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महाभारत जारी है – नवनीत हिंदी http://www.navneethindi.com समय... साहित्य... संस्कृति... Fri, 23 Sep 2016 10:37:13 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.8 http://www.navneethindi.com/wp-content/uploads/2022/05/cropped-navneet-logo1-32x32.png महाभारत जारी है – नवनीत हिंदी http://www.navneethindi.com 32 32 दिसम्बर 2012 http://www.navneethindi.com/?p=762 Wed, 17 Sep 2014 11:04:39 +0000 http://www.navneethindi.com/?p=762 Read more →

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Dec 2012 Cover 1 & 4 FNLक्षमा करने का अर्थ है हम कथित अपराध करने वाले को न केवल कोई सज़ा नहीं देना चाहते हैं, बल्कि उसे सुधरने का एक मौका भी देना चाहते हैं. पर क्षमा का अर्थ एवं महत्त्व यहीं तक सीमित नहीं है. शेक्सपियर ने दया को दुहरे गुण वाला  हथियार बताया था- दया के पात्र और दया करने वाले, दोनों को दया का लाभ मिलता है. क्षमा भी ऐसा ही अत्र है. क्षमा पाने वाला ही नहीं, क्षमा करने वाला भी इससे लाभान्वित होता है– क्षमा पाने वाले को सुधरने का मौका मिलता है और क्षमा करने वाले को अपने मनुष्य होने  को सार्थक करने का एक अवसर. क्षमा करना आसान काम नहीं है, इसी तरह क्षमा मांगना भी आसान नहीं होता है. बहुत बड़ा नैतिक साहस चाहिए व्यक्ति में यदि वह ईमानदारी से क्षमा मांग रहा है. जैन धर्म में तो क्षमा मांगने को पर्व का रूप दे दिया गया है. क्षमा मांगना भी पुण्य है, क्षमा करना भी.

 

कुलपति उवाच

तोड़ दो वह कड़ी
के. एम. मुनशी

शब्द-यात्रा

कथा पहुंची कहानी से उपन्यास तक
आनंद गहलोत

पहली सीढ़ी

क्षमा करना
रवींद्रनाथ ठाकुर

आवरण-कथा

सम्पादकीय
छमा बड़न को चाहिए…
गंगा प्रसाद विमल
परिक्रमा नहीं, यात्रा है क्षमा
नर्मदा प्रसाद उपाध्याय
क्षमा तो स्वयं से भी मांगनी होती है!
हुकमचंद भारिल्ल
क्षमा की भारतीय अवधारणा
आनंदप्रकाश दीक्षित
भीष्म को क्षमा नहीं किया गया!
हजारीप्रसाद द्विवेदी
वह बापू से क्षमा मांगने आया था
मनु गांधी
चेतना के प्रवाह को उलटना होगा
आचार्य महाप्रज्ञ

मेरी पहली कहानी

केंचुल
शालिग्राम

60 साल पहले

महापुरुषों के अतृप्त सपने
नागोची

आलेख

पर्यावरण और सनातन दृष्टि
छगन मोहता
उपनिषद पढ़ते हुए
इला कुमार
इसके अलावा और लिख भी क्या सकता हूं?
मो यान
झारखंड का राज्यवृक्ष- साल
डॉ. परशुराम शुक्ल
कच्चे रास्तों…
अमिताभ मिश्र
एक अप्रतिम जीवन का नाम है बाबा आमटे
सुरेश द्वारशीवार
वर्तमान की तलछट
ओम थानवी
किताबें

महाभारत जारी है

विदेशनीति
प्रभाकर श्रोत्रिय

व्यंग्य

शुक्र है आज नहीं हुए ग़ालिब और कबीर
शशिकांत सिंह ‘शशि’

कविताएं    

प्रभु उसे क्षमा करो   
गैब्रिएला मित्राल
दो कविताएं    
हूबनाथ
अविस्मृत      
शरद रंजन शरद

कहानियां

जागरण (लघुकथा)
दुर्गाशंकर राय
चेहरा
हाइनरिश बायल
मिसेज़ रोशन का वंडर डॉग
मनीष कुमार सिंह

समाचार

भवन समाचार
संस्कृति समाचार
 

 

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अगस्त 2012 http://www.navneethindi.com/?p=742 Wed, 17 Sep 2014 09:28:01 +0000 http://www.navneethindi.com/?p=742 Read more →

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August 2012 Cover 1 & 4आज़ादी की लड़ाई के दौरान भारतमाता की जय का नारा लगाने वाले युवाओं से जवाहरलाल नेहरू ने एक बार पूछा था, यह भारतमाता है क्या? फिर स्वयं ही इसका उत्तर भी दिया था उन्होंने- इस देश की करोड़ों-करोड़ें जनता ही भारतमाता है, इसलिए भारतमाता की जय का अर्थ इस जनता की जय है. फिर उन्होंने जनता की जय का अर्थ भी समझाया था- जनता की जय का मतलब होता है, जनता के सपनें, आशाओं, आकांक्षाओं की पूर्ति. मुझे लगता है जो कुछ नेहरू ने भारतमाता के संदर्भ में कहा था, वही सब भारत पर भी लागू होता है. आसेतु हिमालय और असम से राजस्थान तक फैला भू-भाग भारत का ही नक्शा बनाता है, लेकिन इस नक्शे में यदि देश की जनता का रंग नहीं भरा गया तो निष्प्राण रहेगा यह नक्शा. देश की जनता की आशाओं-आकांक्षाओं, सपनों-संकल्पों के रंग ही इसे एक जीवंत राष्ट्र बनाते हैं. देश की 120 करोड़ जनता ही इस देश की परिभाषा है.

देश का इतिहास, देश की भाषाएं, देश की संस्कृति, देश का अतीत, देश के आदर्श और मूल्य, इन सबका महत्त्व अपनी जगह है. उसे नकारना या कम आंकना गलत होता. लेकिन हमारा वर्तमान और उसके आधार पर बनने वाला भविष्य ही हमारे होने को अर्थ देगा, हमारी परिभाषा को सार्थक बनायेगा.

 

कुलपति उवाच

ईश्वरपद तक चढ़ना होगा
के. एम. मुनशी

शब्द-यात्रा

 ‘पात्र’ बर्तन से लेकर रंगमंच तक
आनंद गहलोत

पहली सीढ़ी

यह नहीं मेरी विनय
रवींद्रनाथ ठाकुर

आवरण-कथा

सम्पादकीय
मर-मर कर जीता है मेरा देश
रमेश नैयर
भारत की शक्ति का अमृत स्रोत
कैलाशचंद्र पंत
हम समझना ही नहीं चाहते
विष्णु नागर
एक व्यापक सांस्कृतिक इकाई
सच्चिदानंद जोशी
कैरियर या राष्ट्र
प्रेम जनमेजय
कुमारस्वामी का भारत चिंतन
विद्यानिवास मिश्र
मेरी पहली कहानी
उसका आकाश
राजी सेठ

60 साल पहले

आप भाग्य पर नाराज़ क्यों हैं?
सुधीर माणिक्य

आलेख

भूमंडलीय यथार्थ और साहित्यकार की प्रतिबद्घता
रमेश उपाध्याय
‘मेरी कविता को बात करने का समय दें’
भगवत रावत
इस अगाध में होऊं मैं बस बढ़ते ही जाने का बंदी
रमेशचंद्र शाह
सौ साल पहले हुई थी ‘भारत-भारती’ की रचना
मैथिलीशरण गुप्त
शिक्षा का अधिकार
होमी दस्तूर
राजस्थान का राज्यवृक्ष- खेजड़ी
डॉ परशुराम शुक्ल
‘कृष्ण’ होने का अर्थ
डॉ दुर्गादत्त पाण्डेय
हिरोशिमा का दर्द
तोमोको किकुचि
किताबें
महाभारत जारी है
आदि विद्रोही
प्रभाकर श्रोत्रिय

व्यंग्य

भारत की उलटबांसी
यज्ञ शर्मा

धारावाहिक उपन्यास

कंथा (छब्बीसवीं किस्त)
श्याम बिहारी श्यामल

कविताएं

भारतवर्ष
इब्बार रब्बी
प्रकृति
विशाल त्रिवेदी
दो गीत
नंद चतुर्वेदी
दो ग़ज़लें
सूर्यभानु गुप्त

कहानियां

कसक
विमला मल्होत्रा
सार्थकता (बोधकथा)
बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’

समाचार

भवन समाचार
संस्कृति समाचार

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जुलाई 2012 http://www.navneethindi.com/?p=737 Wed, 17 Sep 2014 08:44:25 +0000 http://www.navneethindi.com/?p=737 Read more →

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संस्कृति क्या है? इस प्रश्न का सीधा-सा उत्तर हैः वह सब जो मानवीय जीवन को उच्चतर मूल्यों-आदर्शों से जोड़ता है, उसे संस्कारित करता है, वही सब संस्कृति को भी परिभाषित करता है. संकीर्णताओं से उबरकर एक व्यापक फलक पर जीवन की सार्थकताओं को समझने की कोशिश ने ही मनुष्य को संस्कारित किया है और यही संस्कारित स्थिति संस्कृति है. लेकिन संस्कृति  यह स्थिति मात्र नहीं है, यह जीवन के बेहतर होने, उसे बेहतर बनाने की प्रक्रिया भी है और साधन भी.
हमारे आधुनिक जीवन की एक विसंगति यह भी है कि हम कुल मिलाकर एक आस्थावान जीवन जीने के बजाय एक यांत्रिक-सा जीवन जी रहे हैं और इसी के चलते जीवन में एक अनास्था और अर्थहीनता घर करती जा रही है. एक उपभोक्तावादी अपसंस्कृति हावी होती जा रही है हम पर. यही है वह सांस्कृतिक संकट जो मनुष्य को, मनुष्य-जीवन को मानवीय मूल्यों से विरत कर रहा है. अपने अपने टापू बना लिये हैं हमने. वैयक्तिकता और सामूहिकता दोनों ही के अर्थों में हम अपने इन टापुओं की सीमाओं के बंदी बनते जा रहे हैं. यदि इस समूह की परिभाषा में मनुष्य मात्र आ जाते, तब तो कोई संकट नहीं था, लेकिन विडम्बना यह है कि स्वयं को मनुष्य कहते हुए भी हम जातियों, वर्णों, वर्गों में बंटकर एक विभाजित जीवन जीने के लिए जैसे अभिशप्त हो रहे हैं.

 

 

कुलपति उवाच

व्यक्तित्व का विकास
कनैयालाल माणिकलाल मुनशी

शब्द-यात्रा

आंख से ‘चश्मा’ का दीदार
आनंद गहलोत

पहली सीढ़ी

आमंत्रण
नबारुण भट्टाचार्य

आवरण-कथा

सम्पादकीय
संस्कृति के आयाम
विजय किशोर मानव
सभ्यताओं के संकट, संस्कृति की बलि
गंगा प्रसाद विमल
संस्कृति है क्या?
रामधारी सिंह ‘दिनकर’
हमारे पास न पुराने आदर्श हैं न नये
जवाहरलाल नेहरू
भारतीय संस्कृति की देन
हजारीप्रसाद द्विवेदी

मेरी पहली कहानी

फैसला फिर से
मधु कांकरिया

साल पहले

एक अनोखा सपना
वि स खांडेकर

आलेख

कुछ मौलिक योगदान ही सत्साहित्य की कसौटी है
डॉ रामशंकर द्विवेदी
अकेला छूट गया था नीली रोशनी के देश में
वीरेंद्र कुमार जैन
विराट आकाश वाला धार्मिक मन
जे. कृष्णमूर्ति
मेरी मां ने मुझे प्रेमचंद का भक्त बनाया
मुक्तिबोध
गो, किस द वर्ल्ड
सुब्रतो बागची
एक सदेह गीत
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
देवताओं का वृक्ष- देवदार
डॉ परशुराम शुक्ल
एक नयी उड़ान
मंजुल भारद्वाज
सच्चा कवि कौन?
काका कालेलकर
किताबें

महाभारत जारी है  (भाग-2)

इंद्रप्रस्थ ऐसे ही बसते हैं !
प्रभाकर श्रोत्रिय

व्यंग्य

अपना व्यंग्य तुलवाइये
सत्यपाल सिंह ‘सुष्म’

धारावाहिक उपन्यास

कंथा (पच्चीसवीं किस्त)
श्याम बिहारी श्यामल

कविताएं

दो कविताएं   
हृदयेश भारद्वाज
गीत   
राजनारायण चौधरी
मैं गीत…   
चंद्रसेन विराट
दो कविताएं   
दामोदर खड़से

कहानियां

बाज़ार      
ममता कालिया
पीढ़ियां
डॉ. परदेशी वर्मा

समाचार

भवन समाचार
संस्कृति समाचार

आवरण चित्र

चरन शर्मा

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