स्पेनी कला का गैरस्पेनी किरीट-पुरुष

अमरता भी अद्भुत वस्तु है. किसी को जीते-जी मिल जाती है, किसी को मरने के सौकड़ों साल बाद हासिल होती है.

    एल ग्रीको आज विश्व के अमर कलाकारों की प्रथम पंक्ति में गिना जाता है. अभी तीन पीढ़ी पहले तक उसकी कला को कोई नहीं पूछता था. चित्रकला की पुस्तकों में उसका कहीं उल्लेख होता भी था, तो एक विक्षिप्त और उपेक्षित स्पेनी कलाकार के रूप में.

    किंतु पिछले सौ वर्षों में कला-सम्बंधी मान्यताओं और रुचियों में परिवर्तन की जो तेज हवा चली है, उससे एल ग्रीको की कला पर से उपेक्षा की धूल की परत पूरी तरह से झड़ गयी है और आज वह गौरव के गिरिशृंग पर खड़ा है.

    यह तो हुई एल ग्रीको की ख्याति की विचित्र कथा. पर इससे भी विचित्र है उसका अपना किस्सा. और अनेक विसंवादों से भरा हुआ है उसका किस्सा.

    स्पेन का  सर्वाधिक प्रतिनिधी चित्रकार कहा जाने वाला एक ग्रीको स्पेनी नहीं था. ‘एल ग्रीको’ उसका उपनाम था, जिसका अर्थ है- यूनानी. उसका असली नाम काफी लंबा है- डोमिनिको थियोटोकोपाउलोस. 1541 में वह क्रीट द्वीप में जनमा.

    क्रीट कभी कुस्तुंतुनिया के बाइजेंटाइन साम्राज्य की आखिरी चौकी समझा जाता था, मगर उन दिनों उस पर वेनिस का आधिपत्य था. यों यह आधिपत्य केवल राजनीतिक और आर्थिक था. क्रीट की कला ने इटली की पुनर्जागरण-कालीन यथार्थवादी कला के आगे सिर नहीं झुकाया था. उसकी प्रेरणा का स्रोत तो बाइजेंटियम की धार्मिक चित्रकला थी, जिसका उद्देश्य जीवन को प्रतिबिंबित करना नहीं, बल्कि दर्शक में धार्मिक भाव उभारना था.

    थियोटोकोपाउलोस इसी कला-परंपरा में पला और इसी में उसने सिद्धहस्तता प्राप्त की. फिर 1566  में पचीस वर्ष की उम्र में अचानक ही वह इससे मुंह मोड़कर वेनिस जा पहुंचा, जहां मांसल काया की चित्रकला चरमोंत्कर्ष पर पहुंची थी.

    वेनिस में भी उसने चित्र-कर्म आरंभ किया भोगपरायण कला के परम आचार्य समझे जानेवाले टीशियन की चित्रशाला में. पुनर्जागरण-युगीन कला की तकनीक को सीखने के लिए इससे अच्छी जगह दूसरी नहीं मिल सकती थी. परंतु धार्मिक कला की परंपरा में पले एलग्रीको ने इस नये वातावरण और इस नयी दृष्टि के अनुरूप अपने को ढाला कैसे?

    इसका एक उत्तर शायद यह है कि स्वयं टीशियन भी अब राजाओं, सामंतों और वस्त्रहीन रूपसियों के चित्र बनाना छोड़कर धार्मिक विषयों की ओर झुक चुका था. जर्मनी में उठे प्राटेस्टेंट आंदोलन के प्रभाव से 1566 तक कैथोलिक जगत में पावनता और बलिदान के प्रति नयी उमंग की लहर उठने लगी थी. इस बदलते सामाजिक वातावरण के अनुसार कला भी धर्मोन्मुख हो चली थी.

    खैर, एलग्रीको देखते-ही-देखते इटालियन कलाकार बन गया. उसने पेंटिंग और पोर्ट्रेट-अंकन की टीशियन की शैली को आत्मसात किया, वासनो की तरह प्रकाश और छाया की विषमता के साहसपूर्ण परीक्षण किये, तिंतोरेत्तो का नाटकीय संयोजन-कौशल हस्तगत कर लिया. तिंतोरेत्तो से ही उसने रेखाचित्रों के बजाय मोम और मिट्टी के माडलों पर से चित्रांकन करने की अपूर्व तकनीक भी सीखी.

    चार साल बाद वह रोम पहुंचा और वहां ‘वेनिसी कलाचार्य’ के रूप में नाम कमाया. फिर सात साल बाद, सदा के लिए वह इटली से विदा हो गया.

    तोलेदो, जहां कि एल ग्रीको ने 1577 में अड्डा जमाया, स्पेन में कैथोलिक धर्म के प्रमुख केंद्रों में से था. सारा ही शहर मानो परलोकपरायण था. साथ ही वह स्पेनी ‘इन्क्विजिशन’ का सदर मुकाम था. नगर की ज्यादातर आबादी पादरियों और मठवासियों की थी. मगर वह वातावरण एलग्रीको की प्रतिमा के लिए बड़ा अनुकूल सिद्ध हुआ.

    उसे तोलेदो आये चंद ही दिन हुए थे कि वहां के प्रधान गिरजे के पादरियों के सत्संग का चित्र बनाने का काम उसे सौंप गया. चित्र जब बन गया, तो पादरियों ने उसमें कुछ हेरफेर करने को कहा. एल ग्रीको ने साफ इन्कार कर दिया. पादरी भी पैसे चुकाने में आनाकानी करने लगे. एल ग्रीको ने दावा दायर कर दिया. अंत में पंच फैसला हुआ. पंचों ने उसे पैसे तो दिलवाये ही, साथ ही यह भी कहा- ‘यह चित्र (एस्पोलियो) अब तक देखने में आये सर्वोत्तम चित्रों में से एक है.’

    आगे की कहानी भुखभरे कलाकारों की परंपरागत रूमानी कहानियों से सर्वथा उलटी है.

    उस तपस्या-परायण नगर में एल ग्रीको चालीस साल रहा और ‘समस्त सुखों को एक साथ भोगता हुआ’ रहा. आत्माहुति और स्वयं वरण किये हुए क्लेश के दिव्य आनंद के निरूपण में निरत यह चितेरा चौबीस कक्षों वाली विशाल कोठी में रहता था. उसका अपना निजी वाद्यवृंद था, जो भोजन के समय उसके लिए धुनें बजाया करता था. पवित्रता को चित्रांकित करने में अद्वितीय होते हुए भी उसने अपने बेटे की मां से शादी  करने की कभी चिंता नहीं की.

    और सबसे बड़ी विसंगति यह थी कि कई दृष्टियों से वह आज की भाषा में व्यापारिक (कमर्शियल) चित्रकार था. वह ग्रहकों को रिझाने के लिए चित्र बनाता था बहुधा ग्राहक उसे सुनिश्चित आदेश देते थे कि चित्र में क्या-क्या होना चाहिए. हां, इसके बावजूद वह अपनी प्रत्येक रचना में अपनी प्रतिभा और कलात्मक विरासत की जटिलता और सौंदर्य अवश्य उतार देता था.

    कलात्मक दिव्य दृष्टि के अलावा, महज तकनीक की दृष्टि से जो चीज एल ग्रीको के चित्रों को अद्वितीय बना देती है , वह है इटली और बाइजेंटियम की कलाशौलियों की परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली विधाओं का समन्वय. क्रीट में उसने पवित्र धर्मचित्रों के कला-नियमों को सीखा था. पवित्र धर्मचित्र (आइकन) अपना अभिप्राय नितांत सरल और सीधे रूप में, परंतु अधिक-से-अधिक भावनात्मक प्रभाव के साथ कहने को कोशिश करते हैं. इसके लिए चित्रकार रंगों और आकृतियों को प्रबल, सुस्पष्ट ‘पैटर्न’ में ढलता है. परंपरागत शैली में ढले इन रूपों ने एल ग्रीको की धार्मिक अभिव्यक्ति सम्बंधी धारणाओं और आदर्शों को अवश्य ही प्रभावित किया होगा.

    मगर वेनिस में एल ग्रीकों ने जो कला हस्तगत की थी, वह घटनाओं और पात्रों को प्रतिबिंबित करती थी. वह कला नाटकीय और यथार्थवादी थी. उसका उद्देश्य दर्शक को संत जैसी अनुभूति कराना नहीं, बल्कि मानव-जगत की पृष्ठभूमि में संत की चर्या को चित्रित करना था.

    पूर्ववर्ती आचार्यों ने इन दोनों में से किसी एक कला-रीति को ही अपनाया था. एल ग्रीको की अद्वितीयता इसमें है कि उसने एक साथ दोनों को अपनाया. उसकी सबसे बड़ी सिद्धि यह है कि उसने स्पेन की उस पीढ़ी की आत्मा को चित्रबद्ध कर दिया, जो पीढ़ी ऐहिक जीवन को पारलौकिक जीवन की तुलना में तुच्छ मानती थी और कठोर तप तथा बलिदान के द्वारा भगवान के साथ तादात्म्य पाने की तीव्र अभिलाषी थी. इसके लिए एल ग्रीको ने पुनर्जागरण-युगीन कला की कथात्मकता को क्रीट की शैली का पुट देकर अत्यंत प्राणवान बना दिया.

    परिणामतः जिस कला ने जन्म लिया वह न तो विक्षिप्त कला है, न चमत्कारी कला. वह बस महान कला है.

⇐  कांतिकुमार  ⇒
( फरवरी 1971 )

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