आधे रास्ते (पहली क़िस्त)

मेरा जन्म संवत् 1944 में पूष मास की पूर्णिमा को दोपहर के बारह बजे भड़ौंच में हुआ.

उस दिन सन् 1887 के दिसम्बर के महीने की 29 वीं तारीख थी या 30वीं, इसका मुझे ठीक पता नहीं है. चालीस वर्ष की आयु तक मेरा जन्म दिवस 29वीं तारीख को मनाया जाता रहा, लेकिन उसके बाद मैंने पंचांग देखकर यह खोज की कि पूर्णिमा 30 को पड़ती है. तब से मेरा जन्म-दिवस 48 घंटे का मनाया जाने लगा.

लेकिन जब सन् 1931 में मैंने ‘सत्यसंहिता’ नामक पुराने ताड़पत्र के ग्रंथ में अपनी जन्मपत्री पढ़ी तब अपने पैदा होने पर मुझे जो आश्चर्य हुआ था, वह जाता रहा. सैकड़ों वर्ष पहले सत्याचार्य ने यह बात जान ली थी–

सुरासुरेज्यौ यदि कोणयातौ, धराधिपे सोमसुते धनुष्ये।
वध्वि धराजे मिथुने शशांके मंदे कुलीरे झषलग्न जातः।।

गृहखवसुशशांके याति शाके च वर्षे
दिनकृति गतचाषे पूर्णिमायां तिथौच।।
भृगुसुतदिवसे वै मीनलग्ने प्रजातः
बहुधन बहुभोगी न्यायदर्शी समर्थः।।

अंग्रेज़ी सरकार की भांति मैं भी कह सकता हूं कि भगवान बचाये भारत के इन ब्राह्मणों से! मुझे पैदा होने की स्वतंत्रता भी नहीं रहने दी! इस प्रकार मैं, मैं नहीं हूं, मैं तो गणित ज्योतिष शात्र का एक छोटा-सा निर्जीव बुद्बुद् मात्र हूं. राम राम!

मेरा जन्म मुन्शी के टीले पर स्थित ‘छोटे घर’ में हुआ था. मुन्शी का टीला मुख्य रास्ते पर है और इस समय मुन्शी स्ट्रीट के विदेशी रूप में अपनी स्वदेशी आत्मा को छिपाये हुए है.

पचास वर्ष पहले के भड़ौंची भार्गव ब्राह्मण की दृष्टि से यह टीला सृष्टि में अत्यंत महत्त्व का स्थान रखता था– कुछ-कुछ वैसा ही जैसा कि ग्रीकों की दृष्टि से ‘पार्थोनोन’ और रोमनों की दृष्टि से ‘पेलेटीनेट हील’ रखते थे. इस पर मुन्शी फलते फूलते. टीलेवालों का मिज़ाज़ और ही तरह  का समझा जाता. टीले की कन्या से विवाह करने की लिए उत्साही भार्गव युवक पागल हो उठते. बहुत-से युवक इस कार्य में असफल होने पर देह छोड़ गये थे; इसलिए हमारी भाषा में ‘विवाह करना तो टीले की कन्या से’ का प्रयोग ‘कार्यं साधयामि देहं वा पातयामि’ के अर्थ में होता था. टीले के कुंए का पानी जोश लानेवाला समझा जाता. तीखे स्वभाव का व्यक्ति गर्व से कहता– ‘मैंने भी टीले के कुंए का पानी पिया है, समझे!’ और मित्र ढीले-ढाले आदमी से कहते– ‘तुझे तो टीले के पानी से नहलाना चाहिए.’ यही नहीं, आज भी टीले से चार पीढ़ियों से सम्बंध रखनेवाले कहते हैं– ‘मुझे मत छेड़ना, मुझमें टीले का पानी है, समझे!’ और सामनेवाला आदमी कहता है– ‘बाप रे बाप! तुझसे तो भगवान बचावे. अब भी तुझमें से टीले का पानी नहीं गया.’ भड़ौंच के रहनेवालों और वहां बननेवाली बीड़ी के शौकीनों में यह बात मशहूर है कि इस पानी से तम्बाकू में तेज़ी आती है.

वास्तव में देखा जाय तो टीला एक छोटा-सा मुहल्ला है. इसमें एक ओर चार मकान हैं, दूसरी ओर तीन, और बीच में एक कुंआ है. यह बात भी एकदम समझ में नहीं आ सकती कि यह टीला है. कारण, आगे के रास्ते से यह बहुत ऊंचा नहीं है. पिछले डेढ़ सौ वर्षों में मुन्शी इस स्थान से किसी टीले पर रहनेवाले बनचरों की भांति कमाने, लड़ने और जाति पर शासन करने के लिए उतरते रहे हैं. भाप, तार और हवाई जहाज से यदि पृथ्वी न सिकुड़ गयी होती, पाश्चात्य विद्या से बुद्धि की परिधि पृथ्वी और ग्रहों के उस पार न चली गयी होती और ‘गौमति दादा का गौरव’ (श्री मुन्शी कृत एक कहानी) के समान कौटुम्बिक गर्व का बुरी तरह मज़ाक उड़ानेवाले मेरे-जैसे तुच्छ व्यक्ति यदि पैदा न हुए होते, तो– तो मुन्शी का टीला सृष्टि का केंद्र था.

टीले के सामने, रास्ते के उस पार, भृगु भास्करेश्वर का मंदिर है. लेकिन थोड़े-से आदमी ही इसका असली नाम जानते हैं. इसका प्रचलित नाम ‘नया मंदिर’ है. दो सौ वर्ष का होने पर भी यह ‘नया’ है, और जीर्ण भड़ौंच घिस जाएगा तब भी यह नया ही रहेगा. यह भार्गव ब्राह्मणों का मुख्य स्थान है, ‘केपीटल’ है ‘पार्लियामेंट हाउस’ है. हमारी प्रत्येक बरात उसके आगे से जाती है. उसमें जाति के इष्टदेव हैं. इसके चबूतरे पर बैठकर पंडितजी कथा बांचते थे; इसकी सीढ़ियों पर बैठकर भार्गव युवक बीड़ी पीना सीखते थे. संसार से ऊबी हुई भार्गव त्रियां अपने पतिदेव को वश में करने के लिए इसके कुंए में पैर लटकाकर बैठती हैं. इसमें रहनेवाले विद्यार्थियों का मंत्रोच्चार मुझे आज तक सुनाई देता है. इसके गणेशजी के दर्शन करके मैंने अनेक कार्यों का आरम्भ किया. मैंने इसके हनुमान पर तेल और लाल स्याही से ‘श्रीराम’ लिखे कागज़ चढ़ाकर परीक्षा पास करने का प्रयत्न किया. अपने घर के छज्जे पर बैठकर, इसके नाम को देखते हुए, वन-उपवन की कल्पना करके मैंने वर्षों तक आनंद प्राप्त किया. उसमें रहने वाले मोर-मोरनी सुबह-शाम इस छज्जे के सामनेवाले छज्जे पर घूमने आते और मैं अकेला बैठा उनकी मित्रता का आनंद लूटता. जब मैं बिलकुल छोटा था तब मैं यह समझता था. कि सरस्वती इनके द्वारा मुझे विद्या प्राप्त करने का संदेश भेजती हैं. इन मित्रों को मैं भली प्रकार जानता था और मैं समझता था कि वे भी मुझे जानते हैं. एक-दो तो निडर होकर पास भी आ जाते थे. मेरे ये प्रिय स्वजन तो अब चले गये होंगे. इनके आज के जीवित वंशजों को मैंने नहीं देखा, उन्होंने भी मुझे नहीं देखा होगा.

जिस समय ‘जीर्ण मंदिर’ (श्रीमती लीलावती मुन्शी– ‘जीर्ण मंदिर और यात्री’) लिखा गया उस समय मैं इस ‘नये मंदिर’ का प्रतिरूप बन गया था. मैंने मुसाफिर को कल्पना द्वारा इसी की सीढ़ियों पर बैठा देखा.

भार्गवों ने इस भृगुभास्कर के मंदिर की स्थापना क्यों की, यह बात जानने योग्य है. जिस समय भड़ौंच में पेशवाई थी उस समय यहां के सूबा (हाकिम) कोंकणस्थ ब्राह्मण भास्कर राव थे. इस समय से पहले भड़ौंची भार्गव ब्राह्मणों और दक्षिणी चितपावन ब्राह्मणों में शादी-व्यवहार होते थे. इस ओर ब्राह्मणों की बस्ती थी और सामने मुसलमानों की. दोनों में झगड़ा हुआ कि यह जगह किसकी है? मुसलमान कहते थे कि इसमें हमारी कब्रें हैं. भार्गव कहते थे कि इसमें हमारे इष्टदेव का लिंग है. सूबा साहब ने कहा– “ठीक है, मैं कल जगह देखने आऊंगा. जांच करने पर जो कुछ मालूम होगा, उसके अनुसार निर्णय किया जाएगा.” दूसरे दिन जब सूबा साहब गये तो वहां मुसलमानों की कब्र तो एक भी नहीं थी पर भार्गवों के इष्टदेव महादेव का लिंग पूजा की बाट अवश्य देख रहा था.

दुष्ट प्रतिद्वंद्वियों ने बड़े-बड़े आक्षेप किये– भार्गवों ने सारी रात कुदाली और फावड़े का उपयोग किया और भार्गव त्रियां टोकरे भर-भरकर मिट्टी को नर्मदा में फेंकती रहीं. क्या किसी ने दुनिया का मुंह बंद किया है? लेकिन पक्षपातरहित न्यायमूर्ति ने भार्गवों के पक्ष में निर्णय दिया. कृतज्ञ ब्राह्मणों ने अपने पूर्वज के साथ भास्कर राव का नाम जोड़ दिया और यों ‘भृगुभास्करेश्वर’ का मंदिर स्थापित हुआ.

इस पराक्रम के बाद भार्गवों को नया नाम मिला. जब दूसरी जाति के लड़के हमारे लिए अत्यधिक घृणा का भाव प्रकट करना चाहते तो ‘कब्रखोदा’ शब्द का प्रयोग करते. लेकिन भार्गव लड़के भी विचित्र थे. क्रोधित होने के बदले वे इसमें गर्व का अनुभव करते और कहते– “अच्छा बता, तेरी कब्र खोदनी है कि तेरे बाप की?”

सौ वर्ष पहले भार्गव गुजराती ब्राह्मणों में प्रमुख थे. बहुत-से हाकिम थे; कुछ व्यापार करते थे; थोड़े-से ब्राह्मण समस्त गुजरात में विद्या से सम्मान पाते थे. बाकी के थोड़ा-बहुत कमाकर सारा समय जाति की मुखियागीरी में लगाते थे. जैसा सब जातियों में होता है, उनमें से कुछ मूर्ख भी  थे. लेकिन भार्गव अपने को होशियार, गर्वीले और हेकड़ समझते थे; कारगुजारी दिखानेवाले भी बनते थे. भड़ैंच के जलवायु में शेखी मारने की प्रेरणा देने का गुण है. हम भी उसकी प्रेरणा से वंचित न थे.

जैसे बुद्धिमान व्यक्ति धन-दौलत खो बैठने पर पूर्वजों की कीर्ति के अनुभव और अपने तुच्छ अज्ञान के सहारे जीवन बिताते हैं वैसे भार्गव भी अपने दिन काट रहे थे.

इस बात का पता लगाने के लिए कि किस समय से इस जाति में टीले के मुन्शी प्रमुख समझे जाने लगे, भाई धनप्रसाद ने छः वर्ष तक प्रशंसनीय लगन के साथ इस विषय में खोज की है. यदि उन्होंने इतना परिश्रम सिद्धराज जयसिंह या समुद्रगुप्त के विषय में किया होता तो उन्होंने इतिहास को समृद्ध बना दिया होता; लेकिन उनको पितृऋण से उऋण होना अधिक प्रिय लगा, इसलिए दस्तावेज़ों, याददाश्तों, हुक्मनामों और दफ़्तरों की छान-बीन करके हमारे इतिहास को मुहम्मद तुगलक के समय तक पहुंचा दिया. उस समय मुन्शियों के पूर्वज विश्वम्भरदास (या देसाई) ने विद्रोह दबाने में मदद देकर जागीर पायी थी. …कल्पना को तीव्र करनेवाली बात है. मैं देखता हूं कि विश्वम्भरदास सिर से पांव तक बख्तर पहने, सफेद अरबी घोड़े पर सवार, हाथ में तलवार लिये, भड़ौंच के किले से पृथ्वी को कंपाते हुए बाहर निकल रहे हैं. ‘गुजरात के नाथ’ का रचयिता मैं, अपने भड़ौंची काक और मंजरी के इस वंशज को तुरंत पहचान सकता हूं.

लेकिन भाई धनप्रसाद द्वारा संशोधित इतिहास एक ऐसी बात को प्रमाणित करता है कि जिसके कारण उत्क्रांति के नियमों से श्रद्धा हट जाती है. एक वंश में छः सौ वर्ष से अधिकारी, वकील और जाति के मुखिया होते रहे; न वंश बिगड़ा न सुधरा; परिणामस्वरूप न तो कोई नाना फड़नवीस हुआ और न कोई विज्ञानेश्वर; और अंत में आज मैं! यह देखकर मुझे कुछ ऐसे जानवरों की याद आती है जो करोड़ों वर्षों से जैसे-के-तैसे चले आते हैं. बहुतों में बुद्धि थी, व्यक्तित्व था, हिम्मत थी, नेतृत्व था फिर भी ऐसा क्यों हुआ? मुझे इसका एक कारण जान पड़ता है; वह कि हमारे गर्व की जड़ें भृगुतीर्थ की भूमि से अलग नहीं होतीं. सैकड़ों वर्षों से जो किसी ने नहीं किया वह मैं करने जा रहा हूं. इसका क्या फल होगा? कौन जानता है कि आज यदि किसी दिन रेवा मां निमंत्रण दे तो क्या हो जाय!

मुन्शीगीरी पानेवाले तो नंदलाल मुन्शी थे, जो मेरी मां की सातवीं पीढ़ी के परदादा थे. जब मुगल बादशाहत का सितारा चमक रहा था तब नंदलाल पाठक दिल्ली में बादशाही दफ़्तर में नौकर थे. उन्होंने धन भी अच्छा कमाया था; भड़ौंच में हवेली बनवायी थी और अंडी के तेल के लिए टंकियां बनवायी थीं. शाहंशाह मुहम्मदशाह आलमगीर कविता के शौकीन थे और नंदलाल पाठक फारसी के कवि थे. दोनों का परिचय हुआ. बादशाह आलम कविराज पर प्रसन्न हो गये और मुन्शीगीरी बख्शी- भड़ौंच परगने के हर गांव पर एक रुपया के हिसाब से. उनकी दूसरी पत्नी लक्ष्मी ‘माताजी’ के नाम से आज भी भड़ौंच के बड़े-बूढ़ों में सुविख्यात हैं.

नंदलाल मुन्शी के पुत्र हरिवल्लभ के पहले एक ही पुत्री थी. जब सूबा मधुभाई ‘वियासा’ के पौत्र केशरदास के साथ उस पुत्री का ब्याह हो गया तो उसने कन्यादान में मुन्शीगीरी भी दे दी. इसके बाद हरिवल्लभ ने फिर विवाह किया और उसका पुरुष-वंश चला. उसके आज के प्रतिनिधि मेरे मामा हैं. ता. 4 माह रबीउल-अव्वल सन् 1195 हिजरी (1767 ई.) ‘शाहे आलम-बादशाह-ए-राजी-बहादुर-दिलेरजग’ दिल्ली से ‘शुबे अहमदाबाद’ को हुक्म देते हैं कि मुन्शी केशरदास को भड़ौंच की मुन्शीगीरी ‘बाफरजंदा’ दुबारा दे दी जाय. इस प्रकार मेरी मातृ-पक्ष की कमाई हुई मुन्शीगीरी पहिरावनी में पितृपक्ष को मिली, और मैं दोनों पक्षों से मुन्शी बन गया.

इस मुन्शीगीरी का इतिहास लिखने योग्य है. पेशवा, गायकवाड़ और ईस्ट इंडिया कम्पनी के झगड़ों से भड़ौंच जिले में जैसे गांवों की संख्या बढ़ती-घटती वैसे ही हमारा भाग्य भी बढ़ता-घटता. अंत में कम्पनी जीती. उसने घटाकर डेढ़ सौ रुपया वार्षिक रहने दिये और मुशियों की निरंतर बढ़ती हुई जनसंख्या के परिणामस्वरूप उसके भी टुकड़े होते गये. आज किसी विरले को ही वर्ष मैं नौ आने दो पाई मिलते हैं. लेकिन बादशाह सलामत, आपने अपने मुबारक हाथों से हमें ‘बाफरजंदा’ मुन्शीगीरी बख्शी है. पिछले सौ वर्षों में हमने इसके बंटवारे के झगड़ों के लिए चार-पांच बार ब्रिटिश कोर्टों में पैसे का पानी किया है और जी-तोड़ परिश्रम किया है और 1628.26 में जब अंतिम दावा दूसरी अपील में हाईकोर्ट में आया तब मुझे भी क्या-क्या सहना पड़ा था! कल्पना करो कि कोई न्यायाधीश मित्र छोटी-सी अपील सुनते हुए तीस प्रतिवादियों के झुंड में से पूरे तीन नामों के नीचे छिपे मुझको पहचान ले तो! लेकिन ग्रहदशा अच्छी थी. इस समय न्यायाधीश को आंखों से कम दिखाई दिया. विपत्ति दूर हुई. …अरे, लेकिन यह अधमता-भरी मनोदशा कैसी? नहीं. जब तक टीले का मुन्शी है, जब तक उसके शरीर में आत्मा है, तब तक बादशाह की दी हुई बख्शीश के लिए हम अवश्य प्राण देंगे. …लेकिन तीन पीढ़ियों की समृद्धि की अधिष्ठात्री अंजाई माता की कृपा से नौ आने का बंटवारा पाई-पाई हो तो! पीछे की पीढ़ियों को तो केस को बिना प्रिवी-कौंसिल में ले जाय छुटकारा नहीं मिलेगा. ठीक है, लेकिन तब कोई बाधा नहीं पढ़ेगी, क्योंकि तब तो सुप्रीम कोर्ट दिल्ली में ही होगा. और स्वमान-धन्य बादशाह आलम की आत्मा पथ-प्रदर्शन करेगी.

 उस समय छोटा-सा आठ वर्ष का किशनदास मुन्शी गिल्ली-डंडा खेलता था और पंतग उड़ाता था. कभी मार खाकर रोता था और कभी किसी को मारकर छिप जाता था. उसके बाबा कर का हिसाब सम्भालते हैं और पिता मराठी और फारसी साहित्य पढ़ते हैं; इसकी उसे कुछ भी चिंता नहीं थी. इसी समय रेवाबाई के साथ उसकी शादी भी हो गयी. कालांतर में इस रेवाबाई ने ‘जीजीमा प्रथम’ का सम्माननीय उपनाम पाया. मैंने दो-तीन वृद्धों को कहते सुना है– ‘जीजाया जैसा तो कोई हुआ ही नहीं– स्फटिक पत्थर के समान गौरवर्ण, ठिगनी और कुछ-कुछ सांचे में ढली हुई-सी!’

किशनदास बड़े हुए और मराठी और फारसी में पारंगत बने. उनके भार से कम्पनी की नीयत दगाबाज महादंजी सिंधिया के पुत्र दौलतराव सिंधिया के राज्य को हड़पने की हुई. गायकवाड़ अपने मराठी शत्रुओं का विनाश करने के लिए परदेशी को पूरी सहायता दे रहा था.

जनरल वेलज़ली ने 6 अगस्त 1803 को हुक्म निकाला–

Upon receipt of this letter, you will commence your operations against Dowlut Rao Sindhia’s fort of Broach. You will not suffer these operations to be interrupted or delayed by any negotiations whatever.

25 अगस्त को कर्नल बुडिंग ने घेरा डाला. 26 अगस्त को वह जनरल को लिख भेजता है–

I have the honour to inform you that at three o’clock P.M. I stormed the fort of Broach and carried it with little loss, although the Arabs made considerable resistance, particularly on our entering the breach.

जब शहर में घेरा डाला जा रहा था लल्लूभाई मजूमदार बैठे गप्पें हांक रहे थे. आदमियों ने खबर दी कि दुश्मन चढ़ आया है, लेकिन वे तब भी गप्पें मारते रहे. बाद में तो गप्पें अधूरी ही रह गयी. भड़ौंच का पतन हो गया है, यह खबर उन्हें तब मिली जब वे स्वयं अपनी हवेली में पकड़ लिये गये. पकड़ भले ही लिये गये हों, परंतु गुजराती भाषा को तो समृद्ध कर ही गये- ‘लल्लूभाई है– बातों-ही-बातों में भड़ौंच खोने बैठा है.’

जब मैं अंग्रेज़ी साम्राज्य की स्थापना की बात पढ़ता हूं तो क्रोध से मेरा खून खौलने लगता है– अंग्रेज़ों के लिए नहीं वरन सिंधिया, गायकवाड़ों और लल्लू भाइयों के लिए; और ऐसा लगता है कि इन सबके विनाश में ही आर्यावर्त की विजय थी.

कुछ दिनों भड़ौंच में व्यवस्थित शासन रहा और मुन्शियों को कुछ रास्ता दिखाई दिया. जुगलदास मुन्शी ने लगान वसूल करने की कला और फारसी के ज्ञान से अंग्रेज़ी शासकों का प्रेम प्राप्त किया. उनके पुत्र किशनदास ने– वे कभी-कभी कृष्णा मुन्शी के नाम से भी हस्ताक्षर करते थे– सन् 1806 में भड़ौंच की अदालत में फारसी ‘राइटर’ की नौकरी कर ली. किशनदास मुन्शी गोरे शासकें की वफादारी की विरासत पुत्रों को भी सौंपते गये. इस विरासत को बचाने के लिए एक ने भविष्य को बेच दिया और दो जान से चले गये. इतनी जागरूकता, इतनी कर्तव्यनिष्ठा, राज्य-व्यवस्था का अंग बनने की ऐसी भावना, इन सबका उपयोग इन्होंने विदेशी राज्य की स्थापना में सहायक होने में किया. गोरे गर्व करते हैं कि हमने साम्राज्य स्थापित किया. लेकिन इस साम्राज्य की स्थापना में किशनदासों ने अपना बलिदान दिया, क्या इसका किसी को ध्यान आता है?

किशनदास मुन्शी समझदार वकील थे. उन्होंने पैसा कमाया, हवेली बनवायी, टीला अपना किया ज़मीन खरीदी और जाति, गांव और अदालत में प्रतिष्ठा प्राप्त की. भड़ौंच में जब अंतिम सती हुई थी तब वे स्वयं इस समारम्भ में सबसे आगे आकर खड़े हुए
थे. 27 जुलाई 1832 में वे थाना में स्वर्गवासी हुए.

बचपन में जब मैं उनकी हवेली के बड़े कमरे में पढ़ता था तब वे बहुत दफा मेरे सामने आते थे– टीले के अधिष्ठाता के रूप में. चंद्रशेखर महादेव के जिस अद्भुत लिंग को उन्होंने वकालत की फीस के बदले मांग लिया था, उसकी पूजा करते हुए उनको मैं घर बनाकर देव की स्थापना करनेवाले और शंकर-भक्त के रूप में देखता. उस समय अपनी धारणा के अनुसार मैं इस बात की परीक्षा भी करता कि शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष में इस लिंग के रंग में अंतर हो जाता है. उस समय मुझे ऐसा लगता था जैसे वे मुझे देख रहे हों. उनकी आंखों में मैं एक ही प्रश्न पढ़ पाता– “क्या तू मेरे योग्य होगा?” इस जीवित लिंग का प्रभाव अकेले मेरे ही ऊपर पड़ा हो, ऐसा नहीं. सौ वर्ष तक टीले के अनेक मुन्शियों ने दंतकथा के पात्र के समान इस व्यक्ति के योग्य होने का प्रयत्न किया है. मैंने उनकी पांचवीं पीढ़ी के एक भूखे मरते हुए मुन्शी को, पास में पड़ी हुई वस्तु को चुराने की इच्छा होते हुए भी, ‘मैं किशनदास मुन्शी का लड़का हूं’, यह सोचकर सत्य का अनुकरण करते देखा है. काल की गति और आधुनिक वातावरण के कारण हमारे कुल में ऐसा जीवन आज नहीं रहा, लेकिन मेरे हृदय में तो जैसा था वैसा ही है. आज यदि मैं बेहोश पड़ा हूं और पुत्र अंतिम संदेश लेने के लिए आये और मेरे मुंह से निकल जाय, ‘भाई! ऐसा कोई काम न करना जो किशनदास मुन्शी के पुत्र को शोभा न दे,’ तो मुझे आश्चर्य न होगा.

किशनदास मुन्शी के बड़े पुत्र काशीराम उस समय के बड़े आदमियों के नमूने थे. बहुत बार जब मैं दिन में बारह घंटे काम करके थका-मांदा, सिरदर्द की चिंता किये बिना रात को भाषण देने जाता तो मुझे काशीराम काका से ईर्ष्या होने लगती.

उनको वर्ष में एक ही बार महत्त्व का काम करना होता था. उसके लिए महीनों पहले तैयारियां होती थीं. सूरत से भभकते हुए कुसुभी रंग की दो पगड़ियां आतीं, दो नागपुरी धोतियां आतीं, दो मलमल के अंगरखे सिल-धुलकर और कलप होकर आते. उस समय सूरत आज जितना नज़दीक नहीं था कि सवेरे जाकर दोपहर को लौट आया जाए. एक बैलगाड़ी हांकनेवाले और एक मुनीम को इसके लिए कितने ही दिन की यात्रा करनी पड़ती.

लेकिन छुटकारा काम करने ही पर था. काशीराम काका तीन-चार मोटे सरकंडे ले आते और चाकू घिसकर सवेरे उनकी कलम बनाने बैठते. इस प्रकार थोड़े दिनों में बारह-पंद्रह कलमें तैयार होने पर उनकी आजमाइश करने लगते.

इस भागीरथ काम के लिए कितने दिन दौड़-धूप होती. पगड़ी बंधी या नहीं? कैसी लगती है? कलम बनी या नहीं? कितनी– दो-तीन-चार? बैलों के सींगों पर चांदी का बर्क चिपकाया या नहीं? बहली की छतरी नयी हुई या नहीं? धुरे में तेल दिया गया या नहीं?

वह दिन आता– पूरे वर्ष का एक सुनहला दिन. काका उठते, नहाते, संध्या करते, बाद में पटलीदार नागपुरी धोती पहनते, दोनों में जो अच्छा होता वह अंगरखा पहनते; दोनों में उस पगड़ी को डाटते जिस पर आंखें जाकर जम जाएं. नयी चोंचवाला जोड़ा पहनकर, तीन-चार कलम लेकर, मुनीम को साथ ले, शुभ शकुन देख, टीले से बाहर निकल बहली में जा विराजते और सींग हिलाते हुए बैल उन्हें कचहरी में ले जाते– सारा गांव देखता रह जाता.

कचहरी में मुनीम उनको हाकिम के सामने ले जाता. काका वहां सम्मान पाकर, अच्छी-से-अच्छी कलम निकालकर, हाकिम के सामने रखे हुए कागज़ पर अपने कर्तव्य का पालन करते हुए जमे हुए अक्षरों में लिखते– ‘मुन्शी काशीराम करसनदास मुन्शी बकलम खुद.’ मुनीम तुरंत मुन्शीगीरी के 150 रुपये गिन लेता. हंसते-हंसते सफलता के संतोष से प्रसन्न काशीराम भाई कचहरी में से उतर, बहली में बैठ घर आते. …और आगामी वर्ष क्या-क्या तैयारी करनी है, इसी विचार में डूब जाते.

ऐसा कहा जाता है कि मंझले भाई अनूपराम मुन्शी (सन् 1807-1841) सारे परिवार में सुंदर, तेजस्वी और आन वाले थे. उन्होंने भी बाल्यावस्था में भड़ौंच की अदालत में नौकरी की और सन् 1836 में ‘जज’ के ‘रीडर’ हुए और तीस वर्ष की उम्र में बड़ौदा के ‘रेजीडेन्ट’ के ‘नेटिव एजेंट’ नियुक्त हुए.

अनूपराम वफादारी की प्रतिमूर्ति थे. जब कम्पनी और गायकवाड़ के बीच नर्मदा-किनारे का झगड़ा चला तो कम्पनी की ओर से सारा कार्यभार अनूपराम को ही सौंपा गया था. गायकवाड़ उन्हें कर्तव्यभ्रष्ट करने के लिए रिश्वत देने लगे, लेकिन उन्होंने उसे ठुकरा दिया. उनकी मेहनत से कम्पनी जीती और उसे नर्मदा-किनारे की एजेंसी मिली. इस नमक-हलाल हाकिम की जागीर में गांव देने की चर्चाएं भी चलीं, लेकिन 18 सितम्बर सन् 1841 को अचानक अनूपराम खून ढालकर मर गये.

उनके लिए कहा जाता था कि वे कभी झूठ नहीं बोले.

अनूपराम की एक प्यारी बहन थी– तापी बूआ– बड़ी सुंदर और संस्कारी. परिवार के लोगों में गाने-बजाने का बड़ा शौक था. बड़ौदा कैम्प में और भाई के घर में रहकर चुपचाप छिपकर उस्तादों के कराठ-स्वर सुनते-सुनते उसे शात्रीय संगीत आ गया था. गरबा, कथा-वार्ता और विवाह में गाई जाने वाली गालियों के अतिरिक्त यदि भार्गव की लड़की कुछ और गाना सीखती तो आसमान टूट पड़ता था. गनीमत यह थी कि चोरी से छिपकर सीखी हुई इस विद्या से सब लोग अपरिचित थे.

तापी बूआ की शादी आशाराम फूफा के साथ हो गयी. टीले के ही एक घर में उनकी अटारी थी. फूफा बड़े भारी गवैये थे और बहनोइयों के साथ बैठकर हमेशा गाते-बजाते थे. कुछ दिन बाद उन्हें पता चला कि उनकी त्री भी सब राग गा सकती है और धीरे-धीरे इच्छित तानें ले सकती है. पति-पत्नी को इस बात का बड़ा चाव था कि वे साथ मिलकर मुक्त कंठ से तानें लें, लेकिन मुंशियों और मुशायनों से भरे घर में किसकी मजाल थी जो यह धृष्टता करता.

चौमासा था. रात-दिन मूसलाधार वर्षा होती थी. उन दिनों इस दम्पति को अवसर मिला. एक दिन जब आधी रात के बाद गर्जन-तर्जन के साथ वर्षा हो रही थी तब दोनों जने अपनी अटारी में ललकारने लगे. दोनों राग-रागिनियों में रसमग्न हो गये. वर्षा ने स्वर मिलाया. दोनों नाद ब्रह्म का साक्षात्कार करते हुए समाधिस्थ हो गये.

रात के पिछले प्रहर में वर्षा तो बंद हो गयी पर उन दोनों की संवादी तानों की तरंगें सारे टीले को नचाती रहीं. काशीराम भाई की नींद खुली. नरभेराम भाई बिस्तर में पड़े-पड़े तंद्रा में ताल देने लगे. परिवार की त्रियां स्तब्ध होकर इस धृष्टता के प्रदर्शन को देखने लगीं.

गानेवाली को ख्याल आया और वे रुके. सवेरे जब वे नीचे आये तो उनके हृदय धक-धक कर रहे थे. लेकिन भाइयों ने बहन को धन्यवाद और बहनोई को मज़ाक से लाद दिया. उस समय से बहन और भाई को बिना परिवार की मर्यादा की परवाह किये महफिल में भाग लेने का अधिकार मिल गया.

हमारे वंश में अनेक संगीत-विशारद हो गये हैं, परंतु शात्रीय संगीत में ऐसी प्रवीण त्री तो केवल तापी बुआ ही थी. सौ वर्ष में परिवार में एक दूसरी प्रवीण त्री भी है, लेकिन दुर्भाग्य से उसे पति के नाटकों के भद्दे गानों के सिवाय कुछ और आता ही नहीं!

 

नरभेराम मुन्शी की दो तसवीरें मेरी आंखों के सामने घूमती हैं– एक चित्रकार की और दूसरी अस्सी वर्ष पहले के किसी फोटोग्राफर की. एक आधी; दूसरी बैठे हुए, पूरी– अत्यंत गौर वर्ण, बड़ा भारी और ठिगना शरीर; गला भी अलग न दिखाई दे ऐसे जबड़े; छोटे और मोटे हाथ और पैर; तीक्ष्ण, तेजस्वी और उग्रतापूर्ण आंखें; गर्व से फूली हुई छोटी नाक; चौड़े-चपटे बड़े कान; गर्व और अधिकार से दीप्त भयभीत बनानेवाला मुख; मज़बूत लम्बा असली काश्मीरी कढ़ाव का कोट; बड़ी, कई पेचों की, तिरछी रखी हुई मुराल पगड़ी; नागपुरी धोती जोड़ा. इस प्रकार इन दोनों तसवीरों में से नरभेराम मुन्शी ऊपर आ जाते हैं. साथ ही उग्र और स्वाभिमानी, विशाल हृदय के, बड़प्पन में रुचि रखनेवाले, प्रचंड परंतु अल्पजीवी, राग, द्वेष और महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित, अपनी मौज में मस्त रहनेवाली निर्भय आत्मा के भी दर्शन होते हैं. दैव ने व्यर्थ ही इस प्रखर प्रताप को भार्गवों की मुखिया-गीरी और टीले के स्वामीपन में जकड़कर मार डाला.

जब थाना में अचानक हृदय की गति रुकने से पिता का स्वर्गवास होता है तब तेरह वर्ष के नरभेराम (जन्म सन् 1816) दाह-संस्कार करते हैं; उसके बाद भड़ौंच आते हैं. ये लड़ाके, मिजाजी और ज़िद्दी हैं. काशीराम को अधिक व्यावहारिक ज्ञान नहीं है; अनूपराम अपने कार्य में लगे हैं; इसलिए कुटुम्ब में रौब-दाब और शान-शौकत की ज़िम्मेदारी ये ले लेते हैं. इनकी इच्छा के सामने सब झुक जाते हैं. इन्हें किसी चीज़ की आवश्यकता हो तो पूरी होनी ही चाहिए. किसी की मजाल नहीं जो इनके सामने पड़े.

अठारह वर्ष की उम्र में परिवार के प्रतिष्ठा मंदिर-भड़ौंच अदालत– में वे नौकरी करते हैं. सन् 1846 में भड़ौंच अदालत में ‘रीडर’ बन जाते हैं. अगस्त 1850 में नरभेराम सूरत की अदालत में ‘डिस्ट्रिक्ट जज’ एंड्रूज़ के शिरस्तेदार हैं. ये महाशय पहले बड़ौदे के रेजीडेंट रह चुके हैं.

बड़ौदे में इस समय गड़बड़ मची हुई है. इस रोचक प्रसंग का पता पार्लियामेंट द्वारा प्रकाशित कागजात से लगता है और इनके द्वारा इस बात पर अद्भुत प्रकाश पड़ता है कि अंग्रेज़ी राज्य कैसे स्थापित हुआ.

इस वक्त बड़ौदे की हरिभक्ति की सुविख्यात गद्दी इस गड़बड़ का कारण बनती है. इस गद्दी के मालिक बेचर शामलदार की छोटी विधवा सेठानी जोइताबाई के लड़का होता है. गद्दी का मुनीम वामनराव उर्फ बाबा नफरा, बड़ी विधवा का पक्ष लेकर, इस बात को पक्की करने का प्रयत्न करता है कि यह लड़का झूठा है. वह जोइताबाई को कैद करता है और लड़के को अरबों को सौंप देता है, जिनके यहां वह बेचारा क्रूरता का शिकार होकर अंत में मर जाता है. जोइताबाई बाबा नफरा के हाथ से छूटकर बम्बई सरकार की शरण में जाती है.

लेकिन बाबा नफरा बड़ा उस्ताद है. बड़ौदे और रेजीडेंसी के हाकिमों और बम्बई गवर्नर की कौंसिल के सदस्यों को वह खिला सकता है. असहाय सेठानी की फरियाद  कोई नहीं सुनता.

इसी बीच मि. एंड्रूज़ के स्थान पर वह लेफ्टिनेंट कर्नल आउट्राम नियुक्त होता है जिसने पीछे चलकर सत्तावन के विद्रोह में ख्याति पायी थी. वह सिपाही है. उसे अपनी सचाई का अभिमान है. ब्रिटिश राज्य नीति पर स्थापित हुआ है और उसी पर स्थिर रखना चाहिए इस बात का तो उसे अद्भुत ख्याल है पर उसे सत्य की जांच करना नहीं आता. वह आते ही बड़ौदे की गड़बड़ को शांत करने का निश्चय करता है. वह जोइताबाई का पक्ष लेता है. बाबा नफरा को गायकवाड़ से पकड़वा देता है; उसके घर को ज़ब्त कर लेता है; उसके बहीखातों और कागज़ पत्रों को अपने कब्जे में करता है; साथ ही मुनीम द्वारा अंग्रेज़ी हाकिमों और दूसरे व्यक्तियों को दी हुई रिश्वत की जांच शुरू करता है. कुछ दिनों में वह चारों ओर वहम और आक्षेप के झूठे-सच्चे झाग उठा डालता है.

सन् 1850 में उसके सामने बाबा नफरा के कागज़ों की जांच होती है. उस समय गायकवाड़ की ओर से शम्भुराम खुशाल कोतवाल हाज़िर है. शम्भुराम स्वयं भार्गव ब्राह्मण है; स्वभाव से बड़ा ही तेज़ है. एक नोटबुक उसके हाथ लग जाती है. उसमें लिखा है कि 3001 सौभाग्यवती बाई साहब को दिये और लाड़कोबा को देने के लिए उसके साहब को दिये.’ शम्भुराम आदि चुपचाप परस्पर बात करते हैं– ‘इसमें एन्ड्रूज साहब का नाम है.’ आउट्राम को वहम हो जाता है. इस बात में रेजीडेंट का नाम कैसे आया? शम्भुराम कहता है कि ‘यह तो बाबा नफरा द्वारा दी हुई रिश्वत का हिसाब है. सौभाग्यवती बाई साहब से अभिप्राय है एंड्रूज़ साहब की रखेल से और लाड़कोबा से अभिप्राय है एंड्रूज़ के मुन्शी से. लोग समझते हैं कि यह पैसा एंड्रूज़ साहब की जेब में गया.

पता चला गया. आउट्राम साहब का मिजाज़ गर्म होता है. वह रोज़नामचे की नकल और आक्षेप दोनों 31 अगस्त 1850 के पत्र के साथ सूरत में एंड्रूज़ के पास भेज देता है.

एंड्रूज़ न्यायाधीश है; वहम, आक्षेप और सबूत तीनों के भेद को समझता है और कड़ा  पत्र-व्यवहार करता है. ‘सौभाग्यवती है तो दुलहिन किसलिए? और इस रोजनामचे के साथ मेरा क्या सम्बंध है? इस विषय में मेरे ऊपर आक्षेप किसलिए करते हो?’

लेकिन आउट्राम साहब को एंड्रूज़ पर पूरा संदेह है. वह कानून, वकील और वकीलों की कार्यप्रणाली की निंदा करता है और अपने को धर्मराज का अवतार मानता है.

नरभेराम 28 सितम्बर को एंड्रूज़ का पत्र लेकर आउट्राम के पास आता है– ‘मेरे शिरस्तेदार को सभी बहियां देखने दो.’ आउट्राम उदारता से बहियां देखने का हुक्म देता है. शम्भुराम, कोतवाल और नेविट एजेंट सूरजराम की उपस्थिति में नरभेराम मुन्शी बहियां देखता है और जांच करके नोट्स लेता है.

बाद में आउट्राम और एंड्रूज़ के बीच ज़ोर का पत्र-व्यवहार चलता है. एंड्रूज़ कहता है– ‘तुमने मेरे शिरस्तेदार को आवश्यक सहायता नहीं दी, जो नोट्स लिये उन पर गवाही नहीं करवाई; उसके काम में दखल दिया, उसके चारों ओर सूरजराम और शम्भुराम ने षड्यंत्र रचा.’ आउट्राम साहब भी शम्भुराम और सूरजराम के कहे अनुसार कहता है. वह सबसे लिखित बयान ले लेता है– ‘नरभेराम गुंडा है. Wily native है. उसने सौभाग्यवती बाई साहब को छोड़कर दूसरी रकमें लिखीं. उसने मेरे नेविट एजेंट के ऊपर जासूस रखे. उसने हाकिमों के सामने कहा कि मैं तो फौजी आदमी हूं; इस सम्बंध में कुछ नहीं समझता, मैं तो कल उठकर चला जाऊंगा. कल जब कोई ‘सिविलियन’ आएगा तो वह सबकी खबर लेगा; मैं–मैं– आउट्राम जोहताबाई के साथ मिलकर पैसा खा गया हूं और मेरी जांच के लिए कमीशन नियुक्त होकर आनेवाला है. इस दुष्ट शिरस्तेदार ने मेरा और गायकवाड़ का अपमान किया है. सारा मामला बम्बई के गवर्नर लार्ड फाकलेराड के पास जाता है. निर्जीव प्रमाणों के आधार पर अंग्रेज़ी अफसर के ऊपर आक्षेप करने के लिए लॉर्ड फाकलेराड और बम्बई की कौंसिल आउट्राम को धिक्कारती है. शिरस्तेदार को बहियों की जांच-पड़ताल के लिए बड़ौदा भेजा गया, इसके लिए एंड्रूज़ को फटकारती है और ‘नेविट’ नरभेराम ने अनुचित कार्य किया है, इस बात को बिना गगज्यादा छानबीन  के मानकर उसे दण्ड देने के लिए कहा जाता है.

आउट्राम साहब के गुस्से का पार नहीं. षड्यंत्र के मामलों में उसे अनुमति नहीं दी गयी, इसलिए वह बम्बई के गवर्नर को तीखे पत्र लिखता है; और फलस्वरूप उसे त्यागपत्र देना पड़ता है.

यह सारा झगड़ा लंदन में कम्पनी के डाइरेक्टरों के पास जाता है. आउट्राम ने मूर्खता की, इस बात को सब मानते हैं; पर इस बात की सिफारिश की जाती है कि उचित अवसर पर उन्हें कोई अच्छी नौकरी दे दी जाए. एंड्रूज़ तो मर गये, इसलिए कुछ कहना ही नहीं है. प्रस्ताव होता है कि नरभेराम शिरस्तेदार को ऊंचा ओहदा न दिया जाए.’

इस प्रकार दो गोरे भैंसे लड़े और बीच में काले शिरस्तेदार का कचूमर निकल गया. उन्होंने मुन्सिफ की परीक्षा दी, परंतु उनके भाग्य में मुन्सिफगीरी लिखी ही न थी. क्रोध के आवेश में वे सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर भड़ौंच आते हैं. इस घटना के कारण शम्भुराम और नरभेराम में जो शत्रुता हुई वह तीन पीढ़ियों तक चली.

लेकिन आउट्राम की जांच के फलस्वरूप बाबा नफरा को सात वर्ष की सज़ा हुई और गायकवाड़ ने जोहता सेठानी को सम्मान-सहित बड़ौदे में रहने दिया.

31 वर्ष की उम्र में नरभेराम टीले का स्वामित्व भोगते हैं.

वे उठते हैं, खिड़की में खड़े होकर भृगुभास्करेश्वर की फहराती हुई पताका के दर्शन करते हैं. जिस समय वे खिड़की में बैठते हैं उस समय उनकी आज्ञा का उल्लंघन करके कोई टीले पर नहीं आ सकता. केवल उनके मिलने आनेवाले ही पास के चबूतरे पर बैठकर सम्मानपूर्वक उन्हें देखा करते हैं.

सन् 1856 के पहले की बात है. एक बार वे संध्या करने बैठे हैं कि एक जोगी आता है. वह रोकने से भी नहीं रुकता. उसने नरभोराम का नाम सुना है और उसे आज उनसे मिलना है.

मुन्शी पूछते हैं– “कौन हो?” जोगी कहता है– “मुझे पांच हजार रुपया चहिए.” “पांच हजार!” “हां!” इस प्रकार दोनों थोड़ी बात करते हैं और नरभेराम उठकर घर में जितने भी रुपये हैं, गिन देते हैं.

बाद में घरवालों को पता चलता है. लोग धीमे-से एक-दूसरे से बात करते हैं. यह जोगी 1857 के विख्यात महापुरुष नाना साहब थे. यह बात मुझसे कही गयी तो गुप्त रखने के लिए ही. पचास वर्ष पहले मुन्शी ने सत्तावन के विद्रोहियों को मदद दी थी, इसका भय सबको लगता था.

संध्या करने के बाद नरभेराम भोजन करने बैठते हैं. दया मा स्वयं ही उनके लिए परोसती है; दूसरे किसी की हिम्मत नहीं. खाते-खाते जिस लड़के को वे बुलाते हैं, उसके होश उड़ जाते हैं. वह ज़मीन पर सो जाता है.

उठकर वे नया कलफ किया हुआ बारीक मलमल का अंगरखा पहनते हैं. उनके कपड़े  प्रति सप्ताह सूरत से धुलकर आते हैं और एक बार शरीर में डाला हुआ कपड़ा दुबारा  धोबी से धुलाये बिना वे नहीं पहनते. उसके बाद नये मंदिर के सामने वाले दाजी मामा के घर में जाकर रास्ते पर पड़नेवाली खिड़की में वे बैठते हैं. वहां ज्योतिषी आता है तो ग्रह देखता है; कोई हकीम या वैद्य आता है तो नुस्खे तैयार कराये जाते हैं. उसी मंज़िल पर रसायन बनाने की भट्ठी भी चलती है.

एक कागज़ पर रसायन बनाने की विधि और दुश्मन को वश में करने के मंत्र– एक फारसी में और दूसरे संस्कृत में– लिखे हुए मैंने देखे हैं. मुझे यह भी याद पड़ता है कि उसमें सुंदर अक्षरों में कुछ अंग्रेज़ी वाक्य भी थे.

बाद में लोग आने लगते हैं. जाति की मुखियागीरी होती है. गांव के झगड़े तय होते हैं. गांव में कोई गवैया आता है तो वह दो राग सुनाकर सेला पाता है; कोई शात्री आता है तो चार दिन का आतिथ्य पाता है. कलक्टर कुछ अनुचित काम करता है तो नरभेराम उसे समझा आने का वचन देते हैं. एक बार कलक्टर ने चाहा कि श्मशान को हटाकर दूसरी जगह कर दिया जाए. वे कह आये– ‘खबरदार! इस दशाश्वमेध पर बलि राजा ने यज्ञ किये थे; यह हमारा स्वर्ग का द्वार है, यह नहीं हट सकता.’ विदेशी कलक्टर इस बात को समझा या नहीं यह तो कोई नहीं जानता, परंतु श्मशान का हटना मुल्तवी रहा.

उसके बाद खास मित्र आते हैं– भड़ौंच के देसाई. कभी दोनों के सहारे भड़ौंच की प्रजा के हृदय में रस उंडेलती वेश्या आती है. कौन-सी जान, यह याद नहीं, शायद अमीरबख्श. यह भी परिवार का अंग है. लड़के भी खिलाती है और जब-तब किसी को रागिनी भी सिखा जाती है. गाते-बजाते रात हो जाती है. जब तक नरभेराम मुन्शी खिड़की में बैठते हैं, तब तक बड़ी सड़क से प्रतिष्ठित व्यक्तियों के अतिरिक्त और कोई नहीं जाता. प्रतिष्ठित व्यक्ति भी जाते-जाते मिल ही जाता है. यदि ऐसा नहीं होता तो कम-से-कम नीचे से नमस्कार करके माफी मांग लेता है. तनिक भी कोई सफाई देता है तो उनकी प्रचंड आवाज़ सिंह के समान गरजती है और सब थर-थर कांपने लगते हैं.

रात को वे देर से घर आते हैं और अकेले ही दीवानखाने में सो जाते हैं. दया मा साध्वी हैं पर उनका व्यक्तित्व कम नहीं. पति विलासी है, इसे वे जानती हैं पर सच्ची त्री की उदारता से वे सब निभा लेती हैं. एक बार एक दुष्ट त्री उनको जाल में फंसाती है. उस समय दया मा धोती पहनकर और सर पर साफा बांधकर उस दुष्टा की खिड़की में पत्थर रख आती हैं. उनकी उदारता की भी मर्यादा है. मुसलमान जान आती है; एक कोई पारसी त्री भी आती है. वे इस भ्रष्टता को नहीं सह सकतीं और पति के साथ शारीरिक सम्बंध का त्याग करती हैं.

प्राचीन प्रथा के अनुसार इस पारसी त्री का भी परिवार में स्थान है. वह समय-समय पर आती है और लड़के खिलाती है. घर से उसको बराबर खाना जाता है. जब आमों के दिन आते हैं तब वह छोटे अमृत में आफूस के आमों (आमों का एक प्रकार) का मुरब्बा डालती है और ‘भाई’ (नरभेराम) के लिए ले आती है.

मुझे याद है कि मैंने उसे देखा है. जब मेरे पिताजी मरे थे तब वह रोने आयी थी. पूर्ण वृद्धावस्था में भी उसके मुख पर एक सौंदर्य की रेखा थी. उसने सबकी कुशल पूछी, मुझे प्रेम से सांत्वना दी और रो-रोकर अपनी आंखें लाल कर लीं.

गत शताब्दी के इस अग्रगण्य गुजराती की वीरता, बड़प्पन और उदारता की बहुत-सीं बातें भड़ौंच और सूरत में प्रचलित थीं. उन्हें मैंने सुना था. वे सन् 1866 में चल बसे. उनके तीसरे पुत्र मेरे पिता माणिकलाल (जन्म सन् 1853) उस समय सोलह वर्ष के थे. 

(क्रमशः)

फरवरी  2013 

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