सम्पादकीय
अर्सा पहले लिखी एक कविता की पंक्ति थी- कमरे में मेरे वसंत घुस आया है. कविता शहर में वसंत के संदर्भ में थी और यह ‘घुस आया’ शब्द कहीं न कहीं जीवन में वसंत के ज़बर्दस्ती प्रवेश की कोशिश का संकेत देता है. आज सोच रहा हूं जब यह कविता लिखी गयी तो निश्चित रूप से अवचेतन में महानगरीय जीवन में उस सबके अभाव का अहसास होगा जो वसंत के साथ जुड़ा हुआ है. वसंत जीवन में पुलक और उल्लास का प्रतीक बनकर आता है और हमारे जीवन की त्रासदी यह है कि इस पुलक और उल्लास का अहसास कहीं खोता जा रहा है. ऐसा नहीं है कि हम उत्सव नहीं मनाते, ऐसा भी नहीं है कि कोशिश नहीं होती कि हम जीवन के अभावों और उसकी विसंगतियों को भुलाने की कोशिश करें, पर यह सचाई भी है कि जीवन में उल्लास अक्सर खोजना पड़ता है, और अक्सर यह उल्लास हाथों से फिसल-फिसल जाता है. लेकिन सचाई यह भी है कि इस उल्लास को तलाशने और हाथों से फिसल जाने से रोकने की कोशिशें ही जीवन को कुछ जीने योग्य बनाती हैं, इन्हीं कोशिशों से जीवन में कुछ रस आता है. यह रस ज़रूरी है, इसका होना ही जीने को अर्थ भी देता है और जीने की प्रेरणा भी. रागात्मकता और उल्लास का भाव ही प्रेरित करता है आने वाले कल को आज से बेहतर बनाने के लिए, प्रयत्नशील और आशावान बने रहने के लिए.
वसंत ऋतु के साथ जुड़ी भावनाओं की वैज्ञानिकता के बारे में तो विषय के विद्वान ही कुछ बता सकते हैं, पर यह सही है कि ऋतुएं हमारे सोच और हमारी मानसिकता, दोनों, को प्रभावित करती हैं. हम ऋतुओं से प्रेरित भी होते हैं और उनके संकेतों के अनुसार अनायास ही आचरण भी करने लगते हैं. भीतर से कुछ उमगता-सा है. तब कोई एक फूल पूरे वसंत का प्रतीक बन जाता है, तब कमरे में ज़बर्दस्ती घुसने वाला कोई हमें मनचाहा अतिथि लगने लगता है, जिसकी प्रतीक्षा हम अनजाने में करते रहते हैं. चाहते हैं कि जीवन में कुछ ऐसा हो जो जीवन जीने की इच्छा जगाये. ज़रूरी है इस अहसास का होना- और इसे जीना भी. ज़रूरी है, सारे अभावों के बावजूद जीवन में एक उत्साह को बनाये रखना ताकि जीवन चले, घिसटे नहीं. वसंत जैसी ऋतु के माध्यम से प्रकृति हमारी उंगली पकड़कर हमें उस राह पर खड़ा करती है जो हमें चलने का अहसास दे सकती है. पर कोशिश हमारी ओर से भी होनी चाहिए कि हम इस अहसास को जी सकें. आज जीवन जैसा शुष्क बन गया है, और शुष्कतर बनता जा रहा है, उसमें यह ज़रूरी हो गया है कि हम गमलों में वसंत खिलाने की कोशिश करें. जी हां, गमले में वसंत. उस दिन अचानक मेरे घर की बाल्कनी में एक गमले में कुछ फूल खिल आये थे. हमारी विडम्बना यह भी है कि बहुत से फूलों-पौधों के नाम भी हम नहीं जानते. फिर भी फूल देखकर मन खुश होता है. उस दिन उस गमले में फूल देखकर मेरे साथ ऐसा ही हुआ था. मेरे भीतर भी जैसे कोई कली चटकी थी. जब भी कोई फूल देखकर हमारे मन में यह भाव आता है कि कितना सुंदर फूल है, तो चाहे हम अनुभवें या नहीं, उस पल कोई कली हमारे भीतर भी चटकती है. कली का यह चटकना ही कमरे में हज़ारों तितलियों को देखने का वह भाव भर जाता है जो एक पल के लिए ही सही, जीवन जीने की लालसा और जीवन की सार्थकता, दोनों को परिभाषित करता है. इसी तरह, जब कोई वसंत हमें कहीं छूता है, एक पुलकन-सी उमड़ती है भीतर. ज़रूरी है कि हम इस पुलक को महसूसें. आज जिस तरह का जीवन बन गया है उसे देखते हुए यह भी ज़रूरी है कि जब कोई वसंत आये तो हम उसे उसका घुसना न समझें, कोशिश करें अपने भीतर यह अहसास जगाने की कि यह वसंत आना ही चाहिए था. यह वसंत किसी ऋतु का नहीं, उस उल्लास का नाम है जो सांसों को सुरभित कर जाता है. आइए, इस उल्लास को बांहों में समेटें, ताकि जीना बोझ न लगे. आइए, गमले में वसंत उगायें!