स्वागत एक परम श्रद्धेय आदरणीय का

♦  लक्ष्मेंद्र चोपड़ा    >

परम श्रद्धेय आदरणीय भाई साहब तथा मेरी जात-बिरादरी के लोगों (अगली पंक्ति से कोटों की फरफराहट)

मैं भाई साब के साथ तब से हूं जब ये हमारे कस्बे के टपरा महाविद्यालय के मालिक थे और मैं इनका बाजू था (दायां या बायां?- एक आवाज़.)

दोनों साइड का. दरअसल हमारे आदरणीय भाई साब बचपन से ही दृढ़ प्रतिज्ञ रहे हैं. उनके द्वारा स्थापित कस्बे का टपरा महाविद्यालय इसका शानदार उदाहरण है. ऐसा नहीं था कि उस कस्बे में पहले से कोई महाविद्यालय नहीं था, बिल्कुल था और वो भी सरकारी. पर उस महाविद्यालय के जन शिक्षा-विरोधी प्राचार्य ने हमारे आदरणीय भाई साब को प्रवेश देने से इंकार कर दिया. पूछिए क्यों? (कुछ आवाज़ें- क्यों?)

जी, बस बहुत ही टुच्चा-सा बहाना बना कर. उनका कहना था कि जब भाई साब मिडिल स्कूल ही पास नहीं कर पाये तो कॉलेज की पढ़ाई कैसे करेंगे. (कुछ आवाज़ें- शेम…शेम)

जी हां, कितनी शर्म की बात है. भाई साब ने कितना समझाया कि वो कोई आलतू-फालतू डिग्री लेने के लिए महाविद्यालय में प्रवेश नहीं लेना चाहता, वो  तो एक महान लक्ष्य के लिए लालायित थे (एक आवाज़- कौन-सा लक्ष्य था वो?) जी. वो लक्ष्य था राष्ट्र की सेवा का (तालियां)

जी हां, भाई साब ने ठाना कि वे स्वयं शिक्षा में सुधार करेंगे और ऐसे राष्ट्रद्रोही प्राचार्यों का सम्पूर्ण निर्मूलन कर देंगे. अपने जातीय भाई, भतीजों और भांजों की सेवा करेंगे. (एक आवाज़- और भतीजियों भांजियों की?)

नहीं, भाई साब की मान्यता थी कि सहशिक्षा से चरित्रहीनता पनपती है, वैसे वे त्री-शिक्षा के भी समर्थक रहे हैं, साथ ही अपनी जाति की लड़कियों के चरित्र की भी उन्हें चिंता रही है. सो उन्होंने इसका हल निकाला कि अपनी जाति की लड़कियों को सिलाई-कढ़ाई तथा भोजन पकाने की शिक्षा घर में ही लेनी चाहिए… और हां अन्य जातियों की लड़कियां उनके महाविद्यालय में प्रवेश ले सकती हैं, इस प्रकार त्री शिक्षा भी हो गयी और अपनी जात-बिरादरी की अस्मिता की रक्षा भी (वाह… वाह… का शोर)

महाविद्यालय के भवन की समस्या तो भाई साब ने गांव सभा की उजाड़ पड़ी गऊशाला पर नया छप्पर डाल कर सुलझा ली. पर मान्यता की समस्या आ खड़ी हुई. तब भाई साब ने अपनी कुटिल बुद्धि का इस्तेमाल किया और दिया देश और समाज को एक महान संदेश. वो महान संदेश था- ‘खुद कुछ बनना हो तो पहले अपने बाप को कुछ बनाओ.’ (वाह वाह का शोर-तालियां.)

सो भाई साब ने जुगत भिड़ाकर अपने स्वर्गीय पिता जी के नाम पर निजी शिक्षण संस्था की घोषणा कर दी, कुछ यूं-‘महात्मा गांधी भगत भाई साब के बप्पा शिक्षा संस्थान.’

उन्होंने इसके उद्घाटन के लिए प्रदेश के मुख्यमंत्री जी से मिल कर प्रार्थना की. जी हां, आप बिल्कुल ठीक समझे उस समय के मुख्यमंत्री न केवल भाई साब के सजातीय थे बल्कि सगौत्र भी थे, सो वो भाई साब को बहुत प्यार करते थे.

पर मुख्यमंत्री जी ने भाई साब से पूछा- “आपके पिताजी ने गांधी जी के आंदोलन में भाग लिया था? जेल गये थे? पर उन्होंने इसका कोई प्रचार किया ही नहीं?”

भाई साब ने बिना घबराये तुरंत सटीक जवाब दिया- “जी हां मान्यवर वे सच्चे गांधीवादी थे, हमारे जैसे सत्ता के लोभी-लालची नहीं थे.”

(तालियां)

मुख्यमंत्री महोदय भी भाई साब की वाक्पटुता से प्रभावित हो गये, तिस पर सजातीय और सगोत्रीय तो थे ही.

(नारेः- हमारा नेता कैसा हो – हमारी जात जैसा हो.)

अब भाई साब ने ठान लिया कि उन्हें सिर्फ राष्ट्र की सेवा करनी है. पढ़े-लिखे नहीं थे तो नौकरी कर नहीं सकते थे, धंधा व्यवसाय में उनकी रुचि थी नहीं. इसमें भी एक समस्या आ रही थी कि उन्हें वो राष्ट्र नहीं मिल रहा था जिसकी वो सेवा करना चाहते थे.

खैर उन्हें किसी ने बताया कि जिसकी लोग जय-जयकार करें वही राष्ट्र है. और यह तो गजब ही हो गया, राष्ट्र तो अपनी ही जाति का निकला. बस भाई साब ने उसे पहचान लिया और उसकी सेवा में जुट गये. (तालियां)

सो उन्होंने गांव सभा की वो गऊशाला बेच दी और एक खटारा जीप जुटायी और ड्राइवर… जी हां आप ठीक समझे, मैं खुद भाई साब का दास.

तो भाई साब रोज़ सुबह सबेरे ही अपने सजातीय मुख्यमंत्री के बंगले के सामने जम जाते और जैसे ही उनकी गाड़ी बाहर आती- “सजातीय सम्राट मुख्यमंत्री जी ज़िंदाबाद… के नारे लगाते हुए अपनी खटारा जीप में उनके काफिले में घुस जाते. इस प्रकार भाई साब कुछ ही दिनों में मुख्यमंत्री जी के खासम-खास बन गये.

एक वर्ष के ही अंदर उन्होंने ऐसी गोटें जमायी कि प्रांतीय शिक्षा सुधार आयोग के अध्यक्ष बन ‘आदरणीय’ हो गये. उन दिनों हमारे प्रांत की शिक्षा का ढांचा बेहद अव्यवस्थित था. छात्रों की न तो खेलकूद में रुचि थी और न ही अन्य व्यावहारिक ज्ञान में. वे कूप-मंडूक सिर्फ अध्ययन में लगे रहते थे. आदरणीय ने इस कमज़ोरी को पहचाना. अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस तथा जापान की शिक्षा पद्धतियों के अध्ययन के लिए उन्होंने कई बार विदेश यात्राओं के कष्ट सहे. वे जानना चाहते थे कि इन देशों में शिक्षा का त्रियों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है. इस कारण हमारी आदरणीय भाभी जी को भी इन यात्राओं का कष्ट उठाना पड़ा. बिल्कुल जैसे सीता माता ने भगवान श्रीराम जी के साथ वन गमन में साथ दिया था. धन्य हमारे भारत की संस्कृति, धन्य हमारी आदरणीय भाभी जी (तालियां) ऐसी कई कष्टकारी यात्राओं के पश्चात प्रांतीय शिक्षा-शात्रियों को झाड़ पिलाते हुए आदरणीय ने बताया कि उन्हें विदेशों का मौसम, सड़कें, मेट्रो, नाइट क्लब, कॉलेज, केंटीन, फैशन, स्वच्छंदता, हरी घास के लॉन, सहशिक्षा और छात्राओं की बोल्डनेस बहुत पसंद आयी, बाकी सब साधारण और भारत-सा ही है.

आदरणीय ने सुझाव रखा कि यूरोप के प्रमुख देशों के ग्रामों में प्रांतीय विश्वविद्यालयों की अध्ययनपीठ स्थापित की जाएं. इन अध्ययनपीठों का नाम मुख्यमंत्री जी तथा आदरणीय के पूज्य पिताओं के नाम पर रखे जाएं. इनमें हमारी जाति के छात्रों तथा इतर जातियों की छात्राओं को अध्ययन के लिए भेजा जाए.

प्रांत-शासन ने तो उनकी योजना स्वीकार कर ली परंतु हाय रे नयी पीढ़ी का दुर्भाग्य, हर जगह विभीषण होते हैं. यहां भी हमारी ही जाति के कुछ बुद्धिजीवी इस योजना के विरोध में अदालत में चले गये. अब ये पढ़े-लिखे लोग तो हमेशा से ही हमारे आदरणीय से चिढ़ते रहे हैं, सो अदालत ने इसे गैर संवैधानिक बता दिया, बताइए, फिर कहते हैं हमारे प्रांत में शिक्षा का स्तर गिर रहा है. (शेम, शेम के शोर में एक आवाज़- सभी जातीय समाज के इस जलसे में बोर हो रहे हैं.’)

तो दोस्तो, पिछले चुनाव में आदरणीय तो चुनाव जीत गये परंतु उनका दल हार गया. तभी अचानक एक आधी रात आदरणीय को समझ आया कि उनका दल पिछले बीस वर्षों से जन-विरोधी अत्याचार कर रहा था. बस आदरणीय उसी क्षण आम जनता के कल्याण के लिए उस जन-विरोधी अत्याचारी दल को लात मार के भानुमति एक्सप्रेस में सवार हो गये.

उनकी इस सक्रियता, जनहित की चाह तथा शिक्षा क्षेत्र में उनके अनुभवों और सेवाओं के देखते हुए भानुमति सरकार में उन्हें शिक्षामंत्री बनाया गया. मेरे दोस्तो, मैं आदरणीय के साथ पिछले पचास वर्षों से हूं. पचहत्तर वर्षीय युवाहृदय सम्राट आदरणीय युवक सम्मेलन के संयोजक मार्गदर्शक भी हैं. पिछले वर्ष विश्व युवा मेले में इन्होंने प्रांत का प्रतिनिधित्व किया था.

आज हम इस जातीय सम्मेलन के माध्यम से मांग करते हैं कि हमारे देश की सरकार उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित करे. (एक आवाज़- ‘पर नोबेल पुरस्कार तो हमारी सरकार नहीं देती है.)

(चीख कर) यही तो, केंद्र में हमारी विरोधी सरकार का यही निकम्मापन है कि एक मामूली-सा नोबेल पुरस्कार भी प्रदान नहीं कर सकती. वहीं योरोप के छोटे-छोटे देश इतने बड़े-बड़े पुरस्कार दे रहे हैं. आइए मेरी जाति-बिरादरी के भाईयो, हम शपथ लें कि हम अपने आदरणीय को देश का प्रधानमंत्री बनायेंगे ताकि घर-घर हमारी बिरादरी के बच्चों को नोबेल पुरस्कार मिल सके.

अब मैं आप लोगों को एक बिल्कुल ताज़ी घटना सुनाऊंगा जो आदरणीय की दृढ़ इच्छाशक्ति, तीव्र बुद्धि, कठोर अनुशासन वाली प्रशासनिक क्षमता पर प्रकाश डालती है.

हमारे प्रांत के कृषि विश्वविद्यालय में एक प्रवासी कुलपति आ गये. बहुत बड़े कृषि वैज्ञानिक. उन्हें देश-विदेश में कृषि-शोध पर बड़े-बड़े सम्मान पुरस्कार भी मिले हुए थे. सो जनाब अपनी मातृभूमि की सेवा करने यहां पधार गये. आते ही जुट गये प्रांत में कृषि-क्रांति करने. खुद गांव-गांव जाते, छोटे-छोटे किसानों को खेती के पाठ पढ़ाते. और तो और महिलाओं को भी सहकारी कृषि आंदोलन का पाठ पढ़ाने लग गये. आदरणीय को तो वो कुछ समझते ही नहीं थे. पहले आदरणीय के फार्म हाऊस में खेती में जो कृषि विश्वविद्यालय के उपकरण, खाद, बीज, विशेषज्ञ-सेवाएं आती थीं उन सबका बिल भेजने लग गये. (शेम, शेम) जी हां, बताइए, कितना बेशर्म आदमी था वो. अपनी जाति का होते हुए भी ऐसा कर रहा था. (शेम, शेम) खैर, आदरणीय भी मौके की तलाश में थे. मेरे को तो इतना गुस्सा आया कि तबीयत हो कि जूते से पिटाई कर दें ऐसे जातिद्रोही की. पर आदरणीय का धीरज… अहा. कहने लगे घबरा मत, हम कानून से भगायेंगे इस जातिद्रोही को. और दोस्तो ऐसा ही हुआ. हुआ यूं कि उस साल आदरणीय मंत्री जी ने दशहरे पर रावण का शिकार किया तो इंद्रदेव भरपूर प्रसन्न होकर झमाझम बरसने लगे. मस्त झड़ी लग गयी कई दिनों तक बारिश की. अब आप जानते ही हैं बारिश का मौसम, वो भी ठंड में. तो आदरणीय भी दारू, नचनियों की मौज-मस्ती में डूब गये. इसी आनंद में किसी मीडिया वाले ने बारिश के बारे में पूछ लिया. सो आदरणीय ने भी मस्त जवाब दिया-‘अरे ये तो आसमान से सोना बरस रहा है सोना धरती पे.’ खूब मस्त छपा अखबारों में, चैनल्स पे भी छा गया ये मस्त सोना. अब आप देखिए उस जात-द्रोही कृषि विशेषज्ञ कुलपति को. प्रेस नोट जारी कर दिया- ‘असमय वर्षा से कृषि को भारी नुकसान हो रहा है. फसल में कीड़े लगने की सम्भावना है. कृषि वैज्ञानिक और किसान सचेत रहें.’

बस आदरणीय ने धर दबोचा पट्ठे को. अरे जब हम जनता के प्रतिनिधि हैं, राज्य के वरिष्ठ मंत्री हैं, तुम वेतनभोगी हमारे नौकर, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमारी बात काटने की. (एक सहमी आवाज़- ‘पर उनकी बात तो सही थी.’) अरे, खाक सही थी, हमारी संस्कृति में वर्षा को सोना माना गया है, वो हमारी संस्कृति का अपमान कर रहा था. ऐसे संस्कृति-द्रोही को शासन कैसे काम करने दे सकता है.

सो आदरणीय ने उसे संस्कृति-द्रोह के आरोप में वो फटकार लगायी, पूछो मत. साथ ही बर्खास्त कर दिया कुलपति पद से. पट्ठा तीसरे दिन ही विदेश भाग गया अपनी पिछली शोध संस्था में.

(वाह… वाह… हमारा नेता कैसा हो, हमारी जात जैसा हो.)

धन्यवाद.

सुनने के लिए धन्यवाद परम श्रद्धेय आदरणीय के कलछी आकार चमचे के दो शब्द.

(मार्च 2014)

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