आधे रास्ते (पांचवीं क़िस्त)

म नासिक से लौटे और पिताजी की बदली धंधूके हुई. वहां किसी के ऊपर रिश्वत लेने का आरोप था. इसलिए, उसकी जांच-पड़ताल के लिए उनकी नियुक्ति हुई और मां, बहनें तथा मैं भड़ौंच रहे. इस समय एक छोटा-सा पिल्ला मेरा गहरा दोस्त हो गया. वह सुनहरी रुई के गोले जैसा सुहाना, नन्हा-सा और आकर्षक था, मानो जीता-जागता खिलौना हो. उसने मुझे पागल-सा बना दिया. मैं दिन-भर उसके साथ खेलता, उसे पुचकारता या उसे गोदी में लिये रहता. हम दोनों साथ ही घूमने जाते, दौड़ते और खेलते. उसका नाम मैंने बोबी रखा था.

बोबी की आंखें बहुत ही सुंदर थीं और वे बड़ी देर तक स्नेह से मेरे ऊपर लगी रहती थीं. बहुत बार मैं उसे अपने सामने बिठाकर उससे अपनी सारी बातें कहता. मैं परीक्षा में पास हूंगा या नहीं, मेरा विवाह होगा या नहीं, बोबी ‘ब्रेव बोबी’ की भांति मुझे मरने से बचायेगा या नहीं आदि बहुत-सी बातें मैं करता और उन सबका जवाब बोबी बिना बोले अपनी आंखों से ही दे देता.

कभी-कभी मैं उससे कहता- “हम दोनों दमास्कस के कोट के बाहर जाकर सो रहेंगे और सवेरे सरदार राजा का उत्तराधिकारी खोजने दरवाजा खोलेंगे. वे मुझे अंदर ले जाकर गद्दी पर बिठायंगे और राजकुमारी का ब्याह मेरे साथ कर देंगे. उस समय तुझे भी हीरों से मढूंगा.” मेरी इन व्यक्तिगत बातों में उस अकेले को गहरी श्रद्धा थी.

जब कभी वह प्रेम के आवेश में आता तो मुझे चाटने लगता. मैं उसे यह बताने का प्रयत्न करता कि ब्राह्मण का कुत्ता ऐसा अब्राह्मण कार्य नहीं करता, लेकिन यह बात बोबी के गले उतरती ही नहीं थी.

यह पिल्ला दिन-भर मेरे पीछे चक्कर लगाता था. रस्सी से बंधना उसे पसंद नहीं था. कोई बांधता तो छोटे-बच्चे की भांति क्रंदन करके रो पड़ता. मैं यह सुनकर दौड़ता हुआ आता और उसे छुड़ाकर उसके आंसू पोंछने बैठ जाता. रात को भी न जाने कहां से आकर वह मेरे बिस्तर में छिप जाता.

मैं बोबी को अपने साथ भड़ौंच ले गया, लेकिन वहां अनेक मुश्किलें खड़ी हो गयीं. वहां चपरासी नहीं थे इसलिए उसकी सारी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर आ पड़ी. सचीन में रसोईघर अलग था, इसलिए यह वहां तक नहीं जाता था, परंतु भड़ौंच में तो यह दालान से तुरंत रसोईघर में घुसकर ब्राह्मण के घर के चौके को अशुद्ध कर देता और रस्सी से बांधा जाता तो चिल्ल-पुकार मचाता.

तब मैं त्रिकाल संध्या करता था. नहाकर रेशमी लुंगी पहनकर मैं ऊपर महादेव जी की कोठरी में संध्या करने जाता तो मुझे दालान में होकर जाना पड़ता. उस समय बोबी मेरे साथ जाने के लिए हाथ-पैर पटकता. उसकी भयंकर चीखों से घर गूंजने लगता और उसके प्राण जाते देखकर मेरा हृदय फटने लगता. संध्या करूं या उसे चुप कराऊं इन दो बातों के निर्णय करने में मेरा मन उलझ जाता. दो-चार बार तो ऐसा हुआ कि वह रस्सी तोड़कर मुझे चाटने आ गया और मुझे फिर से नहाना पड़ा.

मेरी आत्मा ऊब उठी. यह रोज़ का झगड़ा था, इसलिए मैंने एक बार अत्यंत कठोर निर्णय किया. बोबी के बिना तो चल सकता था, परंतु अपवित्र होकर संध्या कैसे की जा सकती थी? पड़ोसी से मिलकर यह निश्चय किया कि बोबी को उसके बगीचे में भेज दिया जाय.

दूसरे दिन मैं उससे अंतिम बार मिला. दुःख से विदीर्ण होते हृदय की सिसकियों को रोककर मैंने उसकी आंखों के विश्वास को देखा. समस्त विश्व में अकेला मैं ही उसका आधार था. अपनी क्रूरता पर लज्जित होता हुआ मैं बोबी को लेकर अपने पड़ोसी के माली को दे आया. बोबी की आंखें मुझ पर लगी थीं. इस अप्रत्याशित वियोग से व्याकुल होकर उसने मेरे पास आने के लिए बहुत हाथ-पैर मारे. उसकी चीखों से मेरा हृदय फट रहा था. उसे लौटा लेने का मन हुआ परंतु यह भय लगा कि संध्या करने जाते समय वह मुझे रोकेगा, इसलिए मैं वहां से आंख मीचकर भागा. बहुत दिन तक रोज़ रात को मेरे कान में वे चीखें पड़ती सुनाई देतीं तो मैं बिस्तर में मुंह गड़ाकर बुरी तरह रोया करता.

आज का सूरत का सार्वजनिक स्कूल उस समय दि इंग्लिश स्कूल- ‘ढींगली’ स्कूल के नाम से विख्यात था. इस स्कूल में चुन्नीलाल मास्टर से पढ़कर मैंने डेढ़ वर्ष में पहले तीन दर्जे पास किये थे. बाद में मैं भड़ौंच के स्कूल में दाखिल हुआ.

जब मैं चौथे दर्जे में गया तब भंडारकर की संस्कृत-मार्गोपदेशिका का पहला पाठ पढ़ाया जा रहा था. मास्टर साहब ने पहले ही दिन पाठ के नीचे दिये हुए उपांत्य आदि भयंकर शब्दों से पूर्ण नियम रटने के लिए दिये. यह रटने का युग था. यह तो चल सकता था कि वाक्य समझ में न आवे, परंतु यदि एक भी शब्द बोलने से रह जाता तो छड़ी फटकारी जाती थी. मैंने परिश्रम करने में कोई कमी नहीं रखी. संस्कृत व्याकरण का रहस्य समझाने के लिए एक मास्टर रखा. गच्छामि, गच्छावः से सारा घर गुंजा दिया. संधि के सभी नियम तेज़ी से रटने लगा.

लाख प्रयत्न करने पर भी इन सबमें मेरी गति नहीं हुई. यों बाद में अनेक बार भंडारकर की पुस्तकें रटीं, परीक्षाएं दीं और अच्छे अंक प्राप्त किये. लेकिन पहले-पहल जो अरुचि हो गयी थी वह आज तक बनी है और इसके परिणामस्वरूप मेरा व्याकरण का ज्ञान नहीं के बराबर रह गया है.

कुछ वर्षों के बाद क्रिकेट के साथ मेरा सम्बंध हुआ. बैट, बॉल और स्टम्प्स लेकर मैं अपनी गली में खेलता था. भड़ौंच स्कूल में क्रिकेट खेलने जानेवालों को बीस अंक रोज मिलते थे, इसलिए इस लोभ के कारण मैं भी क्रिकेट का भक्त बन गया.

हम गांव के बाहर एक खेत में, जहां आज नाट्यशाला है, क्रिकेट खेलने जाते थे. इस खेत के आस-पास ऊंची-ऊंची इमलियां थीं, इससे उस स्थान का नाम ही ‘इमलिया’ पड़ गया.

दस वर्ष का मैं कोमल और नन्हा-सा बालक सबेरे डेढ़ मील चलकर स्कूल जाता और शाम को डेढ़ मील वापस आता. ठीक से खाना भी न खाता और बीस अंकों के लोभ से इमलियों में क्रिकेट खेलने जाता. यह मेरा स्वास्थ्य सुधारने का ढंग था. मुझे ‘बी’ टीम में रखा गया. बैट मेरे कंधे तक पहुंचता; मैं उसे बड़ी मेहनत से उठा पाता था. बॉल मेरे हाथ में नहीं आती थी और जब मैं बॉलिंग करता तो बॉल सामने के स्टम्प तक पहुंचते-पहुंचते थक जाती या इधर-उधर चली जाती. सामान्यतः मैं पहली या दूसरी बॉल में ही आउट हो जाता और कैप्टन मुझे दूर की ‘फील्डिंग’ देता. मैं दौड़ते-दौड़ते थक जाता, थककर पानी पीता और यह कठिन परिश्रम करके बीस अंक प्राप्त करता. मेरे लिए क्रिकेट खेल नहीं था, शिक्षा थी.

इस प्रकार मैंने तीन महीने शारीरिक शिक्षा प्राप्त की. इसमें मेरा शरीर क्षीण होने लगा और मुझे बुखार आ गया. परिणामस्वरूप पिताजी ने मुझे धंधुके बुला लिया और क्रिकेट के शौक को मैंने अंतिम प्रणाम किया.

1868-69 में धुंधका के तहसीलदार एक छोटे राजा के समान थे. वे जब राजपुर से बहली में बैठकर आते तो गांव के बड़े लोग एक गांव आगे से लिवाने के लिए आते. त्योहार और उत्सव के समय बड़ा भारी दरबार लगता. दशहरे के अवसर पर श्रीमान शमी पूजन के लिए जाते और आधा गांव सवारी में भाग लेता. वर्ष के अंतिम दिन तो शायद ही ऐसा कोई आदमी हो जो सलाम करने न आता हो.

यह माना जाता था कि यदि हाकिम लोग चाहें तो धंधुका में थोड़े ही दिनों में अच्छा पैसा पैदा कर सकते हैं. ऐसे ही एक मामले की जांच का काम पिताजी के सिर आ पड़ा था. गांव भी उस्ताद था वह. ऐसा था जो जांच करनेवाले की भी जांच करे. एक त्योहार को गांव के बड़े लोग मिलने आये. कोई फूल लाया, कोई नारियल दे गया. एक सेठ ने हार कलगी रखी और विदा ली. उसे उठाया तो देखा कि नीचे एक सोने की चूड़ी पड़ी थी.

पिताजी का मुंह लाल हो गया. उन्होंने सिपाही को आवाज़ दी और उस सेठ को बुलाया. वह हर्षित होता हुआ आया, लेकिन रायसाहब को देख कर कांपने लगा.

‘यह तुमने रखी है?’ कहकर पिताजी ने चूड़ी फेंक दी.

सेठ बगलें झांकने लगा.

‘उठाकर ले जाओ. खबरदार जो मेरे घर में पैर रखा तो!’

सेठ जीने से उतरकर चला गया और जब तक हम रहे, उसने हमारे यहां आने की हिम्मत नहीं की.

मेरे बहुत-से सहपाठियों ने तो राजपुर तक आकर रेल भी नहीं देखी थी, इसलिए उनके लिए मैं डेविड लिविंगस्टन जैसा साहसी यात्री था. स्कूल में मेरी गप्पों की बड़ी कीमत थी. लेकिन मैं पढ़ने में इतना कच्चा था कि रायसाहब के लड़के को आगे बढ़ाने की मास्टरों की भारी इच्छा के होते हुए भी  मैं अंतिम नम्बर से आगे न बढ़ सका. परिणाम यह हुआ कि मैं परीक्षा में फेल हो गया.

पिताजी गुस्सा हुए. मुझे धमकाया. हेडमास्टर से भी कहा. अंत में हेडमास्टर ने मेरी शिक्षा प्राइमर से शुरू की. दो महीनों में उनके कारण मुझे अंग्रेज़ी पढ़ने में अच्छी रुचि हो गयी. उन्होंने व्याकरण की अपेक्षा कहानियां पढ़वाकर मुझे अंग्रेज़ी पढ़ाना शुरू किया. मुझे अंग्रेज़ी पढ़ने का चस्का लग गया. मैं अंग्रेज़ी में निबंध लिखने लगा और दो महीने बाद परीक्षा लेकर मुझे पांचवे दर्जे में चढ़ा दिया गया. तब मैं अंग्रेज़ी में अद्वितीय समझा जाने लगा. इस पराक्रम के लिए पिताजी ने मुझे सर वाल्टर स्काट के चार-चार आने के आठ-दस उपन्यास भेंट किये.

गांधी मास्टर को मुझसे बड़ा प्रेम था. उन्होंने मेरी पढ़ाई तथा अन्य बातों में रस लेना शुरू किया. वे रोज शाम को घर आते और अंग्रेज़ी में बातचीत कराते. बी.एस.सी. में पढ़ते थे, लेकिन स्वयं अंग्रेज़ी में एक पुस्तक लिख रहे थे. उसके परिच्छेद मुझे पढ़कर सुनाते थे. मुझे भी वैसी पुस्तक लिखने का शौक हुआ.

इसी बीच हमारे स्कूल में पुरस्कार वितरणोत्सव हुआ. उसके लिए ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ के कोर्ट प्रवेश के प्रसंग खेलने का निश्चय किया गया. उस समय मेरा मस्तिष्क रंगमंच में डूबा रहता था. इसमें ड्यूक का पार्ट मुझे मिला. ड्यूक, पोर्शिया और बेसेनियो, शायलॉक और ऐन्टोनियो को सजीव करने के मैंने जो बाल-प्रयत्न किये थे उनकी मुझे कुछ-कुछ स्मृति है. साढ़े तीन बालिश्त का सूखी लकड़ी जैसा ड्यूक कमर पर हाथ रखकर स्थूल शरीरवाले पिता का अनुकरण करता हुआ मेज़ के सामने खड़ा था. ड्यूक से दो बालिश्त लम्बी पोर्शिया चांदी की, करधनी और लाल टोपी पहने तीव्र स्वर से ‘क्वालिटी ऑफ मर्सी’ की आवाज़ लगाने लगी. एक मोटा ऐन्टोनियो शायलॉक को दिये जानेवाले मांस का प्रदर्शन करने लगा. मैली धोती और फटा कोट पहने शॉयलॉक हाथ में लोहे की तराजू लिये बिना समझे ही
‘ए डेनियल केम टू जजमेंट’ की पुकार लगाने लगा.

लेकिन हम इस विचित्रता से अनजान रहे. शब्द, वाक्य और पात्र हमारे हृदय में नयी उमंगें उठा रहे थे. स्वप्न में रियोल्टो धंधुका के बाजार के रूप में आता था. मैं ड्यूक हूं, यह सोचकर मुझे प्रसन्नता हुई.

समारोह हुआ. मैं मेज़ के पास घबराया-सा खड़ा था. सभा आंखों के आगे चक्कर खाती हुई जान पड़ी. जितनी आवाज़ गले से निकल सकी उतनी से मैंने अपना पार्ट पूरा किया. यह पार्ट करने के लिए मुझे बारह आने की पुस्तकें पुरस्कार में मिली थीं. उनमें ह्यूगो की ‘हरनानी’ नामक पुस्तक भी थी. वह आज भी मेरे पास सुरक्षित है. बहुत-से लोग यह कहकर कि मैंने बड़ा अच्छा काम किया, पिताजी को खुश करने की कोशिश कर रहे थे.

गुजरात और भड़ौंच में प्लेग का प्रकोप हुआ. बड़े काका ने समझदारी से वैर भुलाने का रास्ता निकाला. अपने छोटे पुत्र अचुभाई को धंधुका भेज दिया. पिताजी खुश हुए- ‘चलो वर्षों का वैर मिटा.’ 

अचुभाई मुझसे दस-पंद्रह वर्ष बड़े होंगे फिर भी हम दोनों के बीच प्रगाढ़ स्नेह स्थापित हुआ. वर्षों से अपंग बनकर वे खाट पर पड़े थे और मैं वर्षों से उनसे मिल भी न सका था. लेकिन बिना भाई का मैं इनके द्वारा बड़े भाई वाला बना और खाट में पड़े रहने की अवस्था में पहुंचने की अवस्था में भी वे सदा इस छोटे भाई को आर्द्र हृदय से स्मरण करते थे.

धंधुका की अंतिम स्मृति तो ऊंट की  सवारी की है. यह याद नहीं कि ऊंट कैसा था. इतना अवश्य स्मरण है कि पिताजी के साथ किसी गांव में गया था. लेकिन इस अष्टावक्र की पीठ पर बैठने के लाभ का अनुभव तो आज भी कर सकता हूं.

हम सबेरे चार बजें के लगभग चले. एक वृद्ध ऊंट लापरवाही से चल रहा था. चारों ओर लालटेनों का उजाला था. पहले पिताजी बैठे, फिर मैं बैठा और इसके बाद वह उठा. मुझे पृथ्वी शेषनाग के मस्तक से गिरती दिखाई दी. उसके बाद वह चला. बहुत हिम्मत की, पर पिताजी को पकड़े बिना न रहा गया. उसकी गति से मैं चारों दिशाओं में- ऊंचे, नीचे, इस ओर और उस ओर- उछलता था. मुझमें इतना विचार करने की भी शक्ति नहीं रही कि मैं किसी क्षण भी नीचे गिर सकता हूं.

मेरा सिर चकराने लगा कमर भी फटने लगी.

‘पिताजी, यह कब रुकेगा?’

‘अरे, अभी तो बहुत देर है.’

मुझे लगा कि मैं अब इससे नीचे नहीं उतर सकूंगा.

यह लिख रहा हूं और वह भयंकर अनुभव ताज़ा हो रहा है. ऐसा आभास होने लगता है जैसे कोई चारों ओर प्रहार कर रहा है. उस सवारी के बाद कई दिन तक अंग-प्रत्यंग में जो दर्द और बेचैनी रही वह फिर होने लगती है. शरीर मानो वेदना से पूर्ण थैला बन जाता है और उसमें टूटी हुई हड्डियों की खड़खड़ाहट भी सुनाई देती है.

विधाता ने दुबारा इस प्राणी पर चढ़ना मेरे भाग्य में नहीं लिखा, इसलिए मैं उसका आभार मानता हूं.

1900 में पिताजी की बदली भड़ौंच जिले में डिस्ट्रिक्ट डिप्टी कलक्टर के रूप में हुई. इसलिए मैं गांधी मास्टर को साश्रु प्रणाम करके भड़ौंच हाईस्कूल में पांचवें दर्जे में दाखिल हुआ.

धंधुका में मैं प्रतिष्ठा के शिखर पर था. मेरे दर्जे में पांच या छः विद्यार्थी थे. उस पर भी मैं हेडमास्टर का लाड़ला और रायसाहब का लड़का था. भड़ौंच के दलाल हाईस्कूल के पांचवें दर्जे के ‘बी’ वर्ग में मेरा चौबीसवां नम्बर था. मेरे सभी सहपाठी मुझसे साधारणतः हाथ-भर ऊंचे और चार वर्ष बड़े थे. इस वर्ग में हमारी जाति के जो चार-पांच लड़के थे वे तो उनसे भी ऊंचे, बड़े और ऊधमी थे. छः महीने बीत जाने के कारण वे बहुत-से पाठ पढ़ चुके थे और मैं बिलकुल नया था. इस कारण शिखर से गिरकर मैं तो निर्जीवता के गर्त में गिर पड़ा.

हमारी जाति के रायजी मास्टर-वृद्ध, रौबदार, उग्र-भूमिति पढ़ाने आये. पढ़ाने में वे केवल इतना करते थे कि स्टीवन्स की भूमिति में से अक्षर-अक्षर बुलवाते थे और बोलने में यदि तनिक भी भूल हो जाती थी तो लड़कों को बुरी तरह डांटते थे. मैं धुंधका में टॉड हंटर की भूमिति पढ़ता था. उसकी भाषा स्टीवन्स की भूमिति की भाषा से भिन्न थी.

पहले दिन मुझे बोलने के लिए खड़ा किया गया. मैं अपनी पुस्तक के अनुसार ठीक बोलता जा रहा था कि रायजी मास्टर बोले- ‘ठहर, गलत है.’

‘नहीं मास्टर साहब! ठीक है’, धुंधका की आदत के मुताबिक मैं बोल उठा.

रायजी मास्टर गुस्से से मुझे घूरने लगे और ज़ोर से बोले- ‘लड़के, पुस्तक मेरे हाथ में है, तेरे हाथ में नहीं, फिर भी तू कहता है कि ठीक है! यदि मेरे हाथ में पुस्तक न होती तो तू मुझे कब का मार डालता. चल, बैठ जा. पांच मार्क्स माइनस.’

सारी कक्षा खिललिखाकर हंस पड़ी और मैं गौरवहीन होकर बैठ गया. मैंने क्या पाप किया था, इसका मुझे तनिक भी भान नहीं था.

दूसरा घंटा बजा. बादशाह मास्टर आये. ठिगने, बुड्ढे और दमा के- से मरीज़. वे थोड़ी-थोड़ी देर में हुलास से अपनी बुद्धि को तेज़ करते और मेज़ के खाने में रखे हुए काजू खाते जाते.

‘नया लड़का!’ उन्होंने कहा.

‘यस सर!’ मैं खड़ा हो गया.

‘कविता की कौन सी पुस्तक पढ़ते थे?’

‘वर्ड्स फ्रॉम दि पोयट्स’

‘यहां यह नहीं चलेगी. क्या समझे? अपने बाप से कहना कि ‘पोप्स होमस आलियड’ मंगाकर दें.’

‘अच्छा साहब.’ परंतु पुस्तक का नाम ठीक-ठीक नहीं सुनाई दिया, इसलिए मैंने जो कुछ सुना था उसे दुबारा कहा- ‘पोप्स होमस आयलड?’

‘क्या कहा? इतना भी नहीं जानता? बिलकुल ठूंठ है. बेंच पर खड़ा हो जा.

मैं खड़ा हो गया. मुझे आश्चर्य है कि मैं उस समय रो क्यों न पड़ा. लेकिन धीरे-धीरे समझ आने लगी. कुछ ही दिनों में बादशाह मास्टर का प्रिय बन गया.

बादशाह मास्टर अपने को भारी संगीतज्ञ मानते थे. एक बार वे मुझसे क्लास में ‘निंददंतु नीतिनिपुणा यदि वा स्तवंतु’ गवा रहे थे कि वर्षा होने लगी.

‘देखा लड़के! तूने मल्हार गा डाली, नहीं तो वर्षा आती ही कैसे? क्या समझा?’

गणेश बच्चाजी सप्रे नाम के एक महाराष्ट्रीय मास्टर मुझे घर पढ़ाने के लिए आते थे. उनकी मेहनत से मैं पांचवें दर्जे से छठे में पहुंच गया और मेरी गिनती पहले पांच-छः लड़कों में होने लगी. अपनी जाति के लड़कों के साथ मैं शैतानी नहीं कर सकता था, इसलिए वे मुझे घृणा की दृष्टि से देखते थे. मैं ‘लड़की हूं’, ‘डरपोक हूं’ आदि भांति-भांति की बातें वे मेरे लिए कहते. उनमें से एक ने मुझे सलाह दी थी- ‘भार्गव का कोई लड़का मैट्रिक नहीं होता और मेरे पिता डिप्टी  कलक्टर हैं, इसलिए मुझे म्यूनिसिपैलिटी में चुंगी की चौकी के मुन्शी की नौकरी कर लेनी चाहिए, नहीं तो पीछे पछताना पड़ेगा.’

पुराने मित्रों में मुझे क्रिकेट सिखानेवाला मगन साथ था, परंतु हमारी मित्रता अधिक नहीं टिकी. जिस समय मास्टर पढ़ाया करता उस समय वह कागज़ के टुकड़ों की गोली बनाकर मित्रों की ओर फेंकता. मास्टरों में उसे दंड देने की हिम्मत नहीं थी, मगन भी न्यायी था. वह मित्रों से भी बदले में गोली फेंकने की आशा करता था. वह मेरी ओर सदैव गोली फेंकता और शाम को रोज़ मुझे इस बात का उपालम्भ देता कि मैं गोलियां क्यों नहीं फेंकता. एक बार मैंने बड़ी हिम्मत करके एक गोली बनाकर मगन की ओर फेंकी. गोली उस तक न पहुंचकर उसके पैरों के आगे गिरी.

मास्टर ने मुझे झट पकड़ लिया.

‘क्यों रे कनु! क्या तू भी बिगड़ गया? गोलियां फेंकता है? खड़ा हो जा!’

मैं नीचा मुख करके खड़ा हो गया. मेरे साथ ही मगन भी खड़ा हो गया.

‘मास्टर साहब! गोली उसने नहीं मैंने फेंकी थी. वह गोली मैंने वापस मांगी थी, इसलिए उसने मेरी ओर फेंक दी.’

‘अच्छा! तू भी खराब लड़का है?’

‘जी साहब!’ मगन ने कहा.

‘तो तू भी खड़ा हो जा.’

‘साहब, मैं खड़ा नहीं हूंगा.’

‘क्यों?’

‘मैं बहुत बड़ा हूं, इसलिए बेंच पर अच्छा नहीं लगूंगा?’

‘नहीं खड़ा होता- नहीं खड़ा होता? तेरे मार्क्स काट लूंगा.’

‘साहब, मुझे इस सप्ताह मार्क्स ही नहीं मिले.’

‘अच्छा, अच्छा! कनु! तू बेंच पर खड़ा हो जा. चल खड़ा हो!’

मगन अपनी जगह बैठा रहा; मैं चुपचाप बेंच पर खड़ा हो गया और मगन के साथ होड़ न करने की कसम खा ली.

दलपतराम के साथ भी मेरी मित्रता तभी हुई. वे हमारी जाति के थे. उनके पिता टीले पर हमारे सामने ही रहते थे, हमारे महादेव की पूजा करते थे और अधुभाई काका के सामने महाभारत बांचते थे.

जब मैं अंग्रेज़ी के पांचवें दर्जे में सूरत आया तब दलपतराम का चौथे दर्जे में पहला नम्बर था. शुरू से लगाकर किसी भी दर्जे में वे पहले नम्बर से नीचे गिरे हों, ऐसा कोई नहीं कह सकता. वे एक पैसे की पेंसिल लाते और साल-भर तक चलाते. उनकी नोटबुकें तो ऐसी थीं मानो उनमें मोती के दानों से चौक पूरे गये हों. उनकी किताबों पर कोरा कागज़ चढ़ाया होता था.

मैं पांचवें दर्जे में पास हुआ और वे पांचवें दर्जे में आये. तब से हर वर्ष मेरी किताबों पर उनका कब्जा होता रहा. लेकिन मेरी चाहे जैसी रखी हुई किताबें आठ दिन में नये सिरे से सी जातीं और उनकी जिल्दबंदी की जाती. उन पर पड़े हुए धब्बे मिट जाते और उन पर नया सुंदर पुट्ठा चढ़ाया जाता.

बहुत बार जब हम साथ बैठते तब भी वे चुप न बैठते. वे मेरी बिना छिली पेंसिलों को छील डालते. मेरे द्वारा डाले हुए धब्बों को मेरी ही इस्तेमाल न की हुई रबर से मिटा डालते, मेरी फटी हुई किताबों का जीर्णोद्धार करते. चीज़ को ठीक से न रखने की मेरी आदत की ज़िम्मेदारी दलपतराम के स्नेह  पर है.

सरदी के मौसम में हम प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में घूमने जाते. हम अरुण के तेज़ से रास्ता तय करते, चक्की पीसती त्रियों का संगीत सुनते, ठंडी हवा की सरसराहट से हमारे दांत कटकटाने लगते और नाक ऐसी सुन्न हो जाती जैसे हो ही न. शहर के बाहर जाते हुए, पक्षियों का कल्लोल आनंद की सृष्टि करता था. हम दूर जाकर किसी गांव के तालाब पर या कुंए की जगत पर बैठते. चारों तरफ खेत फैले हुए दिखाई देते थे, जो हिलते हुए पौधों से नाचते-से दिखाई देते थे. पृथ्वी की नयी ताजी सुगंध चारों ओर फैलती और हम उसका उपभोग करते. जब उगते सूर्य का बिम्ब सुरम्य रेखा को स्वर्णमयी बना देता तब हम वापस लौटते. हमारी दृष्टि सर्जनकाल के तीव्र सौंदर्य को धारण करती जान पड़ती.

इस प्रकार घूमते-घूमते हम हवाई किले बनाते. यदि सच पूछा जाय तो किले बनाता मैं और उनका वर्णन सुनते दलपतराम.

दलपतराम ने मुझे पुरुषसूक्त पढ़ाया और मैंने उन्हें कहानियां सुनायीं. समयानुसार कॉलेज में जाने से पहले ही मैंने कॉलेज में जाने की तैयारी कर डाली थी. लेकिन इस विषय में मेरी अपेक्षा दलपतराम की उत्सुकता विशेष थी. मेरे एक वर्ष बाद वे कॉलेज में आये और वहां भी मेरी देखभाल की ज़िम्मेदारी उन्होंने ले ली. वर्षों हो गये, जब से मैं बम्बई आया तब से लगाकर उस समय तक जब तक कि मैं और वे काम-धंधे में लगे, उन्होंने मेरे लिए आवश्यक सुविधाएं जुटायीं. उन पर आश्रित रहने की मेरी आदत इतनी पक्की हो गयी कि मुझे कमरा न मिले, कहार न मिले, रसोइया भाग जाय, कुछ अच्छी व्यवस्था की आवश्यकता पड़े, कोई मुश्किल आ खड़ी हो तो मैं उनके पास दौड़ा जाऊं और वे तुरंत उस काम को कर दें.

इन चालीस वर्षों में हमने अनेक सुख-दुःख देखे हैं. लेकिन हमारा स्नेह जैसा था वैसा ही रहा है. एक छोटे-से झगड़े से भी उसका प्रकाश मंद नहीं हुआ. इन सबका श्रेय भाई दलपतराम के सरल और स्नेही स्वभाव को है.

 दलपतराम का जीवन आदर्शमय है. जब उन्हें अपने सेवा-भाव का ही ख्याल नहीं तो गर्व कहां से हो सकता है. वे अत्यंत गरीबी में पले थे और वैदिक कर्मकांड जानते थे. इसलिए कभी-कभी दूसरों के यहां कर्मकांड कराने चले जाते थे. उनका पहनना, खाना और रहना तंगी की अंतिम सीमा तक पहुंचा हुआ था तो भी वे पढ़ने में कभी पीछे नहीं रहते थे.

कॉलेज में गये तो भी पिता के मित्रों के नाममात्र के सहारे पर. उन्होंने शुरूआत में स्कॉलरशिप और दूसरों की पुस्तकों से काम चलाया.

जीवन-विकास के लिए अत्यंत भगीरथ प्रयत्नों को करने पर भी उन्होंने अपने स्वभाव की अनन्य सरलता कभी नहीं खोयी. बाधाओं के आने पर न तो वे कभी घबराये हैं और न कभी अकुलाये हैं. उन्हें कभी इस बात का भी ख्याल नहीं आया कि वे कुछ असाधारण कार्य कर रहे हैं. न कभी उन्होंने किसी से ईर्ष्या की है और न असंतोष का ही अनुभव किया है.

जैसे वे बचपन में हंसते थे वैसे ही आज भी हंसते हैं.

वे जहां गये वहां सेवा करते ही रहे हैं. अकेले मुझे ही नहीं, अनेक मित्रों को भी उन्होंने कृतज्ञ बना दिया है. उन्होंने थोड़ी-सी तनख्वाह पर मास्टरी करके कितने ही निराश्रित बालकों को पाला है, पढ़ाया है, काम पर लगाया है. उन्होंने न तो कभी यह सोचा है कि उन्होंने किसी के साथ भलाई की है और न कभी किसी की कृतघ्नता से अपनी सेवावृत्ति को मंद होने दिया है.

उन्होंने अनेक वीरतापूर्ण कार्य किए हैं. उन्होंने आडम्बर से रहित होकर धैर्यपूर्वक सेवा की है- श्वास-क्रिया की भांति नैसर्गिक सरलता से. उन्होंने अनेक संकटों का सामना करते हुए जीवन का भार वहन किया है- फूलों से क्रीड़ा करने की भांति.

इस बीच पर्याप्त उन्नति कर लेने वाली बांकानेर कम्पनी हर वर्ष रुई की फसल के समय भड़ौंच आने लगी. जापानी व्यापारियों के भड़ौंच की रुई के व्यापार में हाथ डालने से पहले आधा भड़ौंच रुई की फसल पर जीता था. तीन महीने कुछ तुलाई करते, कुछ दलाली करते और कुछ जमादारी करते और इन तीन महीनों की कमाई से बाकी के नौ महीने चैन से गुज़ारते. इन तीन महीनों में पैसे की रेल-पेल होती, थके हुए मन आनंद खोजते और बाहर से भी लोग रुई लेने या बेचने आते, इसलिए नाटक वालों को अच्छी आमदनी होती थी.

उस समय भड़ौंच में नाटक कम्पनी चलाना मुश्किल काम था. हर हाकिम को जितने चाहिए उतने पास भेजने पड़ते थे. पुलिस वाले तो पास पर जीते ही थे. फिर गांव में कुछ ऐसे थे, जिनको यदि नाटक वाले न रिझाते तो नाटक एक दिन भी न हो पाता.

उस समय नाटक रात के साढ़े नौ बजे शुरू होते और सबेरे पांच बजे खत्म होते. अच्छे गानों पर नौ-दस बार ‘वन्स मोर’ होती और यदि न होती तो नाटक दो कौड़ी का समझा जाता. उसके बाद ‘वन्स मोर’ वाले गाने गली-गली गाये जाते.

मैं प्रति वर्ष तीन महीने तक बांकानेर के बाल नटों के सम्पर्क में रहता. बाल नट कैदी-जैसे थे. उनको महीने में तीन-चार रुपये तनख्वाह मिलती और कभी-कभी चाबुक की मार खाकर उन्हें राजा-रानी बनना पड़ता. किसी बाहर के आदमी के साथ बोलने की भी उन्हें छूट न थी; लेकिन मैं तो कम्पनी के सरताज का पुत्र था और उसमें भी डिप्टी कलक्टर का, इसलिए मुझे उनसे मिलने में कोई रुकावट नहीं थी. मैं रोज़ नाट्यशाला में जाता, नाटक की तैयारी देखता या कुछ छोटे खिलाड़ियों के साथ बैठकर गप्पें मारता. रंगमंच के वातावरण में जादू भरा लगता और मैं रात-दिन इसी विचार में डूबा रहता कि यदि सदा को इन मित्रों के साथ रहने का अवसर मिल जाता तो कितना अच्छा होता. किसी दिन उनके साथ रहना पड़े तो मैं नाटक में पार्ट कर सकूंगा या नहीं, यह देखने के लिए मैं घर आकर अकेला अलग-अलग पात्रों का अभिनय करता.

एक बार बांकानेर नाटक कम्पनी का नया नाटक ‘जगतसिंह’ आया. बंगला के उपन्यासकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की प्रसिद्ध कृति ‘दुर्गेशनंदिनी’ के आधार पर वह लिखा गया था. उसमें तलवार की पटेबाज़ी हद दे गगज्यादा थी. दरबारों का ठाट भी अपने उचित स्थान पर दिखाई देता था. वेश्याओं का नृत्य भी था. गरबा भी था और साथ में विदूषक था; उसकी त्री की चुहलबाजियां भी थीं. कुछ दिन तक इस नाटक ने गुजराती जनता को आत्म-विभोर कर दिया. बम्बई में भी ‘जगतसिंह’ ने बड़ी ख्याति पायी.

यह नाटक मैंने कितनी ही बार देखा होगा. एक-एक संवाद और गीत मुझे ज़बानी याद हो गये थे. मैं दिन-भर उसके गीतों को गाता रहता और रात को नींद में उसके स्वप्न देखा करता.

‘जगतसिंह’ की नायिका का पार्ट आठ-नौ वर्ष का एक लड़का करता था. उनका कंठ सुरीला था.

‘मेरे परम पिता! करुणा कर सुनना विनती मेरी।

जगत बिना कुछ नहीं जगत में

जगत है जीवन सार रे

पैदा हुई जगत में पाने

जगतसिंह भरतार रे।’

वह गाता-या गाती- तो मेरा हृदय कंठ में आ जाता.

और जब वह ललकारता…

‘दुनिया में देखा न किसी ने अद्भुत प्रेम किनारा’ तो मेरे नन्हे-से दिल से आह निकल जाती. यदि मैं विलायत में पैदा हुआ होता और वल्लभ विलायती नटी होता तो मैं रोज़ हाथ में फूलों का गुच्छा लेकर नाट्यशाला के पिछले दरवाज़े पर हाज़िर हो जाया करता.

जगतसिंह मेरी भावनामूर्ति था. घोड़े पर बैठकर पर्वतों को पार करके मनोहर सुंदरी के दर्शन करना, चुपचाप उसके पिता के गढ़ में जाकर उसे प्रणय का पाठ पढ़ाना, दुश्मन पकड़ने के लिए आवें तो अकेले ही अभूतपूर्व पराक्रम दिखाना और अंत में सब कुछ सहकर मनचाही प्रियतमा पाना- मेरी सृष्टि में उस समय इससे अधिक अपूर्व जीवन के लिए स्थान न था.

जहां तक मुझे याद है, दूसरे वर्ष इस मंडली ने मिसिज़ हेनरी वुड के उपन्यास का रूपांतर ‘एक संसारी सावित्री’ प्रस्तुत किया. हमारे रंगमंच पर सामाजिक नाटक खेलने का यह सफल प्रयास था. वल्लभ सावित्री बना, जगतसिंह उसका पति बना. अब ऐतिहासिक जीवन समकालीन हो गया. मैं इस नाटक में भी तन्मय हो गया.

सावित्री को उसका प्रियतम सम्बोधित करते हुए कहता-

‘विद्या पढ़, बनकर चतुर, प्रिय आऊंगा पास।’

सावित्री विश्वास दिलाती-

‘प्रभु मिलायंगे, है मुझे यह पक्का विश्वास।’

एक गीत नायक और नायिका दोनों मिलकर गाते. उसकी कुछ पंक्तियां तो आज भी मेरे हृदय में रम रही हैं-

‘अच्छा बुरा न कुछ प्रेमी को, धन औ’ धूल समान।

स्वर्ग-नरक को एक समझता, सुख दुख भी हैं एक,

शत्रु-मित्र कोई न जगत में, सदा प्रेम की टेक।

इन पंक्तियों में उस समय जो आकर्षण था वह वर्णन नहीं किया जा सकता. मैं ऐसी पंक्तियां दिन-भर गाता रहता था, परंतु संगीत के शौक द्वारा मेरे अविकसित हृदय की उमंगे व्यक्त हो जाती थीं. इन पंक्तियों और उठती हुई उमंगों के साथ मैं हंसता, रोता और किसी काल्पनिक सहचरी को पुकारता.

तीसरे वर्ष ‘बांकानेर कम्पनी’ ने ‘नरसिंह मेहता’ नामक नाटक का अभिनय करके गुजराती रंगमंच पर भक्तियुग को अवतरित किया.

छोटा त्र्यंबक ‘शिवाजी’ में ‘शिवाजी’ का ‘जगतसिंह’ में ‘वीरेंद्र’ का और ‘शैलबाला’ में ‘चंद बारोट’ का अभिनय करता. लेकिन ‘नरसिंह मेहता’ का अभिनय करके तो उसने अभिनय कला की पराकाष्ठा कर दी.

‘मुझे सदा राजा बनने की आदत थी इसलिए पहले तो मेरे पैर कांपे, बाद में उसने मुझसे कहा था, ‘लेकिन जैसे ही मैंने नरसिंह का अभिनय करना आरम्भ किया वैसे ही सांवलिया ने मेरे हृदय में वास किया.’

‘नरसिंह मेहता’ का अभिनय करने से उसकी गर्वीली मुख-मुद्रा भक्तिविह्वल बन गयी और उसके प्रतापपूर्ण अभिनय में दीनता आ गयी; उसका क्रूर हास्य स्नेहाभिलाषी बन गया और उसमें से चारों ओर सरल हृदय की सरस तरंगें प्रसारित होने लगीं; उसकी आंखों में भक्ति का नशा छा गया. हाथ में खड़ताल लेकर, दैन्य-भाव से मुख ऊंचा करके, आंसू-भरी आंखों से वह करुण स्वर में प्रार्थना करता-

‘हाथ पकड़ कर छोड़ न देना ओ मेरे सांवरिया!’ सांवलिया को सर्वस्व समर्पित करने वाले भक्तश्रेष्ठ के व्यक्तित्व से विस्तृत जादू चारों ओर व्याप्त हो जाता और प्रेक्षकों के हृदय में भक्ति-भाव उमड़ने लगता. आज भी मेरी कल्पना नरसैंया का जो चित्र बनाती है वह छोटे त्र्यंबक के रंगों से ही पूर्ण होता है.

कई वर्ष पहले जब वह बड़ौदा में सख्त बीमार था मैंने उसे नये रूप में देखा. उसने सांवलिया के साथ स्नेह सम्बंध स्थापित कर लिया था और अपने उस ‘प्यारे’ को रटते-रखते ही उसने शरीर-त्याग किया था.

भक्ति का मूल जातीय आकर्षण में खोजने वाला मैं आज भी इस दृष्टांत से भक्ति की प्रबलता का अनुमान लगा सकता हूं.

नाटक के पर्दे के पीछे की सृष्टि के प्रति मेरा आकर्षण अब और भी तीव्र हो गया. खिलाड़ियों की हलचल, पर्दों और दृश्यों की योजना करने वाले मज़दूर, दौड़-धूप करते हुए जमादार, लटकती हुई दाढ़ी को हाथ से पकड़े हुए बुड्ढों के वेष में सुसज्जित जवान, पैरों में अड़ने के डर से तलवार को दो-दो हाथ ऊंचा उठाए फिरने वाले रंगमंच के सूरमा, धोतियों का कछोटा मारे रुई के गाले वाली चोली पहने, आंखों में स्याही का काजल लगाये, सुतली जैसे काले बालों की चोटियों वाले, नंगे सिरों से इधर-उधर फिरने वाले विचित्र प्राणी-यदि ब्रह्मा भी ऐसी सृष्टि की रचना करने बैठते तो उन्हें भी कठिनाई का सामना करना पड़ता.

(क्रमशः)

जून  2013 

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