सीधी चढ़ान (बारहवीं क़िस्त)

मुझे याद है कि 1912 में मैं चंद्रशंकर के साथ यूनियन का मंत्री बना था. 1913 में हमने

उसका सारा ढांचा बदल दिया. संस्था का नाम ‘गुर्जर सभा’ रख दिया. त्रिभुवनदास राजा उस समय बी.ए. में थे, वे और मैं मंत्री नियुक्त हुए.

1913 के आरम्भ में नृसिंहदास विभाकर बैरिस्टर होकर आये. वे बहादुर आदमी थे; उनकी बोलने की छटा निराली थी. साहित्य-क्षेत्र में भी उनकी थोड़ी-बहुत कीर्ति थी; और हमारे मंडल के वे अग्रणी थे. ‘बार-लायब्रेरी’ में हम दो साथी हो गये. उस समय ‘षड्रिपुमंडल’ – चंद्रशंकर, मास्टर, विभाकर, कांतिलाल पंड्या, इंदुलाल याज्ञिक और मैं- फलने-फूलने लगा. हम लोग लगभग रोज़ मिलते, चाय-पानी लेते और साहित्य की तथा अन्य बातें करते, कभी-कभी शोर-गुल मचाते. एक दूसरे की उलझनें सुलझाते या बढ़ाते. हम सब बहुत बोलने वाले महत्त्वाकांक्षी, रसिक और भावनाशील थे; सभी जोशीले थे.

हम रोज़-रोज़ नयी बातें खड़ी करते और अपनी शक्ति के विकास के लिए अवसर प्राप्त करने के प्रयत्न करते. संसार हमारे सामने अविजित पड़ा हुआ था.

विभाकर ने एक कहानी लिखी और फिर वे नाटक की ओर घूम गये.

उनका लिखा हुआ पहला नाटक ‘मधुबंसरी’ बहुत अच्छा रहा. गुजराती- रंगभूमि पर जीवन के प्रश्नों को हल करने का यह पहला प्रयास था. बाद के प्रयास इतने सफल न हुए, कारण कि मुख्य पात्रों के इच्छानुकूल उन्होंने परिवर्तन करने आरम्भ कर दिये थे. विभाकर बोलते बड़े सुंदर ढंग से थे; उनके काठियावाड़ी उच्चारणों से माधुर्य टपकता था.

दो-तीन वर्ष तक विभाकर के और मेरे बीच मंडल में, साहित्य में और व्यवसाय में खींच-तान रही; परंतु हमारा सम्बंध ज्यों-का- त्यों मधुर रहा.

‘षड्रिपुमंडल’ की धुरी थे, चंद्रशंकर. उनका मुख्य काम था हम लोगों को प्रोत्साहन देना, एकत्र रखना और बातें करना, अपने साहित्य-प्रेम की लगन औरों को भी लगाना. इसे उन्होंने अपना प्रथम धर्म माना था. मुझे उत्तेजन देने के लिए वे सब तरह के प्रयास करते. उस समय वे रस-भरे काव्य लिखते और हम उन्हें आनंद से पढ़ा करते.

1913 के अक्टूबर में ‘कपोल’ के दिवाली-अंक के लिए मैंने ‘एक साधारण अनुभव’ नाम की एक कहानी लिखी. यह भी आत्मकथा के रूप में थी- आगे वर्णित किये हुए प्रकारों में से पहले प्रकार की. बम्बई के चमक-दमक वाले संसार के प्रति मुझे ईर्ष्या होती थी, क्षणभर के लिए यह इच्छा भी मन में जागती थी कि पैसे मिलें, तो महल में निवास करूं, घोड़े और कुत्ते रखूं. ‘रघुनंदन’ नामक पात्र इस इच्छा की मूर्ति था. वह कितना तिरस्करणीय है, यह बताने के लिए अपने आदर्श के अनुकूल किया हुआ प्रयत्न ही यह कहानी है.

जब यह कहानी प्रकाशित हुई, तब चंद्रशंकर ने मुझे अंग्रेज़ी में पत्र लिखा, उससे हमारे स्नेह सम्बंध की पराकाष्ठा का परिचय मिलता है.

29-10-13 , आधी रात

परम प्रिय मुनशी,

तुमने अधिकांश में यह समझा है कि जैसे मैं संगमरमर की पाषाण मूर्ति हूं. सम्भव है, परिचय अधिक प्रगाढ़ होने पर तुम्हारा मत बदल जाए! चाहे जो हो, परंतु मैं आशा करता हूं कि इस पत्र को लिखने की प्रेरणा करती हुई मेरी आंतरिक भावना तुम देख सकोगे.

इस समय लगभग आधी रात है. ‘कपोल’ के दिवाली अंक में प्रकाशित तुम्हारी कहानी ‘एक साधारण अनुभव’ अपनी प्रिय पत्नी को मैंने आधा घंटा हुआ, पढ़कर सुनायी थी.

प्रिय मित्र, एक करुण अनुभव का ऐसा अद्भुत आलेखन करने के लिए तुम्हें मेरी हार्दिक बधाई. यदि समय होता, तो अधिक विस्तार और पृथक्करण के साथ मैं तुम्हें लिखता; परंतु उसके अभाव में मुझे तुमसे इतना ही कहकर संतोष मानना पड़ेगा कि मेरी पत्नी को और मुझे तुम्हारा आलेखन बहुत पसंद आया है. एक शब्द और कि, आलेखित की जाने वाली जो संस्कारिता और भावनाशीलता लेखक के हृदय में वर्तमान है, उसका मैं मूल्य आंकता हूं. उन्नत और उन्नति-प्रेरक आत्मा की आर्द्रता से प्रेरित कृतियां तुम गुजरात को देते जाओ, यह मेरी कामना है. दिन-प्रतिदिन हम लोग निकट आयें, एक-दूसरे से भली-भांति परिचित हों और सामान्य ध्येय के लिए सहयोगी बनें, ऐसी इच्छाओं के साथ,

तुम्हारा स्नेही

चंद्र

यह मैं देख सका था कि इस पत्र में चंद्रशंकर ने स्नेह अतिश्योक्ति का आश्रय लिया था कि पर उन दिनों मैं चंद्रशेखर के ऐसे प्रोत्साहन के बिना अपने संकोच को किस प्रकार विजित कर सकता था.

मास्टर और तारा बहन के साथ भी स्नेह सम्बंध बढ़ गया. तारा बहन ने सगी बहन का स्थान ले लिया. दीवाली के बधाई पत्र में मास्टर ने लिखा-

29-10-13

प्रिय भाई मुनशी,

आखिर हमारा सम्बंध बढ़ गया. शर्मीले सम्बंध की शरम हट गयी. अंत में सम्बंध प्रिय बन गया, स्थिर हो गया. वीणा के तारों का सम्बंध समझ में आया, वीणा से मधुर स्वर निकले. जितना स्नेह है, उससे भी अधिक रखना. सम्बंध की मधुरता और सरलता ज्यों की त्यों रहेगी ना?

स्नेही मन का अभिवादन

1913 में इंदुलाल याज्ञिक अपने भाई रमणलाल के साथ, जहां मैं रहता था, उसके पास वाले मेरे पुराने कमरों में रहने के लिए आये, और इससे हम लोग निकट परिचय में आ गये. रोज रात को दिन में लिखी हुई चीज़ें एक दूसरे को पढ़कर सुनाते. ‘वेरनी वसूलात’ शाम को चेम्बर में लिखी जाती उसके पहले श्रोता इंदुलाल थे. उनका मन उस समय राजनीति की ओर झुक रहा था, इसलिए मेरी राष्ट्रीयता के विचारों की चर्चा करने में खूब आनंद आता था.

इस प्रकार ‘षड्रिपुमंडल’ एक सुंदर संस्था बन गया. हमारी उदित होती हुई भावनाएं एक दूसरे की प्रेरणा को पोषण देती, जीवन विग्रह में लगनेवाले घावों को भरती, और उदार आदर्शों के आदान-प्रदान से हमारे नन्हें जगत को रसमय बनाती थीं. इंदुलाल अलग हो गये. विभाकर, चंद्रशेखर चले गये, कांतिलाल ने आगरा में निवास किया, मास्टर और मैं अपने भिन्न व्यवसायों के भाव में बहे. फिर भी आज उस मंडल का स्मरण करने पर मुझमें उत्तेजना आ जाती है.

1914 में गुर्जर-सभा प्रौढ़ हुई. नगीनदास मास्टर, अम्बालाल जानी आदि तो थे ही और जमनादास द्वारकादास, सेठ रतनश्री मुरारजी और हरसिद भाई दिवेटिया दिलचस्पी लेने लगे. हमारी ख्याति भी बढ़ने लगी. डॉ, कल्यानदास देसाई और उनके भाई देवीदास सॉलीसिटर भी ‘गुर्जर-सभा’ में रस लेने लगे. 1914 की 11 अप्रैल को ‘षड्रिपुमंडल’ उन दोनों भाइयों के साथ नासिक-गुरुकुल के महोत्सव में गया. पडधुभाई शर्मा- ‘आर्य समाज’ के मुख्य पत्र ‘आर्य प्रकाश’ के सम्पादक- गुर्जर-सभा के एक प्रखर अग्रणी थे, जिन्हें मैं मज़ाक में डेमोन्सेथेनीस ऑफ डेड आइडियल्स कहा करता था, वे भी साथ थे.

बचपन से ही मुझे आर्य समाज में दिलचस्पी थी, जब से स्वामी नित्यानंद जी भड़ौंच में व्याख्यान देने आया करते थे, तभी से- मैंने बचपन में ही ‘सत्यार्थ प्रकाश’ और गुरुदत्त विद्यार्थी के लेख पढ़े थे. 1905 या 1906 में मैंने एक अखबार में महर्षि दयानंद के विषय में एक लेख भी लिखा था. पडधुभाई के सहचर्य से यह दिलचस्पी फिर जागृत हुई.

‘यदि कहीं भी राष्ट्रीयता के पाठ पढ़ाये जाते हों, यदि कहीं भी बातें करके नहीं, वरन् आत्म-बलि से, त्याग और उत्साह से, भविष्य के आर्यावर्त के गौरव की नींव डाली जाती हो, तो वह यही संस्था है. जिसने ‘नासिक-सम्मेलन’ का उत्साह देखा होगा… उसे इसका ख्याल आयेगा कि आर्य समाज क्या सेवा करता है.’

नासिक हो आने के बाद रणछोड़दास लोटवाला ने हमसे ‘हिंदुस्तान’ और ‘प्रजामित्र’ के लिए अग्रलेख लिखने के लिए कहा. हमने बारी-बारी से वे लिखने शुरू किये, परंतु कुछ समय बाद यह काम भाई विभाकर ने उठा लिया.

इसके पश्चात आर्य समाज की प्रगति के साथ मेरा सम्बंध बना रहा; परंतु जब तक उसके सारे सिद्धांत मैं स्वीकार न कर लूं, तब तक उसका सदस्य बनने से मैंने ंइन्कार कर दिया.

‘यदि किसी ने दीर्घ दृष्टि से देखा हो कि… हिंदू-धर्म को नया स्वरूप देकर उसे विजयी, आगे बढ़ा हुआ, दुनिया को जीतने वाला धर्म बनाना पहला कर्तव्य है तो वे स्वामी दयानंद ही थे… पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति से हम बुद्धि-प्रधान हो गये और विचारों के भंवर में हमारी कार्य दक्षता का ठिकाना नहीं रह गया है. हमारी रगों में जिन भावनाओं का संचार होना चाहिए, वे एकरूप हुए बिना कभी आनी सम्भव नहीं हैं. और हमारी हिंदू संस्कृति के पुनर्जीवन के बिना यह एकरूपता कभी नहीं आयेगी. हमारे देश के देवता ही हमारा उद्धार करेंगे. विदेशी तो केवल पुतले हैं.’

राजनीतिक दृष्टि से इस दृष्टि-बिंदु का मैंने आगे जाकर इस प्रकार वर्णन कियाः- यूरोपियन संस्कारों की प्रबलता को वश में करने और आर्य संस्कारों का साम्राज्य स्थापित करने के लिए जो महात्मा हमारे देश में प्रकट हुए हैं, उसमें दयानंद, विवेकानंद, अरविंद और गांधीजी- ये चार आर्य संस्कृति की प्रगति पुनर्सिद्धि करने में साधनभूत हुए हैं. इन चारों में अरविंद का क्या स्थान है, इस पर हमें विचार करना है. दयानंद का मंत्र था- हमारी ऐतिहासिक सततता का हमें भान कराना. विवेकानंद ने हमारे संस्कार की समृद्धि के प्रति गर्व उत्पन्न करवाने का प्रयत्न किया था परंतु अरविंद हमें एक कदम आगे ले जाते हैं.

वे सदा यह सीख देते थे कि राष्ट्र को ईश्वर के रूप में पूजना उसके भूत, वर्तमान और भविष्य का गौरव बढ़ाना उसकी विशेषताओं को आगे करना और उसके दूषणों को बिसारना चाहिए. उनका यह संदेश था कि हमारी संस्कृति दृढ़ और सबल रूप धारण करे. भारतीयों को प्रतापी और दुर्जय बनाये. और देश के अंदर और बाहर अपनी सत्ता स्थापित करे. प्रत्येक रीति से, प्रत्येक प्रकार से राष्ट्रीय अस्मिता विकसित हो, प्रत्येक क्षेत्र में हमें अपने राष्ट्रीय गौरव और महत्ता का भान हो यह उनका अंतिम लक्ष्य था.

वे मानते थे इस लक्ष्य की सिद्धि में पहले विदेशी सत्ता की अपेक्षा विदेशी संस्कारों का बहिष्कार होना चाहिए. उनका सिद्धांत था, कि जब तक विदेशी माल का और विदेशी संस्कारों का बहिष्कार नहीं होगा तब तक राष्ट्रीय स्वाभिमान और अस्मिता प्रकट नहीं होगी. और इसी कारण वे ‘बहिष्कार’ को अनुपम अस्त्र मानते थे.

मैं मानता था कि देशभक्ति के मूल, भारत की भूमि के, इसके सागरों पर से उड़कर आते हुए समीर और इसकी नदियों के जीवन-दाता जल के स्पर्शों में थे. इसके भूतकाल विषयक गर्भ में इसके वर्तमान विषयक वेदना में और इसके भविष्य के विषय की अभिलाषा में थे. भारतीय वाणी, संगीत, कविता, भारतीय जीवन के दृश्य, नाद, स्वभाव और रीतियों में थे. इस भक्ति के अनेक रूप मुझे दिखाई देते थे- माता का दुख निवारण करने में होने वाला उत्साह उसकी स्वतंत्रता के लिए अपना रुधिर बहता देखने का उल्लास, पितरों के साथ मिल जाने की आकांक्षा और उसके लिए आत्मसमर्पण करने का दैवी आनंद. जन्मभूमि तो जननी से भी अधिक प्यारी है. उसकी भक्ति माता के सनातन दर्शन से होती है. मातृभूमि को ईश्वर के रूप में देखने से ही होती है. माता के अखंड मनन, कीर्तन और सेवा से होती है. मैं यह मानता था कि इस प्रकार की भक्ति ही सच्ची राजनीतिक प्रवृत्ति का प्रेरक तत्त्व बन सकती है.

अपनी इस भक्ति का मैं इंदुलाल के आगे वर्णन करता और उसे बड़ा आनंद आता था. 1928 में मैंने इस भक्ति का वर्णन ‘स्वप्नदृष्टा’ में किया.

‘भार्गव-त्रैमासिक’ और ‘आर्य प्रकाश’ में लेख लिखने से मुझे पूर्ण संतोष नहीं होता था. उन्हीं दिनों 1914 में महायुद्ध शुरू हुआ. हृदय में उमड़ती हुई राष्ट्रीयता को व्यक्त करने के लिए 1915 में इंदुलाल ने और मैंने ‘सत्य’ मासिक निकालने का निश्चय किया. और इंदुलाल के संपादकत्व में जुलाई में ‘नवजीवन और सत्य’ आरम्भ हुआ. पीछे से उसे शंकरलाल बैंकर आर्थिक सहायता देने लगे.

राजनीतिक उत्साह के आवेश में मैंने उसके पहले अंक में लिखा- ‘जीवित राष्ट्र का जीवन और साहित्य वीर्यवान होता है और समय के महाप्रश्नों का निराकरण करने के लिए कला को शस्त्र बनाकर निश्चयात्मक बुद्धि से आगे बढ़ाता है.

उस समय जमनादास, द्वारकादास और मैं निकट सम्पर्क में आये. वे हाल में ही कॉलेज से निकले हुए बड़े मस्त, बोलने में शूर, श्रीमती विसेंट के लाडले और प्रागजी सूरजी के करोड़ों के व्यापार में हिस्सेदार थे. हम ‘प्रेसिडेंसी एसोसिएशन’ में – जो संस्था सर फीरोजशाह मेहता की केवल परछाई के समान थी, सम्मिलित हुए. वे स्वयं बीमार पड़े थे और उनके बिना कोई भी उसमें ठीक से काम नहीं करता था. उस संस्था की वार्षिक सभा में हम सबने इसकी अच्छी तरह खबर ली. ‘संसार में परिवर्तन हो रहे हैं, पर यह संस्था क्यों कुछ नहीं करती? हिसाब कहां है? वह व्यवस्थित क्यों नहीं है? हमारे शोर-शराबे का यह प्रभाव हुआ कि उसकी कार्यवाहक काउंसिल में जमनादास को और मुझे सदस्य के रूप में ले लिया गया.

हम लोग कोई नया काम कर दिखलाने के लिए बहुत उतावले हो रहे थे. उसी समय युद्ध शुरू हो गया. विसेंट और सर विलियम विडरबर्न आदि भारत के मित्रों में मंत्रणा हुई और उन सबको प्रतीत हुआ कि युद्ध के अवसर को देखते हुए छोटे-छोटे सुधारों की मांग करने की अपेक्षा यदि भारत ‘होमरूल’ की मांग करे, तो वह मिल सकती है. इस संकल्प का प्रचार करने के लिए विसेंट ने 1914 की जनवरी में ‘कॉमनवेल्थ’ पत्र निकाला, और छह महीने बाद ‘न्यू इंडिया’ आरम्भ किया. 1915 के फरवरी मास में गोखले स्वर्गवासी हो गये और सारे देश में लोकप्रिय इस नेता का कांग्रेस का यह सिंहासन खाली हो गया. विसेंट और रतनसिंह मुरारजी, जमनादास आदि अपने थियोसॉफी में विश्वास करनेवाले अनुयायियों को ‘होमरूल’ के सम्बंध में आंदोलन करने के लिए लिखा और सितम्बर में एम्पायर थियेटर में ‘युद्ध के बाद भारत’ इस विषय पर व्याख्यान देकर उन्होंने बंबई में आंदोलन प्रारम्भ किया.

विसेंट का व्याख्यान मैंने अनेक बार सुना था, परंतु यह व्याख्यान वाक्पटुता की दृष्टि से- अर्थात वाग्वैभव, उच्चारण, भावना, अधीरता सौंदर्य और प्रभावशीलता, इन सब की दृष्टि से इतना अपूर्व था कि मुझे प्रतीत हुआ कि विसेंट को जगत के सर्वोपरि वक्ता की जो कीर्ति मिली थी वह सकारण है. इससे हमारा राजनीतिक उत्साह बढ़ गया. इसके बाद विसेंट दादाभाई नौरोजी से मिलीं और ‘भारत के दादा’ ने उनकी योजना का अनुमोदन किया.

जमनादास, शंकरलाल, इंदुलाल और मैं- हम चारों ने मिलकर निश्चय किया कि अंग्रेज़ी में साप्ताहिक निकाला जाए और जमनादास और मैं उसके सम्पादक बनें.

इसके बाद विसेंट लोकमान्य तिलक से अप्रकट रूप में मिलीं. उन्हें इस बात का भय हुआ कि अगर लोकमान्य विसेंट एक संस्था में प्रकट रूप में शामिल हुए तो कांग्रेस से ‘होमरूल’ स्वीकार नहीं करेगी. विसेंट का पहले यह विचार था कि कांग्रेस से ‘होमरूल’ स्वीकार करवाया जाए और उसके बाद लोकमान्य को उसमें लिया जाए. अंत में उन दोनों का यह निश्चय हुआ कि यदि कांग्रेस ‘होमरूल’ स्वीकार न करे, तो लोकमान्य और विसेंट एक अलग संस्था बनायें. परंतु सहयोगिता प्रदर्शित करने के लिए दोनों को एक-दूसरे की संस्था का सदस्य बनना होगा. यह बात उस समय हम कुछ लोग ही जानते थे.

हम श्रीनिवास शास्त्री का आशीर्वाद लेने गये. शास्त्री जी ने हमारे प्रयत्न का स्वागत किया. देवधर वहीं थे. वे फीरोजशाही सम्प्रदाय के थे – और हाथों में तूफान उठाने वाले. विसेंट के कहे हुए ज्वलंत राष्ट्रीय कार्यक्रम का हम सब को नशा चढ़ा हुआ था. शास्त्री जी ने हमें पूरी सम्मति दी, महर्षि  दादाभाई ने आशीर्वाद भेजा, और 1915 के नवम्बर की सत्रह तारीख को हमने ‘यंग इंडिया’ आरम्भ किया.

थोड़े ही दिनों में सर फीरोजशाह मेहता स्वर्गवासी हुए. इस पर टिप्पणी करते हुए मैंने लिखा- ‘वे महापुरुष थे. उन्होंने बड़ी सेवा की थी, पर जनता में से प्रभाव प्रकट होता है, इसका उन्हें खयाल नहीं था. नयी राष्ट्रीयता उनकी समझ में नहीं आती थी, इससे वे राष्ट्र के नेता नहीं थे.’ इस लेख की बड़ी टीका हुई. बम्बई में कोई सर फीरोजशाह का नाम लेने की हिम्मत नहीं करता था.

1915 में बम्बई में कांग्रेस होने वाली थी और जिन्ना ने उस समय बम्बई में मुस्लिम लीग की सभा बुलाई थी. मजरुलहक उसके अध्यक्ष बने थे. जहां कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा हो वहां मुस्लिम लीग का नहीं होना चाहिए, यह जिद पकड़कर अनेक मुसलमानों ने उसे भंग कर दिया.

अंत में दिसम्बर की 15 तारीख को चाइना बाग में विसेंट द्वारा आयोजित नेताओं की गुप्त सभा हुई.

सुरेंद्रनाथ बैनर्जी सभापति थे. पुराने कांग्रेसियों के मतानुसार ‘होमरूल’ का आंदोलन आरम्भ करने की आवश्यकता नहीं थी. अंत में यह निर्णय हुआ कि कांग्रेस को विचार करने के लिए नौ महीने का समय दिया जाए, और इसके बाद यदि कांग्रेस ‘होमरूल’ का कार्यक्रम स्वीकार न करे, तो विसेंट नयी संस्था का निर्माण करें.

उन्हीं दिनों मेरा शंकरलाल के साथ मेल न खा सका. खुशालदास मेरे निकटतम मित्र थे. उस समय वे सेंट जेवियर्स कॉलेज में लेक्चरर थे, और मेरे कहने से ‘यंग इंडिया’ में लेख लिखा करते थे.

मैंने अपने चेम्बर में शंकरलाल से उनका परिचय कराया. और मेरे वहां से जाते ही शंकरलाल ने उनसे पूछा कि क्या वे ‘यंग इंडिया’ का सम्पादक पद ग्रहण करेंगे? शाह ने तुरंत आकर मुझसे बात की. जिस संगति की पहले ही महीने में इस प्रकार परीक्षा हो, वह संगति न करने का मैंने निश्चय किया और सम्पादक पद से इस्तीफा लिखकर भेज दिया. अंत में यह निश्चय हुआ कि कांग्रेस के समाप्त होने पर मैं सम्पादक पद से पृथक होऊं.

कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर श्री सत्येंद्रप्रसन्न सिनहा थे. वे नरम दल में भी नरम थे. उनका स्वभाव कठोर था. राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति उनका तिरस्कार एक-एक शब्द से व्यक्त होता था. विसेंट की कांग्रेस में न चली. इंदुलाल याज्ञिक ‘सर्वेंट्स ऑफ इंडिया’ में शामिल हो गये थे या होने की तैयारी कर रहे थे. अतः मैंने ‘नवजीवन’ या ‘सत्य’ में लिखना कम कर दिया.

1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका छोड़कर हिंदुस्तान आये. उस समय गुर्जर-सभा ने जिन्ना के सभापतित्व में एक बड़े सम्मेलन का आयोजन किया. सभा के मंत्री के रूप में उस समय मैं पहली बार गांधीजी से मिला और इस धृष्टतापूर्ण नतीजे पर पहुंचा कि उनकी वेशभूषा और रहन-सहन देखकर, तथा उनके विषय में प्रचलित बातें सुनकर मैं उनसे जो आशाएं रखे बैठा था वे सफल नहीं होंगी.

गांधीजी के सम्मान में जहांगीर पिटिट के यहां समारम्भ हुआ था, इसका मुझे स्मरण है. बम्बई के सारे नेता और प्रतिष्ठित पुरुष उसमें उपस्थित थे. पाउडर और भड़कीली साड़ियों का जमघट था. अतिथि को देखने के लिए हम पंक्तिबद्ध खड़े थे. मेरे पास खड़ी हुई एक पारसी महिला गांधीजी को देखने के लिए बहुत ही अधीर हो रही थी. गांधीजी आये, छोटी धोती, तनीवाला अंगरखा, सिर पर काठियावाड़ी फेंटा बांधे और नंगे पैरों! मेरी पारसी पड़ोसिन मुख पर हाथ रखकर बड़ी कठिनाई से हंसी रोककर बोल उठी-

‘यह तो धन्ना दर्जी है!’

1915 में ‘हिंदुस्तान’ और ‘प्रजामित्र’ के सम्पादक रतनलाल शाह के आग्रह के वश होकर मैंने ‘कोनो वांक’ नामक उपन्यास लिखना आरम्भ किया. ‘गुजराती’ की अपेक्षा इसके कॉलम छोटे थे. और प्रति कॉलम एक रुपया मिलता था इस कारण यह सौदा बुरा नहीं था.

‘कोनो वांक’ उपन्यास मेरे पहले प्रकार की दूसरी बड़ी कहानी है. जाति में एक मित्र की पत्नी बाल-विधवा हो गयी थी. उसके दुखों का मेरे मन पर गहरा प्रभाव पड़ा था और वही इस कहानी के मूल में है. महायोगी महाराज की कहानी अगले खंड में वर्णित अनुभव से ली गयी है. एल.एल.बी. के समय, जब मैं कांदावाड़ी में रहता था, तब की मेरी मनोदशा से मुचकुंद का उद्भव हुआ है. ‘वेरनी वसूलात’ के पुराने स्वप्न खत्म हो गये थे, यह स्पष्ट है कि मैंने मुचकुंद और मणी को एक साथ लाकर कल्पना के कोने में छिपी हुई तृषा को मिटाया था.

उस समय की मेरी सामाजिक कहानियों में मेरा, मेरे मित्रों और जगत का उपहास करने की एक नयी दृष्टि है. अनेक कहानियों में तीसरे प्रकार की कला की साधना करने की तैयारी कर रहा होऊं, इस प्रकार अनुभूत मनोदशा का पोषण करने की मैंने चेष्टा की है. इन कहानियों में निर्दोष विनोदवृत्ति की अपेक्षा दंशपूर्ण कटाक्ष प्रधान हैं. बेढंगे प्रसंगों को एकत्र करके उपहास करने की इच्छा भी दीख पड़ती है. ‘गोमती दादा नुं गौरव’, ‘शामलशा नो विवाह’ और ‘खानगी कारभारी’ लिखते हुए मुझे बड़ा आनंद आया था.

‘एक साधारण अनुभव’ में मैंने रघुनंदन का चित्रण करके उसे व्यंग्य का निशाना बनाकर अपनी भावनाशीलता को नियंत्रण लगा दिया था. फिर भी मैं अपने व्यवसायी मित्रों के संपर्क व उनकी प्रणालियों के वश होकर पाश्चात्य रहन-सहन को अपनाने लगा था. प्रतिष्ठा बिना मिले न रह जाए इस भय से मैं शराब पीने लगा और मांसाहारी बनते-बनते रह गया. यूरोपियन पहनावा मैंने अपनाया. भावनाशीलता की विडम्बना करना. परायी स्त्रियों के विषय में झूठी-सच्ची बातें बनाना. अश्लील हरकतें करना. संसार में खाने-पीने-मौज करने के सिद्धांत को प्रतिपादित करना, पाश्चात्य सभ्यता के बिना सफलता नहीं मिल सकती इस सिद्धांत को मानना और मनवाना- अपने मित्रों में प्रचलित इन जीवनचर्याओं में मुझे उस समय आनंद नहीं आया था यह कहना असत्य है.

कभी-कभी ये प्रश्न भी उत्पन्न होते थे कि इस प्रकार के जीवन को हीन क्यों माना जाए? तारीख 6.4.16 का अंकन कहता है-

जगत में कोई कीर्ति पाने के लिए आतुर है,

कोई पैगम्बर के बहिश्त के लिए अधीर है,

परंतु यह चिंता किस लिए?

उधार लेना छोड़ दे;

दूर के दुंदुभि-नाद की परवाह मत कर;

नकदी को संभाल कर रख.

मिट्टी में मिलने से पहले

जो कुछ पास है, उसे कुशलता से खर्च कर.

मिट्टी में से उत्पन्न हुआ है और मिट्टी में मिल जाएगा;

और दबना भी मिट्टी में है.

सदा ही सुरा हीन, संगीत हीन,

गाने वाली के साथ के बिना, 

और इस दशा का अंत हुए बिना

परंतु जिसका यह ध्येय हो,

वह मनुष्य सुख उठा सकता है?’

परंतु भावना न हो, तो तुरंत तृप्ति हो जाए और तृप्ति हुई कि जीवन असह्य हो उठे.‘पतन्ति नरके।़शुचौ.’ (उमर खयाम की रुबाइयां)

जिस दिन से मैंने निस्त्रगुण्य का विचित्र अर्थ लगाया और उसकी छाया में सफल व्यावहारिक के लक्षण प्राप्त करने का परिश्रम आरम्भ किया, उस दिन से मैंने ऐसा मार्ग पकड़ा जिससे पाश्चात्य संस्कारों को अपनाने का मार्ग सरल हो जाए. ज्योतिषी कहते हैं कि गुरु आध्यात्मिक ग्रह है और शुक्र रसिक, मौजी ग्रह है. कुंडली में यदि ये दोनों एक स्थान पर एकत्र हो जाएं तो जातक वैराग्य और मौज-शौक, भावना और विलास के बीच झोंके खाते रहें. ज्योतिष जाने बिना ही मुझे इस सिद्धांत का स्वयं अनुभव हो रहा था. उल्लास की प्रचंड तरंगें आतीं, विलास की आकांक्षा जागती और पुनः वैराग्य आकर्षित कर लेता, और मैं भावना-प्रधान हो उठता. इन दोनों कृतियों को एकरूप करने का प्रयत्न करता. पर उसमें सफलता नहीं मिलती थी. गीता के सूत्रों के जाप से मैं उल्लास और विलास की तरंगों को क्षण-भर के लिए कुचल डालता, तब वे मेरी कहानियों में फूट निकलतीं. मैं अच्छा खाने-पीने और पहनने लग जाता, प्रभाव और सत्ता की आकांक्षा को पूर्ण करता. 

इस मनोदशा का पोषण करता, अतः विश्वामित्र और व्यास के समान जीवन के लिए तरसता, भावनाशीलता को खोने की वेदना अनुभव करता और दुखी होकर अपने मनोभावों को अंकित करता.

1914 में जब मैंने योगाभ्यास छोड़ दिया और निस्त्रीगुण्य को कर्मयोग में उतारने का प्रयत्न किया, तब से आत्म-दमन कम हो गया. और ज्यों-ज्यों वह कम होता गया, त्यों-त्यों गीता रट-रटकर मनोदशा सुधारने का प्रयास जीव पर अत्याचार करने के समान प्रतीत होने लगा. तथा प्रभाववृत्ति कल्पना में अधिक घूमने लगी.

मुझे गुजरात के इतिहास का आरम्भ से शौक था. जब मैं गुजराती पढ़ने और लिखने लगा, तब मेरे हृदय में गुजरात की भक्ति के अंकुर फूटने लगे और मैंने गुजरात का इतिहास पढ़ना आरम्भ किया. उसी समय गुजराती पत्र का निमंत्रण मिला और नब्बे रुपयों में मैंने उस की भेंट पुस्तक के रूप में एक ऐतिहासिक उपन्यास लिख देने का वचन दिया.

‘पाटण नी प्रभुता’ (‘पाटन का प्रभुत्व’) को मैंने छुट्टियों में लगातार लिखकर खत्म किया और इससे वह सुसंबद्ध और एक रूप हो सकी. मेरी प्रणय-तरंगें वश में हो गयी थीं. प्रभाव वृत्ति और भावनाशीलता की समन्वय-मूर्ति मुंजाल प्रकट हुआ. प्रभाव के अंदर से व्यवस्था-वृत्ति झांक रही थी और उस कल्पना में गुजरात की महत्ता का सृजन हुआ.

अनेक लोगों ने मुंजाल और मीनल के सम्बंध को ड्यूमा से प्रभावित माना है. पर मुंजाल में रिशल्यू या माजारिन का अंश नहीं है. वह तो प्रणययोगी, भावनाशील, उन्नताशयी और प्रचंड उर्मियों का धनी है, जबकि रिशल्यू प्रतिष्ठा का भूखा, द्वेषी और नीच है. वह रानी को प्रेम नहीं करता. माजारिन अधमता का अवतार है. दोनों रानियों में भी कोई समानता नहीं है.

मेरी लिखने की पद्धति ही ऐसी है, जिसमें ससंकल्प अनुकरण के लिए स्थान नहीं है. जब मैं कहानी लिखने बैठता हूं, तब मुझे पहले दो-तीन परिच्छेद एक दो बार पुनः पुनः लिखने पड़ते हैं. बाद में वह सृष्टि मेरी कल्पना पर अधिकार जमा लेती है. उसके पात्रों में मैं तन्मय हो जाता हूं. शब्द, व्याकरण या अक्षर-विन्यास की परवाह किये बिना मेरी कलम कल्पना-द्वारा निर्मित प्रसंगों, भावों और वार्तालापों को केवल वेग-पूर्वक व्यक्त करने का अंधा साधन बन जाती है. ऐसे समय मेरी उद्दीप्त कल्पना किसी की प्रतीक्षा नहीं करती. अपने नियमों के अनुसार मेरी पूर्व संचित सामग्री की सहायता लेकर वह शाब्दिक सृजन करती है.

मेरे आलेखित किये हुए मीनल देवी और मुंजाल के प्रसंगों पर बहुत टीका हुई है. विधवा रानी तेजस्वी मंत्री के लिए प्रेम रखे, सेठानी कुशल वणिक की ओर आकर्षित हो, ऐसी घटना कभी घटित नहीं होती, यह कौन कह सकता है? दोनों प्रतापी और उर्मिवान हों, एक ही ध्येय की साधना के लिए सबेरे, दोपहर और रात को जिन्हें मिलने का काम पड़ता रहता हो, दोनों एक दूसरे के गुणानुरागी हों, तिस पर भी प्रेम न होना अस्वाभाविक है,. मुंजाल और मीनल में संयम है. उनके सम्बंध में विषय-तृप्ति से भिन्न सूक्ष्म तादात्म्य की भावना गुजरात की महत्ता सिद्ध करने की महत्त्वाकांक्षा में लीन हो गयी है. एक क्षण-भर की ही निर्बलता सारे तेजस्वी सम्बंध की शोभा बढ़ाती है. परंतु यह तो कहानी लिखने के बाद का उसका पृथक्करण है.

मुंजाल और मीनल मेरी कल्पना के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं. मां अपने बच्चों को ससंकल्प निर्मित नहीं सकती. मैं अपने इन पात्रों को ससंकल्प निर्मित नहीं कर सका. वे मेरे प्राण के प्राण थे, मेरी अस्थि की अस्थि थे. मैं कलाकार के रूप में अनजाने ही अपने स्वधर्म का अनुभव कर रहा था.

यदि मैं कलाकार हूं, तो कलाकृति का सृजन करने का मुझे अधिकार है. मेरी सृष्टि जिस प्रकार पाठक को सजीव मालूम हो, मेरी कल्पना की संतानें मानवता से छलकती प्रतीत हों, तभी मेरी सृजन कला सफलता प्राप्त कर सकती है, और यदि मेरी निर्मिति सृष्टि के स्त्राr-पुरुषों में, पाठक की कल्पना में घर करने की शक्ति हो, तो उस शक्ति से ही उनका अस्तित्त्व में आने का अधिकार सिद्ध हो जाता है. मीनल और मुंजाल यदि प्रचंड मानवता के अधिकारी बनकर पाठक के हृदय में निवास कर सकते हैं, तो उन्हें जन्म लेने का अधिकार क्यों नहीं हो सकता? यदि उनकी मानवता कृत्रिम और शिथिल होगी, तो वे मर जाएंगे और जगत को इससे कभी दुख नहीं होगा.

परंतु जब मैंने उनका सृजन किया तब मुझे पता नहीं था कि गुजराती साहित्य-प्रणाली उभरे हुए मनुष्यों के स्वाभाविक व्यवहार को साहित्यक-कृति में पढ़ कर- दिलचस्पी से पढ़कर भी- व्याकुल हो उठती है!

‘पाटण नी प्रभुता’ (पाटण का प्रभुत्व) में एक धर्मांध यति धर्म-विषय करने के लिए प्रतिपक्षी को डुबा देता है. इससे अनेक नव-शिक्षित जैनों की भावना को ठेस पहुंची. यह असहिष्णुता का युग है. उन्हें ऐसा दिखाई दिया कि पिनल-कोड की 153 (अ) धारा के अनुसार मैंने जातियों के बीच वैमनस्य उत्पन्न कराने का अपराध किया है. उन्होंने इसकी खोज की, कि कहानी लेखक घनश्याम कौन हैं? उस पर फौजदारी करने के लिए सरकार की मंजूरी लेने का आंदोलन शुरू हुआ. मुंजाल भी श्रावक था और इस बात की ओर तो भला उसका ध्यान जाने ही क्यों लगा था, कि जब तक मैंने उसे जीवित नहीं किया, तब तक वह केवल नामावशेष ही था!

एक रात को वाडीलाल मोतीलाल शाह- वा.मो.शाह के नाम से वे परिचित थे- एक मित्र को लेकर मेरे पास आये. वे बहादुर आदमी थे. जैन धर्म के इतिहास को वीर्यवान बनाने की उन्हें अभिलाषा थी. ‘पाटन का प्रभुत्व’ पढ़कर, मेरी चित्रित की हुई जैनों की महत्ता पर वे खुश हो गये थे. जब अनेक लोगों ने मुझ पर फौजदारी करने की चर्चा चलायी, तब उन्होंने विरोध किया और उनकी बात जब न मानी गयी, तब वे घनश्याम कौन हैं, इसका पता लगाकर मुझे अभयदान देने आये. उन्होंने कहा कि यदि फौजदारी होगी, तो वे बचाव का खर्च देंगे और प्रमाण भी उपस्थित करेंगे. यह बात सुनकर मेरी हिम्मत टूट गयी. मैं कहानी लिखता हूं, इस बात को मैंने बड़ी कठिनाई से सॉलिसिटर मित्रों से गुप्त रखा था. यह बात मालूम हो गयी तो उनकी दृष्टि में कानून के समान ईर्ष्यालु स्रोतों को त्याग करने का अपराध मैंने किया है, यह प्रसिद्धि फैल जाएगी. जमियतराम काका भी सहायता देना बंद कर देंगे. अब यदि दि एम्पेयरिस्ट, कन्हैयालाल मुनशी उर्फ घनश्याम व्यास पर फौजदारी हो तो क्या बने? धारा-शास्त्री के रूप में मेरे भविष्य का अंत ही हो जाए.

इस मुसीबत में मैं घबराता हुआ काका के पास गया-

‘काका, मैं तो बड़ी मुश्किल में आ पड़ा हूं’

‘कैसी मुश्किल भाई?’

‘मैंने कहानियां लिखी हैं.’

‘मैं जानता ही था कि तुमसे सीधी तरह व्यवसाय नहीं होने का.’ सख्ती से काका ने कहा, ‘कैसी कहानियां?’

‘वेरनी वसूलात…’

चमत्कार हुआ. काका के मुख से क्रोध की रेखाएं अदृश्य हो गयीं. आश्चर्य छा गया, आश्चर्य हट गया, मुस्कान फैल गयी. परंतु मेरे आश्चर्य की सीमा न रही.

‘तन मन तुम्हारी लिखी है! मैं तो सोचता था कि… ने लिखी है. वंडरफुल! डुमस के परिच्छेद तो मैंने अनेक बार पढ़े हैं. और जगत तो मालो… भाई हैं.’

इस व्यावहारिक मनुष्य के हृदय में तन मन को इस प्रकार बसा हुआ देख कर मेरा भय दूर हुआ और मेरा मुख खिल उठा.

‘परंतु काका, मैंने ‘पाटन का प्रभुत्व’ लिखा है.’

और वाडीलाल शाह की बतायी हुई सारी बातें मैंने विस्तार से उनसे कहीं.

‘अब कर चुके फौजदारी. कागजात गुलाबचंद के पास गये हैं न? ठीक, कल लाइब्रेरी में देखा जाएगा.’

दूसरे दिन 12 बजे लाइब्रेरी में काका अपने दरबार में शोभायमान थे. और गुलाबचंद दमनिया सॉलिसिटर आये.

‘गुलाबचंद इधर आओ.’ काका ने बात छेड़ी.

‘तुमने इन्हें पहचाना? ये हैं मि. मुनशी, अच्छा काम करते हैं. तुम्हें वह डुम्मस वाली कहानी याद है क्या- तन-मन की? तुम, कबलभाई और मैं जिसके विषय में बात कर रहे थे…?’

‘हां, हां, वह कहानी मैंने सारी पढ़ी हैं. अच्छी हैं.’

‘पर भाई, इस पर तुम्हारे जैनी फौजदारी करने जा रहे हैं. इसने ‘पाटन का प्रभुत्व’ लिखा है.’

‘नॉनसेंस! अध्यक्ष ने मेरे पास वह पुस्तक भेजी है. उसमें जातिविग्रह जगाने का अपराध कहां से आया? बकवास! डोंट वरी, यंग मैन.’

यह विषय इस प्रकार समाप्त हुआ. इसके पश्चात अनेक मित्रों की ओर से सूचना मिली कि यदि मैं कुमारपाल के विषय में कहानी लिखूं तो मुझे 500 रुपये पारिश्रमिक मिलेगा. मुझे गुस्सा आ गया और मैंने उत्तर दिया-

‘पैसे कमाने के लिए मैं हाईकोर्ट आया हूं. भाग्य में होगा तो वहां पैसे मिल जाएंगे. ईश्वरेच्छा होगी तो कुमारपाल पर कहानी लिखूंगा, पर पहले पैसे लेकर तो हरगिज नहीं लिखूंगा.’

(क्रमशः)

अक्टूबर  2014 

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