सार्थकता

♦   वचनेश त्रिपाठी    

     नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी. नदी तीव्र वेग से महासागर की ओर बढ़ी जा रही थी.

    एक कौवे ने लाश को देखा, तो प्रसन्न हो उठा, तुरंत उस पर आ बैठा. यथेष्ट मांस खाया. नदी का जल पिया. उस विशालकाय लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए कौवे ने परम तृप्ति की डकार ली. सोचने लगा- ‘अहा! यह तो अत्यंत सुंदर यान है, यहां भोजन और जल की भी कमी नहीं. फिर क्यों इसे छोड़कर अन्यत्र भटकता फिरूं?’

    कौवा स्वयं को संसार में बड़ा सयाना समझता था. नदी के साथ बहने वाली उस बृहत लाश के ऊपर वह अनेकों दिन रमता रहा. भूख लगने पर वह उस लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता. चतुर्दिक प्रकृति के मनोहरी दृश्य मूर्त थे. उन्हें देख-देखकर वह मन-ही-मन विभोर होता रहा और संसार के इतर जीवों से अपना जीवन सफल एवं धन्य मानता रहा.

    एक दिन महासागर से नदी का मिलन हुआ. नदी मुदित थी कि अंततः उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ, यह सागर से मिलन ही उसका चरम लक्ष्य था, किंतु उस दिन लक्ष्यहीन कौवे की बड़ी दुर्गति बनी. शारीरिक सुखों और चार दिन की संतुष्टि ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहां उसके लिए न भोजन था, न पेय जल और न क्षण भर के लिए कोई आश्रय. सब ओर सीमाहीन अनंत खारी जल-राशि स्वच्छंदतापूर्वक तरंगायित हो रही थी.

    कौवा बहुत ही क्लांत-श्रांत-सा क्षुधित-तृषार्त्त हो कुछ दिन चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता फिरा, किंतु उसे कहीं महासागर का ओर-छोर नज़र नहीं आया और तब थककर, दुख से कातर हो, उन्हीं गगनचुंबी लहरों में वह गिर गया. कोई गति नहीं. कोई द्वीप नहीं. सत्वर एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया.

    यह दृष्टांत देखकर तथागत ने कहा- ‘भिक्षुओं! शरीर-सुख में लिप्त संसारी मनुष्यों की भी गति उसी निर्बुद्धि कौवे की गति की तरह ही होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानता आया था.’

( फरवरी  1971 )

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *