कविताएं कई बार  – ललित मंगोत्तरा

डोगरी कविताएं

कई बार मन में आती है कविता

फुर्र से फिर उड़ जाती है कविता

पकड़ने का यत्न करो तो उंगलियों के पोर
कविता के आर-पार होकर आपस में मिल जाते हैं

पर कविता फिर भी पकड़ में नहीं आती

कई बार कविता, बरसात की बारिश की तरह

बरस-बरस जाती है

भीतर-बाहर बिल्कुल ऐसे भिगो जाती है

भर जाती है मस्ती

कि कविता महसूसने के आनंद को

कागज़ पर उतारना भी खलल लगता है

कविता का आनंद तो, हाथ में कलम लेकर

कागज़ को भींच लेना ही है

कई बार आती है कविता

पर कुछ देर छुअन का सुख देकर

छुप जाती है कविता

एक छोटी चंचल बच्ची की तरह

छुपन-छुपाई खेलती आपकी नकल उतारती है

जब उसके पीछे भाग-भाग कर

आप निढाल हो जाते हैं

वो शरारत से मुस्कुराती, सिमटी हुई

बहुत अच्छी लड़की की तरह

आपकी गोद में आकर बैठ जाती है

बहुत बार कविता यूं भी आती है.                   

 

अनुवाद – पद्मा सचदेव

सांझ जब घिरती है

= पद्मा सचदेव

सांझ जब घिरती है, कहीं कहीं रुकती है

कहीं ये ठहरती है- सांझ जब घिरती है

कमर से लगाकर सूरज की रश्मियों को

कंधे से लगाकर रोशनी की किरणों को

मलती है सिर के बिखरे हुए बालों पर

घुंघराली लटों को मलती है हाथों से

फिर सुला देती है, कहानियों में लोरी बुनकर

अंधेरों को सुलाती है, रोशनी बुलाती है

मिलाती है कहीं जाकर आकाश को धरती से

सांझ इसे कहते हैं

सांझ जब घिरती है

सांझ में मिलने वाले जागते हैं सायों के परदे में

आती-जाती खलकत के जाने के समय सांस रोक लेते हैं

पीठ कर लेते हैं लोग न पहचान लें

सांझ जब घिरती है

चांद से निकालती है दोहरा घूंघट यह

चांद न पहचान ले, अंधेरा न जान ले

दीवार से चिपककर सांझ सोयी रहती है

करीब से एकदम अंधेरा निकल जाता है

गलियों के भ्रम में निकलता है गलियों में

घुस जाता है रास्तों में

गलती से घुस जाता है बच्चों के स्कूल बैग में

होमवर्क बाकी है

सांझ मिटती जाती है अंधेरे के अंतरतम में,

वहां जा के रहती है सांझ जब घिरती है.

अप्रैल 2016

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