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♦ कोनराड हिल्टन    

      मैं टेक्सास में पैदा नहीं हुआ. लेकिन अमरीका की टेक्सास के गवर्नर मुझे ‘टेक्सन आफ डिस्टिंक्शन’ (विशिष्ट टेक्सासवासी) की मानद उपाधि देना चाहते थे. कारण, मेरा जन्म सान एंटोनियो में हुआ था और गवर्नर साहब का खयाल था कि सान एंटोनियो दुनिया में एक ही है, और वह टेक्सास में है, जबकि मेरा जन्मस्थान सान एंटोनियो दूसरा ही था- न्यू मैक्सको की सोकोरो काउंटी में.

    निदान सिर्फ मेरी खातिर ‘टेक्सन आफ डिस्टिंक्शन’ की उपाधि के पहले उन्हें ‘आनरेरी’ शब्द जोड़ना पड़ा. उपाधि तो मुझे मिल गयी, पर मैं सोचने लगा, ऐसा कैसे हो सकता है कि दुनिया के नक्शे से उस जगह का नाम ही हट जाये, जहां मैं पैदा और बड़ा हुआ. मन में उत्सुकता जागी कि एक बार वहां चलकर देख ही क्यों न लिया जाये? और जब मैं अपनी जन्मभूमि सान एंटोनियो गया, तो मुझे लगा, गवर्नर ठीक ही कहते थे. मेरे सान एंटोनियो का अस्तित्व लगभग समाप्त ही हो चुका था.

    अपनी जन्मभूमि की यह यात्रा मुझे अतीत में खींच ले गयी.

    मेरे पिता आगस्टस होल्वर हिल्टन मूलतः नार्वेवासी थे. जब वे दस वर्ष के थे, तभी उनका परिवार नार्वे से उखड़कर आयोवा में आ बसा था. 26 वर्ष की उम्र तक पिताजी आयोवा के फोर्ट डाज मानक स्थान पर रहते रहे, पर उन्हें लगता था, फोर्ट डाज उनके लिए बहुत छोटी जगह है. महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति थे, अपने जीवन में बड़ा कुछ करना चाहते थे. क्लर्की में उन्हें क्या मिलता, जो वे फोर्ट डाज में कर रहे थे.

    आखिर वे अपना भाग्य आजमाने निकल पड़े. यह बात 1880 की है. तब तक उनका विवाह नहीं हुआ था, लेकिन वे मेरी मां, मेरी लाफरस्वीलर के प्रेम में पड़ चुके थे और उन्हें ऐसी जगह खोजनी थी, जो मेरी के साथ घर बसाकर रहने के लिए उपयुक्त हो. खोजते-खोजते वे न्यू मेक्सिको पहुंचे, जहां सभ्यता नये कदम रख रही थी, जहां धन कमाने की अमित सम्भावनाएं खुल रही थी. तांबे और कोयले की खाने लोगों को आनन-फानन में मालामाल बनाती जा रही थीं.

    पिताजी पहले सोकोरो में आये. सोकोरो अच्छी जगह थी, वहां सम्भावनाएं भी थीं और पिताजी जो भी काम मिले, करने को तैयार भी थे. लेकिन वह जगह उन्हें अपनी प्रियतमा मेरी की दृष्टि से उपयुक्त और सुरक्षित नहीं लगी. इसलिए उन्होंने सोकोरो से कुछ मील दूर एक बहुत छोटे कस्बे में डेरा डाला. यह कस्बा था सान एंटोनियो.

    सान एंटोनियो में ज्यादा सम्भावनाएं नहीं थीं, लेकिन काम करने वाला तो कहीं भी सम्भावनाएं ढूंढ़ लेता है. पिताजी ने देखा, सान एंटोनियो नदी के किनारे बसा हुआ है, नदी पर पुल है, पुल के पार कार्थेज की कोयले की खानें हैं, खानों में काम करने वाले लोग हैं और लोगों को बहुत-सी चीजों की ज़रूरत है. यह देखकर पिताजी ने अपनी जमा-पूंजी से कुछ सामान खरीदा और घूम-घूमकर बेचना शुरू कर दिया.

    व्यापार चल निकला, तो उन्होंने सान एंटोनियो में अपने लिए एक घर बनाया और एक दुकान खोली. थोड़ा-सा पैसा भी पास में हो गया, तो उन्होंने मां को शादी के लिए लिखा. मां तो तैयार ही थी, पर मेरे नाना अपनी बेटी को इतनी दूर और ‘एक अर्द्धसभ्य देश में, अजनबी लोगों के बीच’ भेजने में हिचकिचाये. उन्होंने मां को चेतावनी भी दी कि वहां जाने पर जो भी अच्छे-बुरे परिणाम सामने आयें, उनके लिए तैयार होकर जाओ. मां आ गयी और परिणामस्वरूप एक साल बाद मैं दुनिया में आया.

    मेरा बचपन शहरों की रईसी और नजाकत में पलने वाले बच्चों की तरह नहीं बीता, और न निपट गांवों में पलकर बड़े होने वाले बच्चों के दोष मुझमें या मेरे भाई-बहनों में आये. कारण था मां और पिता-जी का स्वभाव. मां के जीवन का मूल-मंत्र था प्रार्थना, और पिता के जीवन का मूल-मंत्र काम. बाल-अपराध की समस्या आज बड़े-बड़े लोगों का सिरदर्द बनी हुई है. मेरे माता-पिता के सामने यह समस्या रखी जाती, तो वे चुटकियों में उसे हल कर देते. मां कहती- ‘उन्हें प्रार्थना करना सिखाओ’ और पिता कहते- ‘उन्हें करने के लिए कुछ काम दो.’ और मेरा विश्वास है कि ये दो बातें बचपन को ही नहीं, सम्पूर्ण मानव-जीवन को बनाने-संवारने के लिए काफी हैं.

    सान एंटोनियो में एक छोटा-सा गिरजा था, जिसमें हर रविवार को हम सब जाकर प्रार्थना किया करते. और जब सान एंटोनियो में रेल्वे स्टेशन बन गया. तब तो पादरी का आना भी सुगम हो गया. हमारे परिवार पर पादरी की विशेष कृपा थी, क्योंकि मां को उपासना में अद्भुत आसक्ति थी और सान एंटोनियो में वही एक मात्र ऐसी महिला थी, जिसे संगीत का ज्ञान था. हम सभी भाई-बहनों को आस्तिकता के साथ-साथ संगीत-प्रेम भी मां से विरासत में मिला है.

    और काम? पिताजी ने हमें बचपन से ही काम करने की आदत डाली. हमारे पास जमीन थी, जानवर थे, दुकान थी, इसलिए छोटे-मोटे कामों की कमी नहीं थी. गर्मी की छुट्टियों में तो मुझे बाकायदा तनख्वाह सिर्फ 5 डालर मासिक होती, काम कुछ भी क्यों न हो. इसीलिए 18 वर्ष तक की उम्र में मैंने क्लर्क, सौदागर, सेल्समैंन, सटोरिया और होटल का बैरा तक बनकर काम किया.

    पिताजी को काम से प्रसन्न कर पाना बहुत मुश्किल था. काम के मामले में उनका अनुशासन बहुत कड़ा था. एक बार उन्होंने मुझे रात की गाड़ी से माल उतरवाने स्टेशन जाने को कहा, और मैं सोया रह गया. मां को भी शायद मुझ पर दया आ गयी कि उसने मुझे नहीं जगाया. और जब मेरी आंख खुली, तो पिताजी मां से कह रहे थे- ‘मेरी. पता नहीं कोनी का क्या होगा. मुझे लगता है कि यह अपनी सारी ज़िंदगी सोकर ही गुजार देगा.’ मैं फौरन बिस्तर से उठ पड़ा और उसके बाद आज तक मैंने कभी नींद के पीछे अपने काम की उपेक्षा नहीं की है.

    पिताजी ने मुझे काम करना ही नहीं, सही ढंग से काम करना सिखाया. व्यापार में मोल-भाव का अपना महत्त्व होता है. ग्राहक को यह संतोष रहे कि उसने कुछ कम में चीज खरीदी और व्यापारी को मुनाफा भी बच जाये. लेकिन कुछ ग्राहक बड़े झगड़ालू होते हैं और कुछ मोल-भाव करके दाम कम कराने में अपने आपको विशेषज्ञ मानते हैं. ऐसी एक वृद्धा विधवा सान एंटोनियो में भी थी. पिताजी उससे बहुत घबराते थे, क्योंकि वह चोर, बेईमान आदि उपाधियां भी देती जाती थी और अपना दुखड़ा भी रोती जाती थी कि गरीब और अकेली विधवा को इतने ऊंचे दाम बताकर लूटना ठीक नहीं.

    मेरी परीक्षा के लिए एक दिन पिताजी ने मुझे उसी वृद्धा से भीड़ा दिया और स्वयं अंदर जाकर छिप गये. वृद्धा जूतों की एक जोड़ी खरीदने आयी थी. मैंने दाम बताये, तो उसने मुझे भी गालियां दीं. पर मैं मुस्कराता रहा और मैंने जल्दी ही मोल-भाव के उस खेल में बुढ़िया को पछाड़ दिया. जब वह जूते खरीदकर चली गयी, तो पिताजी ने बाहर आकर मेरी पीठ ठोंकी और मेरी ‘तनख्वाह’ 5 डालर से बढ़ाकर एकदम 15 डालर कर दी. सच, मुझे जीवन में पैसा तो बहुत मिला है, लेकिन अपनी उस पहली तरक्की जितनी खुशी मुझे कभी नहीं हुई.

    उन दिनों हमारा स्टोर ‘जो मांगोगे, मिलेगा’ के सिद्धांत पर चलता था, यानी डाक-टिकिट से लेकर कफन और ताबूत तक सभी कुछ हम बेचते थे. आमदनी अच्छी थी. इधर परिवार भी बढ़ रहा था. मेरे छोटे भाई-बहनों के आने के साथ-साथ घर में पिताजी एक नया कमरा और बनवा देते. इस तरह मकान भी बढ़ रहा था.

    मेरी शिक्षा समीप के ही एक स्कूल में हो रही थी. लेकिन नियमित रूप से नहीं. रासवैल के न्यू मेक्सिको मिलिटरी स्कूल में मुझे पढ़ने भेजा गया, तो वहां मैंने पढ़ाई के साथ-साथ एक चौदह वर्षीय मैगी हिन्सन से प्रेम भी शूरू कर दिया. गर्मी की छुट्टियों में घर आया, तो मां ने मैगी के प्रेमपत्र पढ़ लिये और छुट्टियों के बाद मुझे रासबैल न भेजकर सांता फेके सेंट माइकेल कालेज में भेज दिया. साथ ही हिदायत भी दी- किताबी पढ़ाई के साथ-साथ धार्मिक शिक्षा पर भी ध्यान रखना. मैंने मां की बात मानी और अगली गर्मियों में जब मैं घर लौटा, तो मेरे पास मैगी जैसी लड़कियों के नहीं, सचमुच प्रेम से लाये हुए धार्मिक चित्र थे. देखकर मां खुश हुई.

    पढ़ाई में मैं सामान्य रूप से ठीक रहा. गणित मुझे विशेष रूप से प्रिय था और बाद में भी मेरे काम आया. इस रूप में नहीं कि रेखाओं या बीजाक्षरों ने व्यापार में मेरी महानता की हो, बल्कि उससे मुझे समस्याओं को सहीं रूप में समझने और हल करने की दृष्टि प्राप्त हुई. मैं समझने लगा कि मूल समस्या क्या है और उसे कैसे हल किया जाये. समस्याओं को हल करने की शक्ति मुझमें माता-पिता की प्रेरणा से भी आयी. जब भी कोई कठिनाई उत्पन्न होती मां कहती- ‘जाओ, गिरजे में जाकर ईश्वर से प्रार्थना करो.’ और पिताजी कहते- ‘दिमाग को सही और संतुलित रखने के लिए काम में व्यस्त रहो.’

    यही कारण था कि मैं कभी परास्त नहीं हुआ और हमेशा व्यस्त भी रहा. पर कोल्हू के बैल की तरह ही काम के चक्कर में नहीं, बल्कि तरह-तरह के कामों में. पचीस का होते-होते मैं कई तरह के काम कर चुका था- राजनीति में मैं भाग लिया, बैंक का धंधा मैंने किया, एक दुकान का भागीदार मैं रहा, संगीत-मंडली मैंने चलायी, नाटक मैंने कराये. आज भी मैं अपने काम में विविधता पसंद करता हूं. अभी कुछ ही दिन पहले अमरीका की एक टेलिविजन कम्पनी के लिए मैंने अभिनेता का काम भी किया- हालांकि मुझे अपना ही, यानी कोनराड हिल्टन का ही अभिनय करना था, लेकिन मैंने महज 241.50 डालर के लिए यह काम किया और कोलंबिया ब्राडकास्टिंग कम्पनी के स्टूडियो में सुबह 10 बजे से रात के 8 बजे तक जमकर रिहर्सल किये और अभिनय किया.

    आज जब मैं अपने बच्चों से कहता हूं कि प्रार्थना और परिश्रम से ही सब चीजें सुलभ होती हैं, तो वे सैद्धांतिक रूप से सहमत होते हुए भी कहते हैं-‘इन दो चीजों के अलावा भी कुछ होना चाहिए पिताजी! हम ऐसे कई लोगों को जानते हैं जो बहुत कठिन परिश्रम करते हैं और आस्थापूर्वक प्रार्थना भी करते हैं, फिर भी कुछ नहीं होता.’ और मैं उनसे कहता हूं- ‘हां, एक चीज और है, वह है- सपने देखना. अगर तुम जीवन में बड़े काम करना चाहते हो, तो बड़े कामों के सपने देखो.’

    मैंने हमेशा सपने देखे हैं और उन सपनों को सकार करने के लिए प्रयत्न किये हैं. ऐसा ही एक सपना था न्यूयार्क में बने दुनिया के सबसे महान होटल वाल्डार्फ एस्टोरिया का मालिक बनना. उस सपने को सच करने के लिए मुझे जो प्रयत्न करने पड़े हैं, वे अपने आप में एक कहानी हैं.

    हुआ यह कि जब सान एंटोनियो में हमारे पास काफी पैसा हो गया, तो हम लोग लांग बीच में जा बसे. अमीरों की शानदार ज़िंदगी शुरू हुई, लेकिन थोड़े ही दिन बाद सब कुछ समाप्त हो गया. न्यूयार्क की निकरबाकर ट्रस्ट कम्पनी ने अक्टूबर 1907 में ऐसा मुद्रा-संकट पैदा किया कि देश के बैंक धड़ाधड़ बंद होने लगे. अब हमारे पास सान एंटोनियो के घर और गोदाम के अलावा कुछ नहीं बचा और हम लौट आये. रईसी छोड़कर हम फिर काम पर लगे. नाजुक हालत को देखते हुए पिताजी ने प्रस्ताव रखा कि घर को सराय बना दिया जाये, बाहर से आने वाले यात्री उसमें ठहराये जायें और मां उनके लिए भोजन बनाये.

    मां ने खुशी-खुशी मान लिया और यों दुनिया में प्रथम ‘हिल्टन-होटल’ का जन्म हुआ. हम भाई-बहन बैरों-चाकरों का काम करते, पिताजी व्यवस्था सम्भालते और मां उस छोटे-से होटल में बावर्चिन के रूप में काम करती. काम चल निकला. इधर मेरी छोटी बहन रोजमेरी ने नृत्य, संगीत और अभिनय में अपनी सहज रुचि का लाभ उठाने के लिए एक संगीत मंडली बनाने का सुझाव दिया. उसकी दो सहेलियां पहले से ही तैयार थीं. आखिर उन तीनों को लेकर ‘हिल्टन ट्रायो’ नामक संगीत मंडली बनी और मैं बना उसका व्यवस्थापक. पहले हमने आस-पास के शहरों में संगीत और नृत्य के प्रदर्शन किये, फिर दूर के शहरों में. पैसा तो इस काम में अधिक नहीं मिला, लेकिन अखबारों में रोजमेरी की चर्चा खूब हुई और मुझे इधर-उधर घूमकर दुनिया देखने का अवसर मिला.

    जब मैं इक्कीस साल का हुआ, पिताजी ने मुझे अपने स्टोर का भागीदार बना लिया. अब तक मेरी स्थिति एक मामूली कर्मचारी की थी, पर अब मैं थोड़ा स्वतंत्र होकर व्यापार करने में समर्थ था. तभी मेरा परिचय कुछ राजनीतिक लोगों से हुआ और मैंने चुनाव में खड़े होने का फैसला किया. आस-पास के सभी लोगों को मैं जानता था और वे मुझे जानते थे. जीतने लायक वोट मिलने की मुझे पूरी आशा थी,  इसलिए मैं चुनाव में खड़ा हो गया. मतदान हुआ और मैं जीत गया. विधायक बनकर मैंने सान एंटोनियो छोड़ा और सांता फे जाकर रहने लगा.

    उन दिनों की एक घटना मुझे अच्छी तरह याद है. मैं ‘दुनिया को हिला देने वाला वक्ता’ बनने की धुन में एक पुस्तक खरीद लाया था और उसके अनुसार भाषण देने की कला का अभ्यास करने लगा था. एक दिन मां ने एकांत में मुझे अभ्यास करते हुए देख लिया और कहा- ‘कोनी, यह नाटकबाजी अच्छी नहीं. प्रभावशाली भाषण देने के लिए अभिनय की नहीं, ईमानदारी की ज़रूरत है. ये अदाएं लोगों को धोखा देने वाली हैं, इसलिए पापपूर्ण हैं. इस तरह तो तुम ईश्वर को भी धोखा दे रहे हो. इस पुस्तक का सहारा छोड़ो और जाकर ईश्वर से प्रार्थना करो.’

    मुझे लगा कि मां सच कह रही है और उस दिन के बाद मैंने जब भी भाषण दिया है, हमेशा यही कोशिश की है कि भाषण देते समय मैं सिर्फ ‘मैं’ रहूं- जैसा ईश्वर ने मुझे बनाया है, वैसा.

    सांता फे में राजनीतिक जीवन जीते हुए मैंने अनुभव किया कि यद्यपि राजनीति के द्वारा बहुत से काम किये जा सकते हैं, पर बहुत से काम नहीं भी किये जा सकते. मैंने कई प्रस्ताव रखे, जिनमें से कुछ ही पास हुए, बाकी राजनीतिक विवाद में खो गये. आखिर मैंने राजनीति को तज देना ही उचित समझा. लेकिन वहां रहकर मैंने बैंकिंग और सार्वजनिक अर्थव्यवस्था का गहरा अध्ययन किया और मेरे मन में विचार आया कि सान एंटोनियो लौटकर एक बैंक खोलूं.

    बैंक खोलने के लिए मैंने क्या नहीं किया. आस-पास के पूरे इलाके में परिचित और अपरिचित सभी लोगों से मिला और बैंक के शेयर बेचे. लोगों को पिताजी पर और मुझ पर विश्वास था और उन्होंने शेयर खरीदे. लेकिन जब सान एंटोनियो में बैंक की छोटी-सी इमारत बन गयी और शेयर-होल्डरों की आम सभा में बैंक के अध्यक्ष का निर्वाचन हुआ, तो कुछ स्वार्थी और शरारती लोगों ने मिलकर एक अन्य व्यक्ति को अध्यक्ष बना दिया. मुझे बड़ा क्रोध आया. काम सब मैंने किया, मेरे विश्वास पर लोगों ने पैसे दिये, मरा-खपा मैं, और बैंक दूसरे के हाथों में.

    एक साल तक मुझे फिर अपनी दुकान के कारोबार में लगे रहना पड़ा. अगले साल जब फिर शेयर-होल्डरों की बैठक हुई, तो मैंने और पिताजी ने पूरी दौड़-धूप की और बैंक मेरे हाथों में आया. लेकिन उन्हीं दिनों जर्मनी ने सारे यूरोप में आतंक फैला दिया और अमरीका को युद्ध में कूदना पड़ा. सभी नौजवान सेना में भरती होने लगे.

    मेरा छोटा भाई कार्ल तो पहले ही नौसेना में चला गया था, मैंने भी निश्चय किया कि मैं भी सेना में जाऊंगा. एक मित्र से मैंने कहा था- ‘मैं बैंकर बनना चाहता हूं, लेकिन इस समय मुझे पहले अमरीकी बनना है, बाद में बैंकर.’ और मैं सेना में भरती हो गया. मां, पिताजी और छोटे भाई-बहनों ने अपने इस सैनिक को सोकोरो स्टेशन पर भावपूर्ण विदा दी और तीन दिन बाद मैं सानफ्रांसिस्को में था.

    सानफ्रांसिस्को से मुझे वाशिंग्टन ले जाया गया और वाशिंग्टन से फ्लोरिडा. बोस्टन, न्यूयार्क आदि नगर मैंने सैनिक के रूप में ही देखे. फिर हमारी टुकड़ी को फ्रांस ले जाया गया. वहां मोर्चे पर काम करते समय मुझे मां का तार मिला- पिताजी नहीं रहे. एक मोटर-दुर्घटना में उनका देहांत हो गया. यह 4 जनवरी 1919 की बात है. 11 फरवरी 1919 को मुझे सेना से मुक्ति मिली और मैं सीधा घर लौटा.

    वसंत के दिन थे, पर मुझे कोई खुशी महसूस नहीं हुई. युद्ध चीज ही ऐसी है कि उसमें जाकर आदमी बदल जाता है. स्वभाव में स्वतः ही उखड़ापन आ जाता है. दूसरी ओर, बड़े-बड़े नगरों और विदेशों में हुई प्रगति को अपनी आंखों से देख लेने के बाद यह भी अनुभव होने लगता है कि हमारा क्षेत्र कितना पिछड़ा हुआ है और हम प्रगति की दौड़ में कितने पीछे हैं. शायद इसीलिए युद्ध से लौटकर मुझे सान एंटोनियो और सोकोरो खिलौने-जैसे लगे. मैं वहां रह कर कूपमंडूक बना रहना नहीं चाहता था.

    दूसरी ओर, पिताजी की मृत्यु के बाद कारोबार भी ठप हो गया था. बैंक बंद हो चुका था और शहर भी उजड़ने लगा था. ज़मीन, मकान, शेयर और नकद मिलाकर पिताजी मां के लिए लगभग 40,000 डालर की सम्पत्ति छोड़ गये थे और मेरे अपने खाते में केवल 5,011 डालर बचे थे. इन्हीं को लेकर मुझे कुछ करना था, पर क्या करना था, समझ में नहीं आ रहा था. सान एंटोनियो में कोई सम्भावना नजर नहीं आती थी. आखिर मां ने कहा- ‘कोनी, जिस तरह तुम्हारे पिता ने अपने लिए नयी दुनिया खोजी थी, तुम्हें भी अपनी दुनिया खोजनी पड़ेगी. और सुनो, तुम्हारे पिता के एक मित्र कहा करते थे, कि अगर तुम बड़े जहाज तैराना चाहते हो, तो तुम्हें गहरे पानी में तो जाना ही पड़ेगा.’

    मैंने अपने 5,011 डालर के नोट साथ लिये और अपने सपनों के जंगी जहाज तैराने के लिए गहरे पानी की तलाश में चल पड़ा. पहले मैं आल्बुकर्क आया. वहां मेरी एक कुआंरी मित्र के पिता ने मुझे सलाह दी- ‘कोनी, तुम टेक्सास जाओ, वहीं तुम्हारा भाग्योदय होगा.’ मुझे लगा, वे ठीक कह रहे हैं. टेक्सास में तेल के कुएं थे, और तेल जहां हो, वहां क्या नहीं होगा! काम… लोग-बाग… व्यापार… बैंक…

    टेक्सास में बैंक खोलने के इरादे से मैं चल पड़ा और सिस्को पहुंचा. स्टेशन से उतरते ही सामने एक बैंक दिखाई दिया और मैं उस पर रीझ गया. जेब में कुल पांच हजार डालर और मैं बैंक खरीद लेने की बात सोचने लगा. पता लगाया, तो मालूम हुआ कि बैंक सचमुच बिकाऊ है और उसका मालिक 75,000 डालर में सौदा कर लेगा. मैं तैयार हो गया और मैंने मां को तथा कुछ मित्रों को 70,000 डालर कर्ज के रूप में देने को राजी कर लिया. लेकिन दुबारा जब बैंक के मालिक से बात हुई, उसने कीमत बढ़ाकर 80,000 कर दी. मुझे गुस्सा आया और मैंने कहा- ‘अपना बैंक अपने पास ही रखो, मुझे नहीं खरीदना.’

    और अच्छा ही हुआ. उस दिन मेरे जीवन की दिशा ही बदल गयी.

    बैंक खरीदने के चक्कर में मैं सिस्को आकर तनिक भी आराम नहीं कर पाया था और बुरी तरह थककर कहीं सोना चाहता था. किसी होटल की तलाश में सिस्को की सड़कों पर चलता मैं मोब्ले होटल पहुंचा. होटल अच्छा था, लेकिन उसमें जगह नहीं थी. सारे कमरे भरे हुए थे और एक-एक कमरे में तीन-तीन, चार-चार लोग ठहरे हुए थे. फिर भी इतनी भीड़ कि लोग सोने और खाने की सुविधा पाने के लिए ज्यादा पैसा देने को तैयार और बरामदों में ही पड़े रहने को तैयार. होटल के मालिक ने बताया कि लोग तो खाने की मेजों पर भी सोने को तैयार हैं, अगर मैं सोने दूं!

    ‘तब तो आप काफी कमा लेते होंगे?’ मैंने कहा.

    ‘वह तो ठीक है. लेकिन तेल के करोबार में जो मजा है, वह इस धंधे में कहां.’

    ‘तो क्या आप होटल बेचने की सोच रहे हैं?’

    ‘हां, अगर कोई पचास हजार डालर नकद देने को तैयार हो.’

    ‘तो समझिये कि आपको ग्राहक मिल गया.’ मैंने कहा- ‘जरा अपने बहीखाते दिखाइए.’

    होटल का मालिक चकराया, लेकिन उसने खाते देख लेने दिये. देखकर मुझे लगा सौदा बुरा नहीं है. तुरंत मैंने अपने एक मित्र ड्राउन को तार दिया कि वह आकर देख ले. ड्राउन बैंकर था, होटलों की जानकारी उसे नहीं थी, लेकिन होटल और उसका हिसाब-किताब देखकर ड्राउन खुश हो गया. हम दोनों ने होटल के मालिक मोब्ले से बात की और सौदा चालीस हजार में पट गया.

    मोब्ले ने हमें एक सप्ताह का समय दिया और हम पैसा जुटाने में जुट गये. पांच हजार मेरे पास थे, पांच हजार ड्राउन ने जुटाये, पांच हजार का चेक मां ने भेजा और पांच हजार का एक और मित्र ने. चार दिन बीत गये और अभी तक आधा ही पैसा मिला था. आखिर मैंने सिस्को बैंकिंग कम्पनी से 20,000 डालर का कर्ज लिया और मोब्ले होटल हमारा हो गया. मेरा अकेले का नहीं, ड्राउन, स्मिथ और मैं तीन भागीदार थे उसके. बाद में स्मिथ को हमें अलग कर देना पड़ा.

    मोब्ले होटल हमारे हाथों में आ गया, लेकिन उसमें ठहरना चाहने वालों की भीड़ कम नहीं हुई. तब मुझे पिताजी की बातें याद आयीं. वे कहा करते थे, बक्से में सामान भरने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि बक्सा पूरा भरा जाये. और मैंने देखा कि मोब्ले होटल में बहुत-सी जगह बेकार पड़ी थी, जिसमें यात्रियों के ठहरने के लिए कमरे बन सकते थे. कमरे बनाये गये. दूसरा काम यह किया कि होटल के नौकरों को साफ वर्दियां दीं, थोड़ी-थोड़ी तनख्वाहें बढ़ायी और उन्हें बताया कि होटल की शान रखने में ही उनकी शान है. यह पाठ मैंने सेना में रहते समय पढ़ा था और अपने नौकरों को अच्छी तरह पढ़ाया. इससे होटल में नयी जान आ गयी. मैंने ग्राहकों के स्वभाव तथा रुचि-अभिरुचि को भी समझने का पूरा प्रयत्न किया.

    एक होटल हो जाने के बाद मैं सोचने लगा कि एक और होना चाहिए, लेकिन उस समय मुझे दो काम करने थे. रुथ बुश नामक एक लड़की से मेरा प्रेम चल रहा था (जी हां, अपने व्यस्त-से-व्यस्त समय में भी मैं प्रेमी और मनोरंजन के लिए समय निकाल लेता था!) और मुझे एक सक्रिय भागीदार की ज़रूरत थी. पहले काम में तो मैं असफल रहा, लेकिन दूसरा काम हो गया. शीकागो जाकर मैं अपने मित्र मेजर पावर्स से मिला और उसे होटल-व्यवसाय में खींच लाने में सफल हो गया.

    पावर्स ने फोर्ट वर्थ में एक होटल ढूंढ़ निकाला- मेल्बा होटल. 68 कमरे, अच्छी आमदनी. पावर्स. ड्राउन और मैंने मिलकर उसे खरीद लिया. उसे धोया, चमकाया, सजाया और नये ढंग से चलाना शुरू किया, तो उससे और भी अच्छी आय होने लगी.

    तीसरा होटल मैंने डलास (टेक्सास) में खरीदा, जिसका नाम संयोग से वाल्डार्फ होटल था और वह नाम मुझे न्यूयार्क के वाल्डर्फ-एस्टोरिया की याद दिलाता था. इसमें दो सौ कमरे थे.

    अब हमारे पास तीन होटल थे. एक का प्रबंध मैं देखता था, दूसरे का ड्राउन और तीसरे का पावर्स. टेक्सास में तेल-उद्योग की हालत खराब थी और उसके कारण व्यापार मंदी आ गयी थी. यहां तक कि जिस सिस्को बैंक को मैंने खरीदना चाहा था, वह बंद हो गया. लेकिन मैं अपने तीनों होटलों से 6,000 डालर प्रतिमास अपने हिस्से के रूप में कमा रहा था. मेरा वजन बढ़ा और मैं कुछ मोटा भी हो गया. कर्ज उतर गया और मेरे पास पैसा हो गया, तो मैंने मां के लिए हीरे खरीदे.

    गहनों की मुझे पहचान नहीं थी, लेकिन मैंने हीरों का एक बड़ा ‘ब्रूच’ मां के लिए खरीदा, जो देखने में बड़ा सुंदर लगता था. लेकिन घर जाकर जब वह ब्रूच मैंने मां को दिया, तो मुझे यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि मां ने उसे ले तो लिया, पर पहना नहीं. पूछा, तो मां ने सच-सच कह दिया- ‘मुझे यह पसंद है, इससे अच्छा गहना मुझे आज तक नहीं मिला. लेकिन मैं इसे पहन नहीं सकूंगी, क्योंकि… यह मेरी उम्र की औरत के लिए जरा…’ मैं समझ गया. भूल मेरी ही थी. मैंने मां के लिए उपहार खरीदते समय अपनी पसंद से काम लिया था, मां की पसंद के बारे में नहीं सोचा था.

    इस घटना से मैंने बहुत कुछ सीखा. उपहार हमेशा ऐसे दिये जायें, जो उसे पाने वाले को पसंद हो. यह बात होटल-व्यवसाय में जानना बहुत जरूरी है. और मां के उस सत्य-कथन से मिली सीख के कारण हिल्टर-होटलों के मेहमान हमेशा संतुष्ट रहे हैं.

    चौथा होटल मैंने फोर्टवर्थ में ही लिया, जिसका नाम था टर्मिनल. लेकिन यह सौदा मुझे महंगा पड़ा. पावर्स ने इस सौदे में सोडरमन नामक एक व्यक्ति को भागीदार बनाया, लेकिन सोडरमन बड़ा धूर्त और लालची निकला. उसने पावर्स पर चोरी का इल्जाम लगाया. बुरे भागीदार से छुटकारा पाने का सबसे अच्छा इलाज मेरी समझ से यह था कि उसका हिस्सा खरीदकर उसे अलग कर दिया जाये, लेकिन सोडरमन ने उलटे हम लोगों के हिस्से खरीद लिये. टर्मिनल उसका हो गया. पावर्स ने डलास वाला वाल्डार्फ सम्भाल लिया और मैं अपने एक मित्र बिल इरविन के साथ मेल्वा में लौट आया.

    इस प्रकार सब ठीक चल रहा था कि एक दिन सोडरमन होटल बेचने के लिए आया और मैंने 38,500 डालर उसके मुंह पर मारकर टर्मिनल खरीद लिया. लेकिन सोडरमन को लगा कि हमने उसे लूट लिया है और उसने एक दिन वाल्डार्फ आकर मेजर पावर्स को गोली मार दी.

    मैं बता नहीं सकता कि इस घटना से मुझे कितना दुख हुआ. पावर्स मेरा भागीदार ही नहीं, बहुत प्यारा दोस्त भी था.

    अब उसकी जगह मुझे स्वागत-कक्ष में बैठना पड़ा और धंधा फिर चल पड़ा. थोड़े दिन बाद मेरा छोटा भाई कार्ल नौसेना से लम्बी छुट्टी लेकर होटल-व्यवसाय में किस्मत आजमाने के विचार से आया. (सम्भव है, उसकी पत्नी ने हीरों का ब्रूच पाने के लिए उसे प्रेरित किया हो!) मैंने बिना कुछ कहे-पूछे वाल्डार्फ होटल कार्ल के हवाले कर दिया और सोचने लगा कि कुछ होटल और खरीदे जायें.

    और होटल खरीदे गये. कोर्सिकाना में बीटन होटल. 60 कमरे. कीमत 20 हजार डालर. और यह पांचवां होटल भी चल निकला. छठे में मुझे मात खानी पड़ी. यह होटल मैंने एक छोटी-सी बस्ती में खोला एक मकान लेकर. अफवाहें थीं कि वहां तेल के कुंए निकलने वाले हैं. लेकिन खुदाई पर जब सिर्फ पानी निकला और मेरे होटल में केवल तीन मेहमान आकर ठहरे, तो मुझे वह होटल बंद कर देना पड़ा.

    अब मैं बड़े होटल के बारे में सोचने लगा, जिसे मैं स्वयं बनवाऊं और जिस पर ‘हिल्टन होटल’ लिखा जाये. अपने इस सपने को मैंने एक योजना के रूप में कागज पर उतारा और कोशिशें शुरू कर दीं. यह कोई मामूली योजना नहीं थी- दस लाख डालर का खेल था. और मेरे पास कुल मिलाकर एक लाख डालर थे. नौ गुनी रकम कहां से आयेगी? मैंने सोचा, पर समझ में कुछ नहीं आया, तो गिरजे में घुटने टेककर प्रार्थना करने जा पहुंचा. 

    जगह मैंने देख रखी थी, लेकिन उसकी कीमत इतनी थी कि खरीद नहीं सकता था. कर्ज लेकर पैसा जमीन में फंसा देने पर इमारत बनाने के लिए पैसे कहां से आते? आखिर मुझे एक तरकीब सूझी और मैंने जमीन के मालिक को 99 लाख के पट्टे पर जमीन देने के लिए राजी कर लिया. तय हुआ कि इसके लिए मुझे 31 हजार डालर सालाना देना पड़ेगा. इतना होने के बाद मैंने भवन-निर्माताओं की एक फर्म से सम्पर्क किया और उन्होंने मेरे सपने को साकार करने की कीमत आंकी दस लाख डालर. वही रकम, जो मैंने सोची थी. मैंने काम शूरू करने के लिए कह दिया. तब मुझे क्या पता था कि लागत दस लाख से कहीं ऊपर बैठेगी.

    जहां से भी कर्ज मिल सकता था, मैंने लिया और हिल्टन-होटल का काम शुरू हो गया. बीच में मुझे कितनी परेशानियां उठानी पड़ी, यह एक लम्बी कहानी है. कई बार तो ऐसे मौके आये, जब मैं बुरी तरह टूटने लगा. लेकिन जब-जब ऐसे मौके आये, मैंने पूरी आस्था से ईश्वर की प्रार्थना की और अपने प्रयत्न जारी रखे. मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि ईश्वर ने मेरी सदा सहायता की.

    एक घटना तो कभी मैं भूल नहीं सकता. मेरे पास पैसा खत्म हो रहा था और ठेकरदार धमकी दे रहे थे कि उनका पैसा नहीं दिया गया, तो वे काम बंद कर देंगे. पचास-पचास हजार के दो भुगतान तो मुझे एकदम करने थे. मेरे पास सिर्फ पचास हजार थे. कहीं से धन मिलने की आशा नहीं थी. जितनी सम्पत्ति मेरे पास थी, सब पर मैं कर्ज ले चुका था. तब मेरी सहायता की एक यहूदी मित्र ने. मुझे घबराया हुआ देख उसने तुरंत पचास हजार डालर मुझे दिये. मैंने कहा- ‘मेरे पास गिरवी रखने के लिए कुछ भी नहीं है हैरी!’

    ‘मैंने तुमसे कहा है कि कुछ गिरवी रखो?’ हैरी सीगल ने कहा. उसका अपने ऊपर इतना विश्वास देखकर मैं अभिभूत हो गया. उस एहसान का बदला मैं जीवनभर नहीं दे पाऊंगा. इस घटना से विश्वबंधुत्व में मेरी आस्था दृढ़ हुई और मेरा विश्वास है कि व्यापार में, राष्ट्र में और पूरे विश्व में अगर स्थायी शांति बनाये रखनी है, तो हमें इस भाईचारे के आधार पर ही खड़े होना पड़ेगा.

    कभी-कभी बीच में कहीं से मिलने वाला पैसा अटक भी जाता और मुझे प्रतीक्षा करनी पड़ती. जब प्रतीक्षा के सिवा कुछ नहीं किया जा सके, तो मैं सारी चिताएं छोड़कर अपने को कहीं और व्यस्त कर लेता हूं. हिल्टन-होटल के निर्माण के दौरान ऐसी प्रतीक्षाओं में मैंने थियेटर किराये पर लेकर नाटक भी किये, नृत्य-संगीत के कार्यक्रमों में भी गया और प्रेम भी किया…

    हां, प्रेम उन्हीं दिनों अपनी सारी सुंदरता और मधुरता लेकर मेरे जीवन में आया. लाल हैट वाली एक लड़की मुझे मिली. नाम था- मेरी बैरन. 4 अगस्त 1925 को डलाम में प्रथम हिल्टन-होटल का उद्घाटन हुआ और उसी शाम 6 बजे होली ट्रानिटी चर्च में मेरी बैरन से मेरी शादी हुई. वह दिन ज्यादा धूमधाम का नहीं था. क्योंकि अचानक ही डेन्वर से मेरे मित्र इरा कास्टील की मृत्यु का समाचार आ गया था.

    मां उस अवसर पर उपस्थित थी और खुश थी. पुत्रवधू उसे पसंद आयी और हिल्टन-होटल भी. छोटी-सी दावत के बाद हम हनीमून मनाने के लिए चल दिये. सबसे पहले डेन्वर जाकर इरा कास्टील के माता-पिता को सांत्वना देना हमें जरूरी लगा. डेन्वर से हम सानफ्रांसिस्को गये और वहां से कनाडा. फिर हम शिकागो पहुंचे और शिकागो के एक होटल में ठहरने पर मुझे लगा कि यहां भी अपना एक होटल होना चाहिए. लेकिन मेरी यह इच्छा करीब बीस साल बाद पूरी हुई.

    इससे पहले मैंने कई होटल खोले. मेरा विचार था कि हर साल एक नया होटल खोला जाये. एबीलेन, वाको, मार्लिन प्लेनव्यू, सान एंजेलो, ल्यूबक, एल पासो आदि कई जगहों के नाम मेरे ध्यान में थे और मैंने काम शुरू कर दिया. 1927 में एबीलेन होटल पूरा हुआ और वाको में नींव डाल दी गयी. प्रतिवर्ष एक होटल खुल गया- आठ मंजिलें, सौ कमरे, लागत 4 लाख डालर. प्लेनव्यू में भी उतना ही बड़ा, उतनी ही लागत में. सान एंजेलो में और भी बड़ा-चौदह मंजिलें, 240 कमरे, लागत 9 लाख डालर. ल्यूबक में बारह मंजिलें, 200 कमरे, लागत 8 लाख डालर. लेकिन सबसे बड़ा होटल मैंने बनवाया एक पासो-1930 में, मेक्सिको में. 19 मंजिलें 300 कमरे, लागत 17 लाख डालर.

    एल पासो का निमार्ण होने तक मैं दो बच्चों का पिता बन चुका था. मेरी गृहस्थी पत्नी के साथ ठीक चल रही थी. लेकिन मुझे यह नहीं मालूम था कि मेरी सुखी गृहस्थी में घुन लग चुका है. एल पासो का उद्घाटन जिस दिन हुआ, मेरी बहन ने कहा- ‘कोनी, कभी तुमने यह भी सोचा कि तुम्हारे होटल तुम्हारी पत्नी को ‘बोर’ भी कर सकते हैं?’

    मैंने यह सचमुच नहीं सोचा था. मैं तो यही सोचता था कि मेरे होटल ही आसमान के सितारे हैं, जिनसे मैं मेरी की झोली भर सकता हूं. लेकिन बहन ने कहा- ‘एक होटल जीविका का साधन हो सकता है, दो होटल सारी सुख-सुविधाएं दे सकते हैं, लेकिन दो से ज्यादा होटल पत्नी को सौत जैसे लगेंगे. उनमें तुम्हारा इतना समय जाता है कि घर-गृस्थी के लिए तुम्हारे पास समय ही नहीं बचता.’

    बात मेरी समझ में आ गयी और मैंने फैसला किया कि अब मेरी की ओर अधिक ध्यान दूंगा. लेकिन मेरा फैसला टिक नहीं सका. अचानक अमरीकी शेयर बाजार टूट गया. बाजार में भारी मंदी आ गयी. बैंक फेल होने लगे. व्यापारी दीवालिये होने लगे. बड़े-बड़े लखपति और करोड़पति आत्महत्याएं करने लगे. और मुझे अपने होटलों को, अपनी प्रतिष्ठा को बचाये रखना मुश्किल हो गया.

    सब किया-कराया मिट्टी में मिलने की स्थिति आ गयी. अब मेरे पास आस्तिकता और आत्मविश्वास- ये ही आधार रह गये, जिन पर मैं खड़ा रह सकता था. और मेरा एक विश्वास यह भी रहा है कि अमरीका अमित सम्भावनाओं वाली धरती है. आज संकट की घटा घिरी है, पर कल ये बादल बिखर जायेंगे और सुखद सूर्योदय होगा. उसके लिए चाहिए अटूट आस्था. और यह आस्था मुझमें और मेरे साथियों में थी, इसीलिए मैं उस भयानक मंदी के दिनों में भी जूझता रहा.

    लेकिन उस संकट में मैं इतना घिर गया और मेरी भागदौड़ इतनी बढ़ गयी कि चाहते हुए भी पत्नी को मैं पर्याप्त समय नहीं दे पाया. उसके मन में पड़ी गांठ बढ़ती चली गयी और एक दिन संबंध-विच्छेद हो गया. मंदी में कई होटल मुझे बेच देने पड़े थे, इसलिए होटल पाकर खो देने का अनुभव तो मुझे पहले ही था, पर पत्नी को पाकर खो देने के अनुभव ने मुझे झकझोर दिया.

    मंदी के समय मेरी हालत बड़ी विचित्र थी. लोगों ने यात्राएं बंद कर दी थीं और होटलों में कमरे खाली रहने लगे थे. आमदनी बहुत घट गयी थी. लेकिन खर्चे ज्यों-के-त्यों थे. पहले हमारी जमा पूंजी खत्म हुई, फिर मैंने कर्ज लिया, लेकिन कर्ज ज्यादा नहीं मिला. देता ही कौन उस मंदी के जमाने में? आखिर मुझे अपने सारे होटल गिरवी रखकर उन्हें चलाने के लिए कर्ज लेना पड़ा. लेकिन 3 लाख डालर का वह कर्ज लिया हुआ पैसा भी जल्दी ही खप गया. अब क्या हो? एल पासो जैसे विशाल होटल की दैनिक आमदनी गिरते-गिरते सिर्फ 35डालर रह गयी, मगर खर्चे वही-के-वही रहे. जीना मुश्किल हो गया.

    लेनदार तकाजे करने लगे और मैं लगभग पांच लाख डालर के कर्ज में डूबा हुआ था. तब मेरे कानूनी सलाहकार ने कहा ‘कोनी, तुमने इतना कर्ज अपने सिर चढ़ा रखा है कि तुम हजार साल में भी नहीं चुका सकोगे. इसलिए मेरी बात मानो, दीवाला निकाल दो और झगड़ा खत्म करो.’

    मैं चीख पड़ा- ‘नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. मैं अपनी साख मिट जाने दूं? साख ही तो मेरी ज़िंदगी है. साख नहीं रही, तो मैं मर जाऊंगा.’

    लेकिन मैं जानता था कि साख बचाना कितना कठिन है, जबकि मुझे अपनी कार में पेट्रोल डलवाते समय भी कर्मचारियों से सुनना पड़े कि पेड्रोल-पंप के मालिकों ने मुझे उधार तेल देने को मना कर रखा है. लेकिन मेरी साख थी जरूर. पेट्रोल-पंप के कर्मचारी मेरा उधार अपने जिम्मे लेकर मेरी कार में पेट्रोल डाल देते. मेरे साथियों और सहयोगियों का भी मुझमें अटूट विश्वास था. उनमें से कइयों ने तो मुझे अपने जीवन-भर की छोटी-छोटी जमा पूंजियां लाकर दीं.

    लेकिन टिकना फिर भी मुश्किल था, इसलिए मुझे सारे होटल बेचने पड़े और मेरे होटल नेशनल कम्पनी के हो गये. होटलों के एक तिहाई हिस्से पर मेरी साझेदारी तय हुई और जनरल मैनेजर के रूप में काम करने पर 1,500 डालर प्रतिमास वेतन. ईश्वर की कृपा से मैं डूबते-डूबते बच गया. यद्यपि अपने ही होटल में दूसरों का नौकर बनकर रहने में मुझे असुविधाएं कम नहीं हुई, फिर भी मैं झेल गया.

    मुझे अपने होटल वापस चाहिए थे, पर कोई चारा नहीं था. मैं केवल प्रार्थना कर सकता था. और ईश्वर ने मुझ पर कृपा की. जिस समय मेरी जेब में कुल 87 सेंट बाकी थे, मैंने 55 हजार डालर का एक कर्ज और लिया और उस पैसे को तेल के कारोबार में लगा दिया. तेल का कारोबार मैंने कभी नहीं किया था, पर किया तो सफल रहा. धीरे-धीरे उसी के बल पर मैंने अपना सारा कर्ज चुकाया और फिर से सिर उठाकर खड़ा हुआ. लेकिन इस सबमें मुझे पूरे तीन वर्ष लगे.

    लाखों-करोड़ों की लागत से बने मेरे शानदार होटल मंदी और बदइंजामी के कारण बिगड़े हुए थे, उन्हें सुधारना था. लेकिन पैसा उतना मेरे पास नहीं था. मेरे पास होटल चलाने का अनुभव था, और उसकी कद्र बैंक तथा पूंजी लगा सकने वाले दूसरे लोग खूब करते थे. उन्होंने मुझे खूब कर्ज दिये और मैं एक के बाद एक होटल खरीदता चला गया. शिकागो और सान-फ्रांसिस्को में मैंने होटल खड़े कर लिये. लेकिन न्यूयार्क और न्यूयार्क का वाल्डार्फ एस्टोरिया अब भी मेरे लिए सपने ही थे. वाल्डार्फ मेरे लिए ‘दुनिया का सबसे महान होटल’ था और उस पर मेरी आंखें लगी थीं.

    इसी बीच मेरे जीवन में एक हंगेरियन सुंदरी ने प्रवेश किया. पहली पत्नी से बिछुड़ने के बाद और मंदी की परेशानियों में मैं इतना थक चुका था कि थोड़ा विश्राम और मनोरंजन मेरे लिए जरूरी था यह हंगेरियन सुंदरी थी- ज़ा ज़ा गेबर. परिचय के कुछ दिन बाद ही वह मुझसे विवाह करने को तैयार हो गयी और विवाह हो गया.

    ज़ा ज़ा से विवाह करने के बाद मुझे पता चला कि मेरी पहली पत्नी में कितने गुण थे. हालांकि मां ने ज़ा ज़ा को भी पसंद किया, लेकिन मैंने जल्दी ही देखा कि मुझे इस नारी के साथ रहकर शांति नहीं मिल सकती. अशांति का एक कारण तो यह था कि ज़ा ज़ा बेहद फिजूलखर्च और फैशनपरस्त थी और उसका सारा दिन बनने-संवरने, खरीदारी करने और पार्टियों में जाने में बीतता था. दूसरा, और मेरे लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण, कारण यह था कि वह मेरे धर्म की न होने के कारण हमारे गिरजे में नहीं जा सकती थी और उसकी वजह से मैं गिरजे में जाकर प्रार्थना करने से वंचित हो गया था. इस बात का मुझे बड़ा मलाल रहता.

    घर की ओर भी उसका ध्यान नहीं था, क्योंकि उसे तो बनाव-सिंगार से ही फुरसत नहीं थी. परिणाम यह हुआ कि मेरे जरूरी कागज भी अस्तव्यस्त होने लगे. पहली पत्नी से हुए दो लड़के मेरे पास थे. उन्हें वह मेरे पैसे से खरीदे हुए उपहार तो देती, पर उन्हें देने के लिए प्यार उसके पास नहीं था. बच्चों को उनकी नानी, यानी मेरी पहली पत्नी की मां ही देखती-भालती थीं. मुसीबत-पर-मुसीबत यह कि उन्हीं दिनों मेरा घर भी आग में जल गया. और मुझे दूसरा घर लेना पड़ा.

    और तब मेरे जीवन में एक तीसरी स्त्राr आयी ओलिव वेकमेन- मेरी सेक्रेटरी के रूप में. अपने कार्य में दक्ष, कर्तव्यपरायण और नारी-गुणों से पुरुष के जीवन को सुखमय बनाने में स्वभावतः निपुण ओलिव ने मेरे अव्यवस्थित घर को व्यस्थित किया. मेरे कागज-पत्र सम्भाले, और अपनी सद्-बुद्धि से ज़ा ज़ा को भी यथाशक्ति समझाया. लेकिन ज़ा ज़ा समझने वाली थी नहीं. तलाक ही उससे मुक्त होने का एकमात्र उपाय था. मेरे जीवन का यह बड़ा कटु अनुभव रहा. जितनी रकम से मैं एक होटल खरीद सकता था, उतनी ज़ा ज़ा को देकर मैंने अपनी मनःशांति वापस पायी और तलाक के बाद गिरजे में जाकर देर तक प्रार्थना की.

    अब मैंने अपनी स्थिति देखी और वाल्डार्फ-एस्टोरिया को खरीदने का सपना देखने लगा. मैं न्यूयार्क पहुंचा. वाल्डार्फ अब भी मेरी पहुंच के बाहर था. लेकिन न्यूयार्क में पांव जमाने के लिए मैंने एक दूसरा होटल खरीद लिया- रूजवेल्ट.  

    मेरे विचार से संकल्प अंतः प्रेरणा का ही दूसरा नाम है, और अंतःप्रेणा फलीभूत प्रार्थना का ही एक रूप. हम अपनी ओर से पूरे प्रयत्न किया करते हैं, सोचते हैं, हिसाब लगाते हैं, योजनाएं बनाते हैं और तब प्रार्थना करते हैं और प्रार्थना फलीभूत होती है. प्रार्थना का मतलब यह नहीं कि हम कहें- ‘हे ईश्वर, मेरे लिए यह काम कर दो और दूसरों को भांड़ में जाने दो.’

    प्रार्थना का सही रूप है यह पूछना कि ‘हे ईश्वर, मुझसे तुम क्या काम कराना चाहते हो?’ या कि ‘हे प्रभु, मेरी समस्याओं का सही हल क्या हैं?’ यही सच्ची प्रार्थना है और इन प्रश्नों का उत्तर सुन पाना ही अंतःप्रेरणा है. जो अपनी आत्मा में प्रभु का उत्तर नहीं सुन सकते, सिर्फ अपनी ही बात कहते रहते हैं, उनकी प्रार्थना अधूरी होती है और फलवती भी नहीं होती.

    मेरे संकल्पों को पूरा करने में अंतःप्रेरणा ने मुझे बड़ी सहायता दी है. इसी के बल पर मैंने बड़े-बड़े सपने देखे हैं और उन्हें मूर्त रूप दिया है. इसी के बल पर मैंने वाल्डार्फ तक पहुंचने के लिए कई बड़े सौदे किये. विश्व का सबसे ‘महान’ होटल खरीदने से पहले मैंने विश्व का सबसे बड़ा होटल ‘स्टीवेन्स’ शिकागो में खरीद लिया. यह सौदा था- बहुत ही कठिन, बहुत ही परेशानकुन और बहुत ही महंगा.

    स्टीवेन्स के बाद मैंने 75 लाख डालर में ‘पामर हाउस’ नामक होटल खरीद लिया. शिकागो के ये दो होटल सोने की खाने बनकर मुझे मालामाल करने लगे. मैं निरंतर प्रगति करता जा रहा था. प्रगति के बारे में इतना ही कहना काफी है कि मेरे पिता पैदल स्कूल जाते थे, मैं घोड़ी पर चढ़ कर जाता था और मेरा बेटा बैरन हवाई जहाज में. वह सांता मारिया के एक कालेज में पढ़ रहा था.

    वाल्डर्फ-एस्टोरिया का स्वामी बनने के लिए मैंने सबसे पहला काम यह किया कि उसके शेयर खरीदने शुरू किये. उस समय वाल्डार्फ के शेयरों का भाव कम था और मेरे कुछ साथियों ने उन्हें खरीदने पर मेरा मजाक भी उड़ाया था. लेकिन मैं जानता था कि भाव चढ़ेंगे, और भाव चढ़े.

    इधर एक प्रगति और हुई. मई 1946 में हिल्टन होटल्स कार्पोसेशन की स्थापना हुई. अब तक हमारे सभी होटल अलग-अलग स्वतंत्र रूप से चलाये जाते थे, पर अब नौ होटलों को सम्बद्ध कर देने से उनका प्रबंध आसान हो गया. साथ ही एक वर्ष बाद हमारे कामन स्टाक को न्यूयार्क स्टाक एक्सचेंज ने मान्यता प्रदान कर दी और हमें शेयर बेचने में आसनी हो गयी. कार्पोरेशन के होटलों की कीमत 9,193,096 डालर आंकी गयी थी और उसका सबसे बड़ा स्टाक-होल्डर मैं था. मेरा विनियोग था 2,238, 456 डालर. और तब मैंने टेक्सास में 5,011 डालर लेकर निकल पड़ने वाले कोनराड हिल्टर से अपनी तुना करते हुए साश्चर्य अपने आप से पूछा- ‘क्या यह मैं ही हूं?’

    दिसंबर 1946 में हमारे कार्पोरेशन में वाशिंग्टन का प्रसिद्ध राजनयिक होटल ‘मेफ्लावर’ भी बिना किसी कठिनाई के शामिल हो गया. तभी हमने एल पासो में अपनी मां का 85 वां जन्मदिन मनाया. हम सब भाई-बहन और हमारे सोलह बच्चे इकट्टे हुए और बहुत-से मेहमान मां को श्रद्धांजलि अर्पित करने आये. लेकिन पंद्रह दिन बाद ही हृदय-गति रुक जाने से मां का देहांत हो गया. मेरे जीवन में आस्था और विश्वास भरने वाली मां अपनी मधुर, पावन स्मृति छोड़कर चली गयी.

    मृत्यु से कुछ ही दिन पहले उसने मुझसे पूछा था- ‘कोनी, अब तो संतुष्ट हो न?’

    और मैंने कहा था- ‘अभी कहां मां! दुनिया का सबसे महान होटल पाना तो अभी बाकी है. और तुम देखना मां, मैं उसे लेकर रहूंगा.’

    होटल-व्यवसाय को अपना जीवन अर्पित कर देने के बाद अपने अनुभवों से अब मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि आधुनिक युग में वाल्डार्फ जैसे बड़े होटल किसी भी देश में नहीं बनाये जायेंगे. भवन-निमार्ण की लागत बढ़ गयी है और लोगों की ज़रूरतें बदल गयीं हैं. अब तो आवश्यकता होगी छोटी, किंतु आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न होटलों की. कल के होटलों में मेरे विचार से ये चीजें हर कमरे में होंगी- टेलिविजन, चल-पुस्तकालय, चल-सौंदर्यकक्ष, छोटे रेफ्रेजिरेटर, सनलैंप, उत्तम वातानुकूलन और एक स्वयंचलित टेलिफोन, जो आने वाले सभी ‘काल’ रिकार्ड कर सके.

    लेकिन यह समझना गलत होगा कि होटल सिर्फ इन्हीं चीजों के बल पर चल जाते हैं. होटल-व्यवसाय की मूलभूत पांच बातों को ध्यान में रखे बिना काम नहीं चलेगा. ये हैं- 1. लोगों को होटल की आवश्यकता हो, 2. होटल उपयुक्त स्थान पर बनाया जाये, 3. संचालक की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो, 4. होटल को आकर्षक ढ़ंग से बनाया और रखा जाये, और 5. होटल का प्रबंध अच्छा हो.

    हिल्टन-होटलों की शृंखला चलाने में हमने प्रबंध की जो विधि अपनायी है, उसमें सात बातें आती हैं, जिनमें से तीन संयुक्त होटलों के लिए हैं और बाकी चार सब होटलों पर लागू होती है-

  1. प्रत्येक होटल का अपना भिन्न व्यक्तित्व होना चाहिए. इसके लिए देशकाल की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए लोगों की आवश्यकताएं पूरी करने में समर्थ और जानकार व्यवस्थापकों को चुनना चाहिए और उन्हें आवश्यक अधिकार देने चाहिए.
  2. व्यवस्थापकों को दिन-प्रतिदिन की आवश्यकताओं का अनुमान लगाने में समर्थ होना चाहिए कि किस दिन कितने कर्मचारियों और कितनी सामग्री की आवश्यकता होगी, अन्यथा धन भी नष्ट होगा और होटल अच्छी सेवा भी नहीं कर पायेगा.
  3. आवश्यक वस्तुएं बड़े पैमाने पर ही खरीदनी चाहिए.
  4. होटल की पूरी जगह का समुचित सदुपयोग किया जाना चाहिए.
  5. कर्मचारियों को उचित प्रशिक्षण अवश्य देना चाहिए.
  6. होटल का प्रचार, विज्ञापन आदि उत्तम ढंग से किया जाना चाहिए.
  7. यदि होटल किसी एक शृंखला में हो, तो एक होटल में अन्य होटलों के रिजर्वेशन की व्यवस्था भी होनी चाहिए, जैसी हिल्टन-होटलों में होती है. दूसरे देशों में जाने वाले अपने मेहमानों के ठहरने की व्यवस्था हम पहले से ही कर देते हैं.

    ये बातें होटलों को सफलतापूर्वक चलाने में सहायक सिद्ध होती हैं. लोग कहते हैं, मैं एक सफल व्यक्ति रहा हूं. लेकिन यह सफलता है क्या? मेरे विचार से जीवन के निर्धारित क्षेत्र में इच्छानुसार प्रगति करते जाना ही जीवन का साफल्य है. मैं होटलों का अधिपति बनने या धनी होने को सफलता का मापदंड नहीं मानता. बहुत से धनी जीवन में असफल और बहुत से निर्धन जीवन में सफल हुए हैं.

    सफलता के उदाहरण के रूप में मैं महात्मा गांधी का आदर्श सामने रखना चाहता हूं, जिन्होंने जीवनोपरांत अपनी ‘सम्पत्ति’ के रूप में छोड़ी सिर्फ दो कठौतियां, एक चम्मच, एक जोड़ी खड़ाऊ, टेढ़ा-मेढ़ा चश्मा, भगवद्गीता की एक प्रति और एक पुरानी जेब घड़ी. फिर भी वे जिवन में जितने सफल हुए, और कौन होगा? जीवन की सफलता और सम्पूर्णता इसमें नहीं है कि हमने कितना कमाया, कितना जोड़ा-बटोरा, बल्कि इसमें है कि कितना दूसरों को दिया- सुख, सेवा, सहायता के रूप में.

    मैं अपने जीवन को इसलिए सफल नहीं मानता कि वाल्डार्फ-एस्टोरिया सरीके होटल को खरीद सका, बल्कि इसलिए सफल मानता हूं कि मैं अपने उपार्जित धन से दूसरों को सुख, सुविधा, आराम देता रहा हूं. सच्चा सुख धन के संग्रह में नहीं, सदुपयोग में है, और ईश्वर की कृपा से जीवन के अनेक उतार-चढ़ावों के बावजूद मैं उस सुख को प्राप्त कर सका हूं.

    मेरे जीवन के अनुभवों का निचोड़ इन थोड़ी-सी बातों में आ सकता है-

. अपनी बुद्धि और योग्यता को पहचानो और उसके अधिकाधिक सदुपयोग के लिए प्रयत्नशील रहो.

. बड़े बनो, बड़ी-बड़ी बातें सोचो, बड़े काम करो, बड़े सपने देखो.

. ईमानदार रहो- अपने प्रति, अपने काम के प्रति और दूसरों के प्रति.

. अपनी सम्पत्ति को अपने पर हावी मत होने दो.

. चिंताओं से बचो और सोत्साह जीवन जियो.

. अपने कार्यभार को समझो, उसे सम्भालो, सफलतापूर्वक सम्भालो.

. निरंतर आस्थापूर्वक प्रार्थनारत रहो.

(मई  2071)

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