धान पकेंगे हमारे खेत में  –  विद्यानिवास मिश्र

शब्दसम्पदा

भदई या कुआरी फ़सल तो कट चुकी, अब अगहनी के कटने की बारी है. अगहनी या जड़हन या चहोरा या सैंदी धान बोआ और रोपा दोनों किस्म का होता है. अगहनी धान को ही संस्कृत में शालि और रोपा अगहन को कलमशालि कहते हैं. जिस खेत में धान पैदा होता है, उसे धनहर, धनखर, धनकियारी कहते हैं.

धान की किस्में अनगिनत हैं. महीन या बारीक धान की कुछ मशहूर किस्मों के नाम इस प्रकार हैं- बासमती, कनकजीर, धनियां, तुलसीफूल, महाजोगिन, मर्चा, गौरिया, जूही बंगाल, बर्माभूसी, लालकेसर, रामजीरा, श्यामजीरा, काला नमक, बहरनी, राम अजवाइन, गोपालभोग, रामभोग, ठाकुरभोग, सुगापंखी, बतासफेनी, दूधगिलास, कमोदी, दौनाफूल, हंसराज, भाटाफूल, बांसफूल, कमोच, कनकचूर, गोकुलसार, श्रीमंजरी, मालदेही, लौंगचूरा, जलहोर. मोटे धानों की किस्मों के कुछ नाम ये हैं- करंगा, जगरनथिया, दूधराज, मेघनाद, राटिन, ललदेइया, गहुमा, गड़ेर, मुटुरी, नन्हिया, मनसरी, रमुनी सरिहन, सिलहट, बैतरनी, भेड़काबर, मुटुनी दोलंगी, मुड़रा, गजपत्ता, सेल्हा, जोंगा, कजरधर, दलगंजन, सौंदी. चबेना के काम आने वाले धान हैं अनन्दी और देवसार. नयी देसावरी किस्में तो नम्बरों से अधिकतर जानी जाती हैं. धान का नया पौधा सुई, रोपा जाने वाला बान, जड़ नेरुआ, बाली झंपा, कच्चा धान गदरा या गड़रा, तैयार धान सुरका, खड़े धान का चावल अरवा, उबाले का उसिना या भुजिया (भूनकर मुरमुरी, मुड़ी, लाई बनती है), भुना धान खील या लावा (लाजा) छिलका भूसी, भीतरी कोराई, टूटा चावल कन, बहुत टूटने वाला टुटहन, खुदिगर और पिसा चावल चौरठ कहा जाता है.

धान की कटनी या कटिया या लवनी कातिक के अंत में शुरू होकर पूस तक जाती है. जड़ से कटिया की प्रक्रिया जड़कट्टा, या जरछोरा बिलकुल ऊपर वाली बाली काटने की प्रक्रिया बलकट, टुंगनी, कटुई, पंगाई, नन्हकटनी या सिसकटनी कही जाती है. कभी-कभी लोग खेत तैयार न होने पर भी चराई या हईं के डर से भदरा या कचरा या गदरा ही काट लेते हैं. नवान्न के लिए समहुत (सुमुत) पहले काटा जाता है, मुहूर्त्त या साइत के रूप में. कटनी के लिए हंसुआ, पछरिया, बधरा, बधरिया, दाब, संगिया, चिलोही (ये सभी बड़े होते हैं) या हेसुली या कत्ता (छोटे) काम में आते हैं. दांतों वाला हंसिया दातें या कचिया कहा जाता है.

धान काटकर खेत में मूठों, पूलों या गुट्ठों में बटोर कर पांती-पांती रखे जाते हैं. सूख जाने पर इन्हें गतार या रस्सी से बांधा जाता है, चार मुट्ठे का पांजा होता है जिसे जगह-जगह औल्हा, अदांसा, आहुल, अंटिया और पसही कहते हैं, चार पांजों का एक बोझा होता है, सोलह बोझे की सोरही, इक्कीस की इकैसी, 16 सोरही का सोरहा. बोझ एक के ऊपर एक सरिया कर (सहेज कर) खलिहान में रखे हैं. इसे डांठ, गांज, जांगी, बांही भी कहते हैं. खलिहान छीला जाता है, बराबर किया जाता है, लीपा जाता है, तब उसमें डांठ रखा जाता है. खलिहान में अनाज अलग करने के लिए फैलाई फ़सल पैर या लांक कहलाती है. इसके बीच में एक मेह होता है. मेह के पास वाला (अर्थात् जिसे सबसे कम दूरी घूमनी होती है) मेंहिया कहा जाता है और सबसे बाहर वाला अगदाई या पागड़ा या पागड़िया या आगिल कहा जाता है. बैलों के गले में पड़ी रस्सी गैनी में फंसी हुई बड़ी रस्सी दांवरी या दौंरी कही जाती है. ऊपर अच्छी तरह टूट जाने पर नीचे वाली पैर या लांक उलटी जाती है या उखाड़ी जाती है, इसी को तरपैरी करना कहते हैं. दांव घूमते समय बैल जो डांठ इधर-उधर कर देते हैं, उसको किसान सोकी से बैलों के पैरों के नीचे डालता चलता है, यह प्रक्रिया पागड़ मारना है. अच्छी तरह रुंदा हुआ डांठ खुरदायां हुआ डांठ कहा जाता है.

अनाज़ की इकट्ठी रास को सिली, टाल, गल्ला, ढेरी या खम्हार भी कहते हैं, इसमें अभी कुछ-न-कुछ पयाल मिला होता है, इसकी ओसौनी शुरू होती है. जो भूसा उड़कर निकलता है, उसे पम्मी, भौंटा, पांकी कहते हैं, इसके बाद अधभरी या पइया अनाज़ निकलता है. भारी अनाज बीच में राशि के रूप में इकट्ठा होता जाता है, दूर बिखर जाने वाला अनाज अगवार या पछुआ हलवाहों का हिस्सा होता है. रास बटोरने के लिए फरई या अखइन काम में लाये जाते हैं. रास के ढेर पर झाडू (सुनैती या सरेती) फेरा जाता है. (छबड़ा की जाती है). रास चद्दर, जाजिम, पाल आदि से ढककर दबा दी जाती है. रास के साथ खेत की मिट्टी का एक ढेला (स्याबड़ < सीतावर्त्त) भी आता है. कुछ अनाज दान के लिए अलग रखा जाता है. उसको भी स्याबड़ी कहते हैं, इसी में से नाई, पुरोहित, बढ़ई या पवनी को किसान अपनी सालाना जजमानी भी अदा करता है. हर किस्म के धान की मोजर (मंजरी) इकट्ठी करके उसकी बंदनवार आंगन में चारों ओर तानी जाती है.

(हिंदी की शब्दसम्पदा, राजकमल प्रकाशन, से साभार)

फरवरी 2016

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