Meri Pahali Kahani -01 copy

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गुलज़ार

18 अगस्त, 1934

फ़िल्मी गीतों से सफ़र की शुरूआत, फिर पटकथा, कहानी और उसके बाद निर्देशन. मार्मिक विषयों पर संवेदनशील फ़िल्में और भावुक तथा आम-फ़हम शब्दों से युक्त गीतों का सृजन, वक्त के साथ चलते हुए, वक्त से बातें करते हुए नयी पीढ़ी की प्रेरणा, टी.वी. और साहित्य से जुड़ाव और कला-जगत में नयी पीढ़ी के साथ नये-नये प्रयोग, पद्मभूषण, साहित्य अकादमी सम्मान, ढेरों फ़िल्म फ़ेयर अवार्डों सहित कई अन्य सम्मान.

एक अफ़सानानिगार की पहचान

पहली कहानी तो अब याद नहीं कौन-सी लिखी थी. हां, पहले-पहल की कुछ कहानियां धुंधली-सी याद आती हैं जो अब ज़िक्र के क़ाबिल नहीं हैं. इसलिए उन्हें महफ़ूज़ भी नहीं किया.

पुरानी हिमाकतें याद रखना तो लाज़मी नहीं है. हां, इतना ज़रूर ख़याल आता है कि उस वक्त कहानियां सूझती बहुत थीं. हर एक ग़रीब और मज़लूम शख़्स कहानी का मौज़ू लगता था. सेक्स और बयान की बेबाकी से लगता था कि हम बड़े बोल्ड राइटर हैं. ‘समाज’ और ‘ज़माना’ जैसे लफ़्ज़ बहुत इस्तेमाल होते थे. दोस्तों, यारों पे आफ़त आयी रहती थी.

नज्में भी लिख लेता था. शायरी का ज्यादा शौक था.  एक दोस्त जो अदीब हैं, उन से एक बार पूछा कि मुझे शायरी करनी चाहिए या अफ़साने लिखने चाहिए? उन्होंने राय दी कि शायरी किया करूं. मैंने पूछा, क्या मेरी नज्में सुनी हैं? कहने लगे, नहीं अफ़साने देखे
हैं !!

बहरहाल मश्क दोनों में जारी रही. पता नहीं कहां तुक्का लग जाये? लिखने से गज्यादा मशहूर होने का शौक और उसके लिए छपना ज़रूरी था. हर एक  रिसाले और अख़बारों के संडे एडिशन को नज्में और अफ़साने भेजना मामूल हो गया. किसी भी एडिटर को अफ़साने की तह में छुपी बात समझ नहीं आयी.

जब तक बात ‘नवनीत’ के दफ़्तर तक नहीं पहुंच गयी. अखिरकार एडीटर विश्वनाथ सचदेव ने उभरते हुए अफ़सानानिगार को पहचान लिया. अब उन्हें एक अफ़साना भेज रहा हूं जो पहला भी नहीं और पहले छपा भी नहीं, लेकिन पहले-पहले एक अफ़सानानिगार की पहचान ज़रूर है!

कहानी

किसकी कहानी

इतना भारी नाम है अन्नू का, तब पता चला, जब स्कूल के मैगज़ीन में उसकी कहानी छपी-अनिल कुमार

चटोपाध्याय. छठी जमात. तभी से अफ़सानानिगार बनने का शौक़ था उसे. कहानियां खूब सूझती थीं. और मुझे तो हमेशा से यकीन रहा है कि शायर या अदीब होना, कोई खुदाई देन है, वर्ना हर कोई शायर ना हो जाता. अन्नू में वो बात थी, जो बड़े-बड़े फ़नकारों को पैदाइशी मिलती है.

हम जब गुल्ली-डंडा खेल रहे होते, तब अन्नू सबसे अलग बैठा, कॉपी में कुछ लिख रहा होता या सोच रहा होता. हमें यह जानने की बेचैनी लगी रहती कि अन्नू के दिमाग में अब क्या चल रहा होगा ? कैसे वह ख़ला में एक किरदार पैदा करता है और उसे सामने पड़े कागज़ पर उतार लेता है. फिर वो चलने-फिरने लगता है. अन्नू जहां जी चाहता है, उसे वहां भेज देता है. जो चाहे उससे करवा लेता है और जहां–जहां से वे गुज़रता है कहानी का एक प्लॉट चला जाता है, वाह! अफ़सानानिगार भी कमाल होते हैं, जिसे चाहें मार दें, जिसे चाहें ज़िंदगी दे दें. है ना ख़ुदाई जैसी बात!

अन्नू हंसा! ये कॉलेज के ज़माने की
बात है.

“ऐसा नहीं है. मेरे किरदार मनगढ़ंत नहीं हैं और मेरे बस में भी नहीं हैं, बल्कि मैं उनके बस में रहता हूं.”

अन्नू अब बात भी राइटर्स की तरह करता था, मुझे अच्छा लगता था. उसकी कहानी ‘प्रताप’ ‘मिलाप’ या ‘जंग’ जब संडे के एडिशन में छपती थी तो मुझे बड़ा फ़ख्र महसूस होता. मैंने अख़बार मां को दिखाया.

“ये देखो अन्नू की कहानी. अनिल कुमार चटोपाध्याय – उसी का नाम है.”

“अच्छा, सुना तो.”

मैंने कहानी पढ़ के सुनायी मां को. एक  गरीब मोची की कहानी थी, मां की आंखों में आंसू भर आये.

“अरे ये तो अपने मोहल्ले के भीकू मोची की कहानी है. उसकी मां के साथ ऐसा हुआ था.”

ये मुझे भी मालूम नहीं था, लेकिन मैंने फ़ौरन अन्नू के अल्फ़ाज़ दोहरा दिये.

“उसकी कहानियां मनगढ़ंत नहीं होतीं, मां. वो किरदार पैदा नहीं करता, बल्कि अपने माहौल से किरदार चुनता है. उसके लिए आंख-कान ही नहीं, सोच और समझ की खिड़कियां भी खुली रखनी पड़ती हैं.”

मां बहुत मुतास्सिर हुईं, शायद मेरे जुमलों से, जो अन्नू के थे.

गली में एक बहुत बड़ा जामुन का पेड़ था. उसके नीचे बैठा करता था भीकू मोची. सारे मोहल्ले की जूतियां उसी के पास आया करती थीं. और अन्नू का तो अड्डा था. कपड़े चाहे कैसे भी मैले-कुचैले हों, ‘खेड़ियां’ खूब चमका के रखता था अन्नू.

भीकू अपने बेटे घसीटा को चप्पल के अंगूठे में टांका लगाना सिखा रहा था. मैंने जब भीकू की कहानी उसको सुनायी तो उसका गला रूंध गया.

“हमारे दुःख-दर्द अब आप लोग ही तो समझोगे, बेटा. अब आप लोग नहीं जानोगे हमारी कहानी, तो और कौन जानेगा?”

अन्नू का रुतबा उस दिन से मेरे लिए और बढ़ गया. वो सचमुच पैदाइशी अदीब था. कॉलेज ख़त्म हुआ और मैं दिल्ली छोड़ के बम्बई चला आया. मेरी नौकरी लग गयी थी. और अन्नू अपने बड़े भाई की ‘बैठक’ पर उनका हाथ बंटाने लगा, जहां से वो आयुर्वेद और होमियोपैथी की दवाइयां दिया करते थे. किसी सरकारी दफ़्तर में नौकर थे, लेकिन सुबह और शाम दो-दो घंटे अपनी बैठक में वे दवाखाना भी चलाते थे. अन्नू के लिए बहुत-सी नौकरियों की सिफ़ारिश की लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ.

मैं एक बार बहन की शादी पर दिल्ली गया तो उनसे मुलाकात हुई. काफ़ी बीमार थे. मुझसे कहने लगे, “तुम्हीं कुछ समझाओ अन्नू को, कुछ कामकाज करे. ये दुनिया भर की कहानियां लिखने से
क्या होगा?”

मैं चुप रहा. वो देर तक सीने का बलग़म खाली करते रहे. खुद ही बोले, “वो हरामज़ादी उसका पीछा छोड़ दे, तो उसकी मत ठिकाने आ जाये.”

मैंने अन्नू से पूछा, “वो हरामज़ादी
कौन है?”

बोला, “अफ़सानानिगारी. बस उसी को गालियां दिया करते हैं भाई साहब. वो समझते नहीं. वे जिस्मानी बीमारियों का इलाज करते हैं, मैं समाजी और रूहानी मरीज़ें का इलाज करता हूं. मैं समाज के रिसते हुए नासूरों पर अपने अफ़सानों के फ़ाए रखता हूं. अंधेरे में भटकते हुए मज़लूम इंसानों के लिए चिराग जलाता हूं, उन्हें अपनी ज़ेहनी गुलामी की ज़ंजीरें काटने के हथियार मुहैया करता हूं.”

मेरा जी चाहा, ताली बजा दूं. वो बहुत देर तक बोलता रहा. उसने बताया कि उसकी पहली किताब छपने के लिए तैयार है. मुल्क के बड़े-बड़े अदबी रिसालों में उसकी कहानियां छप रही हैं. अक्सर तकाज़े आते हैं रिसालों से, लेकिन वो सबके लिए लिख नहीं पाता. वो एक नॉवेल भी लिख रहा है, लेकिन ‘बैठक’ से इतना वक्त नहीं मिलता कि वो जल्दी से पूरा कर सके. बड़े भाई बहुत बीमार रहते हैं. और उनके दो बच्चे! बेचारे! उन बच्चों को लेकर भी एक कहानी सोच रहा था.

उसकी बातचीत में अब बड़े-बड़े मुसन्निफ़ों का ज़िक्र आता था. कुछ नाम मैंने सुने हुए थे, कुछ वो बता देता था, सआदत हसन मंटो, अहमद नदीम कासमी, कृष्ण चंद्र, राजेंद्र सिंह बेदी के बाद ‘काफ़्का’ और ‘सार्त्र’ का ज़िक्र मेरे लिए नया था. कुछ बातें मेरे सिर के ऊपर से गुज़र गयीं. पहले वो कहानियों के प्लॉट बताया करता था. अब वो ‘काफ़्का’ के सिम्बॉलिज्म और ‘सार्त्र’ के अस्तित्ववाद की बात कर रहा था. मुझे लगा शायद कहानी कहीं पीछे छूट गयी, लेकिन अनिल कुमार चटोपाध्याय ने मुझे समझाया-

“कहानी सिर्फ़ प्लॉट के औकात की तफ़सील और उससे पैदा होने वाले किरदारों के ताल्लुकात का ही नाम नहीं है, बल्कि ज़ेहनी हादसात के तास्सुरात को…”

बात मेरे ऊपर से ज़रूर गुज़र रही थी, लेकिन मैं उसके वज़न से मुतास्सिर हुए बगैर ना रह सका.

अनिल एक बार बम्बई आया. किसी ‘राइटर्स कॉन्फ़रेन्स’ में हिस्सा लेने. उसकी चारों दस्तख़तशुदा किताबें मैंने अलमारी से निकाल के दिखायीं. वो किताबें मैं दोस्तों को दिखाने में बड़ा फ़ख्र महसूस करता था. इतने बड़े अदीब की किताबें, और अब वह खुद मेरे यहां रह रहा था. मैंने भाई साहब के दोनों बच्चों वाले अफ़साने के बारे में पूछा, “वो लिखा?”

उसने एक अफ़सोसनाक ख़बर दी.

“भाई साहब गुज़र गये और रिश्तेदारों ने मिलकर उनकी बेवा पर चादर डाल दी.  मुझे शादी करनी पड़ी. मैं अब दोनों बच्चों का बाप हूं.” कुछ रोज़ रहकर अनिल वापस चला गया.

अब उसके बारे में अक्सर अख़बारों में भी पढ़ लिया करता था. जब कोई किताब छपती, वो मुझे ज़रूर भेज देता था.

बहुत सालों बाद एक बार फिर दिल्ली जाना हुआ– अपनी बीवी को भी ले गया था. उससे कहा था, अपने राइटर्स दोस्त से ज़रूर मिलाऊंगा.

उसी शाम, जामुन के पेड़ के नीचे, अन्नू अपनी ‘खेड़ियां’ पॉलिश करा रहा था, घसीटा से. उसका अड्डा अब भी वही था. बात फिर चल निकली अफ़साने की.

“नयी कहानी का सबसे बड़ा मसला हकीकत का बदलता हुआ तसव्वुर है. हकीकत वो नहीं जो दिखायी देती है, बल्कि असल हकीकत वो है, जो आंख से नज़र नहीं आती. कहानी सिर्फ़ एक तर्क संगत रिश्ते का नाम नहीं है, बल्कि उस कैफ़ियत का नाम है, जो किरदार के सबकान्शिअस, अवचेतन में वाके हो रही है.”

मैं मुंह खोले चुपचाप सुन रहा था. अनिल कुमार कहे जा रहे थे, “पिछले पचास सालों में बड़ी तब्दीली आयी है उर्दू अफ़साने में. हमारी कहानी ने इन पचास सालों में इतनी तरक्की की है कि हम उसे दुनिया के किसी भी….”

घसीटा ने पांव की चमकती हुई ‘खेड़ियां’ आगे करते हुए कहा, “किसकी कहानी की बात कर रहे हो, भाई साहब? जिनकी कहानी लिखते हो, वो तो वहीं पड़े हैं. मैं अपने बाप की जगह बैठा हूं. और आप भाई साहब की ‘बैठक’ चला रहे हो, तरक्की कौन-सी कहानी ने कर ली?”

‘खेड़ियां’ दे के घसीटा एक चप्पल के अंगूठे का टांका लगाने में मसरूफ़ हो गया.

(अगस्त 2007)

 

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