 12 सितंबर को रात में अम्मान के इंटरकांटिनेंटल होटल में. बाहर जोर्डन की सेना और गुरिल्ला दस्तों के बीच घमासान युद्ध हो रहा था और भीतर तिल रखने की जगह न थी. बाद में इन लोगों को निकोसिया (साइप्रस) और वहां से लंदन ले जाया गया, जहां से वे भारत वापस आ गये.

     इस बीच स्विट्जरलैंड ने 7 सितंबर को फिलस्तीनी गेरिल्लों की मांग स्वीकार कर ली. देश की संघीय मंत्रि-परिषद ने चार घंटे की आपत्कालीन बैठक में यह निश्चय किया कि गत दिसंबर 1969 में जूरिख कैंटन न्यायालय ने जिन तीन फिलस्तीनी अरबों को ‘एल-अल बोइंग-720 बी’ पर गोली चलाने के अपराध में बारह-बारह वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया था, उन्हें रिहा कर दिया जायेगा. मंत्रि-परिषद ने अंतर्राष्ट्रीय रेडक्रास से प्रार्थना की कि वह फिलस्तीनी गेरिल्लों से इस बारे में बातचीत करें और स्विट्जरलैंड का विमान तथा उसके नागरिक वापस दिलायें.

     उसी दिन जर्मन सरकार ने भी घोषणा कर दी कि वह उन तीनों फिलस्तीनी अरब गेरिल्लों को रिहा कर देगी, जिन्हें फरवरी 1969 में ‘एल-अल’ हवाई कम्पनी की बस पर म्यनिख में हमला करने के अपराध में सजा देकर जर्मनी की जेलों में रखा गया था.

     दो शर्तें तो मान ली गयीं, लेकिन फिलस्तीनी गेरिल्ले इतने से संतुष्ट होने वाले न थे. उन्होंने घोषणा कर दी कि जब तक ब्रिटेन लैला को उसके साथी की लाश समेत अम्मान नहीं लौटा देता, वे विमानों और उनके यात्रियों को नहीं लौटायेंगे.

     गेरिल्लों ने धमकी दी कि यदि लैला खालिद को रिहा नहीं किया गया, तो वे यात्रियों समेत तीनों विमानों को बारूद से उड़ा देंगे. इस धमकी के बावजूद उन्होंने 7 सितंबर की रात को दोनों विमानों (तीसरे विमान का अपहरण 9 सितंबर को किया गया था) के 127 मुसाफिरों को रिहा कर दिया. इनमें अधिकांश स्त्रियां और बच्चे थे, बीस भारतीय भी.

     8 सितंबर को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री हीथ ने अपने मंत्रिमंडल की आपतकालीन बैठक बुलायी और इस प्रश्न पर विचार किया कि क्या फिलस्तीनियों के हाथों में पड़े हुए 180 व्यक्तियों की जान बचाने के लिए लैला खालिद की रिहाई की मांग मान ली जाये. उधर संयुक्त राष्ट्रसंघ के महामंत्री ऊतां ने विमानों के अपहरण की कठोर शब्दों में निंदा की. इस बीच रेडक्रास ने भगाये गये विमानों के यात्रियों के लिए भोजन आदि की व्यवस्था की और समझौते के लिए प्रयास शुरू कर दिये. अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी और स्विट्जरलैंड के राजनयिक प्रतिनिधि बर्न पहुंच गये और उन्होंने एक समाधान-समिति का निर्माण किया.

     गेरिल्लों ने विमानों के यहूदी यात्रियों की अलग सूची बना ली तथा यह ऐलान किया कि जब तक इजरायल फिलस्तीनी गेरिल्लों को नहीं छोड़ेगा, तब तक ये यहूदी बंदी रिहा नहीं किये जायेंगे. उधर इजरायल ने ब्रिटेन से कहा कि लैला खालिद ने इजरायली विमान भगाने की कोशिश की थी, जिसमें नाकाम रही, अतः उसे इजरायल के सुपुर्द किया जाना चाहिए, ताकि उस पर इजरायली अदालत में मुकदमा चलाया जा सके. येरुशलम के एक मजिस्ट्रेट ने लैला खालिद के विरुद्ध एक वारंट भी ज़ारी कर दिया, ताकि लैला को इजरायल लाने की मांग को बल मिल सके.

     9 सितंबर को ब्रिटिश विमान के अपहरण के बाद बंदियों की संख्या 300 से अधिक हो गयी, अतः संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा-परिषद की एक संकटकालीन बैठक बुलायी गयी, जिसमें गेरिल्लों से कहा गया कि वे चारों विमानों के यात्रियों को रिहा कर दें. गेरिल्ले इस ओर ध्यान देने के लिए बाध्य न थे, उन्होंने अपनी मांग को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा कि जब तक इजरायल प्रत्येक बंदी यहूदी-यात्री के बदले में सौ फिलस्तीनी गेरिल्लों को रिहा करने के लिए तैयार नहीं होगा, हम किसी के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे. ब्रिटेश ने यह मांग अस्वीकार कर दी और कहा कि हम लैला खालिद को इस शर्त पर ही रिहा कर सकते है ंकि फिलस्तीनी गेरिल्ले कर्मचारियों और यात्रियों समेत तीनों विमान सही सलामत लौटायें.

     ऐसा लगने लगा कि संकट गहरायेगा. 11 सितंबर को मालूम हुआ कि अमरीका और इजरायल सैनिक कारवाई के जरिये अपने नागरिकों को छुड़ाने की योजना पर गम्भीरता से सोच रहे हैं. यह देखकर फिलस्तीनी अरब गेरिल्लों ने रेडक्रास के प्रतिनिधियों को डाउनसन हवाई पटरी से खदेड़ दिया और मुसाफिरों को विमानों में बैठाकर पंखों के नीचे बारूद भर दी.

     सारे वातावरण में तनाव था और संसार भर के लोग नरमेध की इस सम्भावना से स्तंभित और क्षुब्ध थे. विमानों के भीतर बैठे हुए यात्रियों की स्थिति तो बलि के बकरे जैसी थी. उनका भविष्य अनिश्चित था और वे प्रत्येक क्षण मृत्यु की पदचाप सुन रहे थे. लेकिन मौत उलटे पांव लौट गयी और फिलस्तीनी गेरिल्लों को ईश्वर ने समुति दी. उन्होंने इन यात्रियों में से 35 इजरायली पुरुषों, पांच जर्मनों को युद्धबंदी बना लिया और वे उन्हें किसी अज्ञात स्थान को ले गये. शेष यात्रियों को जोर्डन की सेना के संरक्षण में अम्मान भेज दिया गया.

     यात्रियों को विमानों से हटा लेने के बाद गेरिल्लों ने तीनों विमानों को बारूद से उड़ा दिया. विमानों में से उठने वाली लपटों और धुंए को बीस मील दूर तक लोगों ने देखा. विमानों की यह होली अप्रत्याशित थी, क्योंकि गेरिल्लों ने लैला खालिद की रिहाई के लिए 13 सितंबर के सवेरे साढ़े सातबजे तक का समय निश्चित किया था. 12 सितंबर की शाम को विमानों का दहन इस दृष्टि से न्यायसंगत नहीं माना जा सकता. इस आरोप का उत्तर देते हुए गेरिल्ला प्रतिनिधियों ने कहा कि साम्राज्यवादी और इजरायली तत्त्व मिलकर हमारे क्रांति के हित में जो उचित समझा, वही किया. हमारे सामने इसके सिवा दूसरा कोई रास्ता न था. विमानों का यह दहन हमने इसलिए किया है कि पश्चिमी देश इस बात को अच्छी तरह समझ लें कि यदि हमारी शर्तें न मानी गयीं, तो हम जो ठीक समझेंगे, वही करेंगे.

     लैला खालिद को गिरफ्तार के बाद जेल नहीं पहुंचाया गया. उसे लंदन के देहाती क्षेत्र इयरलिंग के थाने में नजरबंद रखा गया और उस पर सिवा इसके कोई आरोप नहीं बचा कि उसने अवैधानिक रूप से ब्रिटेन में घुसने की चेष्टा की. ब्रिटेन की सरकार लैला के मामले में बहुत सतर्क रही. वह जानती थी कि यदि लैला को जेल भेज दिया गया, तो फिलस्तीनी गेरुल्ले अधिक उत्तेजित हो जायेंगे. वह यह भी समझती थी कि गेरिल्लों का समर्थन करने वाले ब्रिटिश अरब लैला को जेल से उड़ाने की कोशिश कर सकते हैं. वह लैला के स्वभाव को भी समझ गयी थी, और उसे जेल भेजकर उत्तेजित नहीं करना चाहती थी.

     ब्रिटेन को इस सिलसिले में सबसे बड़ा डर था कि यदि लैला पर इजरायली विमान के अपहरण की चेष्टा और सशस्त्र कार्रवाई का आरोप लगाया गया तो इजरायल उससे लैला की मांग कर सकता है, क्योंकि उसने इजरायल के प्रति अपराध किया है. उस स्थिति में ब्रिटेन की हालत बहुत संकटपूर्ण हो जाती, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार उसे लैला खालिद को इजरायल के हवाले करना पड़ता, और जिससे सभी अरब देशों की जनता ब्रिटेन की कट्टर शत्रु बन जाती.

     लैला खालिद अरबों के लिए जोन आफ आर्क बन गयी है, वह उनके स्वतंत्रता-संग्राम की प्रतीक और प्रतिनिधि है. तभी तो ब्रिटेन ने उसे रिहा कर दिया और वह 1 अक्टूबर 1970 को मिस्र के भूतपूर्व राष्ट्रपति नासिर की शवयात्रा में शामिल होने के लिए काहिरा पहुंच गयी. ब्रिटेन ने उसे ब्रिटिश रायल एयर फोर्स के कामेट विमान में भेजा और काहिरा हवाई अड्डे पर मिस्र की विशेष पुलिस ने उसको अपने  पहरे में फिलस्तीनी गेरिल्ला मुख्यालय पहुंचाया. फिलस्तीनी-मुक्ति जनमोर्चे ने भी भगाये हुए विमानों के समस्त यात्रियों को रिहा कर दिया.

     मोर्चे की सबसे बड़ी सफलता यह रही कि उसने ब्रिटेन, जर्मनी और स्विटजरलैंड में बंदी फिलस्तीनी गेरिल्लों को रिहा करा लिया.

(अप्रैल 1971)

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