चुप्पी और शब्द

अगर मैं कुछ बोलता हूं, तो मैं उन शब्दों के अधीन हो जाता हूं, अगर मैं नहीं बोलता हूं, तो वे शब्द मेरे अधीन रहते हैं.

    बोलने की पीड़ा से चुप रहने की पीड़ा कहीं अच्छी है.

    चुप रहकर आपको एक बात का अफसोस हो सकता है, लेकिन बोलने पर दो बातों का. आपके शब्द आपकी दौलत हैं, उन्हें संभालकर रखिये.

    मनुष्य जिस कुंडी द्वारा फांसा जाता है, वह उसकी जबान में छिपी होती है और उसकी मौत का फंदा उसके दोनों गालों के बीच होता है.

    अरब का एक ज्ञानी एक बार कुछ लोगों के बीच जाकर बैठा और देर तक चुप रहा. किसी ने उससे कहा- ‘जैसा कि आपके बारे में कहा-सुना जाता है, सचमुच हो आप अरब के ज्ञानी व्यक्तियों में से हैं. कुछ हमें भी सुनाये.’

    इस पर ज्ञानी ने कहा- ‘भाइयो, मनुष्य जो शब्द सुनता है, वे उसके अपने होते हैं, लेकिन वह जो कुछ बोलता है, वे दूसरों के हो जाते हैं.’

    रात के समय बोलिये तो धीमी आवाज में, और दिन के समय बोलने से पहले अपने इर्द-गिर्द नजर डाल लीजिए.

    ‘कभी चुप्पी जरूरी होती है, तो कभी बोलना’, यह पुरातनी कहावत है. वह चुप्पी गलत है, जिसकी आड़ में मनुष्य अपनी बुराइयां छिपाने का प्रयत्न करता है. कायरता, स्वाभिमान की कमी, लोभ-लालच आदि को छिपाने वाली चुप्पी सार्थक नहीं कही जा सकती.

    चुप्पी उस समय मनुष्य की कमजोरी साबित होती है, जबकि उसके लिए विशेष परिस्थितियों में बोलना आवश्यक होता है, और उसका कर्तव्य होता है कि वह अपनी जबान खोले.

    मनुष्य जब अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए जान-बूझकर मुंह बंद रखता है, तो यह चुप्पी उसकी नीचता की निशानी है.

    कटु बोलने से होने वाले नुकसान की अपेक्षा कई मौकों पर चुप रहने से होने वाला नुकसान कहीं बड़ा होता है.

    चुप्पी में बहुत बड़ी शक्ति है, लेकिन सही मौके पर बोले गये शब्दों में उससे भी बड़ी शक्ति है. कन्फ्यूशियस ने कहा है- ‘शब्दों की शक्ति को जाने बिना लोगों को जानना असंभव है.’

    और जोजफ कोन्राड के शब्दों में-‘मुझे सही शब्द और बोलने का सही इल्म दीजिये, मैं दुनिया को हिलाकर रख सकता हूं.’

– इब्न गेबिरल

(जनवरी 1971)
 

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