असहिष्णुता सबसे बड़ी त्रासदी है  –  नीरा चण्डोक

विचार

वर्ष 1947 में हुआ पंजाब का विभाजन इतिहास में नरसंहार, जातीय हिंसा और विस्थापन के क्रूरतम उदाहरणों में से एक है. पर पंजाब के ही एक छोटे-से हिस्से मलेरकोटला ने विभाजन  के खूनी तर्क को नकार दिया था. इसका दूसरा उदाहरण अहमदिया समुदाय का मुख्यालय कदियान था. न मलेरकोटला से कुछ सम्भ्रांत कहे जाने वालों के सिवाय कोई देश छोड़कर गया और न ही वहां साप्रदायिक दंगे हुए. पंजाब के तत्कालीन कानून-व्यवस्था मंत्री सरदार बलवंतसिंह ने लिखा था- ‘पंजाब के अन्य हिस्सों से एक लाख से अधिक मुसलमानों ने मलेरकोटला राज्य में शरण ली थी. पर एक भी व्यक्ति यहां मारा नहीं गया. हिंदू, मुसलमान और सिख, भाइयों की तरह रह रहे थे. मलेरकोटला में एकत्र हुए सभी मुसलमानों को सरदार पटेल की सहायता से सुरक्षित पाकिस्तान पहुंचा दिया गया था.’

हालांकि ज़रूरत की तुलना में साधन कम पड़ गये थे; मलेरकोटला में अस्वास्थ्यकर स्थितियां पैदा हो गयी थीं, बीमारियां फैलने लगी थीं; परिवारों में खाना कम पड़ने लगा था, लेकिन मलेरकोटला के हर घर ने शरणार्थियों के लिए खाना मुहैया कराया था. देश में साप्रदायिकता की आग जल रही थी. पर मलेरकोटला में कोई दंगा नहीं हुआ. कोई जान नहीं गयी. तीनों धर्मों के लोग शांति और भाईचारे के साथ रह रहे थे. इस कस्बे में सूफी संतों की मजारे हैं, मस्जिदों के सामने घंटे लटकते हैं और शेख सदरुद्दीन की दरगाह की देखभाल करने वाले मुसलमान के हाथ में ओम का गोदना गुदा हुआ है. सदरुद्दीन की दरगाह विभिन्न धर्मों का मिलन-स्थल ही नहीं है, अलग-अलग पहचानों के मेल-मिलाप और अविभाजित पंजाब का जीता-जागता अनुभव भी है. पंजाब की 1881 की जनगणना-रिपोर्ट के अनुसार ‘यहां के किसान संतों की पूजा करते हैं… अधिकतर संत मुसलमान हैं, पर हिंदू और मुसलमान दोनों इनको मानते हैं.’ अध्ययन से पता चलता है कि मुस्लिम नवाबों और गुरु गोविंदसिंह दोनों ने यहां के लोगों को एक-दूसरे को सहना-स्वीकारना सिखाया है. चमकौर साहिब की लड़ाई में औरंगजेब के विश्वस्त और वफादार नवाब शेरमुहम्मद खान ने गुरु गोविंदसिंह के खिल़ाफ सेना का नेतृत्व किया था. लेकिन जब गुरु गोविंदसिंह के मासूम बेटों- जोरावरसिंह और फतहसिंह को सिरहंद के प्रशासक ने सज़ा देनी चाही तो नवाब ने इसका खुलकर विरोध किया. नवाब का कहना था कि बच्चों को ाf़जंदा दीवार में चुनवाना कुरान और इस्लाम के मूल्यों के खिल़ाफ है. पर उनकी बात नहीं मानी गयी. बच्चों को दीवार में चिनवा दिया गया. मलेरकोटला के नवाब इस अमानवीयता के खिल़ाफ दरबार से उठकर चले गये. नवाब के इस व्यवहार की प्रशंसा करते हुए गुरु गोविंदसिंह ने उन्हें हुकमनामा और कृपाण भेंट की. आज भी ये दोनों चीज़ें मलेरकोटला में सुरक्षित हैं. तब गुरु गोविंदसिंह ने यह भी आश्वासन दिया था कि मलेरकोटला में किसी भी मुसलमान को सिख और हिंदू कभी भी नुकसान नहीं पहुंचाएंगे.

यदि सहिष्णुता का ताना सूफीवाद और मलेरकोटला के संस्थापकों के आध्यात्मिक   रुझान ने बुना था तो बाना गुरु के आशीर्वाद ने. मलेरकोटला की नवाबशाही ने अपने कार्यों से सहिष्णुता के इस ताने-बाने को मज़बूत बनाया- उदाहरण के लिए नवाब ने यह फरमान जारी किया कि मलेरकोटला में न तो कोई स्अूर का मांस खायेगा और न ही गाय का. आज वहां नवाब-परिवार नहीं बचा है, पर मलेरकोटला में यह परम्परा जारी है. महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि दूसरे के धर्म को सहने-समझने की इस परम्परा को रोज़मर्रा की ज़िंदगी में प्रयत्नपूर्वक निभाया जाता है. साझे पूजा स्थलों और बहुलतावाद को भाईचारे तक ले जाने के इन प्रयासों का ही फल है कि आज यहां एक राजनीतिक समुदाय का उदय हुआ है जो दो तरह से साझे हितों की रक्षा में लगा है- एक तो अतीत की विरासत की रक्षा और दूसरे भविष्य के लिए समन्वय की भावना का पोषण.

कहते हैं वास्तविक सांस्कृतिक बहुलतावाद वर्तमान स्थितियों में सम्भव नहीं है. क्या यह सही है कि राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों के बदलने से सहिष्णुता निभानी मुश्किल हो जाती है? यह सही है कि बाज़ारवादी लालच और चुनावी-प्रतिस्पर्धा की ताकत के चलते सहिष्णुता को बनाये रखना मुश्किल हो सकता है, लेकिन इस सामाजिक और राजनीतिक मूल्य का बना रहना ज़रूरी है. ज़रूरी है आज के भारत में इस परम्परा को पुनर्अन्वेषित और पुनर्परिभाषित करना, मज़बूत बनाना तथा नये ढंग से सामने लाकर जीवित रखना. इस पुनर्अन्वेषण में हमें उस सहिष्णुता को पूरी तरह समझना होगा जिसने अतीत में हमारे समाज को जोड़कर रखा है और जो भारत जैसे बहुलतावादी समाज के लिए अपरिहार्य है.

यह अवधारणा कि भारत विभिन्न जीवन-प्रणालियों वाला एक देश है और हर प्रणाली की अच्छाई की पृथक पहचान है, व्यावहारिक बहुलतावाद के शीर्षक के अंतर्गत आती है. यह समझने के लिए कि हम उनके प्रति सहिष्णु क्यों हों जो हमारे जैसे नहीं हैं, हमें व्यावहारिक बहुलतावाद को बहुलता के मूल्यगत स्वरूप में बदलना होगा. बहुलतावादी सिद्धांत में दो बातें आती हैं- पहली तो यह कि कोई भी एक मूल्यप्रणाली विश्व को समझा नहीं सकती, व्याख्यायित नहीं कर सकती और न ही यह मान सकती है कि बाकी मूल्य-प्रणालियां उसी से जन्मी हैं. दूसरी बात यह कि कोई ऐसा एक नैतिक मानदण्ड नहीं है जिसके आधार पर अन्य मूल्यों को नापा-तोला जा सके.

बहुलतावाद एक मूल्य है जिसमें मूल्यों की बहुलता एक पूर्व-शर्त की तरह शामिल है. यह हमें बताता है कि अच्छाई की सारी अवधारणाएं बराबर हैं. इसलिए बहुलतावाद हमें एक क्यवस्थित विश्व को एक नयी व्यवस्था देने में सहायता करता है. यदि हमारा समाज बहुसंख्यक धर्म को विशेष स्थान देता है तो बहुलतावाद हमें बताता है कि अन्य धर्मों को भी सम्मान दिया जाना चाहिए.

इस स्थिति को तर्क संगत परिणिति तक पहुंचाएं तो हम पाते हैं कि हमें इस प्रश्न का उत्तर तलाशना होगा कि उनके प्रति हमारा क्या कर्त्तव्य बनता है जो हमारे धर्म या हमारी भाषा वाले नहीं हैं? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने का एक रास्ता सहिष्णुता के सिद्धांत से होकर गुज़रता है.

सहिष्णुता की संकल्पना इस बात से उपजती है कि हम दूसरों के कितने ऋणी हैं, हम दूसरों की नैतिक स्थिति को कैसे देखते हैं और दूसरों के प्रति अपने सम्बंधों को कैसे निभाते हैं. उदार तर्क यह है कि हम दूसरों के दृष्टिकोण का इसलिए सम्मान करते हैं क्योंकि हम यह मानते हैं कि लोगों के विश्वासों के पीछे भी ठोस कारण हैं और उन्हें अपने विश्वास रखने का अधिकार है. इसका इस बात से कोई रिश्ता नहीं है कि हम दूसरों के विश्वासों से सहमत हैं अथवा नहीं. इसका यह अर्थ हुआ कि सहिष्णुता का तभी कुछ मतलब है जब हम ऐसे लोगों के बीच रहें, जो हमसे भिन्न अवधारणात्मक, सांकेतिक भाषाएं बोलते हैं. इसका यह भी अर्थ हुआ कि सहिष्णुता दूसरों के प्रति सामाजिक उदासीनता से नहीं उपजती और न ही इस अवधारणा से कि दूसरा अज्ञात है अथवा उसे जाना नहीं जा सकता. आधुनिक बाज़ारी अर्थव्यवस्था तथा चुनावी-प्रणाली में यह मानना मुश्किल है कि कोई समूह ऐसा भी हो सकता है जो शेष समाज से इतना कटा हुआ हो कि अज्ञात बना रहे या जिसे जाना ही न जा सके. जहां वर्ग आर्थिक तथा राजनीतिक सत्ता के लिए प्रतिस्पर्धी हों, और सत्ता के दुरुपयोग के खिल़ाफ राजनीतिक गठबंधनों के माध्यम से आपस में जुड़े हुए हों, समूहों के बीच और व्यक्तियों के बीच सम्बंधों की सहिष्णुता एक ज़रूरी हिस्सा बन जाती है.

ज्योंही हम अपने से भिन्न लोगों के सम्पर्क में आते हैं, अच्छाई की उनकी अवधारणाओं को सहना और ज़रूरी हो जाता है. ऐसे समाज में असहिष्णुता का बरतना अपने सामूहिक भविष्य को खतरे में डालना है. सहिष्णुता का अर्थ दूसरे समूहों और उनके विश्वासों को निक्रिय रूप से सहना नहीं होता. और सहन करने का यह गुण कमज़ोरी का नहीं, ताकत का प्रमाण है. हम कुछ व्यवहारों की अस्वीकार्यता के बावजूद यदि उन्हें इसलिए स्वीकारते हैं कि दूसरे को भी अपने ढंग से व्यवहार करने का अधिकार है, तो यह उसे सहना हुआ. सहनशील होने का अर्थ है उन मुद्दों से सम्बंधित विश्वासों, तरीकों को स्वीकारना जिनका हम सबसे रिश्ता होता है- जैसे धार्मिक विश्वास.

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम उन व्यवहारों को भी स्वीकार करें जो मानवीय मूल्यों के खिल़ाफ हैं. उदाहरण के लिए नर-बलि या लैंगिक अन्याय को स्वीकारना कतई ज़रूरी नहीं है. पर ऐसे कई मुद्दे हैं, जिनके प्रति न केवल दक्षिणपंथी विचारों वालों में, बल्कि भारत के शिक्षित मध्यमवर्ग में भी, असहनशीलता बढ़ती जा रही है. चिंता की बात यह भी है कि इस असहनशीलता को शासन भी एक तरह से स्वीकृति दे रहा है. इसीलिए ज़रूरी हो गया है कि इस सवाल पर नये सिरे से विचार किया जाना चाहिए कि हम दूसरों की प्रार्थना-पद्धतियों, विश्वासों, जीवन जीने के तरीकों को क्यों सहें और क्यों ज़रूरी है सहनशीलता को बढ़ावा देना, मज़बूत बनाना.

सहनशीलता के पक्ष में एक तर्क तो यही है कि हम भिन्न मतों, तरीकों, विश्वासों को इसलिए स्वीकार करते हैं कि मनुष्यता के प्रति यह एक तरह से हमारी ऋण-अदायगी है. गांधीजी ने इस प्रश्न का ज़्यादा पुख्ता कारण बताया था. सत्य के बारे में गांधी की अवधारणा कुछ ज़्यादा जटिल थी. एक स्तर पर सत्य उनके लिए ईश्वर था. वे अक्सर सत्य और ईश्वर को पर्याय की तरह काम में लेते थे. पर समस्या यह है कि सत्य की खोज करने वाले भी अक्सर यह तय नहीं कर सकते कि जिसे वे सत्य मान रहे हैं, क्या वह अंतिम सत्य है? राजा हरिश्चंद्र ने सत्य के लिए अपना सबकुछ त्याग दिया था. हुसैन ने सत्य के लिए अपना जीवन दे दिया. ये दोनों सच सही हैं, पर कोई ज़रूरी नहीं कि यह हमारा सत्य भी हो. गांधी ने ‘सत्य की शपथ’ में कहा है- ‘इन सीमित सत्यों से पार एक अंतिम सत्य है, जो सम्पूर्ण है, सब कुछ को अपने में समेटे है.’ पर उसका वर्णन नहीं किया जा सकता. फिर गांधी सात अंधों और हाथी के रूप का उदाहरण देते हैं. वे कहते हैं- हम इस कहानी के अंधों जैसे हो सकते है. ‘इसलिए हमें उसे सच मानकर संतोष कर लेना चाहिए जो हमारी समझ में आता है.’ लेकिन, अंतिम सत्य की खोज कहां से शुरू की जाये? हम लक्ष्य तक भले न पहुंचें, पर लक्ष्य का मार्ग तो दिखना चाहिए. गांधीजी का कहना है, सत्य को महान धर्मों में पाया जा सकता है, क्योंकि हर धर्म व्यक्ति की गरिमा का आदर करने में विश्वास करता है, और यह मानता है कि सर्वोच्च जीवन घृणा और आवश्यकता से ऊपर होता है. अहिंसा और नैतिकता की खोज करता है. गांधी मानते हैं कि विश्व के मुख्य धर्मों में नैतिकता के नियम समान हैं, नैतिकता नहीं बचेगी तो उस पर आधारित धर्म भी ढह जायेगा. यदि गांधी की यह बात सही है तो सब धर्म सम्माननीय हैं. सभी धर्मों की समानता की यह स्वीकारोक्ति भारत में सेक्यूलरिज़्म की अवधारणा को गांधी की अनूठी देन है.

गांधी की इस बात का महत्त्व बहुत अधिक है कि हममें से कोई भी शायद पूरे सत्य को नहीं जान सकता, हम आंशिक सत्य ही जान पाते हैं. इसलिए कोई यह दावा नहीं कर सकता कि उसका सत्य ही अंतिम सत्य है अथवा बाकी सत्य झूठे हैं. इसलिए धर्मों की तुलना का कोई अर्थ नहीं है. गांधी की यह बात हमें इस बात का ठोस कारण देती है कि हमें सहिष्णु क्यों होना चाहिए. जब हम अपने सोच, अपने धर्म को दूसरे से बेहतर सिद्ध करने की कोशिश करते हैं तो असहिष्णुता, घृणा और हिंसा जनमती है. यदि मनुष्य अंतिम सत्य नहीं जान सकता तो उसे शब्दों, कार्यों और विचारों से भी दूसरे को सजा देने का क्या अधिकार है? गांधी का यह भी कहना था, जब हम दूसरे को चोट पहुंचाते हैं तब हम अपने ही एक हिस्से को पीड़ित कर रहे होते हैं क्योंकि दूसरा अन्य रूप में हम ही हैं.

गांधी ने धार्मिक समुदायों के बीच फैली हिंसा को तीन कारणों से नकारा था- धार्मिक समुदायों के आपसी संघर्ष ने वास्तविक जन-आंदोलन को मुश्किल बना दिया था; इस हिंसा से बचने के लिए उन्होंने सब धर्मों की समानता की बात की. दूसरे, ‘इस’ और ‘उस’ धर्म के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हिंसा का प्रयोग उनके इस विश्वास को नकारता था कि कोई भी धर्म हिंसा का तार्किक आधार नहीं देता. तीसरे, सत्य का हमारा आंशिक ज्ञान हिंसा को स्वीकार नहीं कर सकता. व्यक्ति तभी हिंसा का प्रयोग करता है जब वह अपने धर्म को सही और दूसरे के धर्म को गलत मानता है. यह विश्वास कि सत्य हमारे ही पास है, दूसरे के पास नहीं, घमण्ड, असहिष्णुता और हिंसा को जन्म देती है.

जिस क्षण हमें यह ज्ञान होता है कि हम मात्र आंशिक सत्य ही जानते हैं, तभी हमें दूसरे का सम्मान करने का अहसास हो जाना चाहिए. यह समझ उन भावनाओं को दबा सकती है जो व्यक्ति को असहिष्णुता के लिए प्रेरित करती है. अन्यथा हम संकुचित मनोवृत्ति और संदेह के शिकार हो सकते हैं. भारत जैसे बहुलतावादी देश में सामाजिक सम्बंधों के एक गुण के रूप में सहिष्णुता अनिवार्य है. हमारे समाज को कम बहुलतावादी बनाने का मतलब होगा मनुष्य के व्यक्तित्व को छोटा बनाना. असहिष्णुता इस घमण्ड और अज्ञान का परिणाम है कि जो कुछ जानने योग्य है, वह सब हम जानते हैं. इसका मतलब यह भी है कि हम यह नहीं मानते कि सत्य आंशिक होता है. इसका स्वाभाविक परिणाम हिंसा है. अपने ही विश्वासों को सही और दूसरे के विश्वासों को गलत मानने का यही परिणाम हो सकता
है. इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है?

(जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से सम्बद्ध लेखिका के इकॉनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित आलेख के सम्पादित अंश)

अप्रैल 2016

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