फागुन

♦   रांगेय राघव    >

पिया चली फगनौटी कैसी गंध उमंग भरी
ढफ पर बजते नये बोल, ज्यों मचकीं नयी फरी।

चंदा की रुपहली ज्योति है रस से भींग गयी
कोयल की मदभरी तान है टीसें सींच गयी।

दूर-दूर की हवा ला रही हलचल के जो बीज
ममाखियों में भरती गुनगुन करती बड़ी किलोल।

मेरे मन में आती है बस एक बात सुन कंत
क्यों उठती है खेतों में अब भला सुहागिनि बोल?

सी-सी-सी कर चली बड़ी हचकोले भरके डीठ
पल्ला मैंने सांधा अपना हाय जतन कर नींठ।

ढफ के बोल सुनूं यों कब तक सारी रैन ढरी
पिया चली फगनौटी अब तो अंखिया नींद भरी।

(मार्च 2014)

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