आवरण–कथा
मैं अपने देश की स्वतंत्रता इसलिए चाहता हूं ताकि दूसरे देश मेरे स्वतंत्र देश से कुछ सीख सकें और देश के संसाधनों का उपयोग मानव जाति के हित के लिए किया जा सके.
जिस प्रकार राष्ट्रप्रेम का मार्ग आज हमें सिखाता है कि व्यक्ति को परिवार के लिए प्राणोत्सर्ग कर देना चाहिए, परिवार को गांव के लिए, गांव को जिले के लिए, जिले को प्रांत और प्रांत को देश के लिए अपनी बलि दे देनी चाहिए, उसी प्रकार देश के लिए स्वतंत्र होना इसलिए आवश्यक है कि यदि आवश्यकता हो तो वह विश्व के हित के लिए स्वयं को न्यौछावर कर सके. अतः राष्ट्रीयता के प्रति मेरा प्रेम अथवा राष्ट्रीयता की मेरी धारणा यह है कि मेरा देश स्वतंत्र हो ताकि अगर आवश्यकता पड़े तो मानव जाति के अस्तित्व की रक्षा के लिए वह स्वयं को होम कर सके. इस धारणा में प्रजातीय घृणा का कोई स्थान नहीं है. यही हमारी राष्ट्रीयता की भावना होना चाहिए.
हमारी राष्ट्रीयता किन्हीं अन्य देशों के लिए संकट का कारण नहीं बन सकती, क्योंकि हम न किसी का शोषण करेंगे, न किसी को अपना शोषण करने देंगे. हम स्वराज के माध्यम से सारी दुनिया की सेवा करेंगे.
मेरे लिए राष्ट्रीयता और मानवता एक ही चीज़ है. मैं राष्ट्रभक्त इसलिए हूं कि मैं मानव और सहृदय हूं. मेरी राष्ट्रीयता एकांतिक नहीं है, मैं भारत की सेवा करने के लिए इंग्लैंड या जर्मनी को क्षति नहीं पहुंचाऊंगा. राष्ट्रभक्त का नियम परिवार के मुखिया के नियम से भिन्न नहीं है. और जिस राष्ट्रभक्त में मानवतावाद के प्रति उत्साह कम है, वह उतना ही कम राष्ट्रभक्त भी माना जायेगा.
जो व्यक्ति राष्ट्रवादी नहीं है, वह अंतर्राष्ट्रवादी नहीं हो सकता. अंतर्राष्ट्रवाद तभी सम्भव है जब राष्ट्रवाद अस्तित्व में आ जाये, अर्थात जब भिन्न–भिन्न देशों के लोग संगठित हो चुकें और वे एक व्यक्ति की तरह काम करने योग्य बन जायें. राष्ट्रवाद बुरी चीज़ नहीं है, बुरी है संकुचित वृत्ति, स्वार्थपरता और एकांतिकता जो आधुनिक राष्ट्रों के विनाश के लिए उत्तरदायी है. इनमें से प्रत्येक राष्ट्र दूसरे की कीमत पर, उसे नष्ट करके, उन्नति करना चाहता है. भारतीय राष्ट्रवाद ने एक भिन्न मार्ग चुना है. यह समूची मानवता के हित तथा उसकी सेवा के लिए स्वयं को संगठित करना यानी पूर्ण आत्माभिव्यक्ति की स्थिति को प्राप्त करना चाहता है… चूंकि ईश्वर ने मेरा भाग्य भारत के लोगों के साथ बांध दिया है इसलिए यदि मैं उनकी सेवा न करता तो अपने सिरजनहार के साथ विश्वासघात करने का दोषी होता. यदि मैं भारतवासियों की सेवा न कर सका तो मैं मानवता की सेवा करने योग्य भी नहीं बन पाऊंगा. और जब तक मैं अपने देश की सेवा करते समय किन्हीं अन्य राष्ट्रों को हानि नहीं पहुंचाता तब तक मैं समझता हूं कि मैं गलत रास्ते पर नहीं जा रहा.
मेरी राष्ट्रभक्ति में सामान्यतया सारी मानव जाति की भलाई समाविष्ट है. इस प्रकार, मेरी भारत–सेवा में मानवता की सेवा समाविष्ट है… भारत की मुक्ति की सम्पूर्ण योजना ही आंतरिक, शक्ति के विकास पर आधारित है. यह आत्मशुद्धीकरण की योजना है…
मैं शब्दशक्ति (वह लिखित शब्दों की हो या मौखिक शब्दों की) की अपेक्षा विचार–शक्ति में अधिक विश्वास करता हूं. और मैं जिस आंदोलन का प्रतिनिधित्व कर रहा हूं, उसमें यदि जीवनी शक्ति है और उसे दैवी आशीर्वाद प्राप्त है तो वह सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो जायेगा.
यदि मैं बिना किसी अहंकार के तथा पूरी विनम्रता के साथ कह सकूं तो मेरा निवेदन है कि मेरा संदेश और मेरे तरीके सचमुच मूलतः सारी दुनिया के लिए हैं और मुझे यह देखकर बड़ा संतोष होता है कि बहुत बड़ी संख्या में पश्चिम के स्त्राr-पुरुषों के हृदयों में इसकी अद्भुत अनुक्रिया हुई है, और ऐसे लोगों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है.
मेरा लक्ष्य केवल भारतीयों के बीच भाईचारे की स्थापना नहीं है. मेरा लक्ष्य केवल भारत की स्वतंत्रता नहीं है, यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि आज मेरा लगभग पूरा जीवन और पूरा समय इसी में लगा है. लेकिन भारत की आज़ादी को हासिल करने के जरिए मैं सम्पूर्ण मानवता के बीच भाईचारे के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता हूं. मेरी राष्ट्रभक्ति कोई एकांतिक वस्तु नहीं है. यह सर्वसमावेशी है और मैं उस राष्ट्रभक्ति को नकार दूंगा जो अन्य राष्ट्रीयताओं के दुख और शोषण पर सवार होने का प्रयास करेगी. राष्ट्रभक्ति की मेरी धारणा निरर्थक है यदि सम्पूर्ण मानवता की अधिकतम भलाई के साथ इसकी, निरपवाद रूप से, पूरी–पूरी संगति न हो. यही नहीं, मेरे धर्म और उससे व्युत्पन्न मेरी राष्ट्रभक्ति में सम्पूर्ण प्राणिजगत समाविष्ट है. मैं केवल मानव जाति के बीच ही भाईचारे अथवा उसके साथ तादात्म्य की स्थापना करना नहीं चाहता, बल्कि पृथ्वी पर रेंगने वाले जीवों सहित समस्त प्राणिजगत के साथ तादात्म्य स्थापित करना चाहता हूं. यदि आपको सुनकर धक्का न लगे तो मैं कहना चाहूंगा कि मैं पृथ्वी पर रेंगने वाले जीवों के साथ भी तादात्म्य स्थापित करना चाहता हूं, क्योंकि हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं. इसलिए जीवन जितने रूपों में है, सब मूलतः एक ही है.
मैं भारत का विनम्र सेवक हूं और भारत की सेवा करने का प्रयास करते हुए, मैं समूची मानवता की सेवा कर रहा हूं. मैंने अपने जीवन के आरम्भिक दिनों में ही यह समझ लिया था कि भारत की सेवा और मानवता की सेवा के बीच कोई विरोध नहीं है. जैसे–जैसे मैं बड़ा हुआ, और शायद मेरी बुद्धि का भी विकास हुआ, मुझे लगने लगा कि मेरी धारणा ठीक ही थी और आज लगभग 50 वर्ष के सार्वजनिक जीवन के बाद, मैं यह कह सकता हूं कि मेरा इस सिद्धांत में विश्वास और दृढ़ हुआ है कि देशसेवा और विश्वसेवा के बीच कोई विरोध नहीं है. यह एक अच्छा सिद्धांत है. इसे अंगीकार करने से ही विश्व की स्थिति में तनाव घटेगा और विभिन्न राष्ट्रों के बीच पारस्परिक ईर्ष्या समाप्त होगी.
मनुष्य का आदर्श जितना आत्मनिर्भरता है उतना ही परस्परनिर्भरता भी है और यही होना चाहिए. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. समाज के साथ परस्पर सम्बंध रखे बिना वह विश्व के साथ एकात्मता स्थापित नहीं कर सकता अथवा अपने अहंकार का दमन नहीं कर सकता. उसकी सामाजिक परस्पर–निर्भरता उसे अपनी आस्था की परीक्षा लेने और स्वयं को वास्तविकता की कसौटी पर कसने का अवसर देती है. यदि मनुष्य इस स्थिति में होता या स्वयं को रख सकता कि वह अपने साथियों पर तनिक भी निर्भर न हो, तो वह इतना गर्वीला और दम्भी हो जाता कि पृथ्वी के ऊपर वस्तुतः भार बन जाता और उसके लिए कंटक सिद्ध होता. समाज पर निर्भर रहने के कारण ही उसमें मानवता का विकास होता है. यह तो ठीक है कि मनुष्य इस योग्य होना चाहिए कि अपनी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं कर सके; लेकिन मुझे इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि यदि स्वावलम्बन की भावना का विस्तार इस सीमा तक किया जाये कि मनुष्य समाज से अलग–थलग पड़ जाये तो यह पाप जैसा ही होगा. आदमी कपास उगाने से सूत कातने तक के सारे काम अकेला नहीं कर सकता. उसे किसी–न–किसी काम में अपने परिवार के अन्य सदस्यों की सहायता लेनी पड़ती है. और, यदि आदमी अपने परिवार की सहायता ले सकता है तो अपने पड़ोसी की क्यों नहीं? अन्यथा, इस महान उक्ति का कि ‘सम्पूर्ण विश्व मेरा परिवार है’ क्या महत्त्व रह जाता है?
हमें यह नहीं. भूलना चाहिए कि मनुष्य की सामाजिक प्रकृति ही उसे पशुजगत से भिन्न बनाती है. यदि स्वाधीन होना उसका विशेषाधिकार है तो परस्परनिर्भरता उसका कर्तव्य है. कोई दम्भी व्यक्ति ही दुनिया के तमाम लोगों से स्वतंत्र और स्वतःपूर्ण होने का दावा कर सकता है.
समाज में जीने के लिए व्यक्तिगत स्वाधीनता और परस्परनिर्भरता, दोनों आवश्यक हैं. पूरी तरह आत्मनिर्भर तो कोई रॉबिन्सन क्रूसो ही हो सकता है. अपनी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यशासम्भव प्रयास कर लेने के बाद, मनुष्य शेष आवश्यकताओं के लिए अपने पड़ोसियों से सहयोग मांगेगा. यही सच्ची सहकारिता होगी.
आत्मशोधन मनुष्य को उदात्त बनाता है जबकि दूसरों का शोधन उसे भ्रष्ट करता है. हमें सामूहिक जीवन की कला और गुण को सीखना चाहिए जिसमें सहकारिता की परिधि निरंतर विस्तृत होती जाती है, यहां तक कि अंत में वह सारी मानव जाति को अपने में समाविष्ट कर लेती है.
ऐसा एक भी गुण नहीं है जिसका लक्ष्य केवल व्यक्ति का कल्याण हो. इसके विपरीत, ऐसा एक भी दोष नहीं है जो वास्तविक दोषी के अलावा, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, और बहुत–से लोगों को प्रभावित न करता हो. इसलिए व्यक्ति का अच्छा या बुरा होना केवल उसी का सरोकार नहीं है, बल्कि पूरे समुदाय या कहना चाहिए कि पूरी दुनिया का सरोकार है.
मानव जाति एक है, क्योंकि नैतिक नियम सब पर समान रूप से लागू हैं. ईश्वर की दृष्टि में भी सभी लोग बराबर हैं. यह ठीक है कि लोगों में प्रजाति, हैसियत आदि को लेकर अंतर पाये जाते हैं, पर जिस व्यक्ति की हैसियत जितनी ऊंची है, उसकी ]िजम्मेदारी भी उतनी ही ज़्यादा है.
मैं इसमें विश्वास नहीं करता. कि एक आदमी का आध्यात्मिक लाभ हो जाये और उसके आसपास के लोग दुख में लिप्त रहें. मैं अद्वैत में विश्वास करता हूं, मुझे मानव की ही नहीं बल्कि प्राणिमात्र की अनिवार्य एकता में विश्वास है. इसलिए मेरा विश्वास है कि अगर एक आदमी को आध्यात्मिक लाभ मिलता है तो उसके साथ सारी दुनिया का लाभ होता है, और अगर एक आदमी का पतन होता है, तो उस सीमा तक सारी दुनिया का पतन होता है.
आत्म-बलिदान की तार्किक परिणति यह है कि व्यक्ति समुदाय के लिए अपना बलिदान करे, समुदाय जिले के लिए, जिला प्रांत के लिए, प्रांत राष्ट्र के लिए, और राष्ट्र संसार के लिए अपना बलिदान करे. समुद्र से छिटकी हुई बूंद किसी का भला किये बिना नष्ट हो जाती है. यदि वह समुद्र का अंश बनी रहती है तो अपने वक्ष पर शक्तिशाली पोतों के बेड़े के तरण का गौरव प्राप्त करती है.
मई 2016