हास्य का मनोविज्ञान

♦  जगन्नाथ प्रसाद मिश्र   >

मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो हंस सकता है. अन्य प्राणी हंस नहीं सकते. हास्य द्वारा आनंद-प्रकाश की क्षमता मनुष्य के प्रति विधाता की एक बहुत बड़ी देन है. इसीसे सृष्टि के आदिकाल से ही मनुष्य हंसता आ रहा है और आगे भी हंसता रहेगा. हास्य-कौतुक में कुछ ऐसा जादू है, जिससे मनुष्य के मन में निरानंद का अंधकार दूर हो जाता है. हास्यरस का यदि जीवन में स्थान न हो, तो मनुष्य के लिए जीवन धारण करने में कोई स्वाद ही नहीं रह जाएगा. मनुष्य की जीवन-रूपी मरुभूमि में हास्य ही मरुद्यान है. शोक, दुःख, नैराश्य एवं अवसाद से जब मनुष्य का मन भाराक्रांत हो उठता है, उसी समय वह हास्य-रस का प्रयोजन अनुभव करता है. जो मनुष्य घोर दुःख एवं विपदाओं के बीच भी दिल खोलकर हंस सकता है, वही सबसे बढ़-कर सुखी है. सदा हास्यपरायण व्यक्ति दुःखों के बीच भी अपनी सहज-स्वाभाविक वृत्ति नहीं छोड़ता. मनुष्य स्वयं सदा हंस नहीं सकता. अगर कोई मनुष्य हमेशा हंसता ही रहे, तो लोग उसे पागल कहेंगे. इसलिए मनुष्य जब स्वयं हंस नहीं सकता, तो वह मानसिक एवं शारीरिक क्लांति दूर करने के लिए कृत्रिम उपायों से हास्य की सृष्टि करता है. राजा लोग स्वयं नहीं हंस सकते थे, तभी तो वे अपने दरबारों में विदूषकों या भांड़ों को हंसाने के लिए रखा करते थे. शक्तिशाली इंजन के लिए जिस प्रकार सेफ्टीवाल्व की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मनुष्य के देह-यंत्र के लिए भी हास्य की आवश्यकता है. शरीर-शात्रवेत्ताओं का कथन है कि जैवधर्म के नियमानुसार हास्य की सार्थकता है. प्राचीन पंडितों ने हास्य की आवश्यकता को स्वीकार किया है. ग्रीक पुराणों में वीनस को हास्य की देवी के रूप में माना गया है.

अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य हंसता क्यों है और उसके हास्य के मूल में कौन-सी प्रवृत्ति काम करती है? मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आकस्मिक एवं अनपेक्षित मनश्चांलय, जिससे शारीरिक अथवा मानसिक वेदना की अनुभूति किंवा अनुकम्पा का संचार नहीं होता, ही मनुष्य की हास्य-प्रवृत्ति का मूल कारण है. जिस समय मनुष्य का चित्त हल्का रहता है, आकस्मिक, अनपेक्षित अथवा शारीरिक या मानसिक वेदना, दुःख, आशंका या अनुकम्पा का संचार उसके मन में नहीं होता और इस अवस्था में जो मनश्चांचल्य संघटित होता है, वही हमारे लिए हास्य का उपादान जुटाता है.

मान लीजिए, कोई प्रौढ़-वयस्क व्यक्ति जल्दी से किसी काम के लिए सड़क पर जा रहा है. तेज़ी से कदम बढ़ाते हुए अचानक उसका पांव फिसल गया और वह धड़ाम से गिर पड़ा, तो इससे हमें हंसी आती है. क्यों? इसलिए कि एक वयस्क व्यक्ति के धीर-गम्भीर भाव से चलने के साथ उसके पांव का फिसलना असंगत है और साथ ही अनपेक्षित भी. किंतु एक बच्चा, जिसे अभी ठीक से चलना नहीं आया है, यदि फिसलकर गिर पड़ता है, तो हमें हंसी नहीं आती; क्योंकि अभी वह चलने में अभ्यस्त नहीं हुआ है और न उसमें उतनी सतर्कता ही आयी है. इसके सिवा बच्चे के प्रति हमारी स्वाभाविक अनुकम्पा भी होती है. मगर वही प्रौढ़ व्यक्ति यदि ट्रेन से गिर जाए, तो हमें हंसी नहीं आएगी. किसी की विलक्षण वेशभूषा देखकर जो हम हंसने लगते हैं, इसका कारण यह है कि मनुष्य की वेश-भूषा के सम्बंध में हमारे मन में जो धारण जमी हुई है, उस आदर्श धारणा के साथ उस व्यक्ति की वेशभूषा का कोई सामंजस्य नहीं है.

जिन अवस्थाओं को हम हास्यजनक कहते हैं, उनमें कौन-सी ऐसी विशेषता होती है, जिस के कारण वे ‘हास्योद्दीपक’ कही जाती हैं, इस विषय को लेकर मनोवैज्ञानिकों में आज भी गवेषणाएं चल रही हैं. फ्रायड के मत से जो सब असामाजिक वृत्तियां हमारे मन के अवचेतन प्रदेश में अवरुद्ध होकर रहती हैं, हास्य-कौतुक में वे ही छद्मरूप में प्रकाशित होती हैं. केले के छिलके पर पांव पड़ने से फिसलकर गिर जानेवाले व्यक्ति के प्रति हमारे मन के किसी गोपन प्रदेश में पहले से ही विद्वेष रहता है, इसीलिए फिसलकर गिरने की घटना हमें कौतूहलप्रद प्रतीत होती है.

हाब्स के मत से किसी व्यक्ति की दैहिक, मानसिक या सामाजिक अवस्था में जब अवनति होती है, तभी हम कौतुक का बोध करते हैं. व्यंग्य एवं विद्रूप-जनित हास्य के सम्बंध में भी यही बात कही जा सकती है. प्राचीन काल के इतिहास से यह भी पता चलता है कि आदिकाल में मनुष्य किसी व्यक्ति की शारीरिक यंत्रणा या पीड़ा को देखकर सबसे अधिक कौतुक का बोध करता था. किसी आहत व्यक्ति को पीड़ा से छटपटाते देखकर लोग ज़ोर से हंसते थे.

मनुष्य की दुर्गति भी अनेक समय में हमारे लिए कौतुकप्रद हो जाती है. पागल व्यक्ति के आचरण भी हमारे लिए हंसी की खुराक जुटाते हैं. प्रचलित प्रथा एवं कार्य-कारण के सम्बंध में अभाव देखकर, भाषा एवं व्याकरण-सम्बंधी त्रुटियों तथा बोलने, लिखने या छापे की भूलों को देखकर जो हम कौतुक का बोध करते हैं, इसका कारण है- सामंजस्य-हीनता या विसदृशता.

कुछ लोगों का अनुमान है कि हास्य-रस का जन्म हमारे मन की हिंस्र प्रवृत्ति से हुआ है. डार्विन और हरबर्ट स्पेन्सर के मत से हास्य का दैहिक प्रकाश हिंस्र जंतुओं के दंत-विकास से क्रमिक विवर्त्तन के फल-स्वरूप हुआ है. फ्रायड के इस मत को भी हम आंशिक रूप में मान सकते हैं कि हमारी असामाजिक हिंस्र प्रवृत्तियों को अबाध रूप में चरितार्थ होने का मौका नहीं मिलता और हमें निर्विचार उनका दमन करना पड़ता है, जिससे हास्य-कौतुक की सृष्टि होती है. मानव-मन की इन आदिम पशु-प्रवृत्तियों को यदि चरितार्थ होने का सुयोग मिलता, तो अवश्य ही मनुष्य का वासस्थान यह पृथ्वी रसातल को चली जाती. इसलिए इनमें अनेक प्रवृत्तियों का उन्नयन हो जाता है और उनसे हास्य-रस की सृष्टि होती है. व्यंग्य-विद्रूप में हमारे मन के इसी हिंस्र भाव का आभास मिलता है. किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि सभी प्रकार के हास्य-कौतुक में मनुष्य की पशु-प्रवृत्ति का ही परिचय मिलता है. बहुत-से निर्मल एवं निर्दोष हास्य-कौतुक में पशु-प्रवृत्ति का अणुमात्र भी आभास नहीं पाया जाता. इस प्रकार का हास्य-रस जिस व्यक्ति में जितना ही अधिक होगा, उसमें हिंस्र प्रवृत्ति उतनी ही कम होगी. विशुद्ध हास्य-कौतुक के प्रभाव से मनुष्य के मन की पाशव प्रवृत्तियों का ह्रास भी अनेकांश में हो सकता है.

मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में जब हास्य की इतनी उपयोगिता है, तो साहित्य में हास्य-रस का स्थान क्यों नहीं होगा? आखिर साहित्य का उपादान भी तो मानव-जीवन और मानव-मन ही है. इसीलिए साहित्य का हास्य-रस कृत्रिम होने पर भी अनेक समय हमारे लिए आवश्यक हो जाता है.

प्राचीन साहित्यिकों ने, हास्य-रस का एक विशिष्ट स्थान है, इस बात को स्वीकार किया है. आलंकारिकों ने नवरस में हास्यरस को भी स्थान दिया है. इतना ही नहीं, उन्होंने हास्य-रस के दैहिक स्वरूप पर भी विचार किया है और दंत-विकास की मात्रा को लेकर हास्य-रस का श्रेणी-विभाग किया है. इस प्रकार हास्य-रस के छह भेद किये गये हैं- स्मित, हसित, विहसित, अवहसित, अपहसित और अतिहसित. जिस हंसी में दसन-पंक्ति दिखाई भी नहीं देती, वह स्मित है; कुछ-कुछ दांत दिखाई पड़ें, वह हसित; शब्द के साथ दांत दिखाई पड़ने से विहसित; हंसते समय नासिका का स्फुरित और नेत्रों का कुंचित होना अवहसित; हंसते-हंसते आंखों में आंसू भर आना और रो पड़ना अपहसित; और हाथों से ताल देते हुए अंग-विक्षेषपूर्वक हंसना अतिहसित है.

कौतुक में बुद्धि का कोई चमत्कार नहीं होता. इसलिए यह बुद्धिग्राह्य नहीं होता. इसके अंदर कोई छिपा हुआ उद्देश्य नहीं होने से इसमें अर्थ-गाम्भीर्य नहीं होता. अंतर के आनंद का स्वतःस्फूर्त्त प्रकाश इसमें हम पाते हैं. यह हमारे लिए अत्यंत लघु एवं सरल हास्य-रस की खुराक
जुटाता है.

परिहास केवल बुद्धि द्वारा ही ग्राह्य हो सकता है. इस प्रकार बुद्धिग्राह्य होने पर ही इसकी रसानुभूति हमें हो सकती है. परिहास कोई शब्द-विशेष या शब्दों के समूह पर निर्भर करता है. किसी परिचित शब्द के अर्थ या भाव को इस प्रकार अपरिचित रूप में रखना, जिससे आकस्मिक या अनपेक्षित भाव की अवतारणा हो, परिहास कहा जाता है. श्लेष भी परिहास के अंदर ही आ जाता है. किंतु यदि उसमें दूसरे के ऊपर दोषारोपण करने या क्षति पहुंचाने का उद्देश्य हो, तो वह परिहास नहीं रह जायेगा.

विद्रूप और व्यंग्य की सामान्य विशेषता यह होती है कि इसमें जिस व्यक्ति, वस्तु या भाव को लेकर व्यंग्य-विद्रूप किया जाता है, उसे जनता की दृष्टि में हीन या उपहासास्पद सिद्ध करने की चेष्टा की जाती है. क्षति या अनिष्ट-साधन का उद्देश्य भी इसमें हो सकता है. चापल्य, परिहास या उपहास में इस प्रकार का कोई उद्देश्य नहीं होता.

मुख्य अर्थ या भाव की अपेक्षा उद्दिष्ट गौण अर्थ अधिक स्पष्ट होने से व्यंगोक्ति कहा जाता है. व्यंग्योक्ति विद्रूप की तरह बुद्धिग्राह्य नहीं होती. व्यंग्य विद्रूप की तरह द्वयर्थक नहीं होता. इसमें अतिश्योक्ति की मात्रा हास्य-रस के और सब भेदों की अपेक्षा अधिक होती है और जिसका व्यंग्य किया जाता है, उस व्यक्ति, वस्तु या भाव को उपहासास्पद या क्षतिग्रस्त करने का उद्देश्य सहज ही समझ में आ जाता है.

‘ह्यूमर’ और विद्रूप-व्यंग्य के बीच प्रधान भेद यह है कि जिस व्यक्ति या वस्तु को लेकर हम परिहास या उपहास करते हैं, उसके प्रति हमारी सहानुभूति होती है; किंतु व्यंग्य या विद्रूप में ऐसा नहीं होता. ‘ह्यूमर’ में दृष्टि व्यापक हो जाती है. जिस व्यक्ति का उपहास किया जाता है, उसकी दोष-त्रुटियों की तीव्रता तथा उसकी हीनता-तुच्छता की ओर हमारा ध्यान विशेष नहीं जाता और इन सबसे परे उसके प्रति हमारे मन में सहानुभूति या अनुकम्पा उत्पन्न होती है.

सभ्यता एवं संस्कृति में परिवर्त्तन होने के साथ-साथ हास्य-रस में भी परिवर्त्तन हुआ है. पहले भी लोग स्थूल या अश्लील अशिष्ट हास्य से आनंदोपभोग कर लिया करते थे; किंतु साहित्य में उनका कोई स्थान नहीं था. शिक्षित भद्र-समाज के लिए अब इस प्रकार के हास्यरस-परिवेशन की आवश्यकता है, जो केवल शिष्ट ही न हो, बल्कि बुद्धिग्राह्य भी हो और साथ ही उसमें स्मित-हास्य की सूक्ष्म रसानुभूति भी. समय-समय पर यदि हम कुछ हंस लिया करें, तो इससे जीवन-संग्राम में विजयी होने के लिए कुछ शक्ति-संचय तो अवश्य ही होगा. कारण, हास्य हमारे चित्त को उसकी स्वाभाविक नियंत्रित गति से कुछ क्षणों के लिए मुक्त कर देता है, जिसके फल-स्वरूप हमारी जीवनी शक्ति को नूतन स्फूर्ति मिलती है. हंसी केवल मन की कांति को ही दूर नहीं करती, वरन देह की कांति को भी दूर करती है और शरीर को कार्यक्षम बनाती है. इस सम्बंध में डब्ल्यू. जे. क्रोमी ने लिखा है-

‘हंसना एक ऐसी कसरत है, जो हमारा हाजमा सुधारती है. अगर मोटा होना हो, तो खूब हंसिए. प्रसन्न-चित्त औषध की तरह लाभदायक है. अतः भोजन के बाद प्रतिदिन थोड़ा-बहुत हंसना अत्यावश्यक है.’

(मार्च 2014)

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