सामने आये कठिन मोड़ पर उसके सम्मुख आ खड़ी हुईं एक सौम्य वृद्धा; लगा जैसे वे उसी की प्रतीक्षा में बैठी हों. संसार के दुखों, कष्टों और अवसादों को मिटाने के प्रयास में लगी इस करुणामयी ने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह सावित्री की आत्मा है. वे चाहती हैं कि संसार दुखरहित हो जाये. वे संसार को कष्टों से त्राण दिलाना चाहती हैं. वे कामना करती हैं कि अवसाद के बादल मानव मन को कभी नहीं घेर पायें. उन्होंने लम्बी सांस लेकर कहा कि इसी कार्य के लिए उनकी सत्ता समर्पित है. वे युगों से इसी कार्य में अपनी सारी शक्ति लगा रही हैं. उनका अथक प्रयास निरंतर जारी है.
‘आपको कितनी सफलता मिली?’ -सावित्री ने करबद्ध होकर पूछा.
‘इसी बात का दुख है मुझे. मैं निरंतर प्रयासरत हूं. परंतु अभी तक मैं संसार के दुख रंचमात्र भी दूर नहीं कर पायी हूं. यथा-तथ्य स्थिति बनी हुई है. फिर भी मेरा प्रयत्न नहीं थमा है.’
‘असफलता का कारण?’
‘मानव की उदासीनता; वह दुख-कष्ट को अपने जीवन का सत्य मान बैठा है. इससे निकलने की बात ही नहीं सोचता. उसके सोच की सीमा कष्ट ‘कम’ करने मात्र तक ही होती है; कष्ट से मुक्त होने की बात उसके लिए अकल्पनीय है. उसे दुख में भी रसानुभूति होती है इसलिए उसने ‘करुण रस’ को महिमामंडित कर दिया है. उसने दुख सह लेने की क्षमता को भी अपने दंभ से जोड़ रखा है. इतना ही नहीं, वह मान बैठा है कि दुख और कष्ट की अनिवार्य परीक्षा से गुजरे बिना वह आगे नहीं बढ़ सकता. मनुष्य को यह समझा पाना लगभग असम्भव हो गया है कि वह बिना दुख के भी प्रगति कर सकता है. ऐसी मानसिक, प्राणिक अभिवृत्ति से उसे निकाल पाने में भारी कठिनाई होती है. वस्तुतः मनुष्य को मृत्यु की प्रतीक्षा में ही जीने का अभ्यास हो गया है. इसे वह अवश्यम्भावी और अनिवार्य मानने लगा है.’
सावित्री सोच में पड़ गयी यह मेरी शक्तिशालिनी आत्मा नहीं हो सकती; यह मेरी आत्मा का वह अंश मात्र है जो मेरी समस्या के प्रति पूर्णत संवेदनशील है. परंतु केवल संवेदनशीलता से शक्ति नहीं आ पाएगी. उसके लिए अन्य सक्रियता की भी आवश्यकता है. वह आगे बढ़ गयी.
दूसरे पड़ाव पर जो ऐश्वर्ययुक्त, महिमामयी मूर्ति दिखाई पड़ीं उसके सम्मुख सावित्री नतशिर हो गयी. उस नारी मूर्ति के चारों ओर एक दिव्य प्रभामंडल था. उनका स्वालंबित आसन धरती से ऊपर उठा हुआ था. शक्ति और संपन्नता की किरणें उनसे विकीर्ण होकर प्रकाश फैला रही थीं. उन्होंने सावित्री के प्रति स्वागतपूर्ण मुस्कान बिखेरते हुए कहा कि वे उसकी आत्मा हैं. वही दुर्गा बनकर असुरों का संहार करती हैं और वही लक्ष्मी के रूप में मानव जीवन से अभाव दूर करती हैं. उनकी कृपा से मानव धन्य हो जाता है. जिस पर उनकी कृपादृष्टि नहीं पड़ती, वह असुरक्षित और अभावग्रस्त होकर संकट में पड़ जाता है. संसार में जीवन को सुरक्षित रखने और उसे जीने योग्य बनाने के लिए उनके कल्याणकारी कार्य निरंतर चलते रहते हैं.
‘संसार से असुर समाप्त हो गये? मानव जीवन सुरक्षित हो गया?’ सावित्री ने हाथ जोड़कर जिज्ञासा की.
‘असुर समाप्त नहीं हो पा रहे हैं, क्योंकि मानव स्वयं आसुरिक प्रवृत्तियों का आनंद उठाना चाहता है; यही सबसे बड़ी बाधा है. और, जब मानव ही आसुरिक प्रवृत्ति के संवाहक बन जाते हैं, तब मानव समाज की सुरक्षा भी संकट में पड़ जाती है.’
‘और अभाव? क्या मानव जीवन अभाव-मुक्त हो सका है?’-सावित्री का दूसरा प्रश्न था.
‘अनेक कारणों से ऐसा नहीं हो पा रहा है; एक तो यह है कि मानव मन का लालच उसे कभी संतुष्टि का अनुभव करने नहीं देता. दूसरे, जो संपदा मानव के जीवन-यापन हेतु उपलब्ध करायी जाती है उसे वे लोग हड़प लेते हैं जिनको उसकी ज़रूरत नहीं है. इसलिए एक असंतुलन सदा बना ही रहता है, अभावग्रस्तता मिट नहीं पाती. वस्तुत इस पूरी प्रक्रिया में मानव का भी सहयोग चाहिए; उसे एक सकरात्मक प्रतिभागी बनना होगा. अभी तक मानव में पूर्ण पात्रता भी नहीं आ पायी है. जिस ऐश्वर्य को असुरों ने बल प्रयोग द्वारा या चुराकर छिपा रखा है, उसे वापस लाने के लिए जो उदात्त शक्ति चाहिए, मानव में उसका भी अभाव है. इस कार्य के लिए जिस निष्काम उद्यम की आवश्यकता है, मानव में वह भी लगभग नहीं ही है. दूसरी अधिक आपत्तिजनक बात यह भी है कि धन को अपने नाम करने या छिपाकर रखने में मानव असुरों की ही नकल करने लगा है. तीसरी बात यह है कि अभी तक मनुष्य ऐश्वर्य का प्रयोजन ही नहीं समझ पाया है. इस दैवी शक्ति को व्यर्थ गंवा देना या समय पर इसका उपयोग नहीं कर पाना मनुष्य का स्वभाव बन गया है. ‘धन’ की दिव्यता को जिस पवित्र स्पर्श की आवश्यकता है, मनुष्य के भीतर अभी तक वह शुचिता विकसित नहीं हो पायी है. लेकिन मैंने हार नहीं मानी है; मैं अनवरत अपने कार्य में लगी हुई हूं. मेरा विश्वास है कि एक-न-एक दिन पृथ्वी पर असुर-लीला समाप्त हो जायेगी और मानव ‘अर्थ’ की सार्थकता से प्रतिबद्ध होकर अपने आपको इस योग्य बना लेगा कि वह पूरी तरह अभावों से मुक्त हो सके. ’
सावित्री गहरे सोच में डूब गयी. मेरी आत्मा इतनी असहाय कैसे हो सकती है? इन्हें अपने कार्य की सफलता के लिए मानव का सहयोग चाहिए? किस मानव का? जो यथा-तथ्य स्थिति में ही रहना चाहता है; दुर्गति से भी बाहर निकलना नहीं चाहता. संसार को सुरक्षित और धन-धान्यपूरित रखने में सदाशयता के साथ प्रयासरत यह दैवी शक्ति मेरी आत्मा का अंश भर है. ये जिस कार्य में लगी हैं उसे अनंत काल तक जारी रखने का मन बना चुकी हैं. इनके लिए समय का मापदंड कुछ दूसरा ही है; समय की सीमा इन पर लागू नहीं होती. परंतु त्रिकाल के बंधन से ग्रस्त मेरी स्थिति भिन्न है; मेरे पास खोने के लिए समय नहीं है.
वह आगे बढ़ गयी.
तीसरे पड़ाव पर एक नीलिमायुक्त प्रकाश की किरण उसे दिखाई पड़ी तो वह उत्साहित हो उठी. सामने थीं गरिमामयी, श्वेतवसना अपूर्व आभा से आवेष्टित नारी. उन्होंने सावित्री के कोमल हाथों का स्पर्श कर अत्यंत आत्मीयता से कहा कि वे उसकी आत्मा हैं; वे संसार से अज्ञान का अंधकार दूर करने में लगी हैं. वह मनुष्य में अंतर्निहित ज्ञान के स्वचालित केंद्र को जगाना चाहती हैं.
‘संसार से कहां तक अज्ञान दूर हुआ? या निकट भविष्य में उसके दूर होने की संभावना है?’
‘अभी तक तो अज्ञान नहीं मिट पाया है. परंतु मैं इसे दूर करना चाहती हूं. जो भी मेरी मदद चाहता है, उसकी सहायता करती हूं. समस्या यह है कि ज्ञान का समुचित उपयोग नहीं हो पाता. बल्कि बहुधा ज्ञान का दुरुपयोग अज्ञान बढ़ाने में ही कर दिया जाता है.’
‘इसका प्रतिकार?’
‘मनुष्य को अपनी चेतना का विस्तार करना होगा. उसे दैहिक-प्राणिक चेतना से ऊपर उठाकर जिस मानसिक चेतना में पहुंचाया गया है, वहां से आगे बढ़ना होगा. उसने सत्य को मिथ्या की सेवा में लगाने का जो निंदनीय अभ्यास बना लिया है, वह छोड़ना पड़ेगा. उसे विज्ञानमय कोष में अवगाहन करने के लिए सत्य और केवल भ्रांतिहीन सत्य का पक्षधर बनना होगा. परंतु अभी इस दिशा में उसकी गति अत्यंत मंद है, इसलिए भ्रम होता है कि वह असत्य पर ही अटका हुआ है.’
सावित्री की चिंता का ओर-अंत नहीं था. ज्ञान की देवी का स्पष्ट कथन सुनकर वह विचलित हो उठी. इस स्थिति में मानव कब विज्ञानलोक की झांकी पा सकेगा? नहीं-नहीं. यह मेरी पूर्णांशिक आत्मा नहीं है; यह मेरी आत्मा का वह अंश है जिसके पास विज्ञानलोक की समग्र निधियां तो उपलब्ध हैं, पर जो इन प्रतिरोधों के कारण यह नहीं बता पा रही हैं कि संसार कब अज्ञान के अभिशाप से मुक्त होकर सत्य का पक्षधर बन सकेगा.
वह आगे बढ़ गयी.
सामने आया एक सुरंग; प्रकाशहीन. लगता था
जैसे अंतहीन हो, कहीं कोई गवाक्ष नहीं, कोई द्वार नहीं. नीचे धरती है या ऊपर खुला आकाश है या कोई अन्य आवरण इसकी भी प्रतीति नहीं हो पा रही थी. वह चल रही है इसकी चेतना बनी रहने पर भी गति की दैहिक संवेदना का अनुभव नहीं हो रहा था.
जैसे-जैसे उसकी चेतना स्थूल सत्ताओं की सीमा से उसे बाहर निकालने लगी, वैसे-वैसे उसकी दैहिक-प्राणिक-मानसिक सत्ताएं स्वत भारहीन होती चली गयीं. तब एक-एक कर उसके सारे बंध खुलने लगे. वहां दिक्काल की सीमाएं विलीन हो चुकी थीं और कभी न अस्त होने वाला एक सूर्य प्रकट हो गया था.
और यह क्या?
उस सूर्य के प्रकाश में सावित्री के शृंखलाबद्ध चक्रो के कमल प्रस्फुटित हो उठे. और, उसकी अंतर्दृष्टि पूर्णत खुल गयी.
तब उसे सामने दिखाई पड़ा एक अग्नि-पुंज. मानो वह्नि स्वयं एक दीवार बनकर उसका मार्ग अवरुद्ध कर रहा हो. परंतु सावित्री की इंद्रियातीत चेतना उसे बेहिचक आगे बढ़ाती चली गयी. तब लाल लपटें शीतल प्रकाश में परिणत हो गयीं; वह छद्म दीवार एक पारदर्शी मार्ग बनकर उसका स्वागत करने लगी. सावित्री के अभिमंत्रित पग जैसे ही उस दिव्य सीमांत में पड़े कि एक विद्युत द्युति के बीच उसकी सम्पूर्ण सत्ता उसकी आत्मा के नियंत्रण में आ गयी; आत्मा की अलौकिक क्षमता से उसका मन, प्राण और शरीर अनुप्राणित हो उठा.
एकात्मता का वह पल वर्णनातीत था. अपरिवर्तनीय था. अत्यंत शुभ था. मानव में निहित जीवात्मा उसे अपनी पूर्णात्मा तक ले जाने में सक्षम है यह बात सिद्ध हो गयी.
इस आमूल आंतरिक रूपांतरण के पश्चात भी सावित्री ने अपने को सतह पर सामान्य बनाये रखा. वह सबके साथ पूर्ववत व्यवहार करती रही. उसने किसी को भी यह जानने नहीं दिया कि वह स्वर्ग को भूलोक में उतार लायी है या स्वयं स्वर्ग की देहरी नाप आयी है.
लोग इतना ही जानते और समझते हैं कि राजा अश्वपति की पुत्री सावित्री बहुत धार्मिक हैं; सदा किसी-न-किसी जप-तप में लगी रहती हैं. यह भी कहा जाता है कि यह सब उन्हें अपने पिता से विरासत में मिला है.
पिछले तीन दिनों से सावित्री ने अन्न ग्रहण नहीं किया है. आज चौथा दिन है. इस त्रिरात्र साधना में उसने ये तीन रातें जागकर, पैरों पर खड़ी रहकर बितायी हैं. आज इस व्रत के समापन की तिथि है. सत्यवान की माता ने सावित्री से कहा- ‘अब तुम अन्न ग्रहण कर लो.’
‘माताश्री. सूर्यास्त के बाद मेरा अभीप्सित व्रत पूरा होगा, तभी मैं अन्न ग्रहण करूंगी.’
उसने प्रज्वलित अग्नि में विधिवत् हवन किया. प्रातकालीन पूजा सम्पन्न की. उसके बाद सभी गुरुजनों तथा अंतेवासियों को प्रणाम कर उनके सम्मुख करबद्ध, अवनत खड़ी रही. सबने उसे सौभाग्य के आशीर्वाद दिये. वह अंतस्तल में पीड़ा छिपाये विनम्रता से सबके आशीर्वाद समेटती रही. अपनी सत्ता के शीर्ष पर खड़ी सावित्री धूलकण को भी महत्व देना नहीं भूलती है.
सत्यवान की माताश्री उसे अक्सर समझाया करती हैं, आज भी कहा है‘अभी ऐसी कठिन तपस्या करने की तुम्हारी उम्र नहीं है, बेटी. नववधू हो, आनंद से खाओ-पियो. व्रत-उपवास के लिए सारा जीवन पड़ा है, बाद में यह सब करती रहना. प्रभु की कृपा होगी तब मां भी बनोगी; उसके लिए तुम्हें अपने को स्वस्थ और सबल बनाकर रखना चाहिए.’
सावित्री बोलकर कुछ नहीं कहती, बस एक फीकी मुस्कान के साथ सिर झुका लेती है; अपने पति की माता की आंखों में सीधे देखने का साहस उसे नहीं होता. और, अपनी आंखों में छलछला आये जल को भी वह उनकी नजर से बचा ले जाती है. वह जानती है कि वे उसकी साधना को सनक समझ रही हैं.
वह सोचने लगती है; अपना भविष्य नहीं जानने वाला मनुष्य कितना निश्चिंत है. त्रिकालदर्शी मानव क्या इतने आराम से जी पायेगा? मानव का यह नहीं जानना कि अगला ही क्षण क्या लाने वाला है, उसके जीवन के लिए अभिशाप है या वरदान? कहीं विधाता ने मनुष्य के साथ एक क्रूर खेल तो नहीं खेला है? क्या परम सत्ता अपने विधान में मनुष्य का हस्तक्षेप नहीं चाहती? क्या विकासक्रम में मानव अभी इतना पिछड़ा है कि स्वयं अपनी नियति के निर्धारण में दखल देने की योग्यता नहीं रखता? क्या मानव स्वयं ही भविष्य-ज्ञान नहीं चाहता ताकि उसके वर्तमान का स्वाद न बिगड़ पाये? क्या भविष्य का ज्ञान होने पर मनुष्य अपनी नियति सुधार सकता है? या अपनी नियति जान जाने पर वह और किसी बड़ी त्रासदी का शिकार बन जायेगा? क्या समस्त मानव जाति के विकास की स्थिति एक ही है? या विकास के अनेक स्तर हैं? यदि ऐसा है, तब अधिक विकसित चेतना से संपन्न व्यक्ति को भी भविष्य का ज्ञान क्यों नहीं होता?
सावित्री केवल अपने लिए नहीं, सारे जगत के लिए सोचती है.
प्रतिदिन की तरह आज भी सत्यवान जंगल से फल-मूल लाने जा रहा है. उसने कंधे पर अपना झोला लटका लिया है और एक कुल्हाड़ी भी ले ली है, क्योंकि उसके पिताश्री को हवन के लिए सूखी लकड़ियां चाहिए.
‘आज मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी.’ उसे चलने के लिए तैयार देखकर सावित्री ने कहा.
‘तुम. आज चलना चाहती हो? इतने लंबे उपवास के बाद. नहीं-नहीं, आज छोड़ दो, किसी दूसरे दिन चलना. मैं तो रोज ही जाता रहूंगा.’सत्यवान ने उसे लगभग रोक ही दिया.
‘मुझे कोई दुर्बलता अनुभव नहीं हो रही है; मैं चल सकती हूं, चलूंगी. तुम मना मत करो.’ सावित्री को कंठावरोध हो गया.
‘ठीक है. माताश्री से अनुमति ले लो; अन्यथा वे कहेंगी कि मैंने ही तुम्हें अपने साथ चलने के लिए बहकाया है.’ सत्यवान की बांकी हंसी सावित्री के कलेजे के आरपार हो गयी.
सत्यवान की मां ने सुना तो नाराज हो गयीं
‘इस पगली ने तो नाक में दम कर रखा है. तीन दिनों से अन्न का एक दाना मुंह में नहीं डाला है. रात भर जगी खड़ी रहती है. और, अब लो. जंगल-भ्रमण के लिए जायेगी. यह बचने वाली नहीं है. इसके माता-पिता हमें ही दोष देंगे; कहेंगे कि हमने उनकी बेटी को भूखे रख कर मार डाला. सत्यवान. तुम इसे क्यों नहीं समझाते? क्यों नहीं बताते कि जंगल का मार्ग कांटों भरा है, यह नहीं चल पायेगी.’ सत्यवान की माता का यह प्रलाप उसके पिता राजा द्युमत्सेन ने सुना.
उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा- ‘क्या बात है?’
‘मुझसे क्या पूछ रहे हैं? पूछिए अपनी पुत्रवधू से; तीन दिनों से उपवास पर हैं और आज जिद पर अड़ी हैं कि सत्यवान के साथ जंगल-भ्रमण करने जायेंगी.’
‘आज तो उसके व्रत का समापन है न. उसे कुछ खिला-पिला दीजिए.’
‘कहा था, लेकिन बात माने तब न. कहती है, सूर्यास्त के बाद व्रत का समापन होगा. उसके जप-तप की बात मेरी समझ में नहीं आती. आपकी बात माने, तो कह कर देखिये.’ सावित्री के शरीर का कण-कण रो उठा, अपने लिए नहीं; इस माता के लिए जिसे नहीं पता था कि उसके साथ आज कौन-सा अनर्थ होने वाला है. उसने एक दीर्घ निश्वास लिया, जिसका अदृश्य प्रभाव द्युमत्सेन तक संप्रेषित हो गया या सम्भव है उनमें स्वयं ही एक सूक्ष्म दृष्टि विकसित रही हो. उन्होंने अपनी पत्नी को समझाया- ‘अगर इसे कोई कष्ट नहीं है, तब जाने दीजिए. साल भर से यह हमारे साथ है; एक दिन भी मुंह खोलकर इसने कुछ नहीं मांगा, आज मांग रही है, तो अनुमति दे दीजिए.’
‘ठीक है, जाओ. लेकिन, सत्यवान. इस पर नजर रखना; मुझे नहीं लगता कि यह दस कदम भी चल पायेगी. कहीं तुम्हारे लिए यह बोझ न बन जाये. इसे लेकर दूर मत जाना. जल्दी लौट आना, बेटे. देर होने से हमें चिंता हो जाती है. और, आज तो यह आफत भी तुम्हारे साथ है.’
सत्यवान की माताश्री इसलिए अधिक सशंकित थीं कि आज पहली बार सावित्री उसके साथ जा रही थी. वे नहीं चाहती थीं कि सावित्री के कारण सत्यवान को कोई असुविधा हो. सावित्री का व्यथित मन और भी विदग्ध हो गया; वह इस मां को क्या आश्वासन दे?
वे तो बार-बार अपने पुत्र को यही समझाती रहीं कि वह सावित्री पर दृष्टि रखे. और, ठीक इसी तरह सावित्री नहीं चाहती थी कि सत्यवान उसकी दृष्टि के घेरे से बाहर हो. वह उसे अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहती थी; वह उसे अपनी भाव-मंजूषा से नहीं निकलने दे रही थी; वह उसे अपने विचार-प्रकर के भीतर गूंथ कर रख रही थी; सत्यवान पर सावित्री ने अपनी सूक्ष्म चेतना का वितान फैला दिया था; वह उसे अपनी आंखों में भर लेना चाहती थी.
(क्रमशः)