रजतपट पर मेरे पचीस वर्ष

♦  बलराज साहनी    

      फिल्मों में काम करते हुए मुझे पच्चीस वर्ष हो गये हैं. अब तक सवा सौ से ऊपर फिल्मों में काम कर चुका हूं. ऐसे मौके पर जश्न मनाना बहुत उपयुक्त और सौभाग्यपूर्ण समझा जाता है. लेकिन पता नहीं क्यों, मेरे दिल में जश्न मनाने का उत्साह नहीं है.

     कालेज के दिनों में, मेरे अंग्रेज़ी के प्रोफेसर और ‘ड्रामा सोसायटी’ के डायरेक्टर श्री शाह बुखारी ने मुझसे एक बार कहा था- ‘तुम्हारे अंदर ऐक्टर बनने के सभी गुण है, लेकिन साथ ही एक बड़ी खामी भी है कि तुम बहुत सुस्त हो.’ आज भी यही सुस्ती, जो मेरे स्वभाव का अमिट अंग है, मुझे जश्न मनाने से हतोत्साह कर रही प्रतीत होती है.

     मेरे प्रोफेसर साहब ने ठीक ही कहा था. मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरे स्वभाव में बचपन से ही सुस्ती चली आयी है. इसका कारण भी मैं बखूबी जानता हूं.

     मैं अपने माता-पिता के यहां उन दिनों जनमा था, जब वे पुत्र का मुंह देखने की आशा लगभग छोड़ चुके थे. इसलिए मुझे ज़रूरत से ज्यादा लाड़-प्यार मिला, और वह लाड़-प्यार मेरे लिए कैद बन गया. पेड़ पर न चढ़ों, क्योंकि गिरकर टांग-बांह टूटने का खतरा है. पतंग न उड़ाओ, असावधानी में मोटर, तांगे के नीचे आ जाने का खतरा है. गली-मोहल्ले से निकलर ज्यादा दूर न जाओ, क्योंकि चोर-ठग बच्चों को उठाकर ले जाते हैं… 

     इन बंदिशों के कारण मेरे अधिकांश समय घर की चहारदीवारी में ही गुजरता था. शायद इसीलिए मैं संकोचशील और झेंपू किस्म का बन गया. और शायद इसीलिए मेरी रुचि कहानियों, कविताओं, उपन्यासों में इस हद तक बढ़ गयी थी. मेरे चरित्र का वह बहिर्मुखी विकास न हो पाया, जो अभिनेता के लिए बहुत सहायक सिद्ध होता है.

     पुस्तकों से, भाषाओं से मुझे हमेशा खास प्यार रहा है. वाल्मीकि रामायण मैंने बारह साल की उम्र में संस्कृत में पढ़ी थी. मुझे संस्कृत के श्लोक बहुत अच्छे लगते थे. पंचतंत्र की कहानियों ने कहानियां सुनने और लिखने का शौक मुझमें पैदा किया.

     बंगला लिपि मैंने अपने घर में ठहरे हुए एक साधु से सीखी, जो मुझे बहुत ही सुंदर लगी. मेरे पिताजी की उर्दू की लिखावट थी कि जैसे मोती पिरोये हुए हों. अंग्रेज़ी लिखते समय भी उनका हाथ बहुत साफ होता था. इसका भी मुझ पर प्रभाव पड़ा.

     अब भी बड़ी लालसा है कि मैं हिंदुस्तान की सारी भाषाएं लिख और बोल सकूं. बंगला, मराठी, तमिल आदि सीखने के लिए मैंने कुछ मेहनत की भी है, लेकिन संकोची स्वभाव के कारण बोलते समय बड़ी कठिनाई पेश आती है. मेरे कई ऐक्टर दोस्त बड़ी आसानी से ये भाषाएं बोल लेते हैं, हालांकि सीखने के लिए उन्होंने मुझसे आधी मेहनत भी नहीं की है.

     स्कूल और कालेज की शिक्षा ने भी मेरी साहित्यिक रुचियों को ही ज्यादा बढ़ाया था. कालेज की ड्रामा सोसायटी में तो मैं इसलिए चला जाता था कि मुझे कुदरती तौर पर अच्छे नाक-नक्शे वाला चेहरा और ऊंचा-लम्बा सेहतमंद शरीर मिला हुआ था. मैं जब भी कोई फिल्म देखने जाता, तो लौटने पर आईने में अपने आपको देखकर ऐसा लगता था, जैसे मेरी शक्ल फिल्म के हीरो से बहुत हद तक मिलती-जुलती है.

     अपने सुंदर होने का वहम ही मुझे कालेज की ड्रामा सोसायटी में खींचकर ले जाता था. मेरा शौक सच्चा और दिल से निकला हुआ नहीं था. इसीलिए प्रोफेसर बुखारी मुझे सुस्त कहते थे.

     पिताजी धनवान थे. इसलिए एम.ए.पास करने बाद नौकरी ढूंढ़ने और उसे अपने बाकी जीवन का सहारा बनाने की मुझे कोई मजबूरी नहीं थी. इसीलिए मैं एक जगह टिककर नहीं रह सकता था. मैंने एक-दो साल तक पिताजी के साथ व्यापार किया.फिर एक-दो साल तक शांतिनिकेतन में शिक्षक बनकर रहा. फिर सेवाग्राम गया. फिर लंदन गया. फिर बंबई लौटकर फिल्मों में काम करने लगा.

     मुझे रोजगार की इतनी ज्यादा चिंता नहीं थी, सो रोजी कमाने के लिए मुझे अच्छे मौके मिल जाते थे. पूंजीवादी व्यवस्था में धन कमाने और उन्नति करने के मौके उसे ज्यादा मिलते हैं, जिसे पैसे की ज्यादा परवाह न हो. जो पैसे की मजबूरी में बंधा हुआ हो, उसकी सारी उमंगे बस हसरतें बनकर रह जाती हैं.

     मैं शायद फिल्मों में भी ज्यादा देर तक न रहता, अगर 1947 में देश के बंटवारे के कारण मुझे पिताजी की धन-दौलत के आश्रय से वंचित नहीं होना पड़ता. उनकी सारी जमीन-जायदात पाकिस्तान में रह गयी थी. अब अपने पांवों पर खड़ा होना ज़रूरी था.

     अपने पांवो पर खड़े होने के संघर्ष ने मुझसे कई और काम भी कराये. मैंने फिल्म्सडिविजन की डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की कमेंट्री बोली, विदेशी फिल्मों की हिंदी ‘डबिंग’ में भाग लिया, और स्वर्गवासी गुरुदत्त द्वारा निर्देशित पहली फिल्म ‘बाजी’ की पटकथा और संवाद लिखे. यह फिल्म कामयाब हुई थी. तब, उसके निर्माता चेतन आनंद ने मुझे एक फिल्म लिखने और उसका निर्देशन करने के लिए कहा. आज मुझे अ़फसोस होता है कि चेतन आनंद की इतनी अच्छी पेशकश मैंने क्यों न कबूल की.

     उन्हीं दिनों, जिया सरहदी की फिल्म ‘हम लोग’ बहुत कामयाब हुई थी, जिसमें मैंने मुख्य पात्र की भूमिका की थी. तब मुझे लगा कि मैं निर्देशक के बजाय अभिनेता बनकर ज्यादा पैसे कमा सकता हूं और ज्यादा आसानी से भी. वैसे मैं समझता हूं कि अच्छा पटकथा-लेखक और निर्देशक बनने की शक्ति मुझमें थीं.

     साहित्य के क्षेत्र में मैंने कला के सम्बंध में जो बातें सीखीं हैं, उन्होंने मुझे अपने अभिनय को अच्छा बनाने में काफी मदद दी है. इसे देखते हुए मैं कह सकता हूं कि वे बातें अच्छा निर्देशक बनने के लिए और भी फायदेमंद साबित हो सकती हैं. उन बातों का सम्बंध यथार्थवादी मूल्यों से है.

     यथार्थवाद का अमृत-पान मैंने कॉलेज के दिनों में ही कर लिया था- अंग्रेज़ी साहित्य के अध्ययन द्वारा. यथार्थवाद का मतलब है- कला में लम्बाई, चौड़ाई और गहराई, तीनों आयामों का होना. लंबाई और चौड़ाई पेश करना आसान है, गहराई पैदा करना बहुत मुश्किल है. और कला में महानता इस तीसरे आयाम द्वारा ही आती है. इस तीसरे आयाम को हम गति भी कह सकते हैं.

     गति जीवन का मूल गुण है. जैसे सूरज में प्रतिक्षा अणु-विस्फोट होता रहता है, वैसे ही हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में भी लगातार अणु-विस्फोट होता रहता है. प्रति क्षण परिस्थितियां बदलती रहती हैं, और उनके अनुसार हम भी प्रति क्षण बदलते रहते हैं. यह गति जिस लेखक की कहानी में जीवन की हूबहू पूरी तस्वीर बनकर सामने आयेगी, वही कहानी सफल होगी. उसमें प्लाट का होना ज़रुरी नहीं है. जीवन किस प्रकार एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक, एक पड़ाव तक चलकर गया, यह बात पाठकों को ज़रूर रोचक लगेगी.

     लेखक जीवन के किसी छोटे टुकड़े का वर्णन करे, या विशाल टुकड़े का, उसे इस गति को ध्यान में रखना होगा, चेखव अपनी कहानियों में छोटे-छोटे टुकड़े लेता है, तॉल्स्तॉय अपने उपन्यास ‘युद्ध और शांति’ में बहुत विशाल टुकड़ा लेता है, लेकिन दोनों की सफलता का रहस्य एक ही है. पाठक उस जीवन के बारे में स़िर्फ पढ़ता ही नहीं, उसे जीता भी है.

     मुझे कॉलेज के जमाने में ही अपने देश के साहित्य (जितना कि उस समय मैंने पढ़ा था), कला और फिल्मों में इस तीसरे आयाम का अभाव प्रतीत होता था. इन तीनों क्षेत्रों में मुझे हर चीज एक चौखटे में बंद नजर आती थी. उस चौखटे में लम्बाई और चौड़ाई तो थी, गहराई नहीं थी.

     हिंदी फिल्में मुझे आज भी इस दृष्टि से नकली और निर्जीव प्रतीत होती हैं. उनमें जीवन के यथार्थ और गति की कमी है. वे अस्वाभाविक और जोड़-तोड़कर बनायी गयी कहानियों के चौखटों में बंद होती हैं. उनमें न स्वाभाविक गति होती है, न पात्रों का विकास होता है, और न ऐसी परिस्थितियां ही होती हैं, जिनमें पात्रों का चरित्र-चित्रण हो सके.

     मजबूरी ने मुझे फिल्म-अभिनेता बनाया, तो मेरे स्वभाव की सुस्ती और परस्पर विरोधी बातों ने मेरे रास्तों में कई बहुत बड़ी अड़चने खड़ीं कर दीं. लेकिन अंग्रेज़ी साहित्य से मैंने जो रोशनी हासिल की थी, मुझे लगातार रास्ता दिखाती रही.

     अगर मुझे कुदरती तौर पर अभिनय-प्रतिभा मिली होती, तो मैंने जो कुछ दस सालों में सीखा, वह दस महीनों में सीख सकता था. मैं अपने इर्द-गिर्द कई ऐसे साथियों को देखता हूं, जो अभिनेता बनते ही कुछ ही देर में मुझसे कहीं आगे निकल गये. अब उन तक पहुंचने के लिए मुझे कछुए की तरह धीरे-धीरे लगातार चलना पड़ रहा है. वैसे मैं उन साथियों का देनदार हूं कि उन्होंने उदाहरण बनकर मुझे आगे बढ़ने और उन तक पहुंचने की प्रेरणा दी है.

     इन पच्चीस वर्षों में क्या मैं अपनी मंजिल पर पहुंचा हूं? मेरी सुस्ती आज भी उसी तरह कायम है. मैं आज भी उसी तरह अंतर्मुख हूं. इसलिए फिल्मों में काम करने पर भी मैं फिल्मी दुनिया के वातावरण में अपने को अजनबी-सा महसूस करता हूं. जब भी अपनी कोई पुरानी फिल्म देखता हूं, तो  दिल में टीस-सी उठती है- ‘काश, यह रोल दुबारा करने का मौका मिल सके. तब मेरे काम में कितनी कामियां थी!’

     लेकिन एक बात का संतोष मुझे ज़रूर है कि इन पच्चीस वर्षों में हर प्रकार की भूमिकाएं की हैं. अस्वाभाविक कहानियों और अन्य कई प्रकार की बंदिशों के बावजूद मैंने उन सभी भूमिकाओं में गति लाने की कोशिश की है, उन्हें जीने की कोशिश की है. मैं किसान भी बना हूं, मजदूर भी, पूंजीपति भी, सिपाही भी बना हूं, फौजी अफसर भी, पठान भी, क्लर्क भी, और पता नहीं क्या कुछ. अगर मैं अपनी हर भूमिका में पूरा यथार्थ पेश नहीं कर सका, तो उसे पेश करने की भरपूर कोशिश मैंने ज़रूर की है.

     फिर भी, मैं सोचता हूं कि अगर चेतन आनंद के कहने पर, लेखन और निर्देशन के क्षेत्र में उतर पड़ता और उन मूल्यों के लिए संघर्ष करता, जो मेरी नजर में महत्त्वपूर्ण हैं, तो इस समय शायद ज्यादा संतुष्ट होता और खुद को ज्यादा भरा हुआ पाता.

     आज फिल्मों में वह मोड़ लाने का समय आ गया है, जो आज से बीस साल पहले लाना सम्भव नहीं था. अगर मैं निर्देशक बन गया होता, तो मैं आज फिल्मों से रिटायर होकर, कहीं एकांत में साहित्य-सेवा करने का सपना देखने के बजाय, फिल्मों में और ज्यादा काम करना चाहता और ऐसी फिल्में बनाता, जिनमें प्रति क्षण अणुविस्फोट होता, जिस प्रकार कि सूरज में हो रहा है.

     लेकिन यह सब सोचने से क्या फायदा? और चाहे कुछ भी कर सकूं, इन बीते हुए पच्चीस वर्षों को फिर से नहीं जी सकता. सो, यही कहूंगा कि चलो, जितना नहाया, उतना पुण्य कमाया. और फिर…

गालिबे खस्ता के बगैर कौन-से काम बंद हैं?
रोइये जार-जार क्यों, कीजिये हाय-हाय क्यों?

(अप्रैल 1971) 

1 comment for “रजतपट पर मेरे पचीस वर्ष

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