महामना का अमर स्मारक  –  अच्युतानंद मिश्र

आवरण-कथा

महान संस्थाओं की स्थापना महापुरुषों के संकल्प और उनकी साधना के सातत्य से होती है. प्राचीन भारत में शिक्षा के केंद्र गुरुकुल थे जहां गुरु-शिष्य संवाद शास्त्रार्थ और नये प्रयोगों के परीक्षण की विकसित परम्परा थी. तक्षशिला विश्वविद्यालय जहां से पाणिनी जैसे वैयाकरण, जीवक जैसे शल्य चिकित्सक, कौटिल्य जैसे कूटनीतिज्ञ मंत्री और मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त जैसे लोगों ने शिक्षा पायी थी, के संस्थापक कौन थे? बौद्ध विद्यापीठ नालंदा या बिहार में ही स्थित विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना के पीछे किन महापुरुषों का संकल्प था यह तो एक शोध का विषय है लेकिन उन्हीं विश्वविद्यालयों की प्रेरणा और परम्परा को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से जोड़कर भारतीय युवाओं को उनकी संस्कृति और मूल्यों सहित देने का स्वप्न एक महापुरुष ने बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में साकार कर दिया. सहयोग-असहयोग, आलोचना और समर्थन के बीच काशी हिंदू विश्वविद्यालय महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के स्वप्न और संकल्प से निर्मित विश्वविद्यालय है. भारतीय आदर्शों और जीवन मूल्यों से युक्त एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय काशी में स्थापित हो जिसमें प्राचीन शास्त्राsं, कलाओं, विज्ञानों के साथ आधुनिक शिक्षा के आधुनिकतम अनुसंधान सुविधाओं की पूर्ण व्यवस्था भी हो यह कल्पना उन्होंने 19वीं सदी के अंत में ही की थी. अंग्रेज़ों की सरकार द्वारा मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, लाहौर और इलाहाबाद में स्थापित विश्वविद्यालयों से निकले छात्रों के सामने उच्च शिक्षा के लिए विदेश यात्रा के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था. मालवीय जी को यह बात बहुत खटकती थी. उन्हें इस बात से भी पीड़ा होती थी कि छात्रों को अपने धर्म, संस्कृति, राष्ट्रीयता का ज्ञान नहीं दिया जाता और विदेशों में शिक्षित होकर अपनी संस्कृति के बारे में हीन भावना लेकर लौटते थे. उस दौर के अधिकांश राष्ट्रीय नेता लोकमान्य तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय, डॉक्टर ऐनी बेसेंट, स्वामी श्रद्धानंद इस संकल्पना से सहमत थे कि ऐसी राष्ट्रीय संस्थाएं अवश्य बननी चाहिए. डॉक्टर ऐनी बेसेंट की संस्था ‘सेन्ट्रल हिंदू कॉलेज’, लोकमान्य तिलक द्वारा स्थापित ‘समर्थ विद्यालय’, अमृतसर के ‘खालसा कॉलेज’, ‘सर सैयद अहमद खां का अलीगढ़ मुस्लिम कॉलेज’ जिसे पूर्ण आवासीय विश्वविद्यालय और इस्लामिक शिक्षा केंद्र का रूप देने की कोशिश हो रही थी के साथ-साथ नवाब रामपुर की आर्थिक मदद से बरेली विद्यालय जैसी संस्थाएं भी नया स्वरूप ग्रहण कर रही थीं. इन प्रयासों के दौरान जब महामना मालवीय ने वकालत से प्राप्त अपनी लोकप्रियता और समृद्धि को छोड़कर काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की घोषणा की तो लोगों ने स्वागत भी किया और इतनी विशाल योजना की सफलता में संदेह भी व्यक्त किया. मालवीय जी के मित्र स्वयं गोपालकृष्ण गोखले ने भी इसका मज़ाक उड़ाया था. मालवीय जी ने अपनी योजना की पूर्णता में दैवी सहायता प्राप्त करने के लिए प्रयाग के त्रिवेणी तट पर स्थित हनुमान जी के मंदिर में सवा करोड़ गायत्री मंत्र का पुरश्चरण किया था और विश्वविद्यालय के लिए सबसे पहला दान अपने पिता श्री बृजनाथ जी से इक्यावन रूपया प्राप्त किया था. 

1905 में कांग्रेस का अधिवेशन गोपालकृष्ण गोखले की अध्यक्षता में काशी में हुआ था. 31 दिसम्बर 1905 को काशी के टाउन हाल में सार्वजनिक रूप से हिंदू विश्वविद्यालय की योजना प्रस्तुत की गयी जिसे प्रतिनिधियों, शिक्षाशास्त्रियों ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया और दूसरे दिन एक जनवरी 1906 को, कांग्रेस अधिवेशन के पंडाल में भी उल्लास से स्वागत किया गया. उसी वर्ष 1906 में प्रयाग में महाकुंभ में शंकराचार्य की अध्यक्षता में संतों, विद्वानों और महात्माओं ने भी विश्वविद्यालय के प्रस्ताव को अपना आशीर्वाद प्रदान किया था. 

उसके तीन मुख्य उद्देश्य घोषित किये गये थे-

  1. श्रुतियों तथा स्मृतियों द्वारा प्रतिपादित वर्णाश्रम धर्म के पोषक सनातन धर्म के सिद्धांतों को प्रचार करने के लिए धर्म के शिक्षक तैयार करना.
  2. संस्कृत भाषा और साहित्य के अध्ययन की अभिवृद्धि.
  3. भारतीय भाषाओं और संस्कृत के द्वारा वैज्ञानिक तथा शिल्पकला सम्बंधी शिक्षा के प्रचार में योग देना. इसके अतिरिक्त भौतिक शास्त्र, रसायनशास्त्र, अर्थशास्त्र कृषिविद्यालय, वैदिक शिक्षा विद्यालय, आयुर्वेद विद्यालय, भाषा विद्यालय तथा ललित कलाओं का विद्यालय जैसी संस्थाएं भी होनी चाहिए.

बंगाल विभाजन के कारण पूरे देश में जो परिस्थितियां उत्पन्न हुईं, अनेक ऐसे वरिष्ठ नेता जो विश्वविद्यालय की योजना से जुड़े थे जेल में बंद थे, इस कारण कुछ समय के लिए योजना स्थगित कर दी गयी. 1911 में औपचारिक रूप से विश्वविद्यालय का पंजीकरण हुआ. काशी में आवासीय विश्वविद्यालय स्थापित करने की अनुमति इंग्लैण्ड से भारत सचिव ने प्रदान कर दी और डॉक्टर ऐनी बेसेंट तथा सेंट्रल हिंदू कॉलेज के ट्रस्टियों ने उदारतापूर्वक अपने कॉलेज को काशी हिंदू विश्वविद्यालय का आधार बनने के लिए सौंप दिया. 31 जनवरी 1912 को मालवीय जी की प्रशंसा करते हुए डॉ ऐनी बेसेंट ने कहा था ‘मालवीय जी ने अपना समस्त सांसारिक जीवन, अपनी शक्ति, अपनी प्रबल भाषणकला, यहां तक कि स्वयं अपने स्वास्थ्य को इस महान काशी हिंदू विश्वविद्यालय के लिए बलिदान कर दिया है.’

भारत के सभी बड़े राष्ट्रवादी नेता विश्वविद्यालय निर्माण के समर्थक थे. समस्या धन जुटाने की थी. मालवीय जी का संकल्प पांच करोड़ का था. मालवीय जी के नेतृत्व में अनेक प्रभावशाली लोगों ने उत्तर भारत में कोलकाता से लाहौर तक का विस्तृत दौरा करके धनसंग्रह का काम किया था. कोलकाता की सार्वजनिक सभा में पहली बार विश्वविद्यालय की स्थापना की औपचारिक घोषणा हुई थी और उसी सभा में पांच लाख के दान का आश्वासन मिला था. धनसंग्रह अभियान में कई बार मालवीय जी अपमानित भी हुए थे. उनका संकल्प था कि जिससे मांगेगे उससे बिना कुछ लिये नहीं उठेंगे. एक बार निज़ाम हैदराबाद को जब मालवीय जी ने हिंदू विश्वविद्यालय की योजना बतायी तो उन्होंने कहा ‘मैं कट्टर मुसलमान हूं. हिंदू विश्वविद्यालय के लिए मेरी यह जूतियां ले जा सकते हैं.’ मालवीय जी ने जूतियां उठा लीं और दूसरे दिन हैदराबाद में यह घोषणा करा दी कि हुसैन सागर डैम पर निजाम की जूतियां नीलाम की जायेंगी और उससे प्राप्त धन विश्वविद्यालय निर्माण में खर्च होगा. निजाम ने मालवीय जी को गिरफ्तार करने की धमकी दी, लेकिन बाद में उनको सद्बुद्धि आ गयी और विश्वविद्यालय में अध्यापकों के निवास के लिए एक कॉलोनी बनाने पर सहमत हो गये. विश्वविद्यालय में निजाम हैदराबाद कॉलोनी के नाम से आवासीय कॉलोनी आज भी विद्यमान है. पूरे देश में घूमकर मालवीय जी ने एक करोड़ चौंतीस लाख की धनराशि एकत्रित की थी. यह एक अभिनव और अभूतपूर्व प्रयास था. चार फरवरी 1916 को, वसंत पंचमी थी, जब वाराणसी के कामाख्या स्थित सेंट्रल हिंदू कॉलेज के ‘काशी नरेश हाल’ में विश्वविद्यालय का शिलान्यास हुआ था. महात्मा गांधी और भारत के वायसराय लार्ड हार्डिंग मुख्य अतिथि थे. गांधी जी के भाषण से नाराज होकर वायसराय सहित सभी अतिथि चले गये और पूरा समारोह छिन्न-भिन्न हो गया था.    

महामना मालवीय के प्रस्तावित काशी हिंदू विश्वविद्यालय को लेकर पूरे देश में बहस हो रही थी. राजनीति, शिक्षा और पत्रकारिता से जुड़े उनके अनेक मित्रों की स्पष्ट राय थी कि विश्वविद्यालय सरकारी नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त और स्वावलम्बी होना चाहिए. मालवीय जी के आदरणीय मित्र और गुरुकुल कांगडी के संस्थापक स्वामी श्रद्धानंद, जो ‘सद्धर्म प्रचारक’ के सम्पादक थे, ने अपनी टिप्पणी में लिखा था, ‘हमें शोक है कि जब से मालवीय जी के विश्वविद्यालय की स्कीम प्रकाशित हुई है. तब से कई बार हमें उनके विरुद्ध लिखना पड़ा है. हमें बड़ा हर्ष होता यदि हम मालवीय जी की स्कीम का सर्वतोभावेन समर्थन कर सकते या न्यून से न्यून इस विषय में चुप रह सकते. …परंतु हमारी आत्मा हमें बतलाती है कि ऐसे समय में चुप रहना, सार्वजनिक विश्वास को तोड़ना है और विकट अपराध का भागी होना है. …हमारा फिर उनसे प्रश्न है कि गवर्नमेंट के अधीन इतनी यूनिवर्सिटियों के होते हुए एक वैसी ही यूनिवर्सिटी से क्या लाभ! कई विद्वानों का मत है कि गवर्नमेंट के अधीन रहकर यह यूनिवर्सिटी कभी भी अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर सकती.’

विश्वविद्यालय की आधारशिला रखते समय वाइसराय लार्ड हार्डिंग ने अपने भाषण में कहा था ‘ऐसी क्या बात है कि भारतवर्ष के सुदूर प्रदेशों से इतने विशिष्ट महापुरुष यहां पर एकत्र हुए हैं. ऐसा कौन-सा आकर्षण है जो सबको इतने प्रबल रूप से प्रभावित कर रहा है. …भारतीय शिक्षा के इतिहास में एक नये युग की सृष्टि हो रही है और इसने भारतवर्ष के सभी श्रेष्ठ और विचारशील हिंदुओं के हृदय में अत्यंत तीव्र रुचि उत्पन्न की है. यह आधारशिला उस आदर्श की ओर चलने में अत्यंत निश्चित गति का सूचक होगी जिसने भारत की कल्पना को उसके पूर्ण गहरायी तक मथ दिया है.’

लेजिस्लेटिव असेम्बली में काशी हिंदू विश्वविद्यालय विधेयक प्रस्तुत होते समय मालवीय जी ने जो भाषण दिया था उससे विश्वविद्यालय की पूरी संकल्पना की झलक मिलती है. उन्होंने कहा था ‘इस विश्वविद्यालय में संकुचित साम्प्रदायिकता को आश्रय नहीं दिया जायेगा वरन उस व्यापक उदारता और धार्मिक भावना को प्रोत्साहन दिया जायेगा जो मनुष्य और मनुष्य के बीच भ्रातृत्व की भावना का विकास कर सके. …मेरा विश्वास है कि धार्मिक सत्य की शिक्षा से चाहे वह हिंदूधर्म की हो या मुस्लिम धर्म की हो और चाहे वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों को दी जाये या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों को दी जाए, ऐसे व्यक्ति निर्माण होंगे जो यदि अपने धर्म के लिए सत्यनिष्ठ होंगे, तो वे ईश्वर, मनुष्य और स्वदेश के लिए भी सत्यनिष्ठ होंगे. …मैं धर्म की सजीव शक्ति में विश्वास करता हूं. हमारे विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा की कमी का अनुभव बहुत दिनों से हो रहा है. ब्रिटिश सरकार ने पिछले साठ वर्षों में जो शिक्षा प्रणाली चलायी उसमें धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था न होने के कारण जो दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम हुए मैं उनका वर्णन नहीं करना चाहता. मुझे यही संतोष है कि इस प्रस्तावित शिक्षा केंद्र से यह कमी दूर हो रही है.’ मालवीय जी के इस अप्रतिम योगदान को सभी महापुरुषों ने सराहा था. डॉक्टर कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने लिखा था- ‘उनकी उपलब्धियां बहुसंख्यक तथा बहुरूप थीं. वे केवल राजनीतिज्ञ नहीं थे. मनीषी विद्वान और अपने समय के भारत के महानतम शिक्षाविद् थे. लेकिन वे स्वयं अपनी महानतम उपलब्धियों से भी महान थे. जीवन को उत्कृष्ट बनाने वाले आदर्शों को आत्मसात करने के निरंतर प्रयास में उनका जीवन व्यतीत हुआ और प्रत्येक कसौटी के आधार पर वे एक महर्षि थे. महात्मा गांधी ने एक बार उन्हें प्रात स्मरणीय ऐसा ऋषि बताया था जिसके प्रात नाम स्मरण से मनुष्य क्षुद्र स्वार्थों के दलदल से ऊपर उठ जाये.’

1916 में स्थापना के बाद विश्वविद्यालय में जहां मालवीय जी ने संस्कृत कॉलेज का आरम्भ 1918 में किया था, वहीं बनारस इंजीनियरिंग कॉलेज (बेंको) की स्थापना 1919 में, कॉलेज ऑफ माइनिंग एण्ड मेटलर्जी 1923 में और कॉलेज ऑफ टेक्नोलॉजी 1932 में शुरू कर दिया था. उस समय देश के किसी भी विश्वविद्यालय में इन विषयों की पढ़ाई शुरू नहीं हुई थी. 1939 तक मालवीय जी स्वयं कुलपति थे, और बाद में डॉ राधाकृष्णन को कुलपति के रूप में लेकर आये थे.    

पंडित राम नरेश त्रिपाठी हिंदी के प्रतिष्ठित कवि और महामना मालवीय जी के अत्यंत प्रिय थे. उन्होंने मालवीय जी के साथ बिताए गये तीस दिनों के आधार पर एक पुस्तक ‘तीस दिन मालवीय जी के साथ’ लिखी है. उसमें उन्होंने लिखा है कि विश्वविद्यालय के गरीब छात्रों की मदद में लिए ‘विद्यार्थी सहायक सभा’ और सेल्फ हेल्प समिति’ जैसी संस्थाएं बनी थीं और देश के कौने-कौने से आये छात्र उच्चशिक्षा प्राप्त करने और स्वावलम्बी होने के लिए दूध बेचने, घी बेचने और स्टेशनरी तथा पुस्तकों की दुकानें चलाने का काम करते थे और विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्राध्यापक और छात्रावासों के वार्डन उनकी हर प्रकार की सहायता करते थे. 

विश्वविद्यालय के माध्यम से महामना मालवीय परम्परागत जीवनमूल्यों और सांस्कृतिक चेतना को पूरे देश के युवकों तक पहुंचाना चाहते थे. काशी हिंदू विश्वविद्यालय आज महामना मालवीय का अमर स्मारक बन चुका है.

मालवीय का ध्येय वाक्य था-

न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं ना पुनर्भवम्
कामये दुख तप्तानाम प्राणिनामार्ति नाशनम्.             

मार्च 2016    

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