इस विनाश को हम स्वयं न्योता दे रहे हैं

 ♦   रामचंद्र मिश्र    >

मुद्दत से रोटी कपड़ा मकान, इन्हीं बुनियादी ज़रूरतों पर इंसानी ज़िंदगी मज़े से टिकतीआयी है. बची-खुची ज़रूरतें किस्से-कहानी, भजन-कीर्तन से पूरी होती रही हैं. अब इंसान की ज़िंदगी खुद उसकी पॉकिट में आ गयी है, बदौलत ऑल इन वन मोबाइल! खाते-पीते तबके  में आज कितने आदमी ऐसे मिलेंगे जिनकी जेब में मोबाइल फोन न हो, बल्कि यह पूछें कि किस आदमी के पास बाकी पांच-दस इलेक्ट्रॉनिक गैजट नहीं हैं, मसलन टीवी, फ्रिज, रेडिओ, ट्रांजिस्टर, वाशिंग मशीन, रसोई-उपकरण, हेयर-ड्रायर, एसी, आई-पॉड, लैपटॉप, कम्प्यूटर, फैक्स मशीन, इलेक्ट्रॉनिक खिलौने, श्रवण-यंत्र वगैरह, यानी एक लम्बी फेहरिस्त.

आज की तारीख में तमाम लोगों के पास पचासों ई-गैजट या जुगतें मौजूद होती हैं, कुछ इस्तेमाल के, कुछ दिखावे के और फिर फेंकने के लिए, जिनका गंतव्य कबाड़खाना हो सकता है. जितनी कमाई, जितना लालच उतने ही ज्यादा ई-गैजट लिये जाते हैं! इसमें हर्ज कुछ भी नहीं, बशर्ते अपनी इकलौती साझी पृथ्वी पर इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट या ई-कचरा फैलाने के गुनहगार हम न बनें!

इस बहुरंगी दुनिया में इलेक्ट्रॉनिकी मानव-मित्र साबित हुई है. उद्योग, संचार, चिकित्सा, खेल, मनोरंजन, शिक्षा, संस्कृति वगैरह, बल्कि अन्य सभी क्षेत्रों में भी ई-जुगतों के बगैर सही ढंग से काम चलाने की आज कल्पना भी नहीं कर सकते. आई टी, कम्प्यूटर के अभूतपूर्व विस्तार और नयी ईजादों के चलते ई-उपकरणों के उत्पादन में भारी एड़ लगी है. नया खरीदो, पुराना फेंको का क्रम जारी है. साथ ही जो ऐसे उपकरण खराब या मरम्मत के अयोग्य, अप्रचलित, अनुपयोगी या गलत जगह पर हैं, वे सभी ई-कचरा की श्रेणी में आते हैं. आज ई-कचरा एक विकृति ही नहीं है, यह भीषण रूप पा चुका है जो खतरे की दस्तक दे रहा है, क्योंकि इसका सुरक्षित निपटान या निस्तारण एक बड़ी समस्या है. यह कचरा पर्यावरण-प्रदूषक, गम्भीर बीमारियों का स्रोत और आनुवंशिक क्षति आदि का कारण बनता जा रहा है. इसकी छंटाई, निस्तारण या पुनर्चक्रण में लगे लाखों मज़दूर जाने-अनजाने विषैले रसायनों या रेडियोधर्मी विकिरण की चपेट में आ रहे हैं.

भारत में ई-कचरा बहुत चर्चित ज़रूर हुआ है किंतु फिलहाल इसकी तथ्यात्मक जागरुकता आम जनता तक नहीं पहुंच पायी है. कभी-कभार कबाड़खाने में रखे ई-कचरे के अंदर कोई विस्फोट या रेडियोधर्मी दुर्घटना होती है तो भी इसे इक्का-दुक्का हादसा मानकर जनता ई-कचरे की पूरी समस्या से वाकिफ होने से रह जाती है. दरअसल हमारे यहां ई-कचरा समस्या के कुछ अपने ही विशेष कारण हैं. एक लम्बे समय से जाने-अनजाने भारत कुछ अन्य विकासशील देशों सहित पश्चिमी देशों में अप्रचलित हुए या चीन में सस्ते में बने निम्न गुणवत्ता के ई-उपकरणों के कूड़ों की जगह बनता जा रहा है. गैर सरकारी संगठन टाक्सिक-लिंक के अनुसार हाल के वर्षों में 80 फीसदी तक ई-कचरा भारत और इसके पड़ोसी देशों को निर्यात किया गया था. जर्मनी, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, नीदरलैंड आदि देश भी अपने ई-कचरे को दूसरे देशों के हवाले करते रहे हैं. दुर्भाग्य यह है कि आमदनी की खातिर भारत में ई-कचरे का कुछ निजी इकाइयों द्वारा अनधिकृत रूप से आयात किया जाता
रहा है.

ई-कचरे में सोना, चांदी, प्लेटिनम, तांबा आदि कीमती धातुओं के अलावा विषाक्त पारा, सीसा, आर्सेनिक आदि और क्रोमियम, सेलेनियम, कैडमियम, कोबाल्ट वगैरह मौजूद होते हैं और साथ ही नाभिकीय और रेडियोधर्मी अपशिष्ट भी. निस्तारण यदि तकनीकी दक्षता के बगैर हुआ तो घूम-फिर कर यह विषाक्त पदार्थ मृदा, जल, हवा और खाद्य को संदूषित करते हैं. कचरे के निस्तारण में लगे कर्मी तो सीधे कुप्रभावित होते हैं और खासकर त्वचा के क्षय कैंसर और स्नायु विकृतियों के शिकार होते हैं.

ई-कचरे के भयानक दुष्परिणामों का जायजा इस हकीकत से ले सकते हैं कि दुनिया के 60 करोड़ से ज्यादा कम्प्यूटरों में तकरीबन 300 करोड़ किलोग्राम प्लास्टिक, 3-4 लाख किलोग्राम. पारा, 75 करोड़ किलोग्राम सीसा और बाकी 25-30 लाख किलोग्राम क्रोमियम, कैडमियम आदि हो सकते हैं. यद्यपि कुछ नये उपकरणों में इनकी मात्रा को घटाने की कोशिशें की जा रही हैं, पर समस्या की गम्भीरता कम होने के बजाए बढ़ती जा रही है.

उपभोक्तावाद के दबाव और बाज़ार में प्रतिस्पर्धा के चलते ई-उपकरणों के नये-नये माडलों का बहुजनन सारी दुनिया में कायम है. सीसा-रहित सोल्डरिंग, कैथोड रे मॉनीटर की जगह एल सी डी मॉनीटर आदि नयी तकनीकों से बने बेहतर उपकरणों के चलते पुराने उपकरणों को बढ़ती तादाद में कबाड़खाने का रास्ता दिखाया गया है.

मोबाइल फोन ई-कचरा का एक बड़ा हिस्सा है. अनुमानतः हर महीने दो करोड़ से भी ज्यादा मोबाइल हैंडसेट बेकार हो जाते हैं जिनमें भारत की भागीदारी जनसंख्या के अनुपात में सर्वाधिक है. दुनिया में हर वर्ष मोबाइल की खरीददारी में दोगुना तक इजाफा होता है. सिर्फ अमेरिका में हर साल 15 लाख टन ई-कचरा उत्पन्न होता है. भारत में घरेलू इस्तेमाल कर्मियों के फ्लोरसेंट बल्ब, ट्यूब आदि सर्वाधिक संस्था में कचरे में फेंके जाते हैं. असंगठित क्षेत्र के द्वारा इनके पुनर्चक्रण हेतु शीशे की ट्यूब को धोया-सुखाया जाता है, धातु की कैप हटायी जाती है और इसकी मरम्मत की जाती है, ट्यूब को नया स्वरूप दिया जाता है और उसमें कम दबाव पर पारे की गैस भरी जाती है. सुरक्षा के अभाव में कर्मी विषाक्तता के शिकार होते हैं और पर्यावरण प्रदूषित होता है.

मुम्बई में धारावी, दिल्ली में ओखला, गुजरात में राजकोट आदि स्थानों में ई-कचरे का निस्तारण प्रायः असंगठित क्षेत्र में होता है. यदि चाहें कि ई-कचरे को ज़मीन में गाड़कर छुटकारा पा लें तो यह गलत तरीका होगा, क्योंकि यह नष्ट तो होता नहीं और भूमिगत जल को प्रदूषित करता है. साथ ही मिट्टी की उर्वरक क्षमता भी नष्ट होती है. ई-कचरे को तेल में डुबाकर सोना, चांदी, प्लेटिनम, तांबा आदि अलग करने के प्रयास किये जाते हैं. इस दौरान ज़हरीली गैसें बनती हैं जिससे पर्यावरण विषाक्त होने के साथ असहाय कर्मी खतरे में पड़ते हैं. इसी प्रकार झुग्गी झोपड़ियों में चल रहे ऐसे छोटे-मोटे व्यवसायों की स्थिति दयनीय है.

दरअसल प्रदूषण की शुरूआत ई-उपकरण के निर्माण से ही हो जाती है क्योंकि इनका कार्बन फुटप्रिंट बहुत ज्यादा होता है. मसलन एक पी. सी. बनाने में इसके वजन का दसगुना अधिक रसायन, ईंधन, भारी धातुएं आदि खपती हैं. एक छोटी-सी सिलिकन चिप बनाने में 10-15 किलोग्राम धन कचरा और काफी अन्य अपशिष्ट (द्रव, गैस, वाष्प) बनते हैं. निर्माण, उपयोग और निस्तारण, यानी ई-उपकरण के पूरे जीवन चक्र का हिसाब लगाएं तो इनका कार्बन फुटप्रिंट अन्य उपकरणों के मुकाबले कहीं ज्यादा होता है.

खतनाक ई-कचरा के नियमित निपटान के लिए एक वैश्विक समझौता है जिसके अनुसार कोई देश ई-कचरे का निर्यात नहीं कर सकता, बल्कि हर देश में कचरे के प्रबंधन हेतु सुविधाओं का विकास करना ज़रूरी है. लेकिन हकीकत कुछ और है. दुष्प्रचार किया गया है कि भारत में ई-कचरे का निस्तारण आसान और किफायती है. ऐसी गलतफहमी फैलाकर कुछ निर्यातक अवैध रूप से ई-कचरा आयात करते हैं. भारत इस समझौते के तहत आता है जब कि अमेरिका इसे मानने में टाल-मटोल करता रहा है.

भारत में कचरा प्रबंधन और निगरानी कानून बहुत पहले से लागू होने के बावजूद कुछ औद्योगिक इकाइयों द्वारा ई-कचरे का आयात जारी है. दरअसल ई-कचरे के आयात पर सीधे तौर पर रोक लगाने के प्रभावी उपाय नहीं हो पाये हैं. उपभोक्ता संगठनों द्वारा इस समस्या के हल के लिए एक विस्तृत कार्य-योजना बनाने की मांग की गयी है. ई-कचरे की उत्पत्ति पर नियंत्रण, सही निपटान न होने पर दंड, आयात रोकने के सख्त उपाय, ई-कचरा के निपटान हेतु वहनीय अधिकृत केंद्रों की स्थापना और जन जागरूकता का प्रसार, यही अपेक्षित कार्य-योजना के अंग हो सकते हैं. ई-कचरा-नियंत्रण बगैर इलेक्ट्रॉनिक क्रांति असफल हो जाएगी.

गौरतलब है कि भारत में ई-सिगरेट का चलन बढ़ रहा है और युवा वर्ग इसकी चपेट में आ रहा है. इस गैजट में बैटरी द्वारा निकोटीन वाष्प बनाने की व्यवस्था होती है, प्रायः यह जल्द ही खराब हो जाते और फेंके जाते हैं. इससे ई-कचरा बढ़ना स्वाभाविक है. तम्बाकू रहित होने के बावजूद यह हानिकारक है. समय रहते ई-सिगरेट नियंत्रण की व्यवस्था करना ज़रूरी है.

इलेक्ट्रॉनिकी ने मानव जीवन को नये आयाम और तेज़ रफ्तार दी है. लेकिन इस तेज़ी के साथ ही विकास की विध्वंसकता भी तेज़ हो रही है. इस खतरे की गम्भीरता को न समझने का मतलब एक ऐसे विनाश को निमंत्रण देना है, जिसका दायित्व भी स्वयं पर ही होगा.

(फ़रवरी, 2014)

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