कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन… क्यों?

 यज्ञ शर्मा >   

बचपन कई तरह का होता है. एक बचपन वह होता है जिसमें बच्चे खेलते-कूदते हैं. हंसते हैं, खिलखिलाते हैं, मचलते हैं, रूठते हैं. दूसरा बचपन वह होता है जो बुढ़ापा खराब होने पर याद आता है. जो बचपन बुढ़ापे में याद आता है, उसके बारे में कुछ इस तरह के गाने लिखे जाते हैं- ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन’. अब, बचपन तो नासमझ होता ही है. लेकिन, ऐसे गाने लिखने वाले और भी ज्यादा नासमझ होते हैं? ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन’! काहे को लौटा दे, भाई? वैसे भी यह ‘कोई’ है कौन, जिससे आप लौटाने को कह रहे हैं? आपका कुछ खा कर बैठा है कि आपके बीते दिन लौटा देगा? वैसे भी, दुनिया में किसमें ताकत है जो बीते हुए दिन लौटा सके? और, अगर किसी में ऐसी ताकत होती भी, तो भी वह बिलकुल नहीं लौटाता. क्योंकि, आज अगर उसने आपके बीते हुए दिन लौटा दिये, तो कल आप दूसरा गाना गाने लगेंगे – ‘कोई लौटा दे मेरे खर्चे हुए पैसे’. ऐसे गाने लिखने वालों की समझ में यह क्यों नहीं आता कि बीती हुई चीज़ों को लौटाने की शक्ति तो ईश्वर में भी नहीं होती. अगर लौटा सकता, तो वह गरीब किसानों के कर्ज़ न लौटा देता ! तब किसानों को आत्महत्या तो न करनी पड़ती. अगर, बीते हुए दिन लौटाना ईश्वर के बस में होता, तो वह सबसे पहले आत्महत्या करने वाले किसानों के बचपन लौटाता. कोई किसान बचपन में आत्महत्या नहीं करता. आप क्या समझते हैं, ईश्वर को किसानों का आत्महत्या करना अच्छा लगता है?

बचपन के बारे में एक और गाना भी बड़ा मशहूर है- ‘बचपन के दिन भुला न देना’. यह गाना ज़रूर किसी बुड्ढे ने लिखा है. कोई नौजवान ऐसा गाना नहीं लिख सकता. किसी नौजवान को ऐसा गाना लिखने का खयाल ही नहीं आयेगा. आप ही बताइए, 20-22 साल का नौजवान, अपने कॉलेज में पढ़ने वाली किसी खूबसूरत लड़की को याद रखेगा कि अपने बचपन को याद करेगा? अगर आप कभी जवान रहे हैं, मतलब नॉर्मल रूप से जवान रहे हैं, तो आप ज़रूर जानते होंगे कि जवानी में जवानी के सिवाय कुछ याद नहीं रहता. यानी, जिसको अपना बचपन याद ही नहीं आता, वह उसको भुलायेगा कैसे? अच्छा चलिए, सिर्फ़ बहस करने के लिए मान लेते हैं कि ऐसा भी कोई नौजवान है, जो अपने बचपन को नहीं भुलाता. तो ज़रा सोच कर देखिए, फिर ऐसे नौजवान के साथ क्या होगा? भरी जवानी में, उसकी क्यूट-क्यूट गर्लफ्रेन्ड, बड़े प्यार से इस नौजवान ‘बच्चे’ का सिर तो सहलाएगी, लेकिन पिक्चर देखने किसी और के साथ जाएगी. तो, भरी जवानी में अपना बचपन याद रखने का बचपना कौन बेवकूफ़ करेगा ! ‘बचपन के दिन भुला न देना’ …हुंह !

जहां तक बीतने का सवाल है, बचपन तो लड़कियों का भी बीत जाता है. तो, क्या कोई नौजवान लड़की अपने बचपन के दिन याद रखना चाहेगी? मेरी तरफ मत देखिए. मुझे नहीं पता. मैं कभी लड़की नहीं था. अगर आप जानना ही चाहते हैं, तो जा कर किसी लड़की से पूछिए. लेकिन, इस भ्रम में मत रहिएगा कि पूछने से हकीकत पता चल जाएगी. जवान लड़कियों के बारे में एक बात सारी दुनिया में मशहूर है – उनकी ‘हां’ का मतलब ‘ना’ होता है और ‘ना’ का मतलब ‘हां’. लेकिन, विशेष परिस्थितियों में ‘हां’का मतलब ‘हां’ और ‘ना’ का मतलब ‘ना’ भी होता है. यानी किसी जवान लड़की की ‘हां’, ‘हां’ भी हो सकती है और ‘नहीं’ भी.  अब, इस ‘हां’ और ‘ना’ के चक्कर में कौन कन्गफ़्यूज़ नहीं हो जाएगा? वैसे, कई बार कन्गफ़्यूज़ होने पर किस्मत चमक जाती है. लड़कियों को कन्गफ़्यूज्ड लड़के पसंद होते हैं. ऐसे लड़कों को कंट्रोल करना आसान होता है.

शायद आपने गौर किया हो, ये बीते हुए दिन लौटाने का फितूर हमेशा बुढ़ापे में सताता है. क्या है कि बुढ़ापे में शारीरिक शक्ति कम हो जाती है. शौक निभाने की सामर्थ्य नहीं रहती – न शरीर में, न जेब में. उसके बाद भी आपका शौक गगज्यादा चर्राने लगे, तो आसपास खड़े लोग हंसने लगते हैं – बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम ! असल में, अपने बीते हुए दिनों में वे लोग लौटना चाहते हैं, जो अपना वर्तमान जीना नहीं जानते. एक परेशानी यह भी होती है कि कई बार उम्र बीत जाती है, पर इच्छाएं नहीं बीततीं. आप रिटायर हो जाते हैं, मुश्किलें रिटायर नहीं होतीं. ऐसे में बचपन याद आता ही है. क्योंकि बचपन की ज़िम्मेदारियां बच्चों की नहीं होतीं. बचपन अपना होता है, ज़िम्मेदारियां मां-बाप की होती हैं. खेल हमारा होता है, मशक्कत मां-बाप की होती है. तो, सीधी सी बात यह है कि जो लोग बचपन लौटाने की बात करते हैं, वास्तव में अपनी उम्र की ज़िम्मेदारियां नहीं संभाल पाते. वे अपनी ज़िम्मेदारियों से बचना चाहते हैं. उन परेशानियों से बचना चाहते हैं, जो जाने-अनजाने उन्होंने ख़ुद अपने लिए पैदा कर ली होती हैं.

इन तमाम बचपनों से अलग एक बचपन और होता है. बहुत ही सीधा-सादा, शरीफ़ बचपन. रोज़ अपने आसपास दिखता बचपन. उस बचपन को समझाने के लिए मैं कवि नरेश सक्सेना की कविता उधार ले रहा हूं ः कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैं/ वे गेंद और गुब्बारे नहीं मांगते/ मिठाई नहीं मांगते/ ज़िद नहीं करते/ और मचलते तो हैं ही नहीं/ बड़ों का कहना मानते हैं/ वे छोटों का कहना मानते हैं/ इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हम/ और मिलते ही ले आते हैं घर/ अक्सर सौ रुपये महीने और खाने पर. जी हां, इस बचपन की किस्मत में कोई हंसी नहीं होती. कोई खुशी नहीं होती. कोई मौज-मस्ती नहीं होती. बस, एक चीज़ होती है – खाली पेट को खरोंचती भूख. वैसे, एक दिन यह बचपन भी बचपन नहीं रहता, बड़ा हो जाता  है. आपका क्या खयाल है, बड़ा होने पर वह बच्चा कभी गायेगा – ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन’ ! वैसे नरेश जी, आपकी यह कविता मैं ज़रूर लौटा दूंगा.

खैर मित्रो, आप अपना मूड खराब मत कीजिए. अगर आपका मन गाने को करता है तो ज़रूर गाइए- ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन’. गला सुरीला है तो सुर में गाइए. नहीं तो बेसुरा गाइए. धीरे-धीरे गाइए. चिल्ला-चिल्ला कर गाइए. गला बैठने तक गाइए. पर, एक बात याद रखिए. आपके बीते हुए दिन कभी लौटाये नहीं जाएंगे. अगर, किसी में लौटाने की ताकत होगी, तो भी वह नहीं लौटाएगा. क्योंकि, अगर उसने आपका बीता हुआ बचपन लौटाया, तो फिर उसे आपके मां-बाप की बीती हुई जवानी भी लौटानी पड़ेगी. वरना, आपके लौटे हुए बचपन को संभालेगा कौन? इसलिए, अगर आप वास्तव में अपना बीता हुआ बचपन वापस पाना चाहते हैं, तो बेहतर होगा कि पहले अपने मां बाप से पूछ लें- क्या वे फिर से आपके बचपन की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए तैयार हैं?

 (जनवरी 2014)

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