वरना होली तो हो ली…  –   सुदर्शना द्विवेदी

फाग-राग

मौसम में खुमारी अब भी आती है और हवाओं में मस्ती भी, मगर वे रंग, वह उछाव जो वसंत जाते ही फगुनाहट से रोम-रोम सिंचित करने लगता था- वह? क्या वह भी अब है? यह सवाल हाल में पूछे गये एक और सवाल से उपजा है. हाल में किसी ने पूछा- होली क्या होती है? जाहिर है उनकी मंशा होलिका दहन से जुड़ी पौराणिक कथा जानने की तो नहीं ही थी. प्रश्न होली और अन्यान्य त्योहारों के बदलते स्वरूप और उनकी उपादेयता से ही जुड़ा था. और शायद इस बात से भी कि हमारे त्योहारों से जुड़ी उत्सवधर्मी मानसिकता को जंग क्यों लग गया है!

यादों के गलियारे में पीछे मुड़कर देखती हूं तो होली वह त्योहार नज़र आता है जहां सुबह से खीर-गुलगुलों, पूरी-पकवान की खुशबू रसोईघर से बाहर निकल कर हमारे संयम को ललकारने लगती थी. पिछले सप्ताह से बन रही गुझिया, लड्डू, सोन-पापड़ी की शृंखला का यह अंतिम चरण था, जिसकी समापन कड़ी होलिका-दहन पर होनी थी. तब तक सावधानी से हमारी नज़रों से भी जूठे होने से बचाये जानेवाले ये व्यंजन हमारी पहुंच से बाहर थे. खीर, गुलगुले, पूरियां आदि तो सुबह की पूजा के बाद मिल जायेंगे लेकिन बाकी चीज़ें होलिका को अर्पित होने के बाद ही मिलनेवाली थीं, पूर्ण चंद्र की छांव में गन्ने पर बंधी होली की आग में भुनी जौ की बालियों के साथ. और फिर शुरू होगा बड़े-बड़े ड्रमों में टेसू के फूल भिगोने का सरंजाम. बड़े-बड़े थालों में सजता अबरक से चमकता लाल गुलाल और निकलती पीतल की बड़ी वाली पिचकारी. सवेरा होते ही हर तरफ से ढोल-नगाड़े, ‘आज बिरज में होली है रसिया’ गाती हुरिहारों की टोलियां वातावरण को रंग और तरंग से भर देती थीं. रंगे-पुते चेहरोंवाले पिताजी के सहयोगी व छात्र उनके माथे पर गुलाल लगाकर गले मिलते या पैर छूते. छोटा-बड़ा हर व्यक्ति-नाई हो या चौकीदार या सफाईवाला- उस दिन बेतकल्लुफी से गले मिलने का अधिकारी था. होली बीत जाती थी पर उसके पकवान और मस्ती बहुत बाद तक कायम रहती थी. अब युग है ‘इंस्टेंट नूडल’ का, लिहाजा ये हफ्तों चलनेवाली होली भला किसे पोसायेगी? घंटो सिल-बट्टे पर रगड़ी जानेवाली भांग की जगह जब स़ाफ-सुधरी इलीट, विहस्की और वोदका ले चुकी है तो अब हफ्तों मेहनत करके घी और मैदा-शक्कर के ‘स्वास्थ्य खराब करनेवाले व्यंजनों’ की किसे दरकार है. यों ये सब बनाने की फुरसत भी किसके पास है. रहा त्योहार तो उसे तो मनाने के और भी तरीके हैं. यदि त्योहार, सप्ताहांत के आस-पास है तो शहर के बाहर जाइए और सपरिवार छुट्टी का आनंद लीजिए. ऐसा नहीं है तो कई होटल होली पर स्पेशल प्रबंध किये हुए हैं, जाइए और बिना मेहनत के वहां खा-पीकर त्योहार मना लीजिए. उतना भी नहीं तो बड़े नगरों की हाउसिंग सोसायटियों के सामूहिक लंच और टैंकरों द्वारा लाये पानी की बौछार में भीगकर होली मना लीजिए. पिछली रात को न्यू इयर के ओल्ड मैन की तर्ज पर कुछ अक्कड़-बक्कड़ जलाकर लोग अपनी सुविधा से होली जला ही चुके होंगे. ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली’ सारे दिन टर्रा कर आपके कान बहरे कर ही चुका होगा. रही सही कसर ‘बलम पिचकारी, जो तूने मुझे मारी’ पूरी कर देगा. टीवी और हर तरफ से धूम मचाते लाउडस्पीकरों पर बजते गीतों पर ही तो होली के सांस्कृतिक पक्ष को जीवित रखने का दारोमदार है!

नगरों और कस्बों-देहातों में ज़रूर अब भी होली का वह पक्ष जीवित है जहां मुहूर्त पर होलिका-दहन, थोड़े-बहुत पकवान बनना और रिश्ते-नातेवालों के यहां आना-जाना शामिल है, पर बदलाव वहां भी आ रहे हैं. खासकर नयी पीढ़ी या तो दबाव में, कुछ बोल न पाने की मजबूरी में या फिर भुनभुनाते हुए ही इनमें सहयोग दे रही है. त्योहार उत्साह से मनाने की नहीं, झेलने की वस्तु रह गये हैं. कई लोग इसका दोष बढ़ती महंगाई को देते हैं. सच है महंगाई है. पर परिवार भी तो छोटे हुए हैं. महंगाई भले न इतनी रही हो, पर लोगों की आमदनी भी तो पहले कम थी. तब भरे-पूरे परिवारों में भी गृहिणी की सुघड़ता से त्योहार हर्षोल्लास और उत्साह से मनते थे. सब को नये कपड़े बनाने का, हर कामवाले को खाना और इनाम देने का चलन ज़रूर था. वह दिन खास होता था, आम दिनों से अलग और इसलिए महत्त्वपूर्ण था. होली का एक और भी महत्त्व था- उन्मुक्तता. साल भर अंकुश में बंधा मन उस एक दिन निरंकुश होने के लिए आज़ाद था. चाहे वह कबीरा गाता हो, होली की छेड़छाड़ हो या भंग-ठंडाई की तरंग में डूब जाना हो.

पर आज जब वैयक्तिकता और निजता की खोज में उन्मुक्तता, उच्छृंखला की हद तक पहुंच रही है, भाषा और आचार-विचार-व्यवहार सीमाएं और बंधन तोड़ रहे हैं, छोटे-बड़े के लिहाज़ की बात, दकियानूसी और संस्कृति को पोंगापंथी का समानार्थी माना जा रहा है तो यह एक दिन की उन्मुक्तता चाहिए ही किसे? तो फिर होली को तो अपने अर्थ खोने ही थे. जैसे मदनोत्सव, वसंतोत्सव कालांतर में अपनी प्रासंगिकता और उपयोगिता खो चुके हैं वैसा ही कुछ हाल होली और अन्य त्योहारों का होता दिखता है. क्योंकि यदि वर्तमान पीढ़ी की दिलचस्पी इनमें समाप्त या शून्यप्राय हो रही है तो पिछली पीढ़ी गुज़र जाने के बाद उन्हें जारी कौन रखेगा- और क्यों रखेगा?

कुछ चीज़ें अभिमान से जुड़ी होती हैं- भाषा और संस्कृति ऐसी ही चीज़े हैं. मुझे स्वयं ही यदि अपनी भाषा पर अभिमान नहीं रहेगा तो उसकी रक्षा, देखभाल और साज-संवार मैं क्योंकर कर पाऊंगी. यही बात संस्कृति की है- यदि संस्कृति के सही अर्थ ही समझ में नहीं आ रहे तो अपनी सांस्कृतिक-धरोहर की बात कैसे समझ में आयेगी? हम्पी, हड़प्पा और तक्षशिला के खंडहर देखने में तो दिलचस्पी है, पर तेज़ी से काल के गाल में समा रही अपनी जीवंत सांस्कृतिक विरासत की चिंता किसी को है क्या?

हमारे विविधरंगी देश में त्योहारों की एक ऐसी समृद्ध पूंजी है, जिसे यदि हम अभिमान से स्वीकारें और अंगीकार करें तो जीवन हर्ष, उल्लास और पारिवारिक ऊष्मा का बहुरंगी संगम बन सकता है. त्योहार पूरे परिवार के परस्पर संप्रेषण और रिश्तों को जोड़ने-मज़बूत करने का काम कर सकते हैं. वही हैं जो परम्परा की खूबसूरत कड़ियों से पुरानी से नयी पीढ़ी के बीच संवाद स्थापन का काम करते हैं. अपने देश, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति के जीवंत पक्ष की गहरी नींव पर खड़े हुए बिना हम बालू के उस भुरभुरे महल की तरह हैं जो कभी भी धराशायी हो सकता है. उत्सवधर्मिता मानव-स्वभाव का अंग है. हमें अपने जीवन में नये उत्सव शामिल करने के लिए पुराने उत्सवों को बाहर धकेलन की ज़रूरत नहीं है. नये-नये उत्सवी विकल्प खोजने के बावजूद अपनी जड़ों से जुड़े उत्सव-त्योहार हमें ज़मीन देने के लिए ज़रूरी हैं.

आज कितना भी खूबसूरत क्यों न हो, शून्य में नहीं लटक सकता. उसका आनेवाला कल जितना स्वप्निल और सम्भावनाओं से धड़कता हुआ है उतना ही मीठा, विश्वसनीय और आश्वस्तिदायक उसका बीता हुआ कल है. दोनों का हाथ पकड़ कर ही आज खड़ा होता है. दोनों में से एक का भी हाथ छूटेगा, तो संतुलन बिगड़ जायेगा और वह भहरा कर गिर पड़ेगा. वक्त रहते हम यह बात समझ लें और विकास के भ्रम में, पराये अंधानुकरण में अपने रंगों, खुशबुओं और गीतों से मुंह न मोड़ें, तभी सच में होली होगी, वरना होली तो हो ली!           

मार्च 2016       

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