यह देश अलग माटी का है  –  रमेश ओझा

आवरण-कथा

काशी हिंदू विश्वविद्यालय अर्थात बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) अपनी शताब्दी मना रहा है.

फरवरी 1916 में भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग ने इसका उद्घाटन किया था. उद्घाटन-समारोह में गांधीजी के ऐतिहासिक भाषण ने समारम्भ को ऐतिहासिक बना दिया था. लार्ड हार्डिंग की सुरक्षा-व्यवस्था देखकर गांधीजी ने कहा था कि यदि वायसराय को भारत में इतना डर लगता है तो उन्हें अपने देश लौट जाना चाहिए. उन्होंने भारत की जनता से भी कहा था कि यदि हमारे कारण वायसराय भयभीत हैं तो यह हमारे लिए शर्म की बात है. राजा-महाराजाओं को वहां आभूषणों से लदा हुआ देखकर गांधीजी ने उन्हें फटकार लगाते हुए कहा था कि भारत जैसे गरीब देश में इतने आभूषण पहनते हुए उन्हें लज्जा आनी चाहिए. उस दिन वहां एक विश्वविद्यालय का ही उद्घाटन नहीं हुआ था, उस दिन भारत में सत्य एवं निर्भयता के सार्वजनिक जीवन का भी उद्घाटन हुआ था.

बनारस हिंदू विश्व-विद्यालय गणना देश के प्रतिष्ठित विश्व-विद्यालयों में होती है, पर सवाल यह है कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदू कहां है, और नहीं है तो क्यों नहीं है? यह सवाल इस तरह भी पूछा जा सकता है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मुस्लिम है क्या अथवा दयानंद एंग्लो-वैदिक कालेज वैदिक हैं क्या?

उत्तर वहां से खोजना होगा, जहां इसकी शुरुआत हुई थी. सात मार्च 1835. यह भारत के भाग्य के निर्धारण का दिवस था, जब लॉर्ड मैकाले की सिफारिशों को स्वीकार कर ब्रिटिश सरकार ने भारत में पाश्चात्य शिक्षण एवं अंग्रेज़ी माध्यम लागू करने का निर्णय किया था.

इस घटना को विभिन्न लोगों ने विभिन्न तरीकों से देखा है. सनातनी हिंदुओं तथा हिंदुत्ववादियों को यह लगता है कि यह भारत के परम प्राचीन वैभव को नकारने का प्रयास था तो दूसरी ओर महात्मा फुले तथा डॉ. आम्बेडकर की दृष्टि में यह परम प्रताड़ित प्राचीन सामाजिक व्यवस्था से मुक्ति दिलानेवाली घटना थी. एक के लिए यह वैभवशाली भारत की गुलामी की घटना थी तो दूसरे के लिए भारत की परम प्रताड़ना से मुक्ति की. सनातनी हिंदुओं, रूढ़िवादी मुसलमानों तथा सिखों को भी यह लगा था कि मैकाले की सिफारिशों को स्वीकारने का मतलब अपनी महान धरोहर को नकारना होगा.

सात मार्च 1835 के निर्णय के बाद भारत में पाश्चात्य शिक्षण संस्थाओं की स्थापना होने लगी और 1835 में मुम्बई, कलकत्ता और मद्रास में एकसाथ तीन विश्वविद्यालय स्थापित हुए. यह देखकर तीनों धर्मों के रूढ़िवादियों को ऐसा लगा कि मैकाले का मुकाबला तो करना ही पड़ेगा और परम्परा के ‘परम वैभव’ को लौटाना ही होगा. इन लोगों का पहला प्रयास पाश्चात्य शिक्षण को पूरी तरह अस्वीकार करने, उसके समक्ष अथवा समानांतर पूर्वी शिक्षण संस्थाओं की स्थापना का था. पश्चिम का पूर्ण अस्वीकार और परम्परा की आग्रहपूर्वक स्थापना. आर्य समाजियों ने गुरुकुलों की स्थापना की. सनातनी हिंदुओं ने पाठशालाओं की. सुन्नी मुसलमानों ने देवबंद में दारुल उलूम की स्थापना की तो शिया मुसलमानों ने लखनऊ में दारुल उलूम नदावातूल उलेमा स्थापित किया. सिखों ने गुरुसिंह सभा द्वारा परम्परागत धार्मिक शिक्षा देने की शुरुआत की. प्राचीन ‘मेहताओं’ की पाठशालाओं में अथवा मौलवियों के मदरसों में विधिवत पाठ्यक्रम नहीं हुआ करते थे और सामूहिक शिक्षण भी नहीं होता था. भारतीय रूढ़िवादियों ने पश्चिम का अनुकरण किया. एक तो व्यक्तिगत आधार पर चलने वाली पाठशालाओं और मदरसों को संस्थागत स्वरूप प्रदान किया और दूसरे क्रमिक पाठ्यक्रम निश्चित किया.

इस प्रयोग को विशेष सफलता नहीं मिली. भारत के बड़े हिस्से के युवा पाश्चात्य शिक्षा पाकर नये युग में प्रवेश करना चाहते थे. अंग्रेज़ों के आने के बाद मात्र प्राचीन सामाजिक ढांचा ही नहीं बिखरा था, उससे कहीं अधिक आर्थिक ढांचा टूटा था. पाश्चात्य शिक्षण से क्षितिजों का विस्तार हो रहा था. 19वीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में पाश्चात्य शिक्षा का प्रवेश हुआ था और सदी के पूरी होते-होते उसका विजय-रथ पूरे देश में घूम गया. उधर पौर्वात्य शिक्षण-संस्थाओं को कोई विशेष सफलता नहीं मिल रही थी. रूढ़िवादी परिवारों के अलावा शेष भारतीयों को परम्परागत शिक्षण स्वीकार नहीं था.

19वीं सदी की समाप्ति से पहले ही यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि पाश्चात्य शिक्षण को पूरी तरह अस्वीकार करके परम्परागत शिक्षण के विकल्प को अपनाना सम्भव नहीं है. इसलिए दूसरा प्रयास समन्वय का हुआ. पाश्चात्य और पौर्वात्य शिक्षण को साथ-साथ चलाना होगा. इससे हिंदू, मुसलमान और सिख अपने-अपने तरीके से अपनी पहचान और संस्कार सुरक्षित रखकर आधुनिक बन सकेंगे. इस विचार से प्रेरित होकर सर सैयद अहमद खान ने एंग्लो ओरियंटल कॉलेज (स्थापना 1875, आगे चलकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनी) की स्थापना की, 1898 में ऐनी बेसेंट ने सेंट्रल हिंदी कॉलेज स्थापित किया, जो आगे चलकर बीएचयू बना. आर्यसमाजियों ने दयानंद एंग्लो वैदिक एजुकेशन सोसायटी (डीएवी) की 1886 में स्थापना की. 1892 में सिखों ने खालसा कॉलेज प्रारम्भ किया.

समन्वय का यह प्रयास अलग-अलग नेता अपने सोच के अनुसार कर रहे थे. सर सैयद अहमद का रुझान पाश्चात्य शिक्षण की तरफ अधिक था. ऐनी बेसेंट और मदनमोहन मालवीय का अधिक झुकाव हिंदू सनातन शिक्षण की तरफ था. आर्यसमाजी कम एंग्लो और अधिक वैदिक थे. लेकिन यह प्रयास भी अधिक सफल नहीं हुआ. दो दिक्कतें थीं. एक तो यह कि विद्यार्थी आधुनिक शिक्षण पाकर नये युग में प्रवेश करना चाहते थे इसलिए उन्हें संस्कृति-संरक्षकों का पौर्वात्य पक्षपातयुक्त समन्वय अधिक अपील नहीं करता था. दूसरी मुश्किल यह थी कि शुद्ध परम्पारवादी, धर्मनिष्ठ होने के बजाए सप्रदायवादी अधिक थे और समन्वय में विश्वास नहीं करते थे. ऐसा कोई एक पाठ्यक्रम हो जो मुसलमानों के सभी फिरकों सप्रदायों को स्वीकार हो यह सपना अलीगढ़ की मुस्लिम युनिवर्सिटी और बनारस की हिंदू युनिवर्सिटी का था. लेकिन यह सपना साकार नहीं हो पाया. मुस्लिम कट्टरपंथियों ने ऐसा होने नहीं दिया.

दूसरी तरफ हिंदुओं के लिए ऐनी बेसेंट ने ‘सनातन धर्म ः ऐन एलीमेंट्री टेक्स्टबुक ऑफ हिंदू रिलीजन एण्ड एथिक्स’ एवं ‘ऐन एडवान्स टेक्स्टबुक ऑफ हिंदू रिलीजन एण्ड एथिक्स’ नाम की दो पुस्तकें तैयार कीं. ये पुस्तकें हिंदुओं के सभी सप्रदायों को स्वीकार नहीं थीं. मदनमोहन मालवीय ने उमापति द्विवेदी नामक एक विद्वान को ऐसी पुस्तक तैयार करने का कार्य सौंपा जो हिंदुओं के सभी सप्रदायों को स्वीकार हो. ‘सनातन धर्मोद्धार ः बीइंग ए संस्कृत ट्रीटीज ऑन एटरनल रिलीजन ऑफ इण्डिया’ नामक पुस्तक तैयार की गयी थी, पर वह स्वयं मालवीयजी को ही स्वीकार नहीं थी. उन्होंने विख्यात विद्वान भगवानदास से भी हिंदू धर्म एवं हिंदू सांस्कृतिक धरोहर की सर्वस्वीकार्य पाठ्यपुस्तक तैयार करने का आग्रह किया था, लेकिन यह प्रयास भी असफल रहा. आज सौ वर्ष बाद भी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी तथा बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, दोनों संस्थाओं के पास ऐसा कोई सर्वस्वीकार्य पाठ्यक्रम नहीं है, और अब तो ऐसा कोई प्रयास भी नहीं हो रहा.

दयानंद एंग्लो वैदिक शिक्षण संस्था में तो शुरू में ही संचालकों में विवाद हो गया था. लाला हंसराज और लाला लाजपतराय यह मानते थे कि एंग्लो वैदिक में एंग्लो हिस्सा अधिक होना चाहिए ताकि विद्यार्थी नये युग में प्रवेश कर सकें. लेकिन महात्मा मुंशीराम का मानना था कि एंग्लो वैदिक में वैदिक अंश अधिक होना चाहिए. एंग्लो के आधिक्य वाला शिक्षण तो मैकाले ने उपलब्ध करा ही रखा है, फिर डीएवी की आवश्यकता ही क्या है? महात्मा मुंशीराम ने पृथक होकर कांगड़ी में गुरूकुल की स्थापना की. आज डीएवी में शुद्ध पाश्चात्य शिक्षण है, वैदिक के नाम पर मात्र प्रार्थना होती है, या फिर कभी-कभी यज्ञ हो जाता है. आर्यसमाज के गुरूकुल या तो बंद पड़े हैं या फिर नाम मात्र के गुरूकुल हैं- सब में आधुनिक शिक्षा दी जा रही है.

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी हिंदू बनी रहे, इसके लिए मालवीयजी ने बहुत प्रयास किये, पर उन्हें सफलता नहीं मिल पायी. हिंदू धर्म-शिक्षण के लिए उन्होंने केवल ब्राह्मण शिक्षक रखने का आग्रह किया था, पर यह भी स्वीकार नहीं किया गया. उन्होंने गीता के पठन-पाठन के लिए कक्षा चलाने की बात की, पर इसका भी विरोध हुआ. तब उन्होंने छुट्टी के दिन रविवार को गीता की कक्षा रखी. कभी-कभी तो इस कक्षा में मालवीयजी समेत पांच लोग ही होते थे- स्वयं कुलपति भी नहीं पहुंचते थे!

तो बात का सार यह है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी तथा दयानंद एंग्लो वैदिक शिक्षण संस्थाओं में आधुनिकता और परम्परा का अनुपात 98ः2 का है- अधिक से अधिक 95ः5 का कह सकते हैं. हां, एक-दूसरे को डराने के लिए ये संस्थाएं अवश्य काम में आती हैं. ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि जैसे अलीगढ़ वि.वि. में आतंकवादी पैदा किये जा रहे हैं और बनारस वि.वि. में हिंदूवादी, वास्तविकता यह है कि ये तीनों संस्थान रिवाइवलिज़्म की असफलता के मूर्तिमंत प्रतीक हैं. 7 मार्च 1835 की घटना को मुक्ति के अवसर के रूप में देखने वालों को इन तीनों संस्थाओं का काल्पनिक भय छोड़ देना चाहिए और 1835 की घटना को गुलामी की घटना के रूप में देखने वालों को इन तीनों संस्थाओं से धार्मिक पुनर्जागरण की अपेक्षा छोड़ देनी चाहिए. यह देश अलग ही माटी का है. यदि मनुस्मृति, अहले हदीस एवं सत्यार्थ प्रकाश के दर्पण में देखोगे तो कुछ हाथ नहीं लगेगा. आर्यावर्त के प्रवर्तक दयानंद सरस्वती तथा सनातन दिग्विजय में विश्वास करने वाले मदन मोहन मालवीय की संस्थाओं में मैकाले की विजय होती है. इस देश में जो काम दयानंद सरस्वती, मदन मोहन मालवीय, ऐनी बेसेंट जैसे दिग्गज नहीं कर सके, उसे करने का बीड़ा आज बौने लोग उठा रहे हैं, यह देखकर सिर्फ हंसा ही जा सकता है.

मार्च 2016

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