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गज़ल

♦   विजय ‘अरुण’   > कभी है अमृत, कभी ज़हर है, बदल बदल के मैं पी रहा हूं मैं अपनी मर्ज़ी से जी रहा हूं या तेरी मर्ज़ी से जी रहा हूं. दुखी रहा हूं, सुखी रहा हूं, कभी धरा…