व्यंग्य
वर्ष 2016 स्वर्गीय शरद जोशी की 85वीं सालगिरह का वर्ष है. वे आज होते तो मुस्कराते हुए अवश्य कहते, देखो, मैं अभी भी सार्थक लिख रहा हूं. यह अपने आप में कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि अर्सा पहले जो वे लिख गये, वह आज की स्थितियों पर मार्मिक टिप्पणी लगता है. शरदजी के पाठक-प्रशंसक इस वर्ष को उन्हें लगातार याद करते हुए मना रहे हैं. वर्ष के पहले महीने में ‘नवनीत’ उन्हें याद करके यादों की इस शृंखला की शुरूआत कर रहा है.
कमी न मूर्तियों की है और न पूजनेवालों की. मिल जाए तो लोग पूजने से चूकते नहीं. न मिले तो किसी ‘शेप बेशेप’ पत्थर की तलाश करते उन्हें देर नहीं लगती. दिखा और लगाया सिंदूर. पत्थर का बस चले तो खुद सिंदूर लगा ले! इस देश में सभी पुजने की सम्भावना टटोलते हैं. पत्थर का बस न चले, आदमी का चलता है. एक दांव पर महारत आते ही खुद को उस्ताद घोषित करते यहां कोई देर नहीं लगाता. कब कौन-सा अनपढ़ पत्थर देवता बन जाएगा, कहा नहीं जा सकता. मिट्टी की तासीर है.
यहां मूर्तिपूजक जनम लेते हैं और उनके लिए मूर्तियां शून्य से उभरती हैं. सभी मूर्तियों के भाग्य में मंदिर नहीं लिखे, जिसे मिल गया, जो स्थापित है, उसके जलवे हैं. भक्तों में उसी का घण्टा बजाने की उतावली रहती है. बाकी मूर्तियां यहां-वहां बिखरी पड़ी हैं. उन्हें शायद किसी धार्मिक क्रांति का इंतज़ार है जब उन्हें एक अदद मंदिर मिलेगा. वह न हो तो किसी स्मगलर के कंधे पर लद कर चोर रास्तों से विदेश जाना पसंद करेंगी. सब जा रहे हैं, प्रोफेसर से कारपेण्टर तक, तो क्यों वे नहीं जाएंगी? हमारा देश मूर्तियों का उत्पादन करता है. एक्सपोर्ट का आइटम हैं मूर्तियां और मेहनतकश लोग. अपनी प्रगति के गलियारे खोजना सबको आता है.
पिछले तीस वर्षों में मूर्तियां बढ़ीं, उसके पूजनेवाले बढ़े, बड़ी हद तक दोनों के रिश्ते स़ाफ हो गये. हम तुम्हें पूजते रहेंगे, तुम हमारे लिए मौका मुसीबत में काम आना. अगर फायदा करे तो इंसान खेड़े के हनुमान से बद्रीनारायण की ऊंचाई तक जाकर मूरत के सामने सिर नवा सकता है. कस्बे के छुटभैया नेता से दिल्ली के केंद्रीय मंत्री तक जब जैसी ज़रूरत हो वह जाने को राजी है. बंगले के चक्कर, मूरत की परिक्रमा, मूरत की स्तुति, रिश्वत, देवता को फलफूल श्रद्धा के अनुसार भेंट, सब अंततः फायदा करेगा इसी भरोसे वह पूजन करता है.
मूरत भी जानती है, कम्बख्त किस इरादे से परिक्रमा कर रहा है, काहे को पुजारी के सामने मुस्करा रहा है, पी.ए. से इतने दिनों यारी की और उसे व्हिस्की पिलायी, तो बेमतलब नहीं है. मूरत सब समझती है. बड़ी घाघ और खुर्राट चीज़ होती है मूरत. वह श्रद्धालुओं की मंशा पहचानती है. कार लिये आया है लायसेंस लेकर जायेगा. पैदल आया है इसे नौकरी चाहिए. स्कूटर पर आया है, प्रमोशन का अभिलाषी होगा. मूरत सब जानती है. तुम कम्बख्त इसी देश के भक्त हो, वह यहीं की मूरत है. एक दूसरे की नब्ज पहचानते हैं.
कस्बे और मोहल्ले का चालू आदमी तब अपने जीवन का पहला कुरता-जाकिट पहन समाजसेवा के इरादे से आईने में अपनी शक्त देखता है तो उसके मन में मंत्री बनने के सपने तैरते हैं. वह गंदी बस्तियों की दिशा में अपने उज्जवल भविष्य की आशाएं लिये बढ़ता है. बस्ती जैसी है वैसी ही रहेगी. इसके सहारे जो नेतृत्व उभरेगा, उसे रहने को बंगला मिल जायेगा. हर बस्ती को एक मूरत चाहिए मानता लेने को, एक गुण्डा चाहिए आत्मरक्षा के लिए, एक नेता चाहिए मांगे बुलंद करने के लिए.
कई बार नेता, गुंडा और मूरत की भूमिका एक ही शख्स निपटा देता है. जो भी हो लोगों को देवता बनाने के लिए पत्थर मिल जाता है. उसे सिंदूर नहीं लगाना, वह कुरता-जाकिट पहनकर आया है. उसकी सिर्फ स्तुति करते रहिए. भेंट चढ़ाते रहिए, देखिए धीरे-धीरे वह कैसी प्राणवान ताकत साबित होगी, अपनों को आशीष और परायों को श्राप देनेवाली, जो मानता करो वह पूरी करने वाली. भाई का तबादला, बच्चे को मेडिकल में एडमिशन से लेकर भ्रष्टाचार की इन्क्वायरी में बेदाग मुक्ति दिलानेवाली. मूरत शुरू में नाकुछ-सी चीज़ होगी, सिर्फ मोहल्ले और आसपास के लोग उसके सम्मुख झुकेंगे. पर धीरे-धीरे प्रभाव का दायरा व्यापक होगा. दूर-दूर से दर्शनार्थी जय-जयकार करते आने लगेंगे. प्रांगण या लॉन पर प्रातःकाल मेला जुटने लगेगा. मूरत की ठसक बढ़ जायेगी, नखरे बढ़ जायेंगे, एक कामना पूर्ण करवाने के लिए बार-बार चक्कर लगाने होंगे. आपकी औकात से मूरत का दर्जा कहीं ऊपर उठने लगेगा. वह मोहल्ले से नगर, नगर से प्रांत और प्रांत से केंद्र के मंदिर में बैठ जायेगी. मंदिर का आकार बढ़ जायेगा, जमघट बढ़ जायेगा, चढ़ावे के मामले में पुजारी की अपेक्षाएं बढ़ जायेंगी. गरीब आदमी उधर घुसने का इरादा टाल देगा.
पर वह है तो इसी देश का ना? उसे एक अदद मूरत तो चाहिए. वह आसपास देखेगा. जिसकी छवि में प्रभु का आभास हुआ वह उसकी प्रभुता को सिर-माथे लगायेगा. एक और मूरत जनम लेगी. तनकर खड़ी हो जाएगी. ज़रूरी है उसका होना. मूर्तियों का प्रजातंत्र है हमारा! मूर्तियों को उभारने की आदत है हमारी. श्रद्धा बढ़ने-घटने का खेल चलता रहता है. आज इसका घंटा बजा दिया, कल उसकी घंटी बजा दी. आज यहां प्रार्थना की, कल वहां मंत्रपाठ कर आये. एक मंदिर और दूसरे मंदिर में क्या फर्क? एक बंगले और दूसरे बंगले में क्या फर्क? आज यहां परिक्रमा की, कम उसका चक्कर लगाया. आज इधर नारियल फोड़ा, कल उधर मिठाई का डिब्बा ले खड़े हो गये.
मंदिर से खाली हाथ लौटना, क्या मतलब? मेले क्या बेमतलब जुटते हैं, रैलियां यों ही नहीं लगतीं, पर्व अपनी गरज से मनते हैं. अमृत की बूंद चाटने के चक्कर में सब कुम्भ में जमा होते हैं, इसलिए देवता हमारी ज़रूरत हैं. हमारे स्वार्थों को ठेलने के लिए कुली चाहिए हमें इस प्रजातंत्र में. तीस साल में कुलियों की भीड़ लग गयी, ठेले आपस में टकरा रहे हैं. जय-जयकार के शोर में कुछ सुनाई नहीं देता. मूर्तियां असफल खंडित हो फिर पत्थर होने लगीं, मगर इस मिट्टी का बना आदमी लगातार भिड़ा है मूर्तियां खड़ी करने में. पता नहीं कब साले की यह खब्त समाप्त होगी!
अप्रैल 2016