लेखक की आत्महत्या

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    ‘जापानी होना एक पेचीदा किस्म के सपने को जीना है.’

    ये शब्द लिखनेवाले विश्वप्रसिद्ध जापानी लेखक, 45 वर्षी यू किओ मिशिमा ने बड़े नाटकीय ढंग से आत्महत्या कर ली है.

    गत 25 नवम्बर की दोपहर को अपने कुछ सशस्त्र अनुयायियों के साथ, जो जापानी सम्राट की रक्षा के लिए उसके द्वारा स्थापित ‘ढालों की संस्था’ के सदस्य थे, मिशिमा जापान की पूर्वी सुरक्षा सेना के लेफ्टिनेंट जनरल कानेहोशी माशीटा के कार्यालय में पहुंचा.

    जनरल प्रतीक्षा में बैठा था, क्योंकि मिशिमा ने उससे मुलाकात का समय लिया था. उसका ध्यान मिशीमा की कमर से झूलती सुंदर सामुराई तलवार पर अटक गया. लेखक ने तलवार निकालकर उसके आगे कर दी. जब जनरल उसकी सराहना कर रहा था, तभी मिशिमा के अनुयायी भीतर घुस आये और उन्होंने जनरल की मुश्कें बांध दीं. फिर मिशिमा ने उस कार्यालय के छज्जे पर से जापानी सैनिकों को सम्बोधित करके भाषण दिया. उसने उनसे सम्राट के नाम पर वर्तमान सरकार के खिलाफ बगावत करने, वर्तमान संविधान को रद्द करने और 1930 की तरह हुकूमत की बागडोर अपने हाथ में लेने की अपील की.

    नीचे खड़े युवा सैनिक सुनकर हंसते रहे. और ‘बाका’(बेवकूफ!) चुल्लाते रहे. मगर मिशिमा बोलता रहा- ‘आज तक मैं प्रतीक्षा करता रहा हूं कि देश के रक्षक सैनिक अवश्य एक दिन बगावत का झंडा ऊंचा करेंगे. लेकिन आज तक किसी ने भी यह कदम नहीं उठाया… फिर 11 नवम्बर को, युद्ध-विरोधी दिवस के नाम पर, जापान के वामपंथियों ने टोकियो में जो विशाल प्रदर्शन किये, उनसे स्पष्ट हो गया कि जापान में फौजी हुकूमत कायम होने की सम्भावना लगभग खत्म हो गयी है…’

    ‘साम्राट जिंदाबाद!’ के नारे के साथ अपना भाषण समाप्त करके वह जनरल माशीटा के कमरे में वापस आ गया. वह फर्श पर लालथी मारकर बैठा और छुरी से अपनी आंतें काट डालीं. तभी पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार उसके प्रधान सहायक ने उसकी गर्दन पर तलवार का भरपूर वार करके उसकी इहलीला समाप्त कर दी. उस अनुयायी का सिर एक और साथी ने कलम कर दिया.

    यूकिओ मिशिमा ने दो-तीन साल पहले, एक फिल्म बनायी थी, आधे घंटे की लम्बाई की. इसका वह लेखक भी था, निर्माता भी, निर्देशक भी, और प्रधान पात्र की भूमिका करनेवाला अभिनेता भी. फिल्म का नाम था ‘यूकिको’ यानी देशप्रेम. कहानी यह है कि एक अफसर महल में पहरे पर नियुक्त है. वह अपने साथियों को सत्ता हथियाने के लिए सम्राट के विरुद्ध षड्यंत्र करते देखता है और जब उनका प्रतिरोध नहीं कर पाता है, तो अपनी राजभक्ति और देशप्रेम का सबूत देते हुए वह अपने पेट में तलबार घोंपकर आत्महत्या कर लेता है.

    जो चीज उसने पटकथा में लिखी थी और परदे पर अभिनीत की थी, वही उसने अंततः अपने जीवन में कर दिखायी.

    सोलह उपन्यासों, तैंतीस नाटकों, अस्सी कहानियों, विभिन्न विषयों पर अनगिनत लेखों और अन्य अनेक प्रकार की रचनाओं का यह प्रणेता द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से जापान का सर्वश्रेष्ठ लेखक और विश्व के महान लेखकों में समझा जाने लगा था.

    मगर लेखक के अलावा वह और भी बहुत कुछ था. वह पेशेवर गायक था, योद्धा था, अभिनेता और फिल्म-निर्देशक था. उसे शिकार का, तलवारबाजी का, कुश्ती लड़ने का और वजन उठाने का शौक था. उसकी गणना देश के सबसे शक्तिशाली व्यक्तियों में होती थी. उसका जीवन मौत से खिलवाड़ करनेवाले दुःसाहसों के साथ ही ऐशइशरत और रंगरेलियों से भी भरा हुआ था. लेकिन यह सब उसे अपना वास्तविक जीवन नहीं प्रतीत होता था और अक्सर वह कहा करता था- ‘यह भौतिक संसार मुझे एक छलावा प्रतीत होता है. साहित्य का संसार ही मेरे लिए असली संसार है.’

    सन 1947 से कुछ पहले तक वह किमिटा के हिराओका नाम का रूपवान, छैल-छबीला और सुनहरे भविष्य के सपनों में डूबा नवयुवक था. वह एक अच्छे परिवार में जनमा था, और उसने अच्छी शिक्षा पायी थी. पढ़ाई पूरी होते ही उसे सरकार के अर्थ-विभाग में नौकरी मिल गयी. अगर वह नौकरी में डटा रहता, तो शायद कुछ ही वर्षों में अर्थ-सचिव के पद पर पहुंच जाता. लेकिन नौकरी उसे रास न आयी.

    यों तो उसे जापानी परम्परा के अनुसार अपने शरीर और मन पर नियंत्रण रखने और संतुलित व्यक्ति के रूप में जीवन जीने की शिक्षा दी गयी थी, परंतु वह उस पर अमल न कर सका. अठारह साल की उम्र में ही उसे मौत के प्रति अजीब-सा लगाव हो चला. वह फौज में भर्ती होने की घड़ी की प्रतीक्षा करने लगा, ताकि मौत से आमना-सामना करने का मौका पा सके.

    उन्हीं दिनों उसने रेमंड रैडिग्वेट नामक उपन्यासकार के विषय में पढ़ा, जो कई ब़ढिया उपन्यास लिखकर केवल बीस साल की उम्र में चल बसा. वह भी रैडिग्वेट की तरह महान उपन्यास लिखकर बीस साल की उम्र में मर जाने के सपने देखने लगा.

    लेकिन जापान में कोई परम्परागत मूल्यों को माने और उपन्यासकार बन जाये, यह तो उन मूल्यों को तिलांजलि देने जैसा है. हिराओका ने इसकी परवाह न करते हुए लिखना आरम्भ किया. लेखक बनने के लिए वह किसी भी मान्यता-आस्था को ठुकरा सकता था. जब वह उन्नीस वर्ष का था, उसका पहला कहानी-संग्रह ‘फूलों-भरा जंगल’ छपा. फिर तो लिखने का शौक इस कदर बढ़ा कि छः महीने के भीतर वह सरकारी नौकरी छोड़ बैठा, और जोर-शोर से लिखने लगा. तभी हुआ हिराओका का पुनर्जजन्म ‘यूकिओ मिशिमा’ के रूप में.

    अपना पहला उपन्यास ‘एक नकाब की स्वीकारोक्ति’ उसने उन्हीं दिनों लिखा. समलैंगिक सेक्स पर लिखा गया यह उपन्यास साधारण पाठक की दृष्टि में घिनौनी और वीभत्स पुस्तक है. इसके कारण यूकिओ मिशीमा के लिए समाज में इज़्ज़त और संतुलित जीवन जीने के दरवाज़े बंद हो गये. वह पुरानी पारम्परिक और दकियानूसी कद्रों-कीमतों की सीमाओं को लांघ गया.

    उन दिनों के अनुभवों के विषय में उसने लिखा है- ‘एकाएक मेरी बेचैनी जाती रही, और मैं बहुत आनंद अनुभव करने लगा. यह ऐसा अहसास था, जैसे किसी व्यक्ति को लम्बे अरसे से पता हो कि उसके अंदर कोई बहुत बड़ी गड़बड़ है, आखिर एक दिन उसे पता लगे कि वह गड़बड़ एक जानी-पहचानी बीमारी है, और उसका इलाज हो सकता है और इलाज कराने के लिए उसे अस्पताल में जगह मिले जाये.’

    यूकिओ मिशिमा को नया रास्ता मिल गया था. कई पुराने बंधनों को तोड़कर वह उस रास्ते पर चलने लगा. अब वह जोर-शोर से लिखने लगा- उपन्यास, कहानियां, कविताएं, नाटक, लेख, पटकथाएं. कुछ ही समय में वह सारे जापान पर छा गया.

    लेखन के अलावा उसके तरह-तरह के शौक थे, और शान-शौकत और सज-धज-भरी जिंदगी के कारण उसके नाम की चर्चा होने लगी. लोग उसे सिरफिरा कहते, सनसनी फैलाने वाला सनकी कहते, बहुमुखी प्रतिभाओं से संपन्न अजूबा कहते.

    एक बार उसने खुद एक महिला से कहा था- ‘मैं तड़क-भड़क वाला आदमी हूं, और मेरे शौक भी तड़क-भड़क वाले ही हैं.’ वह मंहगे-से-मंहगे कपड़े पहनता. अपने लिए कफलिंक और टाई-पिन रोम से खास तौर पर मंगवाता. वह शाही ठाठ से रहता था, उसका घर बहुत बड़ा और आलीशान था, ऐशो-आराम के बढ़िया सामान से सुसज़्ज़ित था.

    लेकिन उसके अध्ययन-कक्ष का स्वरूप कुछ और ही था- शेष घर से सर्वथा भिन्न और बेमेल. अन्य कमरों की-सी तड़क-भड़क और साज-सजावट का वहां एकदम अभाव था, और गम्भीरता का वातावरण था. तीन तरफ की दीवारें छत तक कमरे तक पुस्तकों के रैकों से पटी हुई थीं. बीच कमरे में एक बड़ी मेज,एक छोटी मेज और दो कुर्सियां थीं. बड़ी मेज पर अधूरे लिखे उपन्यासों, नाटकों, लेखों आदि की पांडुलिपियां रखी रहतीं.

    मिशिमा एक साथ कई-कई चीजें लिखा करता था, उपन्यास को वह अपनी ‘साहित्यिक पत्नी’ कहता था और नाटक को ‘उपपत्नी’. लेखों को वह अपना गौण कार्य मानता था. हर साल वह कम-से-कम एक नाटक ज़रूर लिखता था.

    अध्ययन-कक्ष और शेष घर में जो फर्क था, वही उसके लेखनीय और सामाजिक जीवन में भी था.घर पर वह शानदार पार्टियां देता, जिनमें प्रसिद्ध लेखक, राजनीतिक नेता, फिल्मी कलाकार, प्रकाशक, राजदूत आदि आते. बढ़िया-से-बढ़िया भोजन और महंगी-से-महंगी शराब परोसी जाती. मेहमानों के संग मिशिमा जी-भर खाता, शराब के अनूठे मिश्रण पीता, खिल-खिलाकर हंसता, अंग्रेज़ी के गीत गाता, विभिन्न विषयों पर बातें करता और रंग-रेलियां मनाता. हर कोई उसके व्यक्तित्व से प्रभावित होता. पार्टी चलती रहती, और मिशिमा पार्टी में नयी खुशियां और रंगीनियां भरता रहता. आखिर रात के ग्यारह बज जाते. तब वह अचानक पार्टी से उठकर चला जाता. मेहमानों को तनिक भी आश्चर्य न होता. उन्हें पता था कि ग्यारह बजे के बाद वह रुकेगा नहीं.

    पार्टी से उठकर मिशिमा गर्म पानी से नहाता, थोड़े से चावल खाता, एक प्याला चाय पीता और एकदम शांत और गम्भीर होकर अध्ययन-कक्ष में प्रवेश करता. तब वह जैसे एक नया व्यक्ति होता. फिर तो सारी रात लिखना जारी रहता. रोज का लगभग बीस पृष्ठ का कोटा पूरा होने तक वह उठने का नाम न लेता, न कुछ खाता-पीता, तपस्वी की तरह एकाग्र-भाव से लेखन-कर्म में लगा रहता, उसी के शब्दों में-

    ‘लिखना मेरे लिए कोई लक्ष्य नहीं है. वह मेरे जीवन की आधारभूत आवश्यकता है. श्वास-प्रश्वास की तरह सहज-स्वाभाविक है. वही श्वास-प्रश्वास है. मेरे अन्य कार्य अस्वाभाविक श्वास-प्रश्वास हैं- हांफने और छींकने की तरह. मैं अन्य कार्य करते हुए प्रायः सोचा करता हूं कि क्या ये मेरे लिए ज़रूरी है. लेकिन आदमी को श्वास-प्रश्वास के अलावा और भी तो कुछ करना चाहिए.’

    ‘और भी कुछ करने के लिए ही वह शोर-गुल से भरी जिंदगी जीता था. उसके शब्द हैं- ‘मैं एक ऐसा जीवन जीना चाहता हूं, जो मेरे लेखकीय जीवन से बिलकुल उलटा हो. मैं काफी शोर-शराबा मचाता हूं, और लोग मुझे सिरफिरा और उच्छृंखल समझते हैं. जब लिखना शुरू किया था, मैं सोचा करता था कि कितना विचित्र लगता है वह उपन्यासकार, जो सारी दुनिया का दर्द अपने चेहरे पर लिये घूमता है! वास्तव में, सच्चे उपन्यासकार को सर्वदा प्रसन्न दिखाना चाहिये. स्टैंडाल या बालजाक को पढ़िए. उनके उपन्यासों में गहन विषाद से भरे पृष्ठों के पीछे भी उनके प्रफुल्लित मुखड़े दिखाई देते हैं.’

    यूकियो मिशिमा में एक और तीव्र अंत-विरोध भी था. जहां वह नितांत आधुनिक था, वहां बेहद रूढ़िवादी भी था. वह एक तरफ जापान को आधुनिक देश के रूप में देखना चाहता था, तो दूसरी तरफ उसके पारम्परिक रूप को भी कायम रखना चाहता था. जैसा कि उसने लिखा है-‘वर्तमान जापान अनेक अंतविरोधों एवं विभिन्न संस्कृतियों का सम्मिश्रण है. मुझे उसके वर्तमान में जीना चाहिए, लेकिन मैं उस वर्तमान के विरुद्ध लड़ना भी चाहता हूं.’

    … राष्ट्रों को अति सभ्य बन जाने के बाद भी अपनी आदमी शक्ति कायम रखनी चाहिए. कोई भी देश अपनी सैनिक शक्ति खो देने पर अधःपतन को पाकर ही रहता है… शारीरिक बल एक आध्यात्मिक वस्तु है… जब मैं ‘केंडों’ (तलवारबाजी) खेलता हूं, तो जैसे मैं अठारहवीं सदी के जापान में लौट जाता हूं. एक क्षण के लिए मुझे अपने पूर्वजों का, अपने पुराने धर्म का अहसास होता है. मैं यह भी महसूस करता हूं कि आज का आधुनिकतावादी जापान एक छलावा है, जो मुझे आनंद देता है. जब महसूस करता हूं कि हर चीज़ छलावा है, तो मुझे सुखद अनुभव होता है.’

    ऐसा ही अंतविरोध उसके राजनीतिक विचारों में भी था. वह सम्राट का भक्त था, और अपने देश की प्रजातंत्रीय सरकार का विरोधी था. उसने शानदार वर्दी वाली एक निजी सेना संघटित की थी, जो सम्राट की कट्टर भक्त थी. वैधानिक शासन की जगह फिर से सैनिक शासन की स्थापना देखने का सपना वह देखा करता था. इसी कारण उसने सेना के कई बड़े अधिकारियों को बगावत के लिए उकसाने की कोशिश की थी, जिस में विफल होकर वह इतना हताश हो गया था कि उसने आत्महत्या का सहारा लिया- इस आशा से कि सेना और नागरिक शायद बगावत कर बैठें.

    आत्महत्या के दिन अपने धारावाहिक उपन्यास के चौथे और आखिरी खंड की पांडुलिपि प्रकाशक के पास रवाना करके वह कमरे में एक पत्र लिखकर रख आया था. पत्र में लिखा था- ‘इस सीमित मानव-जीवन में मैं अनंत काल तक जीना चाहता हूं.’

    वस्तुतः यूकिओ मिशिमा अपने दिल में मौत को बसाये जी रहा था. उसे जहां रंगरेलियों-भरे जीवन से प्यार था, वहां उसका मौत के प्रति भी अजीब-सा मोह था, हेमिंग्वे की तरह ही (जिसने आत्महत्या करके जान दी थी) शायद उसके भी अचेतन मन में मौत का डर समाया हुआ था, जिसके लिए वह अपने आपको मौत के सामने धकेला करता था- जान जोखिम के खेलों में, या कहानियों उपन्यासों में वर्णन द्वारा.   

    हां, उसे मौत का डर था, मौत का मोह भी. मौत में उसे चिरंतन जीवन दिखाई देता था. उसकी नजर में आम आदमी की तरह मरना जीवन का अंत था, और किसी महान उद्देश्य के लिए मरना जीवन को अनंत बनाने का साधन था. लेकिन वह यह न समझ पाया कि सही दिशा में हो रही देश की सामाजिक, अर्थिक और राजनीतिक प्रगति का मुंह मोड़कर उसे चालीस साल पीछे ले जाना कोई महान उद्देश्य नहीं है, और इस उद्देश्य के लिए आत्महत्या द्वारा मरना महान मौत नहीं है.

( फरवरी 1971 )

    

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