♦ सुधा अरोड़ा > हर स्त्री एक जलता हुआ सवाल होती है एक स्त्री जब एक त्री भर नहीं रह जाती एक जलता हुआ सवाल बन जाती है ऐसे सवाल को कौन गले लगाना चाहता है सवालों से कतरा कर निकल जाते…
Category: कविता
गज़ल
♦ विजय ‘अरुण’ > कभी है अमृत, कभी ज़हर है, बदल बदल के मैं पी रहा हूं मैं अपनी मर्ज़ी से जी रहा हूं या तेरी मर्ज़ी से जी रहा हूं. दुखी रहा हूं, सुखी रहा हूं, कभी धरा…
दो नवगीत
♦ दो नवगीत > औंधी नावें पास नदी के बैठे प्यासे-प्यासे! औंधी नावें दूर-दूर तक रेत छूंछी गागर चील बुरे संकेत, खेत-मेड़ पर घूमे दिवस उपासे! हारे-थके पांव-पगडंडी गांव धूप-धूप है नीम पीपली-छांव, कटे एक-से अपने बारहमासे! कब लौटेंगे…
तीन कविताएं
♦ नरेश सक्सेना > मढ़ी प्राइमरी स्कूल के बच्चे उनमें आदमियों का नहीं एक जंगल का बचपन है जंगल जो हरियाली से काट दिये गये हैं और अब सिर्फ़ आग ही हो सकते हैं नहीं बच्चे फूल…
दो कविताएं
♦ सूर्यभानु गुप्त > हम सब बच्चे कितने अच्छे! एक-दूसरे की बेमतलब आज खून की प्यासी दुनिया बम-मिसाइलों की दीवानी हथियारों की दासी दुनिया हम बच्चों से कुछ तो सीखें! हिल-मिलकर कैसे रहते हैं कैसे हर मन के आंगन…