पुरोगामिनी (उपन्यास) भाग – 4

‘संसार के लोग दुख भुलाना जानते हैं. ‘समय’ उनके दुख को व्यतीत करा देता है; उनके पास दुख से ध्यान बंटाने के अनेक साधन हैं. मृत्यु का शोक सामयिक होता है.’

‘मेरा मन किसी वस्तु से सुख नहीं पा सकेगा. मैं सत्यवान के बिना एक पल नहीं काट सकूंगी.’

‘दुख के प्रथम वेग में ऐसा लगता है- तुम अन्य कार्यों में व्यस्त होकर जीना सीख जाओगी.’

‘हे देव. आपके इस कथन से केवल मेरा ही नहीं, मानव मात्र का अपमान हो रहा है.’

‘परंतु, यह एक यथार्थ है पुत्री. सांसारिक प्रेम की अवधि मानव जीवन से भी अधिक भंगुर है. व्यक्ति जीवित रहता है, पर प्रेम समाप्त हो जाता है. प्रेम को बढ़ा-चढ़ाकर प्रदर्शित किया जाता है; इस नितांत सांसारिक भाव को एक अलौकिक महत्ता देने का मिथ्या प्रयास किया जाता है. परंतु, सत्यवान दिवंगत हो गया है, अत उसका प्रेम सम्भव है तुम्हारे हृदय में सदा बना रहे. ’

‘मेरा जीवन सत्यवान पर ही आश्रित है और चूकि मैं जीवित हूं इसलिए वह भी जीवित है. उसके सिवा मेरे जीवन में कुछ भी नित्य नहीं है, देव. सत्यवान को दिवंगत न कहें.’

‘अपने इस मनोभाव के कारण तुम उसके लिए संकट उत्पन्न कर रही हो. उसकी आत्मा नया जीवन अपनायेगी. इसमें तुम बाधा डाल रही हो; उसे मुक्त होने से रोक रही हो. तुम यदि उससे प्रेम करती हो, तो उसकी अपराधिनी मत बनो. उसे जाने दो. तुम मानव के कर्तव्यों से अवगत हो; सत्यवान को जाने दो.’

‘क्यों जाने दूं? असमय क्यों जायेगा वह? मुझे छोड़कर, अपने माता-पिता को छोड़कर वह क्यों जायेगा?’ सावित्री रो पड़ी.

‘क्योंकि वह इतनी ही आयु लेकर आया था.’

‘यह अनुचित है, देव. घोर अव्यवस्था है. अनीति है. अन्याय है.’

‘स्वर्ग को संसार से नीति और न्याय का पाठ नहीं पढ़ना है. भद्रे.’

‘मैं मानती हूं कि संसार में भी अव्यवस्था है, अकर्मण्यता और भ्रष्टता है. परंतु, हे पिता. इसके लिए केवल मानव ही उत्तरदायी नहीं है. उसके पैरों में विधि के अपारदर्शी विधान की जो बेड़ियां पड़ी हुई हैं, उनके कारण भी वह इतना निराशावादी हो गया है. वह अपने भूत और भविष्य को नहीं जानता; वह जब देखता है कि पापी सुख भोग रहा है और पुण्यात्मा कष्ट पा रहा है, तब उसकी आस्था डिगने लगती है.’

‘हो सकता है, तुम जो कह रही हो उसमें आंशिक सत्य हो. यह भी माना जा सकता है कि आत्मा की निरंतरता का सत्य इतना गुह्य नहीं होना चाहिए. परंतु वर्तमान मनुष्य के हाथ में सारे रहस्यों की कुंजी नहीं दी जा सकती. तुम स्वयं जानती हो कि मनुष्य श्रेष्ठतम उपलब्धियों को भी भ्रष्टतम इच्छाओं की पूर्ति में लगा देने का आदी है. वह स्वयं उत्तम को निकृष्ट बना देता है. अभी मनुष्य इतना विकसित नहीं है कि उसे ही भाग्यविधाता बना दिया जाये.’

‘परंतु मानव न्यूनतम साधन में अनन्य कार्य कर डालने की क्षमता रखता है और इसके अलावा उसमें विकसित होने की अद्भुत प्रवृत्ति है. वह आगे बढ़ना चाहता है, ज्ञात से अज्ञात की ओर जाना चाहता है. उसे हर मुकाम पर न्यून मानकर त्याग दिया जाता रहा है; यह क्या उसके प्रति होने वाला अन्याय नहीं है? उसकी कमियों के अनेक ऐसे कारण हैं जिनके लिए उसे उत्तरदायी नहीं माना जा सकता. हे देव उसे अवसर मिलना चाहिए.’

‘उसे अनेक अवसर दिये गये हैं, सदा से दिये जाते रहे हैं, परंतु कितने अवसरों का वह सही उपयोग कर पाता है? उसे अवसर खोने की आदत पड़ गयी है.’

‘वह भ्रमित हो जाता है.’

‘मानव अपने लिए स्वयं भ्रमों के जाल बुनता है. भद्रे, तुम इस प्रकार के किसी भ्रम-जाल में मत उलझो; तुमने जो सिद्धियां प्राप्त कर ली हैं उनका उपयोग कर संसार में आराम से रहो.’

‘हे देवेश, स्वयं आप इस बात के लिए मानव की निंदा कर चुके हैं कि वह बड़ी-बड़ी उपलब्धियों का उपयोग तुच्छ लाभों के लिए करता है; फिर आप मुझे ऐसी निंदनीय सलाह क्यों दे रहे हैं? क्या ऐसी ही बातें मानव को उसके आसन से नीचे गिरा देने वाली स्थितियां उत्पन्न नहीं करतीं?’

‘तुम जो करोगी, वह पवित्र ही होगा.’

‘सत्यवान के बिना मेरे जीवन में न कोई पवित्रता है, न श्रेष्ठता, न सौंदर्य. मेरा सब कुछ उसी पर निर्भर करता है. वह मेरे जीवन की धुरी है. मैं उसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती. हम दो होकर भी एकात्म हैं.’

‘हे दुक्खिनी. शोक ने तुम्हारी बुद्धि हर ली है. तुम्हें पता है कि सभी आत्माएं परमात्मा के ही स्वतंत्र अंश हैं; इनमें किसी पर अपना अधिकार जमाना मनुष्य की भारी भूल है. एक व्यक्ति दूसरे के सम्पर्क में क्यों आता है, यह बात भी पारलौकिक विधान के अंतर्गत आती है.’

‘पर, आत्माओं के युग्म भी होते हैं, देव. उनके समूह भी होते हैं और उनकी यात्राओं का लक्ष्य भी कभी-कभी एक ही होता है. सत्यवान के बिना मैं मार्गच्युत नहीं होना चाहती. मुझे उसी के साथ अपनी यात्रा पूरी करनी है.’

‘परंतु नियति ने कुछ और ही तय कर रखा है.’

‘हे देवेश, आप नियम के अनुसार अपनी प्रजा का पालन करते हैं, नियमानुसार उन्हें गति प्रदान करते हैं अतः आप यमराज नाम से जाने जाते हैं. आप विवस्वत के प्रतापवान पुत्र हैं, अत बुधजन आपको वैवस्वत कहते हैं. लोगों को आप धर्माचरण की ओर प्रेरित करते हैं, इसलिए धर्मराज कहलाते हैं. मनुष्य आप पर जितना विश्वास करता है उतना स्वयं पर भी नहीं करता; हर व्यक्ति यह मानता है कि यदि मृत्यु की निर्धारित तिथि नहीं आयी है, तो उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. इसलिए आप चाहेंगे और नीति निर्धारित कर देंगे, तो मनुष्य आपके नियमन में प्रगति कर सकता है. तब आप उसे नियति-निर्धारण की प्रक्रिया में भी सम्मिलित कर सकते हैं. और, मैं आपके समान विज्ञ नहीं होने पर भी यह कहना चाहती हूं कि किसी भी नियम या नीति को माता की तरह सहृदय और संवेदनशील होना चाहिए; परंतु हे देवेश, आपके नियम निर्मम हैं.’

‘पुत्री, तुमने जो बातें कही हैं, इसके पहले किसी ने मुझसे नहीं कही थीं. मैं इन पर विचार करूंगा. मुझे मानव की प्रगति पर प्रसन्नता हो रही है.’

‘आपको प्रसन्न देखकर मेरा मन पुलकित हो रहा है. आपने परम हितैषी की तरह मुझे संततियों का वरदान दिया है, मेरे लिए यह परम सौभाग्य की बात है. मैं आपकी कृपा से कभी उऋण नहीं हो सकती. पर…’

सावित्री को बीच में ही टोककर यमराज बोलने लगे- ‘तुम अपनी संततियों के साथ जीवन की पूर्णता प्राप्त करोगी इसका आशीर्वाद भी तुम्हें देता हूं. हे प्रगल्भे. विदा के पूर्व तुम्हें एक और वरदान देना चहता हूं. शीध्रता से कोई अप्रतिम वर मांगकर वापस चली जाओ.’

‘हे पिता. इस अंतिम वरदान के रूप में मैं सत्यवान का सुदीर्घ जीवन मांगती हूं…यह चौथा वरदान प्रस्तावित करते समय सत्यवान की मांग करने से आपने मुझे वर्जित भी नहीं किया है. आप मुझे औरस संतान का वरदान दे चुके हैं; आप धर्मराज हैं, आपका वचन असत्य नहीं हो सकता और आप अपनी इस मुंहबोली बेटी को धर्मसंकट में नहीं डालना चाहेंगे. हे धर्मज्ञ. आप नियामक हैं; जीवन को मृत्यु की ओर ले जाने का नियम आपने ही बनाया है, मृत्यु को जीवन की ओर मोड़ने वाला नियम भी आप ही बना सकते हैं. मेरे वचन को सत्य मानें; मैं सत्यवान के बिना जीवित नहीं रहूंगी. मेरा जन्म सत्यवान के लिए ही हुआ है, मृत्यु भी उसी के लिए होगी. आप यदि चाहते हैं कि आपका तीसरा वरदान मिथ्या न हो, तब मुझे सत्यवान लौटा दें.’ 

यमराज ठिठक गये. उन्होंने अपने हाथ के पाश की गांठ खोल दी, कंपित हाथों को आशीर्वाद के लिए उठाते हुए कंठावरोध के बीच सावित्री से कहा- ‘सौभाग्यवती भव. जाओ, पुत्री. शीघ्रता से जाओ. मैंने तुम्हारे पति को मुक्त कर दिया है. वह जगकर तुम्हें देखना चाहेगा. तुम्हारी अनुपस्थिति से चिंतित हो उठेगा. तुम्हें लम्बा मार्ग तय करना है; देर न करो. तुम्हारा कल्याण हो, भद्रे.’ यमराज ने अपना मुंह फेर लिया.

वे नहीं चाहते थे कि एक मानवी उन्हें भावुक होते देखे. सावित्री उनके पैरों पर झुककर रो पड़ी. उसके मुंह से बोल नहीं फूटे. उसने करबद्ध होकर अपना मूक धन्यवाद ज्ञापित किया और दूने वेग से लौट चली. उसे जितना समय यमराज के साथ जाने में लगा था, उसके शतांश में वह वापस आ गयी.

सत्यवान उसी तरह भूमि पर पड़ा था. वह विह्वल होकर उससे लिपट गयी; उसका चुम्बन लेने लगी; उसकी आंखों पर अपनी उंगलियां फिरायीं; उसकी नासिका और छाती टटोलकर आश्वस्त होने लगी. सत्यवान के होंठ फड़फड़ाये, उसने धीरे-धीरे अपनी आंखें खोलीं और बुदबुदाया. सावित्री उसकी तलहथी सहलाने लगी. अब वह पूरी तरह होश में आ चुका था. उसने प्रेम भरी दृष्टि से सावित्री को निहारा, ठीक उसी तरह जैसे कोई लम्बी और कठिन यात्रा से लौटने पर अपने प्रियजन को निहारता है. उसने दुर्बल स्वर में पूछा- ‘वह कहां गया?’

‘कौन?’

‘जो मुझे ले जा रहा था.’

‘वे जा चुके हैं, आर्य. उन्हें प्रणाम कीजिए.’

सत्यवान ने सावित्री की बात मान, अपने दोनों हाथ जोड़कर माथे से लगा लिया और किसी अज्ञात अदृश्य को अपनी श्रद्धा निवेदित करते हुए थके-थके मंद स्वर में जिज्ञासा की- ‘वे कौन थे, आर्ये?’

‘इस पर हम बाद में बात करेंगे. अभी शीघ्रता से घर लौटना है. बहुत देर हो चुकी है. माताश्री चिंतित हो रही होंगी.’

‘सवि, यह मेरा भ्रम है या सचमुच तुम्हारे चारों ओर प्रकाश का एक वलय है? तुम्हारा मुख मुझे और भी कांतिमय. और भी सुंदर लग रहा है, प्रिये.’

‘आर्य, मैं मद्र नरेश की पुत्री, आपकी वही सावित्री हूं जिसे आपने प्रथम दृष्टि में ही अपना बना लिया.’

सावित्री ने सत्यवान के हाथ को अपने हाथों में लेते हुए कहा; उसका गला भर आया था.

‘मैं अभी भी दुर्बलता अनुभव कर रहा हूं. बहुत गहरी नींद में सो गया था. अद्भुत स्वप्न देख रहा था, जिसमें तुम भी मेरे साथ बनी रहीं. अभी भी मुझे सहारा देकर ले चलने का काम तुम्हें ही करना होगा. मुझे इतनी दुर्बलता क्यों हो गयी?’

‘मेरी बांह पकड़ कर उठने का प्रयत्न कीजिए.’

सावित्री ने अपने बिखरे केशों का जूड़ा बांधा और दोनों हाथों से पकड़कर सत्यवान को उठाने लगी. सावित्री के कंधे का सहारा लेकर सत्यवान उठ खड़ा हुआ. उसने उसकी देह में लगी धूल को अपने आंचल से पोंछ दिया.

‘फल का झोला पेड़ से लटका है; उसे रहने दें. दिन में किसी वनवासी को भेज कर मंगवा लेंगे. सुरक्षा के लिए यह कुल्हाड़ी ले लेती हूं.’ सावित्री बायें हाथ में कुल्हाड़ी थामकर चलने को तैयार हो गयी. उसने अपने दाहिने हाथ से उसकी कटि को घेर रखा था और थाह-थाह कर चल रही थी. उसके बायें कंधे पर सत्यवान का हाथ था. दूर पर एक सूखा हुआ वृक्ष जल रहा था जिससे मंद-मंद प्रकाश आ रहा था. फिर भी अमावस्या के घोर अंधकार के कारण उन्हें आगे बढ़ने में कठिनाई हो रही थी.

‘प्रिये, मैं जब शिरोवेदना से छटपटाता हुआ तुम्हारी गोद में सिर रखकर सोया, तब मुझे नींद-सी आ गयी; मैंने एक विराट भयावह व्यक्ति को अपने पास देखा. क्या वह भी स्वप्न ही था?’

‘अभी इन बातों की चर्चा का समय नहीं है, आर्य. आप अपने ऊपर ध्यान दें; आपकी दुर्बलता कम हुई? मुझे तो इस मार्ग का ज्ञान नहीं है, युवराज, आप इससे परिचित हैं; समझ-बूझ कर चलिए. हम कहीं भटक तो नहीं रहे हैं?’

‘चिंता न करो; हम ठीक रास्ते पर हैं. चलने से मेरी दुर्बलता कम होती जा रही है. मुझे लगता है, घर पहुंचते-पहुंचते पूरी तरह ठीक हो जाऊंगा. मुझे तो तुम्हारे उपवास को लेकर चिंता है.’

‘मेरा व्रत पूरा हो गया, आर्य.’

सावित्री भावुक हो गयी. उसका गला भर आया, वह अपने को नियंत्रित करती रही.

‘तुम्हें शीघ्र भोजन करना चाहिए.’

‘कर लूंगी. हम ठीक रास्ते से जा रहे हैं न? इसी मार्ग से आये थे?’

‘हां, यह मेरा चिर परिचित मार्ग है. तुम शंका मत करो, हम जिस रास्ते आये थे, उसी से लौट रहे हैं. मैं इसी मार्ग से आया-जाया करता हूं. अब इस पलास वन के पास से दूसरा रास्ता फूटता है; वहां से हम उत्तर की ओर मुड़ेंगे. उसके बाद तो दस कदम पर अपना आवास परिसर प्रारंभ हो ही जाता है.’

इसी बीच राजा द्युमत्सेन के नेत्रों की ज्योति वापस आ गयी थी. वे आनंद से भरकर चारों ओर निहारने लगे. उसी आनंदातिरेक में वे सभी ऋषियों के आश्रम में सपत्नीक जाकर प्रणाम निवेदन कर आये. चारों ओर हर्षध्वनियां सुनाई देने लगीं. लोग एक दूसरे को रोक-रोक कर पूछने-बताने लगे- ‘कुछ मालूम हुआ? अपने महाराज की आंखें ठीक हो गयीं; अब वे अच्छी तरह देख सकते हैं. मैंने अपना परिचय दिया, तो मुझे गले लगा लिया. सब को बुलाकर मिल रहे हैं.’ सभी लोग हर्षोल्लास से भर कर राजा को बधाइयां देने में एक-दूसरे से आगे होना चाहते थे. परंतु स्वयं राजा द्युमत्सेन जिस मुख को देखना चाह रहे थे वह कहां अटक गया है? क्यों हो गयी इतनी देर? इसको लेकर राजा-रानी सहित सारे लोग चिंतित थे. बढ़ते हुए अंधेरे के साथ लोगों की चिंता भी बढ़ती जा रही थी. सब के मन में तरह-तरह की आशंकाएं उठ रही थीं. ब्राह्मणों ने अग्नि प्रज्वलित की और राजा द्युमत्सेन के आसपास बैठ गये. वे अपने शुभ वचनों से उन्हें आश्वस्त करने लगे. सब के मन में दुश्चिंताएं थीं, परंतु अपने मुंह पर कोई अशुभ बात आने नहीं देता था, बल्कि हर कोई सकारात्मक प्रभाव डालने में लगा था. मुनियों में श्रेष्ठ सुवर्चा ने कहा- ‘राजन! युवराज सत्यवान की भार्या तपश्चारिणी हैं; युवराज का अनिष्ट नहीं हो सकता. मेरा विश्वास है, यदि कोई दुर्घटना भी हुई हो, तो भी वे लोग बिना किसी हानि के सकुशल लौट आयेंगे.’

उनके एक शिष्य ने कहा- ‘हमारे गुरुदेव का वचन कभी असत्य नहीं हो सकता. युवराज सपत्नीक सकुशल हैं.’

मुनि दालभ्य बोले- ‘महाराज, जैसे आपके आंखों की ज्योति लौट आयी है, वैसे ही युवराज सत्यवान भी लौट आयेंगे. आप चिंता न करें. वे दोनों सुरक्षित हैं. आपकी पुत्रवधू ने अपना उपवास संकल्प भी पूरा कर लिया है; किसी तरह की कोई अकल्याणकारी बात नहीं हो सकती.’

मुनि अपिस्तम्ब ने काव्यमयी भाषा में सत्यवान की कुशलता का संकेत दिया. ग्रह-नक्षत्रों की गणना में सिद्धहस्त धौम्य मुनि ने विचार कर कहा कि भारी-से-भारी विपत्ति से भी युवराज बच निकलेंगे. सत्यनिष्ठ ऋषि-मुनियों के स्वस्तिजनक वचनों से राजा का चित्त कुछ स्थिर हुआ.

वनवासियों और मुनिकुमारों ने कई दल बनाये. हर दल के नायक के हाथ में एक मशाल थी; वे सब अलग-अलग दिशाओं की ओर चल पड़े. वे पुकारते भी जा रहे थे

 ‘युवराज सत्यवान, हम आपके संधान में हैं; आप मशाल के प्रकाश की ओर बढ़ते हुए हमसे आ मिलें; हम आप को सुरक्षित ले चलेंगे.’ इन्हीं में एक दल सत्यवान और सावित्री को दिशा दिखाने में सफल हुआ और उन्हें साथ लेकर आवास पर पहुंचा. राजा के समीप बैठे लोगों के बीच आनंद और उत्सुकता की लहर फैल गयी. समवेत प्रश्न होने लगे- ‘क्या हो गया था? इतनी देर क्यों हुई?’ सत्यवान ने थके से स्वर कहा- ‘मैं जब काष्ठ संचयन के लिए पेड़ पर चढ़ा, तब अचानक अस्वस्थ हो गया था. स्वस्थ होने में समय लगा…’

रानी ने लपककर बेटे को कलेजे से लगा लिया और कहा- ‘ओह बेटे. तुम नहीं जानते मेरा यह समय कैसे बीता है. क्या सावित्री के कारण यह विलम्ब हुआ? उसे नहीं ले जाना था.’

‘नहीं माताश्री. यह न होती तो आज मैं नहीं लौट पाता.’

‘क्या हुआ था?’ रानी ने पुत्रवधू से पूछा. ‘शिरोवेदना’ सावित्री ने सिर झुकाकर, धीरे-से कहा. ‘तुम्हें?’

‘नहीं मां, मुझे.’ सत्यवान ने आगे बढ़कर कहा- ‘इसने उपचार से मुझे स्वस्थ किया है.’

‘ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ था?’

रानी को अभी भी लग रहा था कि सावित्री के कारण ही सत्यवान को शिरोवेदना हुई होगी.

राजा द्युमत्सेन पुत्र और पुत्रवधू को निहारते नहीं अघा रहे थे. जब उनकी आंखें चली गयीं थीं, तब उनका पुत्र मात्र आठ वर्षों का बालक था. आज इस सजीले, सुंदर युवक को देखकर वे आनंद विह्वल होकर रो पड़े. वह नन्हा-सा पौधा सघन वृक्ष के रूप में उनके सामने लहलहाता खड़ा था.

‘अच्छा, अब तुम दोनों विश्राम करो. और, वधू, आज मैंने तुम्हें पहली बार देखा है…तुम तो बहुत कृशकाय लगती हो; पुत्री. मैं तुम्हें कुछ देना चाहता हूं, बोलो क्या दूं? तुम्हारी जो इच्छा हो, मांगो’

सावित्री श्वसुर तथा सासु के पांव छूकर बोली- ‘आशीर्वाद, पिताश्री. केवल आशीर्वाद.’

पुत्रवधू की विनम्रता से गद्गद होकर सत्यवान की माता ने उसे गले लगा लिया.

‘सौभाग्यवती हो.’ द्युमत्सेन ने कहा.

और, अपनी पत्नी की ओर घूमकर बोले ‘वधू को अन्नग्रहण कराइए, इसके व्रत का समापन होना है. पुत्री, तुमने यह संकल्प क्यों लिया था?’

‘कल्याण हेतु.’ संकोच से भरकर सावित्री ने संक्षिप्त तथा विनम्र शब्दों में कहा. उसने वहां उपस्थित सभी लोगों के चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त किये और सिर झुकाये माताश्री के पीछे-पीछे कुटी के भीतर चली गयी. सावित्री के जाने पर सबसे वयोवृद्ध और सूक्ष्म दृष्टिसम्पन्न मुनि ने सत्यवान से पूछा- ‘युवराज, आपके लौटने में अस्वाभाविक विलंब होने पर आपके माता-पिता सहित हम सब चिंतित हो उठे थे. अब आप हमें बतायें कि वस्तुत क्या हुआ था?’

‘मुनिवर, मैं अस्वस्थ हो गया था. जैसा कि मैं बता चुका हूं, काष्ठ-संचय के लिए पेड़ पर चढ़ते ही, शिरोवेदना के साथ मेरे सारे शरीर में दाह होने लगा. मैं सावित्री की गोद में सिर रखकर सो गया, वह मेरा सिर सहलाती रहीं, मुझे स्वस्थ करने के उपचार में लगी रहीं और मैं घंटों प्रगाढ़ निद्रा में पड़ा विचित्र स्वप्न देखता रहा. सावित्री हर पल मेरे साथ रहीं और वही मुझे वापस लायीं. हम जानते थे कि आप सब चिंतित होंगे, परंतु नींद खुलने पर भी मुझे भारी दुर्बलता का अनुभव हो रहा था, यहां तक कि खड़ा नहीं हो पा रहा था. विलम्ब का यही कारण था.’

‘पुत्र. तुम भी जाकर विश्राम करो.’

सत्यवान जब अंदर चला गया, तब सूक्ष्मद्रष्टा मुनि ने कहा- ‘राजन. बात उतनी ही नहीं है, जितना युवराज बता रहे हैं. आपकी महिमामयी पुत्रवधू किसी रहस्य को जानती हैं और न केवल जानती ही हैं, वह बहुत बड़े युगांतरकारी संघात की प्रतिभागिनी भी हैं. उन्होंने कोई अकल्पनीय रहस्यपूर्ण कार्य किया है.’

‘कैसा कार्य, मुनिवर?’

‘कोई रहस्यपूर्ण, अलौकिक. ’

‘युवराज की आकस्मिक शारीरिक अस्वस्थता की बात में रहस्य कैसा? सावित्री अत्यंत सरल प्रतीत होती है; उस पर किसी रहस्यात्मकता का दोषारोपण उचित नहीं लगता. ’

‘यह आरोप नहीं, स्तुति है, महाराज.’

‘हां, राजन हम अनुभव कर रहे हैं कि आपकी पुत्रवधू में अत्यंत उन्नत आध्यात्मिक गुण हैं.’

अन्य मुनि ने पूर्व वक्ता का समर्थन किया. ‘हमें तो इसका अनुमान उसी दिन हो गया था जब राजा अश्वपति अपनी राजकुमारी को लेकर पधारे थे. और, तब से अब तक वे लगातार किसी-न-किसी अनुष्ठान में ही लगी रही हैं. परंतु, आज उनके मुखमंडल पर जो आभा दीखती है, उसमें अपूर्व दिव्यता है.’ कई लोग बोल उठे.

राजा के समीप लोगों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी. जिन्हें सावित्री-सत्यवान के लौटने की बात मालूम होती थी, वही उन दोनों को देखने और अपनी शुभकामनाएं देने पहुंच जाते थे. शाल्व वन का सारा जनगण राजकुटीर के परिसर में एकत्र हो गया था. कुछ देर पहले वातावरण में जो एक आशंकाग्रस्त भारीपन था वह तिरोहित हो चुका था. उसके स्थान पर आ गया था एक ऐसा स्वतस्फूर्त उल्लास जो सामूहिक उत्सवों में देखा जाता है. देर रात तक लगभग सारा शाल्व वन जग कर आनंद मग्न रहा. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वे सब मिलकर सावित्री-सत्यवान के शुभविवाह की सालगिरह मना रहे हों.

उधर कई दिनों से राजा अश्वपति की धर्मपत्नी, सावित्री की माता पति से रुष्ट थीं क्योंकि वे पुत्री के लिए कोई चिंता प्रकट नहीं कर रहे थे. वे अपनी व्यथा छिपा नहीं पा रही थीं; उन्होंने पूछा भी- ‘क्या सभी पिता ऐसे ही होते हैं, या आर्यपुत्र विशेषरूप से कठोर हैं?’

‘सावित्री में मेरे प्राण बसते हैं, आर्य. वह संकट से गुजर रही है, यह जानता हूं. परंतु यह भी जानता हूं कि उसमें नियति के दुस्तर नद को पार करने की क्षमता है. मेरा विश्वास है कि सावित्री सत्यवान के साथ सुरक्षित है. परंतु आपकी तरह मेरे मन में भी उसे देखने की इच्छा है; चलिए , हम दोनों उससे मिल ही आयें.’ द्रुतगामी यान में भांति-भांति की दुर्लभ उपहार सामग्रियां भरकर सावित्री के माता-पिता जब शाल्व वन के निकट पहुंचे तब दूर से ही उन्हें शुभ संकेत मिलने लगे. राजा द्युमत्सेन का कुटीर प्रकाश से जगमगा रहा था. वहां आ-जा रहे लोग पक्षियों की तरह चहक रहे थे. अश्वपति दम्पति बिना सूचना दिये ही अचानक पहुंचे थे, परंतु उनका स्वागत-सत्कार ऐसा हुआ मानों उस श्रीसमारोह के मुख्य अतिथि के रूप में उन्हीं की प्रतीक्षा की जा रही हो. सावित्री के माता-पिता इस बात से पुलकित थे कि शाल्व वन के इस मंगलोत्सव के केंद्र में उनकी ही आत्मजा है. सावित्री को गले लगाकर उनके मन में उसी आनंद की पुनरावृत्ति हुई, जो उसके जन्म लेने पर हुई थी. आनंदोत्सव की वह रात बीती. एक नया सूर्योदय हुआ. दैनिक पूजा-अर्चना के बाद फिर सब लोग एकत्र होने लगे. एक अलौकिक घटना जिसका वृत्तांत लोगों को ज्ञात नहीं था, अपना सूक्ष्म प्रभाव संक्रमित कर लोगों को उल्लसित कर रही थी.

यह उल्लास तब और बढ़ गया जब राजधानी से महामंत्री और राजा के अन्य विश्वसनीय अनुचर महत्त्वपूर्ण सुसंवाद लेकर हाथी-घोड़े, रथ और पालकी के साथ आ पहुंचे.

कल वहां अचानक नृशंस घटनाएं घट गयी थीं. राजा द्युमत्सेन के जिस शत्रु ने उनका राज्य अपहृत किया था, सभी भीत समर्थकों सहित उसे उसके अमात्यों ने ही मार डाला. उनके बीच वर्चस्व की लड़ाई प्रारम्भ से ही चल रही थी. लेकिन लोग यह नहीं जानते थे कि सत्ता का संघर्ष इस सीमा तक जा पहुंचेगा. उस कांड में द्युमत्सेन से विश्वासघात करने वाला मंत्री भी मारा गया था. उन लोगों ने अपने राज्य से लाकर सेना की एक छोटी-सी टुकड़ी अपनी सुरक्षा के लिए यहां तैनात कर रखी थी. इस खून-खराबे की बात जैसे ही बाहर हुई कि सैनिकों की वह टुकड़ी अपने राज्य की ओर पलायन कर गयी. उसके सेनानायक को कहते सुना गया कि अपने राजा और उनके संगियों की हत्या के बाद वे इस राज्य में सुरक्षित नहीं हैं; उन्हें या तो यहां की सेना या यहां की जनता मार डालेगी. इस तरह शाल्व देश शत्रु के चंगुल से मुक्त हो चुका था.

द्युमत्सेन की पक्षधर जनता और हाशिये पर पहुंचा दिये गये महामंत्री तथा अन्य विशिष्ट जनों ने इस आपात्कालीन स्थिति में राज्य को अपने हाथों में ले लिया. उन्होंने एक मत से तय किया कि राजपरिवार अरण्य से वापस बुला लिया जाये. संपूर्ण देश का जनगण भी एक स्वर से यही मांग कर रहा था कि हमारे राजा को, भले ही चक्षुहीन ही क्यों न हों, वापस लाया जाय. और, अब तो युवराज भी वयस्क हो चुके हैं.

उन लोगों को यह पता था कि युवराज सत्यवान का शुभविवाह मद्र देश के राजा अश्वपति की पुत्री राजकुमारी सावित्री के साथ हुआ है. इसीलिए वे लोग पूरी तैयारी के साथ अपने राजा-रानी, युवराज और युवराज्ञी को ससम्मान ले जाने आ पहुंचे थे.

अपने राजा को स्वस्थ और पूर्णांग पाकर महामंत्री विस्मयभरी प्रफुल्लता के साथ उनके सम्मुख दंडवत हो गये और उनके अवलोकन के लिए राज्य परिषद का सनद प्रस्तुत करते हुए निवेदन किया- ‘राजन, आपकी जय हो. नगर में आपका विजयघोष किया जा चुका है. सारा राज्य आपकी प्रतीक्षा कर रहा है. आपके बिना राज्य अनाथ हो गया था. लोगों ने भारी कष्ट में दिन बिताये हैं. जैसे ही राज्य में आपके चरण पड़ेंगे, पिछली सारी हानियां दूर होने लगेंगी और अपनी पुरानी खुशहाली लौट आयेगी. हम पूरी तैयारी के साथ आये हैं, स्वामी.’

अब शाल्व वन के लोगों को ज्ञात हो गया था कि राजपरिवार राजधानी लौट जायेगा. इस समाचार में विजय का आनंद और बिछोह का दुख मिश्रित था. राजा द्युमत्सेन अपनी भद्रता और सदाशयता के कारण यहां के लोगों के लिए एक पितृमूर्ति की तरह प्रतिष्ठित हो गये थे. वे अब यहां नहीं रहेंगे, यह सोचकर सब उदास हो गये. राजा ने लोगों को आश्वस्त किया कि वे युवराज सत्यवान को राज्य सौंपकर वानप्रस्थ प्राप्त करेंगे और तब उनका यहां का आवास यही कुटीर होगा.

सभी ऋषि-मुनियों का पद-पूजन करने के बाद, सबसे यथायोग्य संवाद-वार्ता कर शुभ मुहूर्त में राजपरिवार ने राजधानी की ओर प्रस्थान किया. राजा द्युमत्सेन युवराज सत्यवान के साथ विशेष रथ में बैठे थे. उस रथ के साथ चल रही थी एक सुसज्जित पालकी जिसमें युवराज्ञी सावित्री सहित रानी बैठी थीं. उनके आगे-पीछे घोड़े और हाथियों पर मंत्री, सैनिक तथा अन्य कर्मचारियों के जत्थे चल रहे थे. हितैषी सहयोगियों से आवेष्टित राजपरिवार का यान जब नगर की सीमा में पहुंचा, तब आबालवृद्ध-नर-नारी समूह उनके स्वागत में हर्षध्वनि करता और फूल बरसाता खड़ा था. लग रहा था, जैसे आज कोई पुरोत्सव हो. महल के द्वार पर पुरोहितों ने राजा तथा युवराज का विधिवत अभिषेक किया. रानी तथा युवराज्ञी का पग-पूजन हुआ.

कई दिनों तक राज्य का समस्त जन समाज दीपोत्सव, रंगोत्सव, गीतोत्सव और मधुरोत्सव मनाता रहा.

कालांतर में वे अन्य शुभ वरदान भी फलीभूत हुए जो महिमामयी सावित्री को महाप्रतापी धर्मराज से प्राप्त हुए थे.

(समाप्त)

 

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