मौत के पीछे पागल

♦   डॉ. प्रकाश चंद्र दीक्षितम     

     बात है चूहों से मिलते-जुलते, छोटे-से जीव लेमिंग की. उनके एक बहुत बड़े समूह ने 1969 की शरद ऋतु में फिनलैंड के लैप्लैंड इलाके से अपनी यात्रा शुरू की है. लक्ष्य है, उत्तरी सागर में बोथनिया की खाड़ी, और उद्देश्य है आत्मार्पण, यानी स्वेच्छा से मृत्यु का वरण. पिछले मई तक प्राप्त समाचारों से यह स्पष्ट पता चलता है कि आत्महत्या करनेवाले लेमिंगों की संख्या में वृद्धि हो रही है, अनवरत रूप से-हज़ारों-लाखों की संख्या में. लेमिंगों की जनसंख्या में प्रकृति के इस नियंत्रण का कारण क्या है? वे लाखों की तादाद में अपनी आहुति क्यों देते हैं? इन प्रश्नों के साथ न जाने कितनी किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं.

    स्कैंडिनेविया के स्वीडन, नार्वे और फिनलैंड के ऊंचे पठारी इलाकों में लेमिंग बहुत बड़ी संख्या में पाये जाते हैं. कुल लम्बाई पांच इंच, रंग कुछ पीला और भूरा, पीठ पर सिर से पूंछ तक एक काली-सी पट्टी , मोती जैसी आंखों वाले इन जीवों का सिर गोल तथा छोटा होता है. पूंछ और पेट भी छोटे होते हैं. वे अपने पंजों से जमीन खोद सकते हैं. अपने घोंसले वे घास-फूस से बनाते है और प्रतिवर्ष दो या दो से अधिक बार बच्चे जनते हैं. बच्चे हर बार तीन से आठ तक होते हैं. लेमिंग शाकाहारी होते हैं और कंद-मूल, फल, घास तथा इसी प्रकार की अन्य चीज़ों पर जीवित रहते हैं.

    लेमिंग झगड़ालू, जल्दी बेचैन हो जाने वाले और साहसी होते हैं. वे अपने से भी अधिक शक्तिशाली शत्रु से भी डरकर भागते नहीं, बल्कि सीधे बैठकर फुंफकारने लगते हैं और लड़ने को तैयार हो जाते हैं.

    उनकी काफी बड़ी संख्या को जंगली कुत्ते, भेड़िये लोमड़ी, भालू और बाज चटकर जाते हैं. इस प्रकार उनकी संख्या पर कुछ समय तो नियंत्रण रहता है. किंतु चार वर्षों के बाद किन्हीं कारणों से उनकी संख्या तेज़ी से बढ़ने लगती है. अपनी प्रकृति के अनुसार वे और भी अधिक क्रोधित तथा बेचैन हो उठते हैं. स्थान और भोजन की कमी से परेशान होकर लाखों की तादाद में लेमिंग पहाड़ों की ढलानों से  नीचे उतरना शुरू कर देते हैं और मृत्यु को वरण करने का उनका अभियान आरम्भ हो जाता है.

    मृत्यु का यह मार्ग साधारणतः घाटियों से होकर जाता है, पर छोटे-छोटे पहाड़, नदियां और यहां तक कि झीलें भी इनके रास्ते में बाधा नहीं बन पातीं. लेमिंग बिना हिचकिचाये इन बाधाओं को पार करके बढ़ते रहते हैं. कई बार तो इस यात्रा में पूरा साल या उससे भी अधिक समय लग जाता है. इस दौरान उनकी राह में आने वाला कोई भी शाकाहारी खाद्य पदार्थ नहीं बच पाता. बहुत-से-लेमिंग तो अपनी इस यात्रा के दौरान भी बच्चे जनते हैं. पर साथ ही हजारों की संख्या में अपने शत्रुओं के शिकार भी हो जाते हैं. बहुत-से तो ‘लेमिंग ज्वर’ या अन्य बीमारियों से मर जाते हैं. पर इन सबका उनकी यात्रा पर कोई असर नहीं होता. यात्रा बाकायदा जारी रहती है. वे रात में चलते हैं और दिन में खाते-सोते हैं. कमाल की बात तो यह है कि उनके रास्ते कभी बदलते भी नहीं.

    निरंतर चलते और आगे बढ़ते हुए लेमिंग आखिर समुद्र के किनारे पहुंच जाते हैं. लेकिन ऐसा लगता है, उन्होंने कभी रुकना सीखा ही नहीं. समुद्र भी उन्हें नहीं रोक पाता. वे आगे बढ़ते जाते हैं और समुद्र में तैरने लगते हैं. मृत्यु-अभियान अपनी चरम सीमा पर पहुंचता है. उन्हें क्या पता कि उनका अदम्य उत्साह भी उन्हें सागर पार नहीं करा सकता. सागर की लहरें उन्हें अपनी गोद में समेट लेती हैं. लोखों लेमिंग जल में समाधिस्थ हो जाते हैं. प्रकृति का एक विचित्र खेल समाप्त हो जाता है.

    लेमिंग की इस मृत्यु-यात्रा से उत्तरी स्कैंडिविया के सीधे-सादे निवासियों में भय की एक लहर दौड़ जाती है. उनका विश्वास है कि लेमिंग बहुत बड़ी संख्या में अपनी इन लम्बी यात्राओं पर निकलते हैं, तब उनके देशों तथा सारे संसार पर संकट छा जाता है. दोनों विश्वयुद्धों के पूर्व भी लेमिंग बहुत बड़ी तादाद में मृत्यु-अभियान पर निकले थे.

    नार्वे के निवासियों में और विशेषकर किसानों में प्राचीन काल से यह विश्वास रहा है कि लेमिंग बादलों से गिरते हैं. ब्रिटानिका विश्वकोष के अनुसार आधुनिक वैज्ञानिक मत यह है कि मायोसीन युग (250 से 110 लाख पूर्व) में, जहां आज उत्तरी तथा बाल्टि सागर है, वहां सूखी भूमि थी. संख्या में वृद्धि होने पर लेमिंग खाने की तलाश में स्कैंडिनेविया के पठारी भागों से उतरकर इसी सूखी भूमि की ओर जाते थे. लाखों सालों तक उनका यही क्रम चलता रहा. और इस सूखी भूमि (यानी वर्तमान उत्तरी सागर) की ओर जाना, उनकी प्रकृति का एक अभिन्न अंग बन गया. उनकी यही स्वाभाविक प्रवृत्ति आज भी उन्हें यही दिशा में बार-बार जाने के बाद भी शायद उन्हें यही आशा रहती है कि झीलों और नदियों की भांति वे समुद्र भी पार कर लेंगे.

    इस आशा के अतिरिक्त उनके पास कोई चारा भी तो नहीं होता. किंतु पीढ़ी-दर-पीढ़ी से चला आ रहा यह सूखी भूमि तक पहुंचने का स्वप्न मृगतृष्णा साबित होता है. और ऐसा लगता है कि लेमिंग स्वेच्छा से अपने प्राणों की आहुति कब दे देते हैं. कौन जाने उनकी यह आत्माहुति कब तक चलती रहेगी.

( फरवरी  1971 )

 

    

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