एक मासूम-सा खत

 

– कन्हैयालाल ‘नंदन’

 

जब जब हमने
कबूतर उड़ाकर आसमानों को बताया
कि हम चाहते हैं अमन
तो उन्होंने रास्ता अपनाया दमन का
दागीं गोलियां दनादन
हमारे शांति-कपोत उनके लिए हो गये स़िर्फ क्ले पिजन!

उन्हें क्या पता कि वे कबूतर
घोषणापत्र थे हमारी चाहत के
जो गोली खाकर पंख-पंख बिखर गये
ज़मीं पर गिरे तो लोगों के दिलों में उतर गये.

बनते चले गये खूबसूरत फूल,
भविष्य के रंगीन सपने
बच्चों की किलकारी!

अब वे फूलों के भी दुश्मन हो गये हैं
फूलों पर कहर ढाते हैं, तेज़ाब बरसाते हैं,
वे नहीं चाहते
कि बच्चे अमन के फूलों में नहायें
नहीं चाहते कि बच्चे किलकारियां मारें
खेलें-कूदें, स्कूल जायें.
खुशियों की खुदाई अमानत हैं बच्चे… वे नहीं मानते.
हंसी की नदी में एकबार उतरकर तो देखें
उनकी अपनी घबरायी नींदों को सुकून आ जायेगा…
लेकिन वे यह नहीं जानते.

नहीं चाहते वे कि किसानों के खेतों में सोना उगे
मज़दूरों के पसीन की बूंद-बूंद पर न्योच्छावर हो चांदनी,
फेक्टरियां कर्मठता का परचम लहरायें
नहीं चाहते वे कि हम-तुम
एक-दूजे का दुख-दर्द समझें
भाईचारे का गीत गायें.

उनके लिए भूगोल सिर्फ बंटवारे का नाम है
इतिहास है तारीखों के हर राज का रजिस्टर
संस्कृति, सभ्यता, विश्व बंधुत्व…
भला ऐसी चीज़ों से उनका क्या काम!

वे नहीं जानते कि अमन का कबूतर
सिर्फ एक परिंदा नहीं होता,
सारी दुनिया के लिए खुशियों की चाहत का
एक मासूम-सा खत होता है
और ऐसा खत फाड़ने की साज़िश करने वाला
इंसानियत के इतिहास में कभी ज़िंदा नहीं होता,
…कभी भी ज़िंदा नहीं होता.

(जनवरी 2016)

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