एक पत्र ज्योतिर्मय

 जो अपने गुरूभाइयों के नाम स्वामी विवेकानंद ने 1894 ई.में लिखा था.

प्रिय भ्रातृवृंद,

    इसके पहले मैंने तुम लोगों को एक पत्र लिखा है, किंतु समयाभाव से वह बहुत ही अधुरा रहा. राखाल एवं हरि ने लखनऊ से एक पत्र में लिखा था कि हिंदू समाचार-पत्र मेरी प्रशंसा कर रहे थे, और वे लोग बहुत ही खुश थे कि श्री रामकृष्ण के वार्षिकोत्सव के अवसर पर बीस हजार लोगों ने भोजन किया. इस देश में मैं बहुत कुछ कार्य और कर सकता था, किंतु ब्राह्मसमाजी एवं मिशनरी के लोग मेरे पीछे पड़े हुए हैं एवं भारतीय हिंदुओं ने भी मेरे लिए कुछ नहीं किया.

    हमारी जाति से कोई भी आशा नहीं की जा सकती. किसी के मस्तिष्क में कोई मौलिक विचार जागृत नहीं होता, उसी एक चीथड़े से सब कोई चिपके हुए हैं- राम-कृष्ण परमहंस देव ऐसे थे और वैसे थे, वही लंबी-चौड़ी कहानी जो बेसिर-पैर की है. हाय भगवान! तुम लोग भी तो ऐसा कुछ करके दिखलाओं कि जिससे यह पता चले कि तुम लोगों में भी कुछ असाधारणता है- अन्यथा आज घंटा आया, तो कल बिगुल और परसों चवंर, आज खाट मिली, कल उसके पायों को चांदी से मढ़ा गया- आज खाने के लिए लोगों को खिचड़ी दी गयी और तुम लोगों ने दो हजार लंबी-चौड़ी कहानियां गढ़ीं- वही चक्र, गदा, शंख, पद्म- यह सब निरा पागलपन नहीं तो और क्या है?

    अंग्रेजी में इसी को इम्बेसीलिटी (जन्मजात बुद्धि-दौर्बल्य) कहा जाता है. जिन लोगों के मस्तिष्क में इस प्रकार की ऊलजलूल बातों के सिवा और कुछ नहीं है, उन्हीं को जड़बुद्धि कहते हैं. घंटा दायीं ओर बजना चाहिए अथवा बायीं ओर, चंदन माथे पर लगना चाहिये या अन्यत्र कहीं, आरती दो बार उतारनी चाहिये या चार बार इन प्रश्नों को लेकर जो दिन-रात माथापच्ची किया करते हैं, उन्हीं का नाम भाग्यहीन है और इसीलिए हम लोग श्रीहीन तथा जूतों की ठोकर खाने वाले हो गये तथा पश्चिम के लोग जगद्विजयी… आलस्य तथा वैराग्य में आकाश-पाताल का अंतर है.

    यदि भलाई चाहते हो, तो घंटा आदि को गंगाजी को सौंपकर साक्षात भगवान नारायण की- विराट और स्वराट की- मानव देहधारी प्रत्येक मनुष्य की पूजा में तत्पर हो. यह जगत भगवान का विराट रूप है, एवं उसकी पूजा का अर्थ है, उसकी सेवा. वास्तव में कर्म इसी का नाम है, निरर्थक विधि-उपासना के प्रपंच का नहीं. घंटे के बाद चंबर लेने का अथवा भात की थाली भगवान के सामने रखकर दस मिनिट बैठना चाहिये या आधा घंटा, इस प्रकार के विचार-विमर्श का नाम कर्म नहीं है, यह तो पागलपन है.

    लाखों रुपये खर्च करके काशी तथा वृंदावन के मंदिरों के कपाट खुलते और बंद होते हैं. कहीं ठाकुरजी वस्त्र बदल रहे हैं, तो कहीं भोजन अथवा और कुछ कर रहे हैं, जिसका ठीक-ठीक तात्पर्य हम नहीं समझ पाते… किंतु दूसरी और जीवित ठाकुर भोजन तथा विद्या के बिना मरे जा रहे हैं. तुम लोगों में इन बातों को समझने तक की भी बुद्धि नहीं है, यह हमारे देश के लिए प्लेग के समान है, और पूरे देश में पागलों का अड्डा…

    तुम लोग अग्नि की तरह चारों ओर फैल जाओ और उस विराट की उपासना का प्रचार करो- जो कि कभी हमारे देश में नहीं हुआ है. लोगों के साथ विवाद करने से काम न होगा, सबसे मिलकर चलना पड़ेगा…

    गांव-गांव तथा घर-घर में जाकर भावों का प्रचार करो, तभी यर्थाथ में कर्म का अनुष्ठान होगा, अन्यथा चुपचाप चारपाई पर पड़े रहना तथा बीच-बीच में घंटा हिलाना- स्पष्टता यह तो एक प्रकार का रोग-विशेष है… स्वतंत्र बनो, स्वतंत्र बुद्धि से काम लेना सीखो- अन्यथा अमुक तंत्र, वेद, पुराणादि सब कुछ तुम्हारी वाणी से अपने आप निस्सृत होंगे… यदि कुछ करके दिखा सको, एक वर्ष के अंदर यदि भारत के विभिन्न स्थलों में दो-चार हजार शिष्य बना सको, तब मैं तुम्हारी बहादुरी समझूंगा…

    गांव-गांव तथा घर-घर में जाकर लोकहित एवं ऐसे कार्यों में आत्मविनियोग करो, जिससे कि जगत का कल्याण हो सके. चाहे अपने को नरक में ही क्यों न जाना पड़े, परंतु  दूसरों की मुक्ति हो. मुझे अपनी मुक्ति की चिंता नहीं है. जब तुम अपने लिए सोचने लगोगे, तभी मानसिक अशांति आकर उपस्थित होगी. मेरे बच्चों, तुम्हें शांति की क्या आवश्यकता है? जब तुम सब कुछ छोड़ चुके हो? आओ, अब शांति तथा भक्ति की अभिलाषा को भी त्याग दो.

    किसी प्रकार की चिंता अवशिष्ट न रहने पाये. स्वर्ग-नरक, भक्ति अथवा मुक्ति- किसी चीज की परवाह न करो. और जाओ, मेरे बच्चो, घर-घर जाकर भगवन्नाम का प्रचार करो. दूसरों की भलाई से ही अपनी भलाई होती है, अपनी मुक्ति तथा भक्ति भी दूसरों की मुक्ति तथा भक्ति से ही संभव है, अतः उसी में संलग्न हो जाओ, तन्मय रहो तथा उत्मत्त बनो. जैसे कि श्रीरामकृष्ण देव तुमसे प्रीति करते थे, मैं तुमसे प्रीति करता हूं, आओ, वैसे ही तुम भी जगत से प्रीति करो. निम्नलिखित बातें ध्यान में रखो-

1. हम लोग सन्यासी हैं, भक्ति तथा भुक्ति-मुक्ति, सब हमारे लिए त्याज्य है.

2. जगत का कल्याण करना, पणिमात्र का कल्याण करना हमारा व्रत है, चाहे उससे मुक्ति मिले अथवा नरक, स्वीकार करो.

3. जगत के कल्याण के लिए श्रीरामकृष्ण परमहंस देव का आविर्भाव हुआ था. अपनी भावना के अनुसार उनको तुम मनुष्य, ईश्वर, अवतार जो कुछ कहना चाहो, कहो. 4. जो कोई उनको प्रणाम करेगा, तत्काल ही वह स्वर्ण बन जायेगा. उस संदेश को लेकर तुम घर-घर जाओ तो सही- देखोगे कि तुम्हारी सारी अशांति दूर हो गयी है. डरने की जरूरत नहीं- डरने का कारण ही कहां है? तुम्हारी कोई आकांक्षा तो है नहीं- अब तक तुमने उनके नाम तथा अपने चरित्र का जो प्रचार किया है, वह ठीक है, अब संघटित हो कर प्रचार करो, प्रभु तुम्हारे साथ है, डरने की कोई बात नहीं.

    चाहे मैं मर जाऊं या जीवित रहूं, भारत लौटूं या न लौटूं तुम लोग प्रेम का प्रचार करते रहो, प्रेम जो बंधनरहित है. किंतु यद याद रखना- सन्निमित्ते वरं त्यगो विनाशे नियते सति- मृत्यु जब अवश्यंभावी है, तब सत्कार्य के लिए प्राण त्याग करना ही  श्रेयस्कर है.

            प्रेमपूर्वक तुम्हारा- विवेकानंद

    पुनश्चः पहली चिट्टी की बात याद रखना- पुरुष तथा नारी, दोनों ही आवश्यक है. आत्मा में नारी-पुरुष का कोई भेद नहीं, परमहंस देव को अवतार कह देने से ही काम नहीं चलेगा, शक्ति का विकाश आवश्यक है… हजारों की संख्या में पुरुष तथा नारी चाहिये, जो अग्नि की तरह हिमालय से कन्याकुमारी तथा उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक तमाम दुनिया में फैल जायें… हमें संघटन चाहिए, आलस्य को दूर कर दो, फैलो! फैलो! अग्नि की तरह चारों ओर फैल जाओ. मुझ पर भरोसा न रखो, चाहे मैं मर जाऊं अथवा जीवित रहूं- तुम लोग प्रचार करते रहो.

                – विवेकानंद

(फरवरी  1971)

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