रवींद्रनाथ की वैश्विक दृष्टि –  रामशंकर द्विवेदी

आवरणकथा

वींद्रनाथ की वाणी, उनका काव्य, उनकी शिल्पचेतना, उनका सौंदर्य चिंतन, सभी में एक उदार दृष्टि मिलती है. उनमें मानवतावाद और स्वदेश भक्ति कूटकर भरी हुई थी. वे पूर्व और पश्चिम के बीच एक सेतु थे. उनमें राष्ट्रबोध था, वे मनुष्य मात्र के प्रवक्ता थे.

गुरुदेव की कविता के यूरोप और पश्चिम में स्वागत का कारण यह भी था कि उसमें सार्वभौमिकता के स्वर थे. उसमें प्राणीमात्र की वेदना, उसकी आकूति, उसके प्राणों की पुकार झंकृत हुई थी. विचारणीय यह है कि यदि रवींद्रनाथ सार्वभौमिक हैं, उनकी आत्मा की पुकार समस्त मानवता के प्रति है तब उनकी राष्ट्रीयता, स्वदेशभक्ति और सोनार बाङ्ला की शस्यश्यामला भूमि के प्रति जो प्रेम है, उसका क्या होगा? दरअसल रवींद्रनाथ की स्वदेश भक्ति और राष्ट्रीयता में कोई संकीर्णता नहीं है. उन्होंने अपने पूरे जीवन की साहित्यसाधना और कार्यकलापों द्वारा यही प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि आप अपने देश से प्रेम करके भी विश्व मानव से प्रेम कर सकते हैं.

पश्चिम में राष्ट्रीयता की जो अवधारणा है उससे रवींद्रनाथ की अवधारणा एकदम भिन्न है. पश्चिम में आपके राष्ट्रप्रेम की कसौटी अपने देश के प्रति प्रेम तो है ही, साथ ही दूसरे देश से घृणा भी है. इसलिए उनका उस राष्ट्रीयता में विश्वास नहीं था, जो दूसरों से नफरत करना सिखाये. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस सम्बंध में लिखा हैराष्ट्रीयता के दानव के प्रति उनके मन में बहुत ही कठिन क्रोध था. उन्होंने प्रथम महायुद्ध का कारण इस संकीर्ण राष्ट्रीय भावना को ही समझा था. वे मनुष्य की एकता में विश्वास रखते थे. युद्ध से वे विचलित नहीं हुए थे. उनका विश्वास था इससे अंततः मनुष्य की प्रगतिशील शक्तियों ही विजय होगी. (मृत्युंजय रवींद्रनाथ, पृष्ठ 59)

किंतु, रवींद्रनाथ की विश्वचेतना, उनकी मानवीय भावना, उनकी स्वदेश प्रीति, बंगभंग के समय उस आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी, उनकी धर्म भावना, शिल्प प्रीति, राम मोहनराय और बंकिमचंद्र के प्रति उनकी श्रद्धा, गांधी जी से उनके सम्बंध, उनके चर्खा, खादी आदि के प्रति मतभेद, इन सब बातों को समझे बिना उनकी पूरी विचारधारा को आत्मसात नहीं किया जा सकता है.

रवींद्रनाथ का पालनपोषण जिस परिवेश में हुआ था, वहां स्वदेशी की भावना प्रबल थी. बहुत कम लोगों को जानकारी है कि ठाकुर वाड़ी हिंदू मेलामें बढ़ चढ़कर भाग लेती थी. हर वर्ष इसका अनुष्ठान होता था और इसका उद्देश्य था राष्ट्रीय चेतना को जगाये रहना.

ठाकुर परिवार में साहित्य, कला, शिल्प, संगीत के साथ स्वदेशी या राष्ट्रीय चेतना का संचार शुरू से था. उसका माध्यम था चैत्र मेला या हिंदू मेला. सत्येंद्रनाथ (रवींद्रनाथ के बड़े भाई) इंग्लैंड से आई.सी.एस. होकर आये तो इससे ठाकुर परिवार में देसी और अंतरराष्ट्रीय दोनों भाव धाराओं की हवा बहने लगी. सत्येंद्रनाथ की पहली नियुक्ति बम्बई में हुई इससे उनमें अखिल भारतीयहोने की भावना विकसित होने लगी. इसका प्रभाव रवींद्रनाथ पर भी पड़ा. 1865 ईस्वी में रवींद्रनाथ को कलकत्ता ट्रेनिंग एकेडेमी में शिशु कक्षा में भर्ती कराया गया था. महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसी एकेडेमी के भवन में जोड़ासांको ठाकुर बाड़ी के सहयोग और नवगोपाल मित्र की प्रेरणा से प्रतिष्ठित हिंदूमेला या राष्ट्रीयमेला से जुड़ी राष्ट्रीय सभा या नेशनल सोसायटी के कई अधिवेशन हुए थे. यहां यह ध्यातव्य है कि हिंदू कॉलेज के परिसर में 1839 ईस्वी में हिंदू पाठशाला खोली गयी जिसका उद्देश्य था हिंदू बच्चों को बाङ्ला भाषा के माध्यम से साहित्य, भारत और यूरोप का विज्ञान आदि पढ़ाना था. रवींद्रनाथ इसी में लम्बे समय तक पढ़े थे. प्रशांतकुमार पाल ने लिखा है कि ठाकुरवाड़ी में स्वदेशी की आबोहवा खूब बहती थी. इसलिए हिंदूमेला (राष्ट्रीय मेला या चैत्रमेला) की स्थापना में उसका प्रत्यक्ष सहयोग था. इसके कार्यक्रम की रूपरेखा राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रधान नेता राजनारायण बसु ने बनायी थी. इसके प्रभाव के बारे में प्रशांतकुमार पाल लिखते हैं– ‘ठाकुर परिवार के ऊपर तो था ही, सारे बंगदेश और भारत के ऊपर हिंदूमेला का यथेष्ट प्रभाव पड़ा था. हिंदूमेला अथवा राष्ट्रीय मेला का घोषित उद्देश्य ही था– ‘स्वजातीय व्यक्तियों में सद्भाव स्थापित करना और स्वदेशीय व्यक्तियों द्वारा स्वदेश की उन्नति करना.’ प्रश्न यह उठता है कि इस मेले का प्रभाव रवींद्रनाथ पर क्या पड़ा था तथा इसकी सार्थकता क्या रही? इस सम्बंध में डॉ. पाल का कहना हैयह बात स्वीकार करनी होगी कि जिस विराट उद्देश्य को लेकर इस मेले का सूत्रपात हुआ था, उपयुक्त उत्साह और सहायता के अभाव में उसकी बहुतसी बातें सफल नहीं हो पायींकिंतु आत्मनिर्भर साधना के बिना जाति (राष्ट्र) की उन्नति नहीं हो सकती है, इस सत्य को हिंदू मेला अथवा जातीय मेला (राष्ट्रीय मेला) ने अपनी स्वल्प शक्ति के द्वारा स्थापित करने की चेष्टा की थी, यहीं पर इस मेला का ऐतिहासिक महत्त्व है. लक्षित करने योग्य विषय एक और है कि मेला के सारे कार्यक्रम बाङ्ला भाषा में ही संचालित किये जाते थे. इससे यह आयोजन आम जनता से जुड़ा रहा. रवींद्रनाथ के संदर्भ में मेला का जो अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा उसका विवरण इस प्रकार हैइस मेला की जब शुरुआत हुई थी रवींद्रनाथ तब निरे बालक थे और किशोरावस्था पार करने के पहले ही इस मेला का अंत हो चुका था, इसलिए यौवन की पूर्ण शक्ति के साथ राष्ट्रीय मेला की लक्ष्य पूर्ति के लिए उन्हें काम करने का अवसर ही नहीं मिला. किंतु, मेला के लिए होने वाले आयोजनअनुष्ठानों, आलापआलोचनाओं की आबोहवा में बड़े होने के कारण और बाद में कई अनुष्ठानों में योग देने के फलस्वरूप उनके सामाजिक और राजनैतिक विचारों और शुरुआत में उत्तरबंग की ज़मींदारी और बाद में श्रीनिकेतन की स्थापना के व्यावहारिक कार्यकलापों में हिंदूमेला अथवा राष्ट्रीय मेला के आदर्श का स्पष्ट प्रतिफलन लक्षित किया जा सकता है.

रवींद्रनाथ में जो स्वदेश भक्ति थी उसके पीछे इस हिंदू मेले के अतिरिक्त अपने पितृदेव के साथ हिमालय यात्रा, पिता से वेदउपनिषदों का पाठ और हिमालय की दिग् प्रसारित प्रकृति और बंगाल की शस्य श्यामला भूमि, पद्मावास काल में प्रकृति का दीर्घ व्यापी संग, वहीं ग्रामीण जीवन के दुःख, दर्द की अनुभूति और दासता के बंधनों से चिरकाल के लिए मुक्त होने की छटपटाहट थी. उन्होंने ब्रिटिश राज्य या उसके कार्य कलापों का कभी समर्थन नहीं किया. जलियांवाला बाग में हुए सामूहिक नरसंहार से क्षुब्ध होकर नाइट हुड लौटा दी और तत्कालीन वायसराय को कड़ी चिट्ठी लिखकर अपना विरोध प्रकट किया. भारत में ही नहीं मानव
मात्र के प्रति राजसत्ता द्वारा किये गये अत्याचार को वे कभी सहन नहीं करते थे. उनकी देशभक्ति प्रकट हुई है उनकी भारतीयता में. वे अपनी वेशभूषा, बोली बानी में पूरी तरह भारतीय थे. वे पूर्ण मानवतावादी थे. मानव मात्र की एकता और उसकी अंतर्निहित उच्चता में उनका पूरा विश्वास था.

यहां यह लक्षित करने योग्य है कि देशसेवा का रवींद्रनाथ का वही रास्ता नहीं था जो उस युग के नेताओं का था. हजारीप्रसाद द्विवेदी का मंतव्य यहां उल्लेखनीय है. रवींद्रनाथ ने किसी जमाने में राजनैतिक आंदोलन में सक्रिय भाग लिया था, किंतु, बहुत शीघ्र ही उन्होंने देखा कि जिन लोगों के साथ उन्हें काम करना पड़ रहा है, उनकी प्रकृति के साथ उनका मेल नहीं है. रवींद्रनाथ अंतर्मुखी साधक थे. हल्लागुल्ला करके, ढोल पीट के गला फाड़ के, लेक्चरबाजी करके जो आंदोलन किया जाता है, वह उन्हें उचित नहीं जंचता था. देश में करोड़ों की संख्या में दलित, अपमानित, निरस्त्र, निर्वस्त्र लोग हैं, उनकी सेवा करने का रास्ता ठीक वही रास्ता नहीं है, जिस पर वाग्वीर लोग शासक वर्ग को धमकाकर चला करते हैं. शौकिया ग्रामोद्धार करने वालों के साथ उनकी प्रकृति का एकदम मेल नहीं था. जो लोग सेवा करना चाहते हैं उन्हें चुपचाप सेवा में लग जाना चाहिए. सेवा का विज्ञापन करना सेवा भावना का विरोधी है. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, उनकी स्वदेश भक्ति उनकी भगवद् भक्ति की विरोधिनी नहीं है. फिर वह यदि स्वदेश भक्ति का गान है तो ऐसा कोई देश नहीं है, जिसके निवासी उसे गा सकें. रवींद्रनाथ के सभी गान सार्वभौम हैं.

राष्ट्रगीत वंदेमातरम् को लेकर जबतब विवाद चलता रहता है. कांग्रेस के पहले कलकत्ता अधिवेशन में स्वयं रवींद्रनाथ ने इसकी कुछ पंक्तियां गायी थीं तथा इसकी सुर पद्धति भी उन्हीं की बनायी हुई थी. राष्ट्रगीत वंदेमातरम् को बनाया जा सकता है या नहीं इस सम्बंध में स्वयं पंडित नेहरू ने उनसे भेंट की थी. रवींद्रनाथ ने कांग्रेस के अध्यक्ष पं. जवाहरलाल नेहरू से स्पष्ट रूप से कहा था कि राष्ट्र गान के रुप में वंदे मातरम्को ही मान्यता देनी चाहिए. उन्होंने 26 अक्टूबर 1937 को अपने व्यक्तिगत सचिव के द्वारा पं. जवाहरलाल नेहरू को एक चिट्ठी भी लिखी थी कि वंदे मातरम्के जो प्रारम्भिक पदबंध है उनमें भारतमाता का जो रूप प्रस्फुटित होता है, वह बहुत सुंदर है, फिर यह अत्यंत प्रेरणादायी भी है. ये पंक्तियां किसी दूसरे वर्ग की भावनाओं को भी आहत नहीं करती हैं इसलिए इसे स्वीकार कर लेना चाहिए. बंगभंग के समय यह पूरे बंगाल में जागरण मंत्र बन गया था. बाद में क्रांतिकारियों द्वारा एक नारे के रूप में प्रयुक्त होने की वजह से ब्रिटिश सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था.

गुरुदेव, महात्मा गांधी के चर्खे में विश्वास नहीं करते थे किंतु, उनके व्यक्तित्व के प्रति उनमें पूर्ण श्रद्धा थी. स्वराजसाधना नामक अपने लम्बे निबंध में उन्होंने लिखा हैसम्मिलित आत्म कर्त्त=त्व का परिचय और उसके विषय में गौरव बोध यदि जन साधारण में व्याप्त हो तो इस पक्की बुनियाद पर स्वराज्य सत्य हो उठेगा. गांवगांव में इस आत्मकर्त्तृत्व का जब तक अभाव हैतब तक देश के जनसंगठन में जो चित्त दैन्य है, उससे ऊपर उठकर किसी बाह्य अनुष्ठान सूत कातने या चर्खा चलाने के ज़ोर से स्वराज्य स्थापित नहीं किया जा सकता, क्योंकि आत्मकर्त्तृत्व का अभाव ही अन्न, शिक्षा, स्वास्थ्य, ज्ञान और आनंद के अभाव का मूल कारण है.

किंतु, महात्मा जी के प्रति उनमें कितनी श्रद्धा थी वह भी देखने योग्य हैमहात्मा गांधी की सफलता की मूल बातउनकी अद्भुत आध्यात्मिक शक्ति एवं अविश्रांत आत्मत्याग है. बहुत से लोग त्याग करते हैं, अपने स्वार्थ साधन के लिए, किंतु गांधी जी एकदम भिन्न प्रकार के हैं, उनका समग्र जीवन ही एक विराट त्याग है, वे त्याग के अवतार हैं. गांधी प्राच्य देश के वैशिष्ट्य के मूर्ति स्वरूप हैं. (रवींद्र प्रसंग, भाग 1, पृष्ठ 252-253) और राष्ट्रीयता के बारे में उनका कहना है

जो राष्ट्र स्वतंत्र और स्वाधीन हैवह स्वाभाविक रूप से अपनी महिमा में प्रतिष्ठित रहता है, राष्ट्रीयता की सीमा उसके लिए आवश्यक नहीं भी हो सकती हैअंततः स्वादेशिकता की तीव्र भावना जगाये रखने का प्रलोभन उसके लिए शायद आवश्यक नहीं हो सकता है. किंतु, भारत जैसी पराधीन, पददलित जाति का राष्ट्रीय जीवन अस्वाभाविक है; उसकी स्वाधीनता और स्वातंत्र्य लुप्त हो गया है, इसलिए इस वस्तु के प्रति उसकी दुर्दमनीय आकांक्षा जाग उठी है, इसलिए जब तक वह मिले तब तक उसे संतोष नहीं होगा. बर्नार्ड शा ने आयरलैंड की राष्ट्रीयता की चर्चा करते हुए इसी तरह की बात की हैएक स्वस्थ राष्ट्र अपनी राष्ट्रीयता के बारे में उसी तरह अचेत रहता है जिस तरह एक स्वस्थ व्यक्ति अपनी हड्डियों के बारे में किंतु, यदि आप किसी राष्ट्र की राष्ट्रीयता की नष्ट कर दें, तो वह इसे पुनः प्राप्त करने के अलावा कुछ नहीं सोचेगा. उस समय यह किसी सुधारक, किसी तत्त्ववेत्ता अथवा उपदेशक की बात तब तक नहीं सुनेगा जब तक उसे राष्ट्रीयता मिल जाये. चाहे जितना महत्त्वपूर्ण काम बचा रहे. यह उस पर कोई ध्यान नहीं देगा, सिर्फ अपनी एकता और स्वतंत्रता के.

यह उद्धरण देने के बाद रवींद्रनाथ ने लिखा हैभारतवर्ष की आज यही हालत है, इसलिए वह सारे काम छोड़कर मुक्ति संग्राम में अवतरित हुआ है. एक ओर कोई विश्व प्रेमी असाधारण मनुष्य है, दूसरी ओर एक हृदयहीन दानव है, इन दोनों के अलावा ऐसा कौन भारतवासी होगा जो इस मुक्ति संग्राम में योग दे.

रवींद्रनाथ की इस मर्मवाणी की आज क्या प्रासंगिकता है इसे विवेकवान व्यक्ति बखूबी समझ सकते हैं.

मई 2016

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