सावित्री की कथा मैंने सबसे पहले अपनी मातामही से सुनी थी; संयोगवश उनका अपना नाम भी था- सावित्री देवी! उस समय मेरी उम्र वही रही होगी जिसमें बच्चे दादी-नानी से कहानियां सुनते-सुनते सो जाते हैं. ऊंघती आंखों के सामने सूक्ष्म चित्र-सा उभरा करता था कि एक सुकुमार युवती किसी असुर से वाक-युद्ध कर रही है! बार-बार सुनने पर भी यह गाथा मेरे लिए कभी पुरानी नहीं हुई. इसमें आध्यात्मिक सार निहित है इसका ज्ञान नहीं होने पर भी, यह चारित्रिक श्रेष्ठता का उदाहरण है, यह नहीं बूझने पर भी इसने मुझे मोह रखा था. सम्भ्वत इसके जीवंत प्रभाव ने ही, मुझे जीतने की आदत डलवा दी, साथ ही मेरे स्वभाव में ऐसा तत्त्व भर दिया जिससे मुझे केवल वही चीज़ सुहाती है जिसमें सकारात्मकता का रसायन हो.
श्रीअरविंद के वाङ्मय से परिचित होने का सौभाग्य मिलने पर उनका ‘सावित्री’ शीर्षक अप्रतिम महाकाव्य मेरे सामने था. उस स्वर्ण-स्पर्श के साथ ही यह पुरोआख्यान अपना वास्तविक अर्थ निसृत करते हुए मेरे मन-मस्तिष्क में उजागर हो उठा.
बाद में, महाभारत, ब्रह्मवैवर्तपुराण तथा मत्स्यपुराण में भी मैंने इसे उपाख्यान के रूप में देखा. यह वैदिक इतिवृत्त, भारतीय लोक जीवन में इस कोने से उस कोने तक प्रचलित है; कथा-विस्तार में भले ही कुछ अंतर हो पर मूल बिंदु अक्षुण्ण है.
‘पुरोगामिनी’ में मेरा कुछ नहीं है; शास्त्र में वर्णित तथ्यों एवं लोक-श्रुतियों की मार्मिकता को ही शब्द दिया गया है. मुझे लगता है कि इसका आनंद उठाने के लिए ज्ञानी होना ज़रूरी नहीं है; एक बालसुलभ अभिवृत्ति पर्याप्त है.
पुरोगामिनी (उपन्यास) – सुधा