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दुनिया का खेला

♦  अनुपम मिश्र   > मैं उनसे कभी मिल नहीं पाया था. सभा गोष्ठियों में दूर से ही देखता था उन्हें. अपरिचय की एक दीवार थी. यह कोई ऊंची तो नहीं थी पर शायद मेरा अपना संकोच रोके रहा आगे बढ़…

मार्च 2014

  जब हम कोई व्यंग्य पढ़ते हैं या सुनते हैं तो अनायास चेहरे पर मुस्कान आ जाती है. हो सकता है इसीलिए व्यंग्य को हास्य से जोड़ दिया गया हो, और इसीलिए यह मान लिया गया हो कि व्यंग्य हास्य…