युद्ध  –   लुइजी पिराण्डेलो

नोबेल-कथा

28 जून, 1867 को गिरगरेन्टी, सिसिला में जन्मे पिराण्डेलो ने सोलह वर्ष की अल्प अवस्था में ही कविता लिखना शुरू कर दिया था. बाद में ये गद्य की ओर मुड़े और इनकी पहली पुस्तक ‘लव विदाउट लव’ सन् 1893 में छपी. पिता का दिवालिया होना, पत्नी का पागलपन, पुत्रों का युद्ध में जाना, पुत्री की आत्महत्या की कोशिश और गरीबी जैसी अप्रिय घटनाओं के कारण इन्होंने मनोवैज्ञानिक रचनाएं लिखना आरम्भ कर दिया.

इनकी नाट्यकला, जो सदैव ही मनुष्य के व्यक्तित्व की समानता से सम्बंधित रही है, वास्तव में दार्शनिक तथा मनोवैज्ञानिक प्रश्नों को अद्भुत रूप से तथा बार-बार प्रस्तुत करने में समर्थ और सफल है.

उनके समग्र लेखन को ध्यान में रखकर सन् 1934 में स्वीडिश अकादेमी ने इन्हें पुरस्कृत करते हुए कहा था- ‘नाट्य-कला और दृश्य-कला को साहस और सच्चाई से पुनर्जीवित करने के लिए इन्हें यह पुरस्कार दिया जा रहा है.’ इनकी प्रमुख पुस्तकें हैं- ‘द लेट मारिया पैस्कल’, ‘द ओल्ड एंड द यंग’, ‘स्कामाण्ड्रा’, ‘राइट यू आर’, ‘द प्लेजर ऑफ आनेस्टी’, ‘हेनरी फोर्थ’, ‘सिक्स कैरेक्टर्स इन सर्च ऑफ एन आथर’ आदि.

     रात की एक्सप्रेस गाड़ी से रोम से निकले यात्रियों को भोर तक फैब्रियानो के छोटे स्टेशन पर रुकना पड़ा, क्योंकि वहां से उनका डिब्बा दूसरी रेल से जुड़ना था.

भोर के समय, सेकंड क्लास के उस घुटन और धुएं से भरे डिब्बे में, जिसमें पांच लोग पहले ही रात गुज़ार चुके थे, मातमी कपड़े पहने एक भारी-भरकम स्त्राr घुसी. गहरी सांसें भरती, कराहती, बेडौल बंडल-सी स्त्राr के पीछे-पीछे उसका पति आया, दुबला-नाटा, मुर्दे-सा सफेद चेहरा, छोटी-छोटी चमकीली आंखें, शर्मीला और परेशान-सा.

आखिर एक सीट पर टिक जाने के बाद उसने नरमी से अपने उन सहयात्रियों को धन्यवाद दिया, जिन्होंने उसकी पत्नी की गाड़ी में चढ़ने में मदद की थी और उसके लिए जगह बनायी थी; फिर अपने कोट का कॉलर नीचे खींचने की कोशिश करती अपनी पत्नी की तरफ मुड़कर उतनी ही नरमी से पूछा- ‘तुम ठीक तो हो न?’

पत्नी ने जवाब देने के बजाय फिर से कॉलर अपनी आंखों तक खींच लिया जिससे उसका चेहरा छिप गया. ‘बड़ी बुरी दुनिया है,’ पति दुखभरी मुस्कान के साथ बड़बड़ाया.

उसे लगा कि उसका कर्त्तव्य है कि वह अपने सहयात्रियों को बता दे कि इस बेचारी स्त्राr पर दया की जानी चाहिए, क्योंकि युद्ध उससे उसका इकलौता बेटा छीने ले रहा था. बीस बरस का वह लड़का दोनों के जीवन का आधार था. उसी के कारण वे सल्मोना में अपना जमा-जमाया घर छोड़कर रोम चले आये थे जहां वह पढ़ने आया था. फिर कम से कम छह महीने तक उसे मोर्चे पर नहीं भेजे जाने की शर्त पर उन्होंने उसे सेना में भर्ती होने दिया था, और अब अचानक उन्हें तार मिला था कि तीन दिन बाद वह मोर्चे पर जा रहा है, वे आकर उससे मिल जाएं.

अपने भारी कोट के नीचे कसमसाती स्त्राr बीच-बीच में बनैले जानवर की तरह घुरघुरा रही थी. उसे पक्के तौर पर पता था कि इन तमाम बातों से उनके सहयात्रियों, जिनकी शायद खुद भी यही हालत थी, के दिलों में कोई हमदर्दी नहीं जागने वाली. उनमें से एक उनकी बात जो खास तौर पर ध्यान से सुन रहा था, बोला- ‘परमात्मा का शुक्र मनाओ, तुम्हारा बेटा मोर्चे पर अब जा रहा है. मेरे बेटे को तो जंग के पहले ही दिन वहां भेज दिया था. दो बार वह जख्मी होकर लौटा और दोनों बार उसे वापस भेज दिया.’

‘और हमारी भी सुनो! मेरे तो दो बेटे और तीन भतीजे मोर्चे पर हैं,’ एक और यात्री बोला.

‘होंगे! लेकिन हमारा तो यह इकलौता बेटा है,’ पति ने बात साफ की.

‘उससे क्या फर्क पड़ता है? तुमने हद से ज़्यादा लाड़-प्यार करके अपने बेटे को बिगाड़ा होगा, पर तुमने उसे उससे बढ़कर तो प्यार नहीं किया होगा, जो तुम अपने उन कई बच्चों को, जो तुम्हारे होते, करते. बाप का प्यार कोई रोटी नहीं है जिसके टुकड़े औलादों में बराबर-बराबर बांटे जाएं. बाप बिना किसी भेदभाव के अपने सभी बच्चों को अपना प्यार पूरा-पूरा देता है, चाहे वे एक हों या दस. और अब जब मैं अपने दोनों बेटों पे लिए दुखी हो रहा हूं तो आधा-आधा दुखी नहीं हो रहा, दुगना दुखी हो रहा हूं.’

‘ठीक बात है… ठीक कहते हो…’ झेंपे हुए पति ने उसांस भरी, ‘लेकिन मान लो (और हम सब मनाते हैं कि यह आपके साथ कभी न हो) एक पिता के दो बेटे मोर्चे पर हैं और वह एक को खो देता है तो भी दूसरे का मुंह देखकर वह जी लेगा… जबकि…’

‘हां,’ दूसरा आदमी नाराज होकर बोला- ‘उसके दिल को तसल्ली देने को एक बेटा बच गया, लेकिन उस बेटे के लिए उसे ज़िंदा भी तो रहना पड़ेगा, जबकि जिस बाप का इकलौता बेटा हो और वह मर जाये तो बाप भी मरकर अपने दुख से छुटकारा तो पा लेगा. अब बताओ, किसकी हालत ज़्यादा बुरी है? तुम्हें दिख नहीं रहा कि मेरी हालत तुम से ज़्यादा बुरी होगी?’

‘बकवास,’ एक और यात्री बोला. इस मोटे, लाल चेहरे वाले आदमी की हल्की सुरमई आंखें लाल सुर्ख थीं.

वह हांफ रहा था. उसकी फटी-फटी आंखों से एक ऐसी प्रबल, असंयमित आंतरिक हिंसा टपकती दिखती थी, जिसे उसकी कमज़ोर पड़ गयी काठी मुश्किल से ही संभाल पा रही थी.

‘बकवास,’ वह फिर बोला, उसने अपना हाथ मुंह के आगे रख लिया था ताकि आगे के दो टूटे दांत न दिखें, ‘बेकार की बात, हम क्या अपने बच्चों को अपने फायदे के लिए जीवन देते हैं?’

बाकी यात्रियों ने दुख से भरी आंखों से उसे घूरा. युद्ध के पहले दिन से मोर्चे पर लड़ रहे बेटे के पिता ने आह भरी, ‘ठीक कहते हैं आप. हमारे बच्चे हमारे नहीं हैं, वे देश की अमानत हैं… .’

‘बकवास,’ मोटा यात्री फट पड़ा, ‘अपने बच्चों को जीवन देते हुए हम क्या अपने देश की सोच रहे होते हैं? हमारे बेटे तो इसलिए पैदा होते हैं क्योंकि…ओह, क्योंकि उन्हें पैदा होना ही है और जब वे जीवन में आते हैं तो वे हमारा खुद का जीवन भी ले लेते हैं. सच्चाई यही है. हम उनके होते हैं, पर वे कभी हमारे नहीं होते. और जब वे बीसवें साल में लगते हैं तो बिल्कुल वैसे ही होते हैं, जैसे उस उम्र में हम थे. हमारे भी मां-बाप थे, लेकिन और भी बहुत-सी चीज़ें थीं… लड़कियां, सिगरेटें, भ्रम, नये बंधन… और हां, देश भी, जिसकी पुकार पर बीस बरस की उम्र में, मां-बाप के मना करने पर भी- हम चल दिये होते. अब उम्र के इस दौर में, देश का प्यार तो अब भी बहुत बड़ा है लेकिन उससे कहीं मज़बूत हमारे बच्चों का प्यार है. यहां एक भी कोई है जो खुशी-खुशी मोर्चे पर अपने बेटे की जगह न ले लेगा?’

चारों तरफ चुप्पी थी, ‘सबके सिर जैसे सहमति में हिल रहे थे.’

‘मादर…,’ मोटा आदमी बोलता चला गया, ‘हम अपने बीस बरस के बच्चों की भावना की कद्र क्यों न करें? अपनी उम्र में वे अपने देश के लिए अपने प्रेम को (मैं सिर्फ भले-शरीफ लड़कों की ही बात कर रहा हूं.) हमारे लिए अपने प्रेम से बढ़कर मानें, यह सहज नहीं है क्या? यही सहज है, क्योंकि आखिर तो वे हमें ऐसे बूढ़े मानते होंगे, जो अब ज़्यादा घूम-फिर नहीं सकते और जिन्हें घर पर रहना चाहिए. अगर देश का अस्तित्व है, अगर देश एक प्राकृतिक ज़रूरत है, रोटी की तरह, जिसे खाना हर किसी के लिए ज़रूरी है ताकि हम भूख से मर न जायें, तो उसकी रक्षा के लिए किसी न किसी को तो जाना पड़ेगा! और हमारे बेटे जाते हैं, जब वे बीस बरस के होते हैं और वे आंसू नहीं चाहते, क्योंकि अगर वे मरते हैं तो वे प्रेम की ज्वाला में खुशी से मरते हैं. (मैं भले-शरीफ लड़कों की बात कर रहा हूं) अब कोई जवान और खुश मर जाये, जीवन के भोंडेपन को, उसकी ऊब, ओछेपन, भ्रम टूटने की कड़वाहट को झेले बिना… हम उसके लिए और क्या चाह सकते हैं? सबको रोना-धोना बंद कर देना चाहिए, सबको हंसना चाहिए, जैसे मैं हंसता हूं… या कम से कम भगवान् का शुक्र है- जैसे मैं करता हूं- क्योंकि मेरा बेटा… मरने से पहले मेरे बेटे ने मुझे संदेश भेजा था कि वह संतुष्ट होकर मर रहा है, क्योंकि उसने अपने जीवन का अंत सबसे बढ़िया तरीके से किया है, जैसे वह चाहता था. और इसीलिए आप लोग देख रहे हैं न, मैं मातमी कपड़े नहीं पहनता…’

उसने अपना हल्का भूरा कोट हिलाया ताकि सब देख सकें; टूटे दांतों के ऊपर उसका नीला पड़ा होंठ कांप रहा था, उसकी आंखें पनियाई और स्थिर थीं, और फिर वह एक तीखी हंसी हंसा, जो एक सिसकी भी हो सकती थी.

‘एकदम…एकदम,’ बाकी लोगों ने हामी भरी. कोने में अपने कोट के नीचे गठरी बनी स्त्राr बैठकर सुनती रही थी- पिछले तीन महीनों में- अपने पति और अपने हितैषी-मित्रों की बातों में कुछ ऐसा पाने की कोशिश करती रही थी, जो उसकी गहरी वेदना को सांत्वना दे, कुछ ऐसा दे, जो उसे दिखा दे कि एक मां अपने बेटे को मृत्यु तो नहीं पर शायद एक खतरों से भरे जीवन में कैसे भेजे, लेकिन वह ऐसा एक भी शब्द नहीं पा सकी थी… और यह देखकर कि कोई भी- वह यही सोचती थी- उसकी भावना में साझीदार नहीं है, उसकी पीड़ा बढ़ी थी.

लेकिन अब इस यात्री के शब्दों ने उसे हैरान, करीब-करीब सन्न ही कर दिया. अचानक उसे समझ में आया कि गलत दूसरे नहीं थे, जो उसे समझ नहीं पा रहे थे, बल्कि वही गलत थी, जो उन माता-पिताओं की ऊंचाई तक नहीं पहुंच पायी थी, जो बिना रोए अपने बेटों की विदाई, बल्कि मौत तक के लिए तैयार हो गये थे.

उसने अपना सिर उठाया, अपने कोने से झुककर वह बहुत ध्यान से मोटे आदमी की बात सुनने की कोशिश करने लगी, जो अपने सम्राट और अपने देश के लिए, खुशी-खुशी बिना किसी पछतावे के, वीरतापूर्वक प्राण देने वाले अपने नायक बेटे के अंतिम युद्ध की बात अपने सहयात्रियों को सुना रहा था. उसे लगा कि वह एक ऐसी दुनिया में पहुंच गयी है जिसके बारे में वह सपने में भी नहीं सोच सकती थी. एक ऐसी दुनिया, जो अब तक उसके लिए अपरिचित ही थी और सब लोगों को उस बहादुर पिता को, जो अपने बच्चे की मौत की बात, बिना माथे पर शिकन लाये कर पा रहा था, बधाई देते सुनकर वह बहुत खुश थी.

फिर अचानक, बिल्कुल जैसे कि उसने कुछ सुना ही न हो और सपना देखते-देखते जगी हो, वह बूढ़े की तरफ मुड़कर पूछ बैठी- ‘तो फिर… तुम्हारा बेटा सचमुच मर गया?’

सब उसे ताकने लगे. बूढ़ा भी उसे देखने के लिए मुड़ा. अपनी बड़ी-बड़ी, उभरी, बुरी तरह पनियायी हलकी सुरमई आंखें उसने उसके चेहरे पर गड़ा दीं. कुछ देर वह जवाब देने की कोशिश करता रहा, पर उसके मुंह से शब्द नहीं निकले. वह उसे देखता ही रह गया, जैसे कि तभी उस बेतुके, असंगत सवाल से उसे आखिर समझ आया हो कि उसका बेटा सचमुच मर गया है- हमेशा के लिए चला गया है- हमेशा के लिए. उसका चेहरा बुरी तरह विकृत हो आया, फिर उसने जल्दी से अपनी जेब से रुमाल निकाला और सबको हतप्रभ करते हुए, दर्दभरी, दिल चीरने वाली सुबकियों में डूब गया.

अप्रैल 2016

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *