टी.वी. हमेशा की तरह चल रहा था. मैं देख भी रहा था, नहीं भी देख रहा था. सुन भी रहा था, नहीं भी सुन रहा था. अचानक एक वाक्यांश कानों से टकराया. लगा जैसे वह कानों में ही थम गया है. जैसे कोई मनपसंद चीज़ खाने के बाद देर तक उसका स्वाद मुंह में घुलता रहता है न, वैसे ही गूंजता रहा वह वाक्यांश मेरे भीतर. किसी कार्यक्रम की रिपोर्ट थी शायद. उद्घोषक ने कहा, ‘फिर हज़ारों तितलियां हवा में उड़ा दी गयीं…’ आगे क्या कहा, मुझे सुनाई नहीं दिया. हज़ारों तितलियों वाली बात सुनते ही मुझे लगा जैसे मेरा कमरा तिललियों से भर गया है. रंग-बिरंगा हो गया है. बहुत देर तक रंग बिखरे रहे थे मेरे कमरे में.
फिर मुझे याद आया था, कुछ दिन पहले मैंने बगीचे में एक तितली देखी थी. तब मैंने सोचा था, कितने दिनों बाद देखी है तितली.
जब भी कहीं तितली दिख जाती है, क्यों मुझे लगता है, बार-बार क्यों नहीं दिखती तितली? क्यों देखना चाहता हूं मैं बार-बार तितली को? उस दिन क्यों लगा था मुझे मेरा कमरा तितलियों से भर गया है? नहीं, इन सवालों का कोई उत्तर नहीं है मेरे पास, सिवाय इसके कि तितली अच्छी होती है, शायद इसीलिए अच्छी लगती है. मेरा बचपन कुछ छोटे कसबों में ही बीता है. वहां बहुत हरियाली होती थी. बहुत तितलियां होती थीं. मैं भी दौड़ता था तितली पकड़ने के लिए. शायद सब बच्चे दौड़ते हैं तितली के पीछे. सब बच्चों को अच्छी लगती है तितली. क्या सब बड़ों को भी अच्छी लगती है तितली? शायद नहीं. शायद लगती भी हो. पर बड़े भागते नहीं हैं तितली के पीछे. शायद उन्हें लगता है, बचपना है तितली के पीछे भागना. जब हम बड़े हो जाते हैं तो कुछ पल के लिए बच्चे क्यों नहीं हो पाते?
मुझे अच्छा लगता है कभी-कभी बच्चा हो जाना. उस दिन जब मेरे कमरे में तितलियां ही तितलियां उमड़ आयी थीं, तब शायद मैं बच्चा बन गया था. कभी-कभी शायद हम सब चाहते हैं ऐसा. कोई जगजीतसिंह जब कागज़ की कश्ती और बारिश का पानी लौटाने वाली गज़ल गाता है तो हम खुद लौट जाते हैं उन दिनों तक जब पानी की धार में कागज़ की कश्ती तैरा कर हम खुश होते थे और जब गीली होकर नाव डूबने-डूबने को हो जाती थी तो हमारा मन भी डूब जाता था.
क्या रिश्ता है कागज़ की कश्ती, बारिश के पानी और मेरे कमरे में उड़ती तितलियों में?
कागज़ की कश्ती को पानी में तैराकर खुश होना मेरे उन दिनों की कहानी है जब मुझे वह कश्ती पानी के बड़े जहाज़ से भी बड़ी लगती थी. वैसे ही कागज़ का बना हवाई जहाज़ उड़ाकर मैं आकाश में उड़ते विमानों को उड़ाने (या उनमें उड़ने?) का सुख पा लेता था. तब मैं बच्चा था. कहते हैं बचपन में उम्र की तरह ही अक्ल भी कच्ची होती है. पर कितनी अच्छी होती है वह कच्ची अक्ल! तब हम तितली के साथ खेल सकते हैं. तब धूल, पेड़-पौधे हमें अपने लगते हैं.
अपने-से लगते हैं. तब गौरैया और मैना हमारी दुनिया का हिस्सा होती हैं. ज़िंदगी का भी. जब हम बड़े हो जाते हैं, तब हम मान लेते हैं कि हमारी अक्ल भी बड़ी हो गयी. पक्की. कच्ची नहीं रही. तब, पता नहीं क्यों, हम प्रकृति के साथ अपने सहज रिश्तों को जीने में असहजता महसूस करने लगते हैं. एक दिन अचानक हमें लगता है कागज़ की नाव तैराना बच्चों का काम है. तितली के पीछे भागना बचकानी हरकत है.
पता नहीं कब, कौन हमें यह समझा जाता है कि एक उम्र के बाद ऐसा लगना चाहिए. लेकिन क्यों? यह कैसी शर्त है बड़ा होने की? बड़ा होने का मतलब बचपन का खोना क्यों हो? क्यों नहीं रख सकते हम बचपन को जेब में बड़ा होने पर? सच, कितना मज़ा आये अगर बचपन हमेशा हमारी जेब में हो! जब चाहे जेब से निकाल कर देख लें उसे. खुश हो लें. वैसे ही जैसे कभी जेब में पड़ी इकन्नी को हाथ में लेकर खुश होते थे. तब इकन्नी का मतलब एक गुलाब जामुन होता था. टमाटर और ककड़ी का एक पूरा पत्ता होता था. बड़ा वाला. तब चार इकन्नियां इकट्ठी करके सिनेमा देखने का सपना पाला जा सकता था. किराये का एक आना देकर कुशवाहा कांत की लाल-रेखा या नीलम या विद्रोही सुभाष, कोई भी किताब पढ़ी जा सकती थी. जेब में रखी इकन्नी को हाथ में लेकर यह सारे सुख जी लेता था मैं. जी कर रहा है, नारा लगाऊं, बचपन रखो जेब में!
पर बड़े हो जाते हैं जो, वे ऐसा नारा नहीं लगाते. वे कहते हैं, माचिस रखो जेब में. कुंतल कुमार की एक कविता का शीर्षक है यह. पर मुझे जब भी यह पंक्ति याद आती है, मेरी आंखों के सामने आग की लपटें आ जाती हैं. कानो में चीख-पुकार का शोर भर जाता है. मैं जानता हूं, जेब में यदि बचपन होगा तो ऐसा कुछ नहीं होगा. तब आंखों के सामने तितलियों के रंग होंगे.
और भी बहुत कुछ होता है, जब बचपन जेब में होता है. तब आदमी हंसता हुआ दिखता नहीं, सचमुच में हंसता है. वह हंसी हंसता है जिससे उम्र बढ़ती है. तब भी आदमी लड़ता तो है, पर जल्दी ही भूल भी जाता है कि क्यों लड़ा था. तब बांटकर खाना अच्छा लगता है. तब अज्ञान छिपाने की ज़रूरत महसूस नहीं होती. तब अभाव सालते नहीं. तब दूसरे की उजली कमीज़ देखकर यह नहीं लगता कि वह कमीज़ उसके शरीर पर क्यों है. तब तितली के होने पर भी हैरानी होती है और उसके रंगों पर भी. तब तितली के रंग चुराने का मन भी करता है और रबर से उन्हें मिटाकर देखने का भी. हैरानी होती है, इतने-से पंख पर इतने सारे रंग भगवान कैसे बिखराता होगा. हां, उस उम्र में भगवान पर शक नहीं होता. वो उम्र होती ही विश्वास करने की है. भोला विश्वास. बड़ा होने पर पता नहीं कहां खो जाता है यह भोला विश्वास?
रंग चाहे तितली के हों या फूलों के, जीवन में विश्वास के रंग को ही गाढ़ा करते हैं. पर कितना फीका हो गया है हमारे विश्वास का रंग? पता नहीं कहां से घुल गया है यह मौसम हवा में कि दूसरों की बात तो छोड़ो अपने आप पर भी विश्वास करने में डर-सा लगने लगा है. बचपन के जाने के बाद क्यों कहीं चला जाता है वह भोला विश्वास जो किसी को भी अपना बना कर सुखी हो लेता है? बड़े होने के बाद तो जैसे उल्टी होड़ लगती है- अपनों को गैर बनाने की होड़. इस प्रक्रिया की पहली सीढ़ी है अपने को सबकुछ समझना, दूसरे को, कुछ भी नहीं. दूसरे को नकारने की यह समझ पता नहीं कहां से विकसित होती है, बचपन के जाने के बाद? उससे भी अहं सवाल है, क्यों होती है ऐसी समझ विकसित? क्यों हम अपने अपने टापुओं में बंदी हो जाना पसंद करने लगते हैं बड़े हो जाने के बाद? ये सवाल कई-कई बार, कई कई तरीकों से सामने आते हैं ज़िंदगी में.
सवाल सिर्फ अपनों को गैर बनाने की होड़ का नहीं है. सवाल अपनी पहचान को खो देने का भी है. एक कविता याद आ रही है – जब मैं बड़ा हो गया/ यानी पहले से कुछ बड़ा हो गया/ दादी कहती थी, पहचाना नहीं जाता हूं मैं/ जब तू छोटा था, जानती-पहचानती थी तुझे मैं/ हंसता था तब मैं, दादी की बात पर/ पर दादी, जहां भी हो तुम, सुनो/ अब मैं भी खुद को नहीं पहचान पाता/ लोग कहते हैं, मैं बड़ा हो गया हूं/ बड़ा होने का मतलब/ पहचान खो देना होता है क्या?/ या फिर पहचान खो देने का मतलब/ बड़ा होना होता है?/ हम छोटे ही क्यों नहीं रह पाते?/ मेरा मतलब, क्यों कहीं चला जाता है बचपन?
इस कविता के सवालों का कोई जवाब मेरे पास नहीं है. पर मुझे लगता है, जब भी मैं तितली को उड़ते हुए देखता हूं, शायद कोई जवाब मेरे आस-पास मंडराने लगता है. पकड़ने की कोशिश करता हूं उसे, पर तितली की तरह हाथ से फिसल-फिसल जाता है.
आपने कभी तितली को किताब के पन्नों में समेटा है? मर जाती है जब, तब सिमट पाती है तितली. ज़रूर समेटा होगा मैंने बचपन में किसी तितली को. इसीलिए, उस दिन मेरे कमरे में ढेरों तितलियां उड़ी तो थीं, पर हाथ नहीं आयी मेरे एक भी. बड़ों से शायद इसीलिए नाराज़ होती हैं तितलियां कि बड़े नासमझी में नहीं, समझ-बूझ कर किताबों में समेटना चाहते हैं तितली को. बचपन में नासमझी समेटती है तितलियों को. मैंने भी नासमझी में किया होता वैसा. नासमझी में अपराध नहीं होता, भूल होती है. सज़ा भूल की भी मिलती है कभी-कभी. पर ऐसी सज़ा? यह कैसा शाप है जो तितलियों के साथ खेलने-खिलने को भी भुला देता है?
आओ, इस शाप से मुक्त होने की कोशिश करें. करें कोई तप-तपस्या कि शाप-मुक्त हो सकें. तब शायद हम कभी-कभी बच्चा बन सकेंगे. तितली के साथ उड़ सकेंगे, कागज़ की नाव में बैठकर सात समुद्र पार जायेंगे. तब, जो चेहरा हम दर्पण में देखेंगे, पराया नहीं लगेगा. स्वयं को देखकर ही हम पहचान पायेंगे अपने आप को. पर कब होगी फुर्सत हमें अपने आप को देखते-पहचानने की? उस फुर्सत को खोजना ज़रूरी है, तभी हम जी पायेंगे, आदमी बनकर. आइए, कोशिश करें, थोड़ा-सा बच्चा बनें. जीना भी आ जायेगा तब हमें.
जीने की ऐसी ही एक कोशिश है हमारा यह नववर्षांक. बच्चों की दुनिया में जाकर उनकी मानसिकता को समझने-जीने की एक कोशिश. बचपन, सचमुच, एक निश्छल समझदारी का नाम है. उसी समझदारी को रेखांकित करती है इस आयोजन के लिए संकलित सामग्री. यह समझदारी हम सबमें पनपे यही मंगलकामना है इस नववर्ष के लिए.
एक दुखद समाचार भी नवनीत के पाठकों से साझा करना है. नवनीत के शैशवकाल से ही पत्रिका से जुड़े एवं बाद में लगभग 19 वर्षों तक नवनीत के सम्पादक रहे डॉ. गिरिजाशंकर त्रिवेदी हमारे बीच नहीं रहे. बीमार तो वे कुछ ही दिन रहे, पर लीवर कैंसर जैसी घातक बीमारी के चलते 7 दिसम्बर को 87 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया. नवनीत के माध्यम से हिंदी जगत की की गयी सेवाओं के लिए समाज उनका ऋणी रहेगा. भारतीय विद्या भवन एवं नवनीत की ओर से उन्हें हार्दिक श्रद्घांजलि.
(जनवरी 2014)
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