मेघदूत का पत्र यक्ष के नाम

  • सुरेश ऋतुपर्ण

मेरे प्रिय मित्र यक्ष,

अनेक सदियों के बाद यह पत्र भेज रहा हूं. यह नहीं कि इससे पहले लिखने के लिए विचार न किया हो. लेकिन व्यस्ततावश लिख नहीं पाया. तुम उलाहना दे सकते हो कि काहे की व्यस्तता! मौसम विज्ञानी तो तुम्हें खोजते ही रह जाते हैं. भरपूर वर्षा के दिन भी बीत गये हैं. अब कैसी व्यस्तता?

अब कैसे समझाऊं कि मेरा जीवन कैसे-कैसे दुर्भाग्यों से जुड़ गया है. तुम्हारे भाई-बंदों ने पूरा पर्यावरण इस तरह बिगाड़ दिया है कि जीवन-रक्षा मुश्किल होती जा रही है. इतने तरह की गैसें आसमान में भाई लोगों ने पहुंचा दी हैं कि मैं ठीक से सांस भी नहीं ले पाता. मुझमें समाया जल-तत्व उनको शमित करने में ही खर्च हो जाता है. अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं? किसान की खेती बरबाद होती है तो दोष मेरे सिर. दालों की कीमतें बढ़ती हैं तो ठीकरा मेरे सिर फोड़ा जाता है. शेयर मार्केट और सट्टा बाज़ार मेरा नाम ले-लेकर मज़े मारता रहता है लेकिन मेरी सेहत की चिंता किसी को नहीं. मैं बीमार हूं, लेकिन मेरी दवा-दारू करने वाला कोई नहीं.

तुम तो जानते ही हो जब व्यक्ति का मन विशाद ग्रस्त हो जाता है तो उसे अतीत की याद कुछ ज़्यादा ही आने लगती है. मुझे भी आषाढ़ का वह पहला दिन नहीं भूलता जब मैं रामगिरि की पहाड़ियों पर भटक गया था. पता नहीं तब तुम कहां से प्रकट हो गये और मुझसे संवाद करने लगे. पहले तो मैं बड़ा चौंकाö भला मुझसे संवाद करने वाला कहां से आ गया! पर यह तुम्हारी सदाशयता थी कि तुमने एक भटके हुए मेघ को उत्तर की ओर जाने का मार्ग बता दिया.

एक बात और कहना चाहूंगा कि भटके हुए राही को मार्ग बताने वाले यों कभी-कभी मिल ही जाते हैं लेकिन तुम जैसा मार्गदर्शक मुझे फिर कभी नहीं मिला. मैं तुम्हारी स्मरण-शक्ति का कायल हूं. कितने ‘विस्तार और सूक्ष्म से सूक्ष्म विवरणों’ के साथ तुमने मुझे अलकापुरी का मार्ग दिखाया था कि आज भी यह सोचकर अचम्भित हूं कि इस सबका ज्ञान तुम्हें कैसे मिला?

तुम्हारा दिशा निर्देश पाकर मैं आगे निकल गया और विस्मित था कि तुमने पूरी राह का जो नक्शा बताया था, वैसा ही मिलता चला गया. तुम्हारे आग्रह की रक्षा हेतु मैं अपने मार्ग से अलग हटकर उज्जयिनी की ओर निकल गया और यह अच्छा ही हुआ. उज्जयिनी में लगा जैसे सभी लोग, वन प्रांतर और क्षिप्रा नदी मेरी प्रतीक्षा कर रही है. मेरा मन उनके स्वागत से अभिभूत होकर विगलित हो गया था. महाकाल के मंदिर में गूंजती घण्टा ध्वनि का कर्णप्रिय संगीत सुनते हुए मैं मंत्रमुग्ध हो गया. कुछ क्षण के लिए मैं अपने आप को ही विस्मृत कर बैठा. उज्जयिनी की भूमि से उठती सौंधी गंध ने मुझे फिर से जागृत कर दिया और मैं महाकाल को प्रणाम करता हुआ अलकापुरी की ओर निकल पड़ा.

यात्रा लम्बी थी लेकिन रोमांच भरी थी. मैं नदी-नाले पहाड़, वन-उपवन, झरनों को पार करता हुआ चलता ही चला गया. मेरे मन में जल्दी से जल्दी अलकापुरी पहुंचने की लालसा बलवती होती जा रही थी. तुमने उसका ऐसा विराट बिम्ब मेरे सामने प्रस्तुत कर दिया था कि मैं उसे अपनी आंखों से देखने के लिए लालायित हो उठा था. झूठ क्यों बोलूं, तुम्हारी प्रिया यक्षिणी के दर्शन की उत्कण्ठा भी भरपूर थी. यों तो मैंने अपने जीवन में अनगिनत स्त्रियों को देखा है, पहाड़ों की घाटियों में विचरती अनेक सुंदरियों के आंचल उड़ाये हैं, उन्हें जी भरकर भिगोया है, उनकी खिलखिलाहट और उलाहनों को भी सुना है, लेकिन यक्षिणी के सौंदर्य का जैसा विलक्षण नख-शिख वर्णन तुमने किया था उसने मेरी जिज्ञासा को अनंतरूपा कर दिया. कभी मैं अलकापुरी की अट्टालिकाओं के बारे में सोचता था तो कभी उनमें से एक अट्टालिका में प्रतीक्षारत विरहिणी यक्षिणी की विवशता की कल्पना करने लगता था. इस सबके साथ ही साथ एक दायित्वबोध भी मुझे सता रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि मैं अपने मित्र का संदेशा उसकी प्रिया तक पहुंचाने से पहले ही किसी शिखर पर फटकर बरस न जाऊं.

मित्र मेरे! ऐसी ही चिंताओं से जूझता हुआ मैं नियत काल में अलकापुरी पहुंच गया था. बाप रे! कैसी अद्भुत नगरी थी. सबकुछ सजा-संवरा और व्यवस्थित था. कहीं कोई हड़बड़ी नहीं थी. मैंने अपनी चिर संगिनी विद्युतलता से चुपके से कहाö प्रिये! हम अब अपने मित्र यक्ष के गृहप्रदेश में पहुंच गये हैं. हमारे आगमन की सूचना देने के लिए क्या तुम एक बार भी अपनी प्रकाश किरण और मंगलध्वनि का प्रदर्शन और उद्घोष न करोगी. मेरी प्रिया खिल-खिलाकर हंस पड़ी. मैं चकित होकर उसकी ओर देखता ही रह गया. चूंकि ऐसी मनोहर हंसी तो मैंने जीवन में कभी सुनी ही न थी. हमेशा गरजती-तड़कती रहती थी वह. सम्भवत यह तुम्हारी सभ्य और सांस्कृतिक नगरी के पर्यावरण का ही प्रभाव था कि उस कर्कशा के चित्त में भी कोमलता का संचार हो गया था. मैंने मन ही मन तुम्हें धन्यवाद दिया. विद्वानों ने उचित ही कहा है कि सत्संग के कारण चित्त की वृत्तियां भी बदल जाती हैं.

जैसे ही अलकापुरी निवासियों ने मेरी प्रिया की हृद्यतंत्री को झंकृत कर देने वाली हंसी को सुना सभी अपनी अपनी अट्टालिकाओं के झरोखों पर, छतों पर, छज्जों पर आ गये. वनिताओं के हाथ में आरती के थाल थे. पुरुषों की हथेलियां पुष्पों से भरी थीं. सारा वातावरण उनके मंगलगान की ध्वनि से गुंजरित हो गया. मैं आश्चर्यचकित होकर वहीं खड़ा का खड़ा रह गया. मेरी गति थम गयी. यह क्या हो रहा है. ऐसा विलक्षण स्वागत तो मेरे पूरे जीवन में कहीं नहीं हुआ. सच मित्र! यह भी तुम्हारा ही अनुग्रह था. मेरे बताये बिना ही शायद वे जान गये थे कि मैं उनके प्रिय यक्ष का संदेश लेकर आने वाला मेघदूत हूं. निश्चय ही यह मेरे पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों का ही फल था कि मुझे तुम्हारा मित्र होने का सौभाग्य मिला. इस अनंत वायुमंडल में अनेकानेक मेघ विचरते रहते हैं लेकिन मेघदूत बनने का सौभाग्य तो मुझे ही मिला. तुम्हारे पारस स्पर्श से मेरा श्याम शरीर कांतिमय हो गया. एक बार पुन तुम्हारी कृपा के लिए आभार व्यक्त करता हूं.

यों तो मैं पूरी अलकापुरी को निहार रहा था पर मेरी दृष्टि किसी गुप्तचर की तरह तुम्हारी प्रिया यक्षिणी को खोजने में लगी थी, बड़ा कठिन कार्य था. सभी अट्टालिकाओं की ओर मैंने सूक्ष्म निरीक्षण आरम्भ किया. मेरी दृष्टि एक-एक खिड़की, छज्जे, चौबारों पर होती हुई आगे बढ़ने लगी. तभी मुझे कुछ विचित्र और अनपेक्षित-सा लगा. एक अत्यंत मनोहर अट्टालिका की ओर मेरी दृष्टि जाकर रुक गयी. जानते हो क्यों? वह इसलिए कि समस्त अलकापुरी में उसी अट्टालिका के झरोखों, छज्जों या छत पर सूनापन बिखरा हुआ था जैसे वहां कोई रहता ही न हो. मेरे लिए इतना ही संकेत काफी था. अवश्य ही वह अट्टालिका तुम्हारी प्रिया यक्षिणी की होगी. विरह विमर्दिता यक्षिणी में इतनी शक्ति ही कहां होगी कि वह झरोखे, छज्जे या छत पर जा सके. बेचारी अशक्त भाव से किसी कोने में पड़ी हुई अपनी हत्भाग्यता पर दुःखी हो रही होगी. क्या पता मेघ गर्जन की हल्की-हल्की ध्वनि सुनकर उसका विरह भाव और अधिक बढ़ गया हो. तब मेरा मन आशंकित हो उठा था मित्र! मैंने अपनी विद्युतलता से शांत होने को कहा और हम दोनों अत्यंत सधी चाल से चलते हुए उस अट्टालिका तक जा पहुंचे और जब उसके एक झरोखे से झांककर अंदर देखा तो चित्त धक्क रह गया. अप्सरा-सी सुंदर एक युवती जिसकी वेणी खुली हुई थी, वस्त्र अस्त-व्यस्त थे, मुखमण्डल पर शृंगार का कोई चिह्न न था, अधरावलि सूखी थी, कपोलों पर सूखे हुए अश्रुओं की धार स्पष्ट देखी जा सकती थी, भूमि पर मूर्च्छित अवस्था में पड़ी थी. मुझे समझते देर न लगीö यही है मेरे मित्र यक्ष की प्रिया! जब सारी अलकापुरी वर्षा ऋतु के आनंद में उल्लास से भरी हुई है तो भला यह दुखिता यक्षप्रिया के अतिरिक्त और कौन हो सकती है.

अत तुम्हारे कहे अनुसार मैंने उस झरोखे से अत्यंत सावधानीपूर्वक कक्ष में प्रवेश किया. कक्ष में कुछ तो अंधकार पहले से ही था, कुछ मेरे आगमन के कारण हो गया. दीपघर में घृत नहीं था. वर्त्तिका भी काली पड़ चुकी थी. मैंने अपनी सहचरी विद्युतलता से झीना-झीना प्रकाश करने का आग्रह किया. मुझे डर था कि उसके तीक्ष्ण प्रकाश की कौंध से कहीं तुम्हारी प्रिया भयभीत न हो जाये. तो विद्युतलता ने लाखों जुगनुओं के चमकने से जैसा मध्यम-मध्यम प्रकाश फैलता है, कुछ-कुछ वैसा ही प्रकाश कक्ष में भर दिया. तब मैंने तुम्हारी सलाह के अनुसार विशाल झरने से उड़ती महीन बूंदों जैसी जल वर्षा करके विरहिणी यक्षप्रिया की पीड़ा हरने का प्रयास किया. परिणामत वह सुंदरी तत्काल उठ गयी और भयभीत हिरणी की तरह इधर उधर देखने लगी मानो कोई शिशु अचानक कोई स्वप्न देखकर जाग गया हो. मैंने तत्काल, बिना समय गंवाये उन्हें आश्वस्त किया कि मैं आपके प्रियतम यक्ष का परममित्र हूं. पर जब मैंने उनकी आंखों में अविश्वास की छाया देखी तो मैंने तुम्हारी बतायी विधि से ही उस घटना का वर्णन कर दिया जिसे तुमने मुझे सहदानी के रूप में बताया था. उन बातों को सुनकर वह संकुचित हो गयी और फीके कपोलों पर लज्जा की लाली छा गयी. यह देख मेरा साहस बढ़ गया और मैंने फिर विस्तार से वह पूरा यात्रा वृत्तांत सुना दिया जो रामगिरि से शुरू हुआ था.

जब मैं तुम्हारा संदेश दे रहा था, तब यक्षप्रिया के हृदय में उठते हुए गहन भावों का अनुभव भी उनकी चेष्टाओं के माध्यम से करने लगा. प्रिय मित्र! तुम्हारा समाचार पाकर तुम्हारी प्रिया जहां एक क्षण के लिए उल्लसित हुई तो वहीं दूसरे क्षण, वियोग की अवधि समाप्त होने में अभी देर है जानकर पुन व्यथित भी हो गयी. उनके विशाल नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी. ऐसी विकट परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए, ऐसा कोई भी अनुभव मेरे पास नहीं था. मेरा भावुक मन यक्षप्रिया के दारुण दुख को देखकर द्रवित होने लगा. मैंने उन्हें एक बार फिर से तुम्हारी कुशलक्षेम की बातें बतायीं और आश्वस्त किया कि आप दोनों का मिलन अतिशीघ्र ही होगा. ऐसा कहकर मैं और विद्युतप्रिया उस झरोखे से बाहर आ गये. मन में छायी घनीभूत पीड़ा झम-झम करके बरसने लगी. तभी मैंने देखा कि सारी अलकापुरी में उल्लास का वातावरण बन गया है. वर्षा ऋतु की पहली फुहारों में भीगने के लिए अलकापुरी निवासी लालायित हो उठे.

मित्र, जीवन का यह भी कैसा अनूठा विरोधाभास है कि एक-सी वस्तु, एक-सी परिस्थिति, व्यक्ति की मनस्थिति के अनुरूप अलग-अलग अनुभवों का कारण बन जाती है. एक तुम्हारी यक्षप्रिया को छोड़ पूरी अलकापुरी में जल बरसते ही उल्लास छा गया था. और बेचारी यक्षप्रिया का मन तुम्हारी स्मृतियों के जल-प्लावन में डूब-उतराने लगा.

मित्र मेरे, इस तरह मैंने तुम्हारा संदेश पहुंचाकर अपने को कृतकार्य समझ लिया और अपनी यात्रा के अन्तिम बिंदु को स्पर्श करने के लिए उत्तर की ओर बढ़ गया. तुम्हारा आग्रह था कि मैं तुम्हें लौटकर तुम्हारी प्रिया की कुशलता का संदेश दूं. मैं लौटा भी. लेकिन मेरा दुर्भाग्य कि रामगिरि पहुंचकर मैंने तुम्हें हर ओर खोजा, पर तुम कहीं नहीं थे. सम्भवत मेरे लौटने में बिलम्ब हुआ हो और तुम अपने वनवास की अवधि पूरी होते ही अलकापुरी की ओर निकल गये हो. या फिर उज्जयिनी की रमणीयता में सुध-बुध खोकर अपनी प्रिया के लिए उपहार एकत्रित करने में व्यस्त हो गये होगे. सच कहूं तो मैं अपनी वापसी की यात्रा में उज्जयिनी की ओर नहीं गया. सोचा कि निरर्थक विलम्ब होगा. रामगिरि पहुंचने की जल्दी में मैं अपने सभी आकर्षणों को भूल बैठा था. लेकिन मेरे मित्र, तुमने प्रतीक्षा नहीं की. सम्भवत तुम्हें लगा हो कि यह आवारा मेघदूत अलकापुरी पहुंचा भी होगा या नहीं. कहीं राह में ही भटक रहा होगा और तुम्हें यक्षप्रिया से पुनर्मिलन की जल्दी थी. इसलिए मेरी प्रतीक्षा किये बिना ही तुम अपनी यात्रा पर निकल पड़े होगे. पर मैं इसके लिए तुम्हें दोष नहीं दूंगा, क्योंकि मैंने तुम्हारी यक्षप्रिया की मनोदशा को भलीभांति समझ लिया था. उस परम विरहिणी की पल-पल छीजती आशा की डोर को जल्दी से जाकर थामना अति आवश्यक था. मुझे विश्वास है कि तुम्हारे चिर विरह का अंत हुआ होगा और यक्षप्रिया ने तुम्हारे वक्ष में सिमट आनंद के अश्रुओं से विरहाग्नि को शमित किया होगा. काश! मैं उस स्वर्गिक मिलन का दृष्टा बन पाता!

मेरे मित्र यक्ष! पत्र बहुत विस्तृत हो गया है. विराम देने का क्षण आ गया है. नियति ने चाहा तो फिर मिलना होगा. पर एक बात कहे देता हूं, रामगिरि पर नहीं, यह मिलन हो तो फिर अलकापुरी में ही हो जहां तुम्हारी अट्टालिका की छत पर मैं और मेरी प्रिया विद्युतलता के घुमड़ते-तड़पते संगीत की लय पर तुम दोनों का माधुर्य भरा नृत्य देखने का सौभाग्य पा सकूं. एक बार पुन मिलन की आशा में.

तुम्हारा अभिन्न मित्र,

मेघदूत

 

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