‘भारत मेरा देश है, इस देश में रहने वाले सब मेरे भाई-बहन हैं…‘ यह शब्द उस ‘प्रतिज्ञा’ का अंश हैं जो महाराष्ट्र के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली पाठ्य-पुस्तकों में छापी जाती है और विद्यार्थी रोज़ इसका सामूहिक वाचन भी करते हैं. लेकिन जीवन में इस भाव को स्वीकारने, व्यवहार में लाने की जब बात आती है तो क्या सचमुच हम उसे जी पाते हैं? इसके साथ ही सवाल यह भी उठता है कि देश को हम समझते क्या हैं? क्या देश उस नक्शे का नाम होता है जो एक भू-भाग की सीमाओं को दरसाता है? अथवा क्या देश वह नदियां, जंगल, पहाड़ हैं जो इस भू-भाग को आकार देते हैं? या फिर क्या देश का मतलब वे सब हैं जिन्हें उपर्युक्त प्रतिज्ञा में ‘मेरे भाई-बहन कहा गया है?’ आखिरी प्रश्न का उत्तर हमें उस भाव से जोड़ता है जिसे राष्ट्र कहा जाता है. और यह भाव तब जाकर पूरा होता है, जब हम भूगोल की सीमाओं को लांघकर मानवता की परिभाषा को एक व्यापक आकार देते हैं.
कुलपति उवाच
व्यक्ति और समाज
के.एम. मुनशी
शब्द यात्रा
पसंद की चाह
आनंद गहलोत
पहली सीढ़ी
तपाते रहते हो तुम मुझे
रवींद्रनाथ ठाकुर
आवरण-कथा
सम्पादकीय
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कैलाशचंद्र पंत
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प्रियदर्शन
राष्ट्रीयता के कुतर्क
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राष्ट्र और राष्ट्रवाद के सीमांत
विजय किशोर मानव
रवींद्रनाथ और राष्ट्रवाद
आलोक भट्टाचार्य
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महात्मा गांधी
संस्कृति बनाम राष्ट्रवाद
खालिद अहमद
धारावाहिक आत्मकथा
सीधी चढ़ान (सोलहवीं किस्त)
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डॉ. परशुराम शुक्ल
समय और समाज की पटरी का वह लाइटमैन
सुरेश द्वादशीवार
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खुशवंत सिंह
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नंद चतुर्वेदी
किताबें
कहानियां
स्थायी पता
कमलेश बख्शी
इंसानियत (बोधकथा)
कविताएं
दो कविताएं
नरेंद्र मोहन
तू और जीवन
विंदा करंदीकर
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