उड़िया कविता
बया पाखी
अब जान गया है अपनी नियति को,
अपने जीवन के अनागत भविष्य को
सूखे जख्म पर पड़ी पपड़ी की तरह
उसे भी
एक दिन झड़ जाना होगा
चुपचाप इस धरती पर.
पड़ोस में बहती नदी का दुःख
किस छोर से किस छोर तक जायेगा
कौन जाने,
किंतु किसी मुहाने से
उसे लौटने के लिए जितना कहो
वह कभी सुन नहीं पायेगा
सब कुछ अनसुना कर देगा.
क्यों सुनेगा?
आखिर सुनेगा भी क्यों?
क्या उसे अब तक सुना है किसी ने
आंधी, पानी और अंधेरे ने?
जितने भी जीव हैं इस संसार में सभी
कभी न कभी दुर्घटनाग्रस्त होते ही रहे हैं
जीवन की राह में
किंतु किसने सुना है उसके आर्तनाद को
सुनकर हमेशा किया है अनसुना.
आखिर इस परम्परा की शुरुआत किसने की,
वह कैसा स्रष्टा है
जिसने जीव से ब्रह्म तक की सृष्टि के बीच
इतनी विषमता भर दी है
खूंखार स्वार्थी जीवों में
शुरू से अब तक
इतनी भिन्नता हो गयी है
कैसे सम्भव?
न जाने किस कुरुक्षेत्र के कृष्णगर्भ में
गायब हो गया है सिर से मस्तक
और छाती से हृदय?
हवाओं से लड़-लड़कर
टहनियों से टूट-टूटकर
गिर पड़े हैं सुरभित फूल.
बया पाखी की इच्छा है कि
सम्पूर्ण संसार की आत्मा की,
जिसे अंधकार ने बांध रखा है
अपनी गिरफ़्त में,
एक गांठ को भी
वह कभी काट पाये
अपनी छोटी-सी चोंच से.
हठात् उसकी आंखों के आगे
कौंध जाता है एक दृश्य-
एक छोटी-सी गिलहरी
धूल में लोट-पोटकर आती है
और अपनी कमज़ोर काया से
धूल झाड़-झाड़कर कर जाती है सहायता
सेतु निर्माण में.
अनुवाद : डॉ. मधुसूदन साहा
फरवरी 2016