सीधी चढ़ान (चौथी क़िस्त)

बड़े दिन की छुटिट्यों के बाद पहली जनवरी 1911 को मैं बम्बई पहुंचा. उसी रात मैंने लिखा-

“मैं आया हूं सही, पर ऐसे मानो शाप पाकर आया होऊं. प्रेरणा देने वाला कोई नहीं है, इसलिए मेरी दशा दयनीय है. मुझे हिम्मत रखनी चाहिए. बाधाओं के आगे झुकना नहीं है. घर बसाने आया हूं. यह नया प्रयास है और इसे निभाना कठिन मालूम होता है. परंतु हिम्मत रखे बिना छुटकारा नहीं है. मनुकाका भी मुझे सुखी होने में मदद देंगे.”

तीसरी जनवरी 1911 के दिन से मुरारजी गोकुलदास की नयी चाल में बीस रुपये के किरायेदार के रूप में मैंने बम्बई में रहना शुरू किया. लक्ष्मी को भी घर से बुला लिया. बम्बई की नयी दुनिया और पति का साथ मिलने से उसके आनंद का पार न रहा. फिर साथ में मनुकाका भी थे.

वे हर साल फेल ही होते रहे, और उनके पिता ने हमारे हठ के कारण उन्हें डिस्ट्रिक्ट प्लीडर की परीक्षा की तैयारी करने को बम्बई भेज दिया. वे अपने मामाओं के घर रह सकते थे जो यह सोचते थे कि मेरे कारण ही मनुकाका की पढ़ाई खराब हो रही है; उनके पिता को विश्वास था कि मेरे बिना वे आगे नहीं पढ़ सकते. हम दोनों को साथ रहने का अवसर मिला, इससे हम बहुत प्रसन्न हुए.

मकान नया था, कमरे हवा-रोशनी वाले थे और नये जीवन का उत्साह था. खर्च का तीसरा हिस्सा मनुकाका देने वाले थे और मेरे दो हिस्से ईश्वर पूरा करेगा, ऐसा मुझे विश्वास था. भड़ौच से थोड़ा पुराना फर्नीचर, बर्तन और गद्दे लाकर हमने घर-बार का श्रीगणेश किया.

जमीयतराम काका की मेरे प्रति अच्छी धारणा नहीं थी, इसलिए उन्होंने मनुकाका से मेरी संगति छुड़ाने के प्रयत्न किये. काका का बोलने का तरीका सख्त था और पसंद न आने वाले आदमी के साथ वे हेठी का व्यवहार करते थे. मैं अपनी गरीबी और गर्व की भावना के साथ 12-1-1911 को उनसे मिला और घर आकर मैंने लिखा-

“मनुकाका के मामा से मिला. बड़े ही अभिमानी हैं. व्यवसाय में सफलता मिली है, इससे दिमाग चढ़ा हुआ है. मैं चाहता हूं कि वे बीस वर्ष और जीवित रहें. तभी उन्हें पता लगेगा कि विजय प्राप्त करने का ठेका अकेले उनका नहीं है. मैं उनके शब्दों को भूल नहीं सकता. मनुकाका में अकारण आवेश नहीं है, इससे मुझे बहुत कुछ सहन करना पड़ रहा है.”

इन शब्दों में बेहद अभिमान था. इस अवसर की बलिहारी कि हम दोनों बीस वर्ष जीवित रहे और एक दूसरे को समझ सके.

जब हम बम्बई आये, तब मनुकाका की और मेरी मैत्री का नया अध्याय शुरू हुआ. ‘देवी’ का दुखड़ा रोने की अब मुझे ज़रूरत नहीं थी. मनुकाका को सुशील और समझदार त्री का आसरा था, इसलिए मां के लिए रोने की आदत अब उनमें भी नहीं रही थी. अब हममें बाल-बुद्धि भी नहीं रह गयी थी. मेरे साथ रहने से मेरी पैसे की कठिनाइयों को वे जान गये, इससे मुझे ऐसा लगा कि उनमें मेरे प्रति कुछ तिरस्कार उत्पन्न हो गया है. प्रशंसक के स्थान पर वे आलोचक प्रतिस्पर्धी बनने लगे.

जब मैं जीवन-संग्राम में ज्यों-त्यों करके जूझ रहा था, तब मेरे प्रोत्साहन के लिए आवश्यक था कि कोई मुझ पर आत्मश्रद्धा रखे, किंतु मनुकाका की आलोचनाएं मेरे इस भाव को ठेस पहुंचाती; और मैं मानो निःसत्व हुआ जा रहा था. हमारा साथ-साथ रहने का मूलतः उद्देश्य तो यह था कि मैं उन्हें पढ़ा-लिखा कर होशियार कर दूं, किंतु मनुकाका को अब यह क्रम खलने लगा. इस प्रकार जिस शौक से हमने साथ-साथ रहना शुरू किया था, वह नष्ट हो गया. और मेरे संकटपूर्ण दिनों में एक नयी वेदना उत्पन्न हो गयी.

20-2-1911 को मनुकाका के पिता का स्वर्गवास हो गया और हम दोनों भड़ौंच जा पहुंचे. उस दिन मुझे कठोर आघात पहुंचा. मुझे लगा कि मनुकाका मित्र के रूप में किसी के साथ मेरा परिचय कराने में शरमाते हैं. ऐसी आपत्ति के समय भी मैं उदार-हृदय न रख सका. उन पर आयी हुई नयी जिम्मेदारी को मैं न्याय की दृष्टि से न देख सका. वे बम्बई आये और मेरी आंखों ने देखा कि जैसे वे भिन्न हो गये हों.

19-3-1911 को मैंने लिखा-

“अधिक खींचा जायगा, तो प्यार का तंतु किसी भी समय टूट जाएगा. प्यार बनाये रहने में ही सुख है. चाहे कोई प्यार न दे परंतु मेरी बुद्धि पर उन्होंने जिस प्रकार की गुलामी जड़ दी है, उससे मुझे मुक्त होना चाहिए.”

यह कहानी मनुकाका की नहीं, मेरी है. जिस प्रकार की वृत्ति होती, उसी प्रकार वे बरतते. उनके आचरण और शब्द भले ही निर्दोष होंगे, पर मुझे उनसे चोट-पर-चोट पहुंचती. यदि मैं अधिक समझदार होता, तो मैत्री और शक्ति, दोनों को सुरक्षित रखता. परंतु वह बल कहां से लाता?

‘इस गुलामी की हद हो गयी’, इस प्रकार मैं बार-बार लिखता हूं. ‘मनुकाका का पत्र आया-काम का, संक्षिप्त और दर्पपूर्ण.’

29-3-1911 को मैंने लिखा-

“जिसे मेरी आवश्यकता नहीं है, उसके लिए सहानुभूति रखने वाला भावुक गधा मैं क्यों बना हुआ हूं? इस प्यार की शृंखला से मुझे अलग होना है. क्यों मैं प्यार की खोज में निकला हूं?”

मनुकाका को शायद ही दोष दिया जा सकता है. पिता की मृत्यु से उन्हें आघात पहुंचा था, अपने कुटुंबजाल में वे पहली ही बार फंसे थे और वहां मेरा स्थान नहीं था. मैं पढ़ने के लिए उन्हें बम्बई आने को लिखता रहता, यह उन्हें अच्छा न लगता. जब मैं लापरवाही के आक्षेप करता, तो यह उनकी समझ में न आता. मैं उन्हें अपने वास्तविक रूप में दिखलाई पड़ा- गरीब और अभिमानी, सर्वस्व मांगने वाला मित्र; जिसकी मैत्री की व्याख्या उन्हें जेल की दीवारों की तरह घुटी-सी जान पड़ी. वे उकता गये थे; परंतु उससे निकल भागना उन्हें आता नहीं था. चुप रहने की मन में आती, पर मौन धारण करने की उनमें या मुझमें शक्ति नहीं थी. मुझे क्षण-क्षण में अपमान मालूम होता. मैं क्रोध और दुख के मारे उद्विग्न हो जाता और मेरे शरीर और मन पर इसका बड़ा बुरा असर पड़ता.

मैंने गीता की शरण ली. ‘यः सर्वत्रानभिस्नेहः’ बोल-बोल कर मैं शक्ति प्राप्त करने के प्रयत्न करता. परंतु यह सरल नहीं था.

“ये दुख आ पड़े हैं. मेरी तो कमर टूट गयी है.” (15-6-1911)

“मनुभाई के साथ मेरे झगड़े चल रहे हैं. स्थिति यह है कि एक शब्द भी बोले बिना मुझे सहना, अपने स्वभाव को जीतना और अपमान को पी जाना है.”

दिसम्बर में मेरे एक मित्र की माता सख्त बीमार थीं. उनके साथ मैं डुम्मस गया. मुझे वायु परिवर्तन और शांति की आवश्यकता थी. लक्ष्मी बहन के सम्पर्क में मुझे खूब
शांति मिली.

लक्ष्मी बहन छोटी आयु में विधवा हो गयी थीं. केवल एक पुत्र ही उनका सहारा था.

सम्मिलित परिवार में उस असहाय विधवा ने अपार दुख सहन करके लड़के को पढ़ाया. चक्की चलाकर, कपड़े धोकर, पराये बच्चों को पाल कर उसने सबको लज्जित कर दिया. अब बड़ी आयु में जब लड़का वकील हो गया और सुख के दिन आये, तब प्राणघातक रोग ने उन्हें शैया पर डाल दिया है.

समाज ने उन पर इतना जुल्म किया था, फिर भी उनके स्वभाव पर उसका एक भी आघात नहीं लगा था. वे उदार, क्षमाशील और माधुर्यपूर्ण ही बनी रहीं थीं. ‘लक्ष्मी बहन अर्थात बुद्धिमत्ता’ ऐसा सब मानते थे. सच पूछो तो उनका मीठा, विशाल-हृदयी स्नेह छोटे-बड़े सब को अपना बना लेता था. उन्होंने बहुत सहा था, सहा भी था प्रसन्न-मुख से, और इसी में उन्होंने शक्ति और प्यार के तत्त्वों को पा लिया था.

मैं एक महीना उनके साथ रहा. वे बिस्तर से उठ नहीं सकती थीं, इसलिए मैं उनके पास बैठकर विनोद-पूर्ण बातें करता रहता. उन्होंने अपनी उदारता से मुझे छोटा भाई बनाया. मैंने उनको बड़ी बहन माना. उन्होंने मुझे अपने अनुभव सुनाये. मैंने अपने दुख रोये. मैं रो पड़ा- उनकी उदारता से आकर्षित होकर. समाज के दिये दुखों को जिस अटल धीरज से और मिठास से उन्होंने सहा था, उसके आगे मेरे दुख- जिन्हें मैं नोच-नोच कर बड़ा कर लेता था- तुच्छ मालूम हुए. उन्होंने मुझे सांत्वना दी; शब्दों से नहीं परंतु सहृयदता से- मुझे समझाकर. उनके साहचर्य से मैं अपने मन की व्यथा को कुछ अंशों में भुला सका.

लक्ष्मी बहन मानवता के जीवित-पराग के समान थीं. अत्याचार और दुख को उन्होंने माधुर्य और सहृदयता प्राप्त करने की सीढ़ियां बना लिया था. हिंदू समाज की रची हुई फांसी पर लटक कर, वेदना सहकर, जीते जी मर कर, औदार्य मूर्ति के रूप में उन्होंने पुनर्जीवन पाया था. उनकी सहृदयता हरेक को मोह लेती, उसका उद्धार करती, उसे उन्नत करती. यदि हम सहृदयता को त्रीत्व का प्रथम अंग मानें, तो लक्ष्मी बहन त्रियों में श्रेष्ठ थीं.

20 नवम्बर को मैंने डुम्मस से ‘बड़े, स्वतंत्र और लायक बने हुए मित्र मनुकाका’ को अपने मैत्री-सम्बंध में हुए परिवर्तन के विषय में स्पष्ट शब्दों में लिखा! वह पत्र कटु कटाक्ष से भरा हुआ और अन्याय-पूर्ण भी था. उस पत्र में इस प्रकार के शब्द थे- “बीते सुख से मनुष्य व्यथित होता है, उसी प्रकार मेरा भी व्यथित होना स्वाभाविक है. सभी की रगों में शीतल और नपा-तुला लहू नहीं बहा करता… तुम्हारा जन्म दिन है, इसलिए लिख दिया है… पर्दा उठा दिया, अब शायद ही उठेगा. माफ करना.”

1911 में अपने जन्म दिन पर हमेशा की तरह मैंने वर्ष का लेखा लिख डाला. उसमें दिल के अनेक गुबार निकाले. पिता नहीं थे. पैसे की कमी थी. ‘पाखाना-पुराण’ के कारण और मनुकाका के साथ के सम्बंध के कारण अनेक अपमान सहन किये थे. दाम्पत्य जीवन में अपूर्णता थी. जीजी-मां के दुख के प्रत्याघात रहे थे. मन को और शरीर को निर्बलता खटक रही थी. असंतुष्ट और आकुल महत्त्वाकांक्षा के शूल हृदय को छेद रहे थे.

जीवन की सीधी चढ़ान पर चढ़ते हुए असीम कठिनाइयां मुझे नीचे को खींच
रही थीं.

1912 के आरम्भ में बड़े दिन की छुट्टियों के बाद हम पुनः बम्बई आये. ‘मनुकाका फिर मित्र-भाव बढ़ाना चाहते हैं’, यह मैंने 3-1-1912 को लिखा.

सौभाग्य से आचार्य, अपने पिता और पत्नी को लेकर हमारे यहां अतिथि के रूप में आये और तीन महीने ठहरे. इससे हमारा संघर्ष कुछ कम हुआ. जून में डिस्ट्रिक्ट प्लीडर की परीक्षा होती थी, इसलिए मनुकाका को तैयार करने का कर्तव्य-पालन मैंने आरम्भ किया. शिक्षक बनने का धीरज मुझमें कभी नहीं था; तिस पर यह शिष्य कहां था- बेकाबू मित्र!

मैंने अपने स्वास्थ्य के लिए गर्मियों की छुट्टियां हजीरा में बिताने का निश्चय किया. इस रमणीक स्थान के लिए मुझमें बचपन से ही आकर्षण था. जीजी-मां, लक्ष्मी, मनुकाका और मैं हजीरा के लिए रवाना हुए. सूरत में कोई मित्र न होने से, रांदेर में पिताजी के कोई पुराने परिचित थे, जिनका नाम जीजी-मां को याद था- उनको पत्र लिखा. उन्होंने हमें निमंत्रण दिया.

सूरत के स्टेशन पर कोई लेने नहीं आया था. रात को किराये की गाड़ी में हम अपने परिचित को ढूंढ़ते हुए रांदेर पहुंचे. नौ बजे के लगभग उनके घर का पता लगा. वहां सुनसान था, पर सामने के घर से कोई पड़ोसी जाकर उन्हें बुला लाया. उन्होंने कहा-

“आज मेरा एक सम्बंधी मर गया है. घर में कोई नहीं है. जरा रुको, मैं छत का दरवाजा खोले देता हूं. गाड़ी वाले के साथ मैंने बात पक्की कर रखी है.”

यह सत्कार देखकर हम ठंडे पड़ गये. मैं गाड़ी वाले से मिल आया.

सुबह चार बजे हम गाड़ी में बैठ कर चल दिये. गाड़ी वाला भी रास्ते से अनजान था, इसलिए वह दो-एक बार रास्ता भूला.

“हजीरा एक रमणीक स्थान है. पर मनुकाका को पढ़ने की इच्छा नहीं होती.”

“मनुकाका का मन घर की ओर ही लगा है, उनका व्यवहार असह्य है. गीता ही मेरा आश्वासन है.”

“अंत में छुटकारा मिला. घर के लिए पागल मनुकाका चले गये. मेरे दूर होने से वे बिलकुल नहीं पढ़ेंगे.”

और इस प्रकार हमारी मित्रता का पहला अध्याय  समाप्त हो गया.

इस छुटकारे से मुझे लाभ हुआ. अपना शरीर सुधारने और आठ महीनों बाद होने वाली परीक्षा की ओर मैं ध्यान लगा सका. मैंने भगवद्गीता और योगसूत्र का पुनः-पुनः पारायण किया और स्वास्थ्य भी प्राप्त किया. जब हमने हजीरा छोड़ा, तब अपरिचित-उल्लास का मुझे अनुभव हुआ.

मनुकाका और मैं अलग तो हुए, पर हमारा बंधन अटूट था. जून में जब वे फेल हुए तो मामा के आफिस में क्लर्क की नौकरी कर ली और मुरारजी चाल में, उसी मंजिल पर अलग कमरा लेकर रहने लगे. जिस प्रकार मित्रभाव से हम पहले रोज मिलते और बातें करते थे, उसी प्रकार अब भी करते. परंतु अपनी डायरी में मैं टीका करता; और वे बिरादरी के लोगों के पास जाकर करते. इस प्रकार मेरे संकट में वृद्धि होती रही.

ज्यों-ज्यों जीवन बीतता गया, त्यों-त्यों बीच का अंतर भी बढ़ता ही गया; परंतु प्यार के बंधन शिथिल न पड़े. हम एक-दूसरे का सम्पर्क छोड़ न सके. मैं हमेशा सोचा करता, कि क्या कभी पहले जैसा अच्छा सम्बंध फिर स्थापित होगा?

1918-19 से मनुकाका के दिल में मेरे प्रति फिर सद्भाव उत्पन्न होने लगा. मेरा हृदय इतना चोट खा चुका था कि फिर से पहले की अवस्था लौटाने में मुझे देर लगी.

जब हम दोनों अधेड़ आयु के हुए, तब छिछोरेपन से ऊपर उठकर, अपनी मैत्री के अमर-तत्त्वों को परख सके.

इस सारे समय में नन्ही लक्ष्मी निःशब्द सेवा से मुझ पर अधिकार किये जा रही थी. उसकी सारी प्रवृति का केंद्र मैं ही था. मेरे उठने से पहले वह उठती और मेरे लिए सारी तैयारी कर रखती. मेरी आदत और रुचि के अनुरूप खाना बनाती. यह कोई सरल काम नहीं था. मैं तो था हमेशा का कमज़ोर. जब तरंग में आ जाता तो अनजाने ही एक-दो रोटी अधिक खा जाता और बदहजमी हो जाती. इससे परोसने वाले पर गुस्सा होता. बिना बताये दो मेहमानों को साथ ले आता और उनके लिए भी तैयारी की आशा रखता. दिन भर का थका-मांदा आता, तो दो-एक झिड़कियां भी सुना देता.

लक्ष्मी ने इन सबके लिए अपूर्व सहिष्णुता पायी थी. वह बोलती कम थी. मुझसे उसे बड़ा डर लगता था. वह कभी थकती नहीं थी और थकती, तो पता नहीं लगने देती थी. वह कभी रोती नहीं थी. शिकायत नहीं करती थी. उसकी कोई सहेली नहीं थी और पढ़ने का शौक भी उसे नहीं था. सारा दिन वह घर के कामों में लगी रहती और कब पतिदेव रीझते हैं, इसी की प्रतीक्षा करती रहती.

उसकी सेवा ने मुझ पर शासन जमाना आरम्भ किया. दिन भर वह घर में अकेली रहती, इससे मैं जल्दी घर आ जाता. ट्राम से उतर कर, शाम को जब मैं घर की ओर कदम बढ़ाता, तब रसोई तैयार करके, खिड़की से मुंह निकाले मेरी प्रतीक्षा करती हुई वह खड़ी रहती. मुझे भी ऊपर देखने की आदत पड़ गयी थी. उसे देखकर मेरे पैरों में नयी चेतना आ जाती और मैं तेज़ी से सीढ़ियां चढ़ता. अपने लिए उसे इतना अधिक करते देखकर मेरा मनस्वी और स्वार्थी हृदय उसके वश होकर उसकी ओर ममता से झुकने लगा.

1912 के जनवरी मास में आचार्य येनांगयोंग (ब्रह्मदेश) में थे. वहां से वे अपने वृद्ध पिता से मिलने भारत आये. इस भय से कि वहीं पिता पुनः ब्रह्मदेश न जाने दें, उन्होंने अपने पिता दयाशंकर भाई को कच्छ से बम्बई बुलाया.

हमारे दो कमरों में मनुकाका, लक्ष्मी और मैं, आचार्य, कमला भाभी दयाशंकर भाई और उनके वृद्ध नौकर ओधवजी, इस प्रकार सात आदमी रहने लगे. पकाने वाली अकेली लक्ष्मी थी.

आचार्य और मैं अनेक वर्षों से साथ नहीं रहे थे. वह आनंद मुझे अब मिला. उन लोगों के कच्छी शिष्टाचार इतने नवीन मालूम हुए कि हम लोगों का बड़ा मनोरंजन हुआ.

ससुर और कमला भाभी को एक दूसरे के साथ कोई बात करनी होती, तो ओधवजी बीच में चौखट पर बैठ जाते और उन्हें ही सम्बोधन करके भिन्न-भिन्न कमरों में बैठ कर ससुर-बहू बातें करते!

रात को हम लोग इन दो वृद्धों को घर छोड़ कर चौपाटी पर या नाटक-सिनेमा देखने जाते. कमला भाभी और आचार्य उस समय स्वतंत्रता से बातें करते. उनकी संगति में लक्ष्मी और मैं भी खुलने लगे. मैं भी सारा दिन काम से थकी हुई लक्ष्मी को खुश रखने के प्रयत्न करता.

इस प्रकार आचार्य और कमला भाभी के हमारे यहां रहने से हम उनके ऋणी हुए. हमारे बीच का अंतर दूर हो गया. परंतु हमारे इस सहचार को न समझ सकने वाले  मेरे अनेक सगे-सम्बंधी व्याकुल हो उठे और पूछने लगे-

“तुम्हारे मेहमान कब जा रहे हैं?”

“आचार्य तो मेरे भाई से भी अधिक हैं. घर उन्हीं का तो है,” मैं उत्तर देता.

मेरे एक दूर के मामा गुस्से में आ गये- “कनुभाई, तू तो मूर्ख है. मैं उपाय बताऊं?”

“क्या?”

“शाम को जब मेहमान घर आने वाले हों, तब चौखट पर खड़े हो जाना और उनके आने पर वे सुन सकें, इस प्रकार अपनी बहू से कहना-

“अरी, यह क्या कहती है? जानती नहीं कि आचार्य मेरे भाई हैं?” यह सुन कर तेरे मेहमान तुरंत पूछेंगे- “क्या है, क्या है?” तब माथा ठोक कर जवाब देना- “अरे भाई, जाने दो. त्री की बुद्धि गुद्दी में होती है. यह मूर्ख समझती नहीं कि तुम मेरे भाई के समान हो. रोज मुझ से पूछती रहती है कि तुम कब जाने वाले हो, कब जाने वाले हो?  त्री की जाति, इतना भी नहीं समझती, क्या किया जाय?” इस प्रकार कह कर तू निःश्वास छोड़ना. इससे तेरे मेहमान दूसरी गाड़ी से ही खिसक जायंगे.”

अप्रैल में अदालत बंद हुए, इसलिए मेहमानों को घर सौंप कर हम भड़ौंच चले गये.

इसके पश्चात कई सप्ताह वहां रह कर आचार्य ब्रह्मदेश वापिस चले गये. उन्होंने यह अनुभव किया होगा कि मुझ पर खर्च का भार बढ़ गया होगा; अतः कुछ दिनों बाद उन्होंने सोने की एक चेन किसी बहाने से मुझे भेंट में भेजी.

पहले तो मुझे गुस्से में चेन वापिस भेजने की इच्छा हुई, परंतु फिर लोभवृत्ति की विजय होने से मैंने चेन को वापिस न भेज कर बेच डाला और इससे थोड़ा कर्ज चुकाया.

इन तीन-चार महीनों में हमने खूब मजे किये. लक्ष्मी और मैंने साथ-साथ हंसना, बोलना और आनंद करना शुरू कर दिया.

मेरे निर्बल शरीर की वह रक्षक बन गयी थी. मेरी निर्धनता की वह हिस्सेदार, और मेरी समृद्धि थी. जब कभी मैं बाहर से जला-भुना, व्याकुल या अपमानित होकर आता, तब विश्वास-पूर्वक वह मेरी टोपी पकड़ने के लिए आगे बढ़ती और जगत से चोट खाया हुआ मैं एकदम स्वस्थ हो जाता. घर पहुंचते ही वह मेरा हंसते हुए स्वागत करती, इससे मुझमें आत्मा भिमान जागृत हो जाता.

मेरे सौभाग्य से मेरी कसौटी के समय मुझे निर्धनता में लक्ष्मी मिली. उसने मेरी शक्ति में अपना सर्वस्व देखा. मुझे कवच से परिवेष्टित करने वाली वह मेरी अभेद्यता की सृजनकर्ता थी. वह न होती, तो मेरा शरीर कब का टूट चुका होता.

उन दिनों मेरे पास दो अच्छी गरम पतलूनें थीं. अदालत में जाते समय मैं उन्हें बारी-बारी से पहना करता उनकी क्रीजें ठीक रखने के लिए रोज रात को जब हम दोनों अकेले होते, तब उन पर ब्रश करके, ठीक से तह लगा कर, तकिये के नीचे रख लेता. यह काम लक्ष्मी करती और मैं पास बैठ कर अगले दिन के लिए जूतों पर पालिश करता.

इस प्रकार के दैनिक नित्य-कर्मों से हमारी हिस्सेदारी नये तंतु से बंधने लगी. मेरे जीवन में इस प्रकार आकर लक्ष्मी मेरी बन गयी- अपने आत्मसमर्पण के अद्भुत जादू से.

25 जुलाई को मैं चंद्रशंकर के मंडल में गया. कांतिलाल पंड्या ने ‘शिक्षित भारतीयों पर संस्कृत का दायित्व’, विषय पर भाषण दिया. असल में देखा जाय तो उस समय तक सारा मंडल ‘गोवर्धनराम मंडल’ था. प्रत्येक बार ‘सरस्वती चंद्र’ से उद्धरण दिये जाते. उनके विचार और सिद्धांत वेदवाक्य माने जाते. दो-चार ने कांतिलाल के विचारों की भी पुष्टि की. मैं इस सभा में बोलते हुए घबराता था. इसका मुझे खयाल नहीं था कि मैं कैसा बोलूंगा. एकांत कमरे में, शीशे के आगे, कालेज के हाल में, नर्मदा के पुल के नीचे मैंने अनेक भाषण अकेले-अकेले पढ़े और दिये थे. किस अवसर पर क्या बोलना चाहिए, इस विषय पर सुंदर वाक्य लिखकर रट रखे थे. बड़ौदा कालेज के ‘वाद विवाद-मंडल’ में बोलने के लिए मैं प्रसिद्ध था; परंतु बम्बई के इन वाग्शात्रियों के बीच मेरी जबान नहीं खुलती थी. कोई सोच ही नहीं सकता था कि मैं भी कुछ अच्छा बोल सकता हूं.

आज मेरा दिमाग काबू में नहीं. भारत का गरीब युवक त्री-बच्चों को पाले या संस्कृत पढ़े? और गोवर्धनराम भाई ने कह दिया तो क्या हुआ? मैं उठा. वर्षों की तैयारी ने मेरी मदद की. अपनी विचित्र अंग्रेज़ी में तीखे तमतमाते ढंग से मैंने कांतिलाल की खबर ली. मैं पौने घंटे के लगभग बोलता रहा. जब मैं अपना असीम प्रगति कर ली थी. सबने मेरा अभिनंदन किया. चंद्रशंकर ने तो मुझे गले से ही लगा लिया. वकील भाजेकर सभापति थे. उन्होंने अतिश्योक्तिपूर्ण प्रशंसा की. सभा समाप्त हुई.

1907 या 1909 में जब मैं लॉ-क्लास से ट्राम में बैठकर घर आ रहा था, तब एक भाई मेरे निकट आकर बैठे.

“क्या पढ़े रहे हो?” उन्होंने पूछा.

मैंने उत्तर दिया.

“तुम पढ़ने के लिए पढ़ रहे हो या लिखने के लिए पढ़ रहे हो?”

इस प्रश्न के लिए पढ़ रहे हो या लिखने के लिए पढ़ रहे हो?”

इस प्रश्न से मुझे बड़ा अचम्भा हुआ. “पढ़ने, और इच्छा हो तो लिखने के लिए.” मैंने उत्तर दिया. इस प्रकार मेरा और चंद्रशंकर पंड्या का परिचय हुआ.

चंद्रशंकर में मित्रता करने और निभाने की अच्छी आदत थी. जो उनके परिचय में आता, उसके वे संरक्षक बन जाते और उनका सच्चा आकर्षण तो यह था कि जो भी उनके संसर्ग में आता, उससे इतना मधुर बोलने की कला उन्हें आती थी कि उसकी आत्म-श्रद्धा उनके प्रति अधिक बढ़ जाती.

आर्यसमाज मंदिर में प्रति रविवार को चंद्रशंकर का मित्र-मंडल भाषण करने के लिए एकत्र होता.  1911 की 15 जनवरी को आर्यसमाज-मंदिर की उस सभा में मैं भी चंद्रशंकर के साथ गया. उस समय उस सभा का नाम ‘दि यूनियन’ था. बाद में वह ‘गुर्जर सभा’ कहलाने लगी. इस सभा के विषय में मैंने लिखा-

“सभापति ने असम्बद्ध, अहंकारपूर्ण और उकताने वाला भाषण दिया. अन्य लोग ठीक बोले. विभाकर ही अकेले अच्छे वक्ता थे. उनके मुकाबले में मैं कहां? बम्बई अपनी शक्ति परीक्षा-का अच्छा क्षेत्र है.”

मैं देहाती कालेज का था. मुझे अंग्रेज़ी में बातचीत करना नहीं आता था, इससे मुझे लगा कि बम्बई कालेज के विद्यार्थियों से मैं बहुत पीछे हूं, और इस हीन मनःस्थिति के कारण मुझे बड़ा संकोच होता.

मैंने यह संकल्प किया कि मुझे अंग्रेज़ी में बातचीत करना सीखना चाहिए.

मेरा दूसरा मित्र मंडल बड़ौदा कालेज के साथियों में से था. उसके प्रमुख थे बिट्ठलदास अंकलेखरिया- जो आगे जाकर एलफिन्स्टन हाईस्कूल के प्रिंसिपल बन गये थे. इन मित्रों के साथ मैं दादाभाई नौरोजी के दर्शन करने वरसोवा गया-

“वरसोवा बड़ी सुंदर जगह है. उन्होंने बड़े उत्साह से हमारा स्वागत किया. पचासी वर्ष के होने पर भी वे अभी सशक्त हैं, पर बोलते हुए हांफने लगते हैं. वे सादा जीवन बिता रहे हैं. उनका निवास-स्थान बड़े कलात्मक रूप से संवारा हुआ है. बिना आडम्बर के जीवित रहना उन्होंने जाना और अब विश्राम लेना भी जानते हैं. सार्थक जीवन और भव्य वृद्धत्व.”

सब पर गोवर्धनराम का गहरा प्रभाव था. सब ‘सरस्वतीचंद्र’ को धर्मशात्र मानते. ‘गोवर्धनभाई’ ने किस अवसर पर क्या कहा और कैसा बर्ताव किया, उसके संस्मरण वहां ताजे होते. कभी-कभी वहां नरसिंहराव या बलवंतराव ठाकुर भी आते. किसी ने कुछ लिखा होता, तो वह वहां पढ़ कर सुनाया जाता.

चंद्रशंकर उस समय ‘समालोचक’ का संचालन करते थे. अंबालाल जानी ‘गुजराती’ के उप-सम्पादक थे.

मुझे पहली बार ऐसा मंडल मिला, जो साहित्य को जीवन का प्रथम अंग मानता था. उत्तमलाल त्रिवेदी आयु में बड़े थे, पर इस मंडल में विद्वता की कमी पूरी करते थे. किसी समय उनके पास खूब पैसा था, परंतु नये राष्ट्रीय उद्योग शुरू करने की लगन में उन्होंने पैसा खो दिया था. मुख्य रूप से वे सरस्वती के भक्त थे. उनका सारा कमरा पुस्तकों से भरा था. साहित्य, तत्त्वज्ञान, संस्कृत, अर्थशात्र और राजनीति के वे ज्ञाता थे.

उनका कोमल शांत स्वभाव जिस प्रकार सबको आकर्षित करता था, उसी प्रकार मुझे बुलाते और हम लोग अनेक विषयों पर चर्चा करते. विपक्ष में बोलने की उनमें अच्छी शक्ति थी. अनेक विषयों में उन्होंने मुझे नये ढंग से विचार करने की प्रेरणा दी. उस समय वे तिलक महाराज के ‘कर्मयोग’ का गुजराती अनुवाद कर रहे थे. कभी-कभी उसे भी पढ़ कर सुनाते.

चंद्रशंकर का दरबार रोज बड़ी गम्भीरता और ज़रा आडम्बर से दुनिया के प्रश्नों का निराकरण करने के प्रयत्न किया करता. पर उन सब के पीछे से ऐसी ध्वनि आती रहती थी कि हम शहरी लोग विशेषकर नड़ियाद के, अन्य सब से भिन्न और बढ़ कर हैं. और इसमें उनका दोष नहीं था. अनेक रक्षक हुए, नड़ियाद के मनसुखराम, मणिलाल नभुभाई, गोवर्धनराम, बालाशंकर, दौलतराम पंड्या, छगनलाल पंड्या इन सब के द्वारा गुजराती साहित्य में युग प्रवर्तित हुआ था. उन्होंने गुजराती साहित्य की एक पूर्ण प्रेरक महान कृति ‘सरस्वती-चंद्र’ के द्वारा गुजरात का निर्माण किया था. मनसुखराम ने, जीवन-पर्यंत काठियावाड़ के देशी नरेशों पर राज्य किया था. नड़ियाद ने पुराने विचारों को नया रूप देकर गुजरात के संस्कारों की रक्षा की थी.

यह मंडल इस सारी कीर्ति और सिद्धि का उत्तराधिकारी था. इसके संस्कारों का इन साहित्यकारों ने निर्माण किया, उन्हें प्रेरणा दी थी. साहित्यमय जीवन इसकी सृष्टि थी. उच्च अभिलाषाएं रखना और भावनाओं का पोषण करना इसने अपना धर्म माना था. इसका रचा हुआ वातावरण हीनता या गंवारपन से कलुषित नहीं होता था. इसमें घुल मिल जाना मेरा सौभाग्य था.

इस मंडल में मैं तुरंत मिल गया. गुजराती के सिवा अन्य साहित्य भी मैंने बहुत पढ़े थे. साहित्यिक जीवन मुझे प्रिय था. भावनाओं के अनुसार जीने के प्रयत्न तो मैं करता ही रहता था. संस्कारों की ओर मेरी बड़ी रुचि  थी. जलमुर्गी को जल पाकर जैसा आनंद आता है, वैसा ही आनंद मुझे आया.

मैं भी अपने साथ कुछ नवीन तत्त्व लेकर आया. यूरोपीय साहित्य के अध्ययन से एकपक्षी बनी हुई मेरी दृष्टि, वाणी से झरते हुए विनोद, कटाक्ष और अनियंत्रित, कभी सुरुचि-हीन सर्वग्राही खंडन-शक्ति, मेरा गुजराती का घोर अज्ञान और अरविंद की राष्ट्रीयता- इन सबसे मैं भिन्नता उपस्थित करता.

सारा मंडल और विशेषकर चंद्रशंकर जब बातों की गम्भीरतापूर्वक चर्चा करते तो मेरी विनोद-वृत्ति जाग उठती और मेरे मुंह से कुछ-न-कुछ भयंकर बात निकल जाती.

चंद्रशंकर ने एक कविता लिखी थी. उसमें ‘गर्म-गर्म चुम्बन’ (‘ऊनां ऊनां चुम्बनो’) शब्दों का प्रयोग किया था. जब मैं पहुंचा, तब इन शब्दों के औचित्य के विषय में चर्चा चल रही थी. एक मित्र चुम्बनों के क्या-क्या विशेषण हो सकते हैं, इस विषय पर विद्वतापूर्ण विचार प्रकट कर रहे थे. मैंने कहा- “ये शब्द कविता में होने ही नहीं चाहिए. सारा वर्णन नीरस है. गर्म-गर्म चुम्बन तो अंग्रेज़ी कवियों के ‘हॉट किसेस’ का अनुवाद है. ठंडे इंग्लैंड में गर्म चुम्बन आकर्षक लग सकते हैं, गर्मी देने वाले हो सकते हैं, परंतु गर्म भारत में तो इनसे जलने का दाग बन जायगा. यदि ये आकर्षक न हुए, तो फिर सरस तो हो ही कैसे सकते हैं? इसलिए ये कविता में शोभा नहीं दे सकते.”

एक और भी प्रसंग याद है; यद्यपि यह मैं स्वीकार कर लेता हूं कि उसमें भी मैंने सुरुचि को भंग किया था. एक बार चंद्रशंकर मुझे किसी के यहां ले गये. वहां अनेक मित्र चाय पीने के लिए एकत्र हुए थे. चंद्रशंकर का मैं मित्र था, इससे अनेक लोग मुझे भी नागर समझते थे. उस दिन मेरी आवाज़ बिलकुल बैठी हुई थी, इससे मैं बोल नहीं सकता था.

बातों-ही-बातों में किसी ने नागर जाति की सुंदरियों में ग्रीक-सौंदर्य मिलता है- किसी पुरातत्त्ववेत्ता के इस कथन का प्रतिपादन करना शुरू कर दिया. दूसरे ने अनुमोदन किया. चंद्रशंकर घबराहट से मेरी ओर देखते रहे; कहीं मैं न कुछ कह बैठूं.

कुछेक को छोड़कर समस्त गुजराती जनता के शारीरिक सौंदर्य के विषय में मेरा मत बहुत खराब था, और आज भी है. ग्रीक की सौंदर्य-मूर्त्तियों पर तो मैं बचपन से ही मुग्ध था. कालेज के दिनों से ही मैंने ‘वीनस डमिलो’ के मुख के चित्र को फ्रेम करवा के रखा था. इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है. एक नये परिचित आये, मुझसे बातचीत की और मेरे कमरे की तस्वीरें देखने लगे. टेबल पर वीनस का वह चित्र था! उन्होंने पूछा-

“ये कौन हैं? श्रीमती मुंशी?”

मुझे ऐसे लगा कि मैं अचेत हुआ जा रहा हूं.

ग्रीक-सौंदर्य के विषय में चंद्रशंकर के इस मंडल की आज़ादी से मेरा सिर भन्ना उठा. जैसे-तैसे आवाज़ निकाल कर मैंने कहा-

“यदि तुम लोगों की बात सच है और हममें ग्रीक-सौंदर्य का अंश है, तो हम जैसों को पैदा करने के लिए तो बेहद बदसूरती इकट्ठी की गयी होगी.”

1913 में चंद्रशंकर के बड़े मंडल में एक छोटा मित्र मंडल बना. उसका नाम मैंने ‘षड्रिपलुमंडल’ रखा था. उसमें मैं, चंद्रशंकर, मास्टर, कांतिलाल पंड्या, नृसिंह विभाकर और इंदुलाल याज्ञिक थे. इन छहों में मास्टर का और मेरा विचित्र रूप से सम्बंध बंध गया. उद्योग में पड़कर मास्टर ने साहित्य छोड़ दिया, परंतु उनकी रसिकता स्थिर रही. अनेक बार मैंने उन्हें अपने सुख-दुख का भागी बनाया है और आज भी हम दोनों परम मित्र हैं. जीवन के एक धन्य-क्षण में, जिसे वे भांजा मानते थे, उसके साथ भी उन्होंने ही परिचय कराया. आज हम दोनों समधी हैं.

उस समय न्यायमूर्ति नारायण चंदावकर- शायद तब ‘सर’ नहीं बने थे- हर रविवार को ‘स्टुडेंट्स ब्रदर-हुड’ में व्याख्यान दिया करते थे. विद्यार्थियों को उनसे प्रेरणा मिलती थी. वहां सोशल रिफार्म एसेसिएशन का समारम्भ हुआ. मैं विधवाओं की दशा पर बोला और चंदावरकर ने खुली सभा में मेरा अभिनंदन किया. इसके बाद मुझमें कुछ आत्म-विश्वास उत्पन्न हुआ.

चंद्रशंकर के मंडल ने भी मुझे खूब प्रोत्साहन दिया. ‘दि यूनियन’ में होने वाले वाद-विवादों में मैं खूब दिलचस्पी लेने लगा. इस मंडल में प्रगतिशील गुजराती साहित्य के प्रति मुझमें प्रेम जागृत होने लगा. और मैंने गुजराती में पत्र व्यवहार करना आरम्भ कर दिया.

1912 के शुरू में ‘स्टुडेंट्स ब्रदर-हुड’ की ओर से स्टोरी एण्ड प्रेकृस ऑफ सोशल सर्विस विषय पर ‘मोतीवाला पारितोषिक निबंध’ की घोषणा हुई. दलपतराम मुझे मोतीवाला के पास ले गये और उन्होंने मुझे समाज सेवा पर प्रकाशित हुई अनेक पुस्तकें दीं. मैंने निबंध लिखा. अंतिम तारीख को शाम के सात बजे मैं मंत्री के यहां गया और निबंध दे आया. पारितोषिक मुझे मिला. ‘प्रेसिडेन्सी ऐसोसिएशन’ लेडी रतन टाटा के हाथों वह प्रदान किया गया. चंद्रशंकर और मास्टर को बड़ा हर्ष हुआ.

एक दिन एक पत्र आया. किसी गुजराती पिता की शिक्षित लड़की मुग्ध हो गयी है और मुझसे मिलना चाहती है. पहले तो मैं सोच में पड़ गया. फिर शब्दों से कुछ मजाक का आभास हुआ. विचार में डूबा हुआ मैं चंद्रशंकर से मिला. वे भी गम्भीर सोच में पड़े थे.

“मुनशी, भाषण खत्म होने पर हम साथ ही चले थे, नहीं?”

“हां.”

“कौन-कौन लड़कियां हमें मिली थीं, याद है?… बहन थीं?”

“मैं ठीक पहचानता नहीं हूं.”

“वही होंगी. किसी से कहना मत. इसे पढ़ो?”

यह कहकर उन्होंने मेरे पत्र जैसा ही दूसरा पत्र मुझे दिखाया. उसमें वह अज्ञात बाला चंद्रशंकर के संस्कार-युक्त लेखों पर मुग्ध हो गयी थी और उनसे मिलना चाहती थी.

मैं अपना पत्र ले आया. हमने दोनों पत्रों का मिलान किया और इस निश्चय पर आये कि यह मास्टर ने ही मज़ाक किया है. यह विश्वास होने पर हम दोनों में से किसका चेहरा उतर गया, यह मैं नहीं बता सकता!

1912 में हमने सभा का पुनर्निर्माण किया. उसका नाम ‘गुर्जर सभा’ रखा और जहां तक मुझे याद है, उसका एक मंत्री बनने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ था.

साथ-ही-साथ भडौंच, सूरत और मांडवी के भार्गवों के तीन विभागों को एक करने के लिए हमने एक मंडल स्थापित किया और में नरुभाई के साथ सह-मंत्री बना. अगस्त में ‘भार्गव त्रैमासिक’ निकला और मैं सम्पादक बना. सम्पादक बनने का यह मेरा पहला अनुभव था. कागज़ लाने, छपवाने और बंद करने आदि का सारा काम दलपतराम और मैं करते. सब बिरादरियों के पत्रों के सम्पादकों की परिषद स्थापित करने में भी मैंने हिस्सा लिया. ‘समाज-सुधार कान्फ्रेंस’ का भी एक वर्ष मंत्री रहा. देवघर के साथ ‘सोशल सर्विस लोग’ के काम में भी  सहायता दी- इसी वर्ष या अगले वर्ष, यह याद नहीं.

1910 में भड़ौंच की बिरादरी में माधुभाई साहब और मैंने मिलकर जो ‘शिक्षा फंड’ खोला था, उसे सुदृढ़ बनाने के प्रयत्न भी किये. इस प्रकार मैं चारों ओर तन्मयता दिखलाता गया.

1912 की दीपावली पर जीवन में नया उत्साह आता जान पड़ा. “आज चढ़ता साल है. भविष्य अच्छा होता दीख रहा है. नये जीवन में नयी आशाएं संचरित हो रही हैं. यह दीवाली सारे परिवार के साथ सुख और शांति से बितायी.”

परीक्षा की तैयारी करने के लिए लक्ष्मी और मैं पंछा शंकर काका के डुम्मस वाले बंगले पर गये. वहां कुछ पुरानी स्मृतियां ताज़ी हुई. दो एक दिन ‘डायरी’ रोती रही, व्याकुल होती रही और फिर पढ़ाई के बोझ से समझदार बन गयी.

उस समय मैं ‘नियंत कुरुकर्मत्वम्’ का जाप करके साहस बटोरा करता था.

उस समय की एडवोकेट की परीक्षा युवकों का जीवन नष्ट करने के लिए रखी गयी थी. क्या पढ़ना चाहिए, इसकी कोई मर्यादा नहीं थी. किन विषयों के प्रश्न-पत्र साथ-साथ निकलेंगे, यह निश्चित नहीं था. नम्बर का भी कुछ ठीक नहीं था. परीक्षा में बैठे विद्यार्थियों में से अच्छे-से-अच्छे एक-दो को परीक्षक चुन लेता था. पहले वर्ष कदाचित ही कोई पास होता. दो-चार वर्ष बैठे रहना तो साधारण बात थी. मैंने अपनी तैयारी करने में कोई कसर न छोड़ी. एक महीना डुम्मस में रहा, दो महीने भड़ौंच में पढ़ा और बम्बई आया. एक विद्यार्थी ने स्वागत किया.

“मिस्टर, पहली बार आये हो? जाओ, दो-चार वर्ष ठहर कर आना.”

परीक्षा शुरू हुई.

“बहुत थोड़ी आशा है. कमज़ोर तबीयत और उससे भी अधिक कमज़ोर तैयारी.”

पहली मार्च की परीक्षा खत्म हुई.

“प्रश्न अच्छे थे. ठीक उत्तर दिये हैं, परंतु मुझे से जबर्दस्त दबंग विद्याथv मुझे पटक देंगे” मैंने लिखा. फिर मैं तुरंत माथेरान गया.

अपने जीवन में मैंने यहां पहली ही बार पर्वत देखा. उसपर के वृक्षों के जमघट, उसकी एकांत झाड़ियां, उसकी गाती हुई चिड़ियां और उसके जंगली पुष्पों ने मुझे हमेशा शांति और प्रेरणा प्रदान की है. उस पर घूमते-फिरते मैंने जीवन के अनेक महासंकल्प किये हैं. आज भी यह जीवन-कथा वहीं बैठ कर लिख रहा हूं.

करतार सिंह और मैं दोनों कंधे पर कोट डालकर स्वच्छंदता से विहार करते, गाना गाते, खूब टहलते और खूब सोते थे.

11 मार्च को बधाई के पांच-छह तार आये. मैं भाग्यवान निकला. एक ही छलांग में इस दुरूह परीक्षा से पार हो गया.

मैं एडवोकेट बन गया. संशय, कठिनाई,   घबराहट सब दूर हो गये. खुशी के मारे सारी रात नींद न आयी.

जीवन के कठिन-से-कठिन छह वर्ष, 1907 से 1913, इस प्रकार समाप्त हुए.

गिरा, लड़खड़ाया और आघात सहे. अंत में सीधी चढ़ान वाली कठिन मंज़िल मैंने तय कर ही ली; किंतु इससे भी अधिक कठिन अगली मंज़िल मेरी आंखों के सामने खड़ी थी.

(क्रमशः)

फरवरी  2014

 

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