नीलू  –   शरणकुमार लिंबाले

दलित-कथा

मेरी वेदनाओं से लदी देह पिघलने लगी थी. मेरी देह के दो आंसू बन गये. मेरे पदचाप अग्निशामक वाहक की तरह सिसक रहे थे. मैं बस्ती की दिशा में बढ़ रहा था. आवाज़ की दूरी पर भीमनगर था. इस भीमनगर का मैं भीमराव. सभी मुझे भीम्या कहते. कोई-कोई भीमराव भी कहता पर नीलू मुझे भीम कहती. मैं जिस तरह का आदमी था, उसे नीलू नहीं जानती थी.

‘अरे, इस रास्ते से मत जाओ. उधर गंदे लोगों की बस्ती है.’ नीलू ने मुझसे विदा ली.

मैं बहुत टूट रहा था. संतप्त भीड़ की तरह विचार सारी देह में आग लगा रहे थे. दंगों में जल रहे वाहनों की तरह मेरी आंखें जल रही थीं. अब आंखों की राख हो जायेगी. नज़र जल जायेगी. आंसू जल जायेंगे. मेरी ज़िंदगी को लीलने वाले आंसू न जाने कब खत्म होंगे? मैं आंसुओं का गला घोंटता हूं.

नीलू एक सांस्कृतिक दुख.

नीलू और मैं खेल के मैदान में मिले, खिलाड़ी के रूप में. कई खेल खेले हमने. हारे-जीते. खेल के ज़ख्मों को देह भर पाला-पोसा, अलंकार की तरह. कभी खेल बने, कभी मैदान, कभी क्रीड़ा, जल क्रीड़ा, बच्चों के खेल बने कभी. रेत के घर, उस पर उकेरे नाम, नदी में बहायी मेरी नाव तो कभी उसका दीया. मैं उसकी परछायीं बन जाता, वह मेरी. हवा के झोंकों पर झूला करते. ये दिन ऐसे ही थे.

उसकी नीली-नीली नज़र मेरी आंख भर हो जाती. मेरा शरीर निढाल हो जाता. उसकी नज़र मेरी नज़र समुद्र के आकाश की तरह थी. उसकी हाथों की मेहंदी मैंने देखी, सूंघी. मैं रंग गया. सांसें रंग गयीं. मैंने अपनी तकदीर खोल दी. शहनाई सारे मन में गूंज गयी. मेरी चेतना में उसके शब्द मुझे अमृत का आभास दे रहे थे.

नीलू अब घर पहुंच गयी होगी.

मैं अपनी बस्ती में कदम रखते ही दागदार हो गया. उसे यह बस्ती गंदे लोगों की लगती है. मुझे मेरी बस्ती की घिन आती है. झोंपड़ियां लांघते हुए मैं अपनी झोंपड़ी के पास आता हूं. झोंपड़ी-सी मेरी मां. मां-सी झोंपड़ी मेरी. इधर मैं जड़ से खोदकर उखाड़ा गया. भीतर तक.

नीलू एक सांस्कृतिक बंटवारा.

नीलू एक सांस्कृतिक सीमा.

नीलू सरस्वती कॉलोनी में रहती है. वहां फूलों का साम्राज्य है. नीलू की सांसों के साथ वहां का हर क्षण सजीव हो गया है. नीलू घर में क्या कर रही होगी? क्या उसे मेरी याद आ रही होगी? शायद वह टीवी में तल्लीन होगी? इधर मैं तो यादों की दुनिया में. यादें कितनी अनाथ होती हैं मन के बिना. एक याद आती है लहर बनकर. अनेक तरंगें उठती हैं. वह आती है तितली की तरह. उसका स्पर्श सारे शरीर पर ओस की तरह बिखर जाता है.

मां मेरे करीब आती है. नीलू दूर निकल जाती है.

‘खाना खा ले रे भीमा.’ मां की आवाज़.

‘उधर गंदे लोगों की बस्ती है.’ नीलू की आवाज़.

‘बुद्धं शरणं गच्छामी’ बस्ती की आवाज़.

मेरी आवाज़ गले में ही कलम कर दी गयी. मैं आवाज़हीन. मेरी आवाज़ में नीलू की आहट. नीलू ने मेरे इलाके की कभी बात नहीं की. मेरी मां सरस्वती की ओर स़फाई के लिए आती है. नीलू क्योंकर निहारेगी मेरी मां का चेहरा?

हमारी रात ढल गयी. हमारी सुबह हुई. हम रोज़ की तरह एक साथ हो लिये. मैं उसकी नज़रों में. वह मेरी.

‘इस साड़ी में वनरानी लगती हो.’

‘धन्यवाद!’

‘कल की तुम्हारी बालों की फैशन अच्छी थी.’

‘तारीफ बस करो अब.’

फिर अर्थपूर्ण मौन. मौन कितना मुखर होता है. उसके लिए हारने में भी कितना आनंद होता. न वह, वह होती है, न मैं, मैं! हम होते हैं, हमारा आनंद एक-दूसरे का.

नीलू के साथ खूब बातें करने का मन होता है, पर बोलें क्या- यह नहीं सूझता.

नीलू मेरी पत्नी होगी?

नीलू और मैं.

उधर से आने वाले मेरे दोस्त.

उनका जय भीम, मेरा जय भीम.

नीलू सरस्वती नगर में. मैं भीमनगर में.

तू उधर. मैं इधर. हम दोनों ध्रुव के पार. आदमी पार के आदमी.

‘मैं निकलता हूं.’

‘मुझे तकलीफ होती है.’

वह जाती है. न जाये ऐसा लगते हुए भी. अप्रिय होकर विदा देता हूं. विदाई बहुत निष्ठुर होती है. पल भर लगता उसे थाम कर रोक लूं. पर साहस गिर पड़ता है, मुंह के बल. वह जाती है दूर दूर, देह से. अपनी यादें यहीं छोड़कर. मैं यादों का हो जाता हूं. यादें खिलने लगती हैं, मन पर चारों ओर. पैरों तले की सड़क खत्म होती है. कुत्ते भौंकने लगते हैं. कुछ लोग झगड़ते रहते हैं. विहार में प्रार्थना चल रही है. मैं झोंपड़ी में प्रवेश करता हूं. मां झाडू लगाने गयी है. वह देर से लौटती है. थक-हारकर. कल मंत्री आने वाले हैं इसलिए सारे गली-कूचे उसे स़ाफ करने थे. वह मंत्री को गाली देती है, ‘मंत्री का मुरदा गिरा’ और वह झाडू उठाती है.

नीलू ने मेरे बारे में जान लिया, मेरी जाति के साथ.

कल वह मेरे साथ किस तरह पेश आयेगी? मैंने जाति चुराकर उसके साथ दोस्ती की. मैंने उसका घर देखा. मम्मी-डैडी भी देखे, परंतु अपनी बस्ती अदृश्य रखी. मैं अदृश्य प्रेमी की तरह पेश आया. कल उसे क्या बताऊंगा इस सारे चक्रव्यूह के बारे में.

नीलू, मेरा तुझ पर प्रेम है.

मेरी जवानी बहिष्कृत है. मेरा स्पर्श अस्पृश्य है.

नीलू गज़ल सुन रही होगी.

नीलू मेरे सपने लौटा दो.

एक भारी पतझड़ दिन-रात की. नीलू की बारात का वह दिन. बारात में खुशियों की झड़ी. मेरी मां सिर पर गैसबत्ती उठाकर बारातियों के स्वागत में चल रही थी. तूफानी हवा बहती है. बारात हिल जाती है. डोलने लगती है. नीलू सोलह सिंगार वाली वधू. उसके साथ उसका पति. मैं दूर पान की दुकान के ठेले के पास नीलू को आंख भर देखने के लिए खड़ा था. औरों की तरह. भीड़ मुझ पर टूट रही है. मैं घुटने लगता हूं. बारात अपनी रौ में आगे बढ़ती है बादलों की तरह. मेरी नज़र कुचली जाती है. मुझमें क्या कमी है? मैं भी पुरुष हूं, परंतु मेरी गरीबी, मेरी जाति. नीलू मैं कैसे भुला सकता हूं तुम्हें? तुम्हारे शब्द. मन पर तुम्हारा छा जाना. तुम्हारा खिलता स्पर्श. मेरे आलिंगनों में खिलना. तुम्हारे सान्निध्य में बौराया मेरा जीवन. चांदनी में बरसा. समुद्र में उछला. आकाश भर नाचा. फूलों में खेला. तुम्हारी सांसें मैं देह भर खोज रहा हूं. कोई तो सारे बाग में बारूद बोकर उजाड़ता निकला है.

‘नीलू फूल नष्ट होंगे क्या?’

नीलू फूलों से सजी है. बारात धीरे-धीरे पूरे चौक में पसर जाती है. मैं चीखकर बता दूं क्या कि नीलू पर मेरा अधिकार है या स्वयं को झूठी तसल्ली दूं. नीलू तू सुखी रह. मुझे भूल जा. वह धनी है. उच्च कुल-जाति की है. मुझे उससे प्यार नहीं करना था. मैंने गलती की.

आंधी-तूफान आता है. बारात छितरा जाती है. मेरे मन के जीर्ण पत्ते झर जाते हैं. रामा आता है. जय भीम करता है. वह इस बारात में शहनाई बजा रहा है. भीड़ में भगदड़ मचती है. भीड़ छितराकर इधर-उधर भागती है. मुझे लगा कि नीलू का अपहरण कर लूं. लोगों की चीख-पुकार बढ़ती है. कोई तो आग में झुलस रहा है. मैं भीड़ में घुसता हूं. गैसबत्ती के विस्फोट से मां आग में घिर गयी है. सिर से पैर तक आग लगी है. आग ने उसे पूरी तरह अपनी चपेट में ले लिया है. वह चीख रही है. सारे शरीर पर आग लेकर वह भाग रही है. ज़मीन पर गिर जाती है. मैं उसे देखता हूं. दहाड़ पड़ता हूं. दो-चार लोग आते हैं. मां को उठाते हैं. हम सरकारी अस्पताल की ओर बढ़ते हैं.

मां कितनी भयंकर दिख रही थी!

डॉक्टर मां को मृत घोषित करते हैं.

अब उसके अंत्य-संस्कार के लिए पैसे लगेंगे.

मैं जल रहा था, चिता की तरह अपने ही भीतर. रामा शहनाई लिए पास खड़ा है. शहनाई का गला भर आया है. अब धीरे-धीरे रिश्तेदार जमा होंगे आंखों में पानी भरकर. भीमनगर शव का इंतज़ार कर रहा होगा. गले में दहाड़ लिये हुए.

सरकारी अस्पताल से आगे नीलू की बारात आगे बढ़ रही है. मां के स्थान पर अब कोई दूसरी दलित स्त्राr सिर पर गैसबत्ती लेकर चल रही है.

बारात और अंत्य-यात्रा, मेरे प्राण जायें, इस तरह जा रहे थे.

(मराठी से अनुवाद : दामोदर खड़से)

अप्रैल 2016

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