गांधीजी ने कहा था- ‘एक समय में मैं मानता था कि परमेश्वर सत्य है. अब मैं मानता हूं कि सत्य परमेश्वर है.’
यह सत्य मुझे आनंद, स्वतंत्रता और शांति देता है. तब मुझे इसकी सेवा कैसे करनी चाहिए? मैं किसी दूसरे के कहने से, अथवा आज्ञा से, कोई काम करता हूं तो मेरा आत्मा विद्रोह करता है. मैं बेचैन हो जाता हूं. मुझे ऐसा लगता है कि मैं अपने सत्य की उपासना नहीं करता. मैं विषय सुख का उपभोग छोड़ दूं. परंतु मन से उसका रस लेता रहूं, तो मुझे लगता है कि असत्य का आचरण करता हूं. क्यों? फ्रांसिस बेकन ने सत्य की उपासना नहीं की, परंतु शंकर, दयानंद, सेंट आगस्टाइन और मार्क्स ओरेलियस ने की. मुझे यदि सत्य की उपासना करनी हो तो मुझे अपने प्रति सत्यनिष्ठ बनना चाहिए. मुझे मेरा अपनापन जगाना चाहिए. अर्थात आत्मवान बनना और सत्य की उपासना करना एक ही बात है.
(कुलपति के.एम. मुनशी भारतीय विद्या भवन के संस्थापक थे.)