महाकुम्भ में छलका अमृत!

यश मालवीय

 महाकुम्भ की बेला है. गंगा यमुना के संगम में लुप्त सरस्वती उजागर हो रही है. अमृत कुम्भ छलक-छलक जाता है. प्रयाग भीग रहा है आध्यात्मिक हवाओं में. आंखों में पृष्ठ दर पृष्ठ खुलते चले जा रहे हैं. पचास का हो गया हूं. यह मेरे जीवन का चौथा पूर्ण महाकुम्भ है, बारह साल के अनंतर आ-आकर इसने जैसे पूरा जीवन ही रससिक्त कर दिया है. हर साल का माघ महीना और छह-छह वर्षों के अंतराल से पड़ने वाले अर्द्धकुम्भ भी मेरे लिए रिचार्ज कूपन जैसे ही रहे हैं. गंगा के कछार में मीलों-मील सरसों के फूल बिछ गये हैं और निर्निमेष ताक रहे हैं विश्व के सबसे बड़े मेले को. एक ऐसा मेला न जिसका कोई आयोजक है, न प्रायोजक, न कोई निवेदक है और न ही कोई संयोजक. एक स्वतःस्फूर्त मेला. अमृत  की तलाश में उमड़ता जन-सैलाब. गंगा यमुना की श्वेत-श्याम लहरों पर तिरते आस्था और विश्वास के दीये. दीयों में थरथराता स्मृतियों का अनंत उजास. इस उजास में झिलमिलाता कवि पिता उमाकांत मालवीय का वत्सल चेहरा. बच्चन जी के शब्दों में ‘क्या भूलूं, क्या याद करूं’ वाली स्थिति.

अरैल के आश्रम से उठती ‘सांई तेरी याद महासुखदायी!’ की गूंज, तो झूंसी यानी पुराने इलावर्त की ओर से उठता महायज्ञ का पवित्र धुआं. कविवर रमानाथ अवस्थी याद आते हैं. ‘चाहे कफ़न का हो, चाहे हवन का हो, धुएं का रंग एक है.’ पर यह एक रंग के धुएं से अलग उजला धुआं, कैसा है, शायद इसमें वह आग शामिल है जो कभी  ठंडी नहीं पड़ती. यह आग है अदम्य जीवन राग की.

पूरा का पूरा एक तम्बुओं का शहर बस गया है, एक विश्वग्राम जैसे यहां किसी सपने की तरह साकार हो रहा है. गंगा यमुना की रेत ही जैसे गोंद हो गयी है, पूर्व को पश्चिम और उत्तर को दक्षिण से जोड़ती हुई. महाकुम्भ यानी महाजादू. एक चमत्कार जो युगों से सच होता आ रहा है. इस सच ने फादर कामिल बुल्के को भी अपनी ओर खींचा था, जिसके चलते इलाहाबाद उन्हें अपना मायका लगने लगा था. अकबर के किले से सटकर बहती यमुना को देखता हूं तो कैलाश गौतम जेहन में कौंधने लगते हैं-

याद तुम्हारी मेरे संग
वैसे ही रहती है
जैसे कोई नदी, किले-से
सटकर बहती है.

हालांकि संत समागम के नाम पर ढोंगियों और लम्पटों के हाथ में जाते अपने शहर इलाहाबाद को देखकर कभी उन्होंने यह भी कहा था-

संतों में हम प्रयाग खोजते रहे
धुआं-धुआं वही आग खोजते रहे.

बहरहाल! केरल, आंध्र, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश, बंगाल, पंजाब यानी पूरा का पूरा भारत और भारत ही क्या, फिज़ी, त्रिनिडाड, मारीशस, दक्षिण अफ्रीका या कहें पूरा का पूरा विश्व यहां सांसें ले रहा है. हिंदी नहीं आती, कोई बात नहीं, अंग्रेज़ी नहीं आती, तो भी कोई बात नहीं. प्रेम और लगाव क्या कभी किसी भाषा के मुहताज रहे हैं. हिप्पियों जैसे बढ़े बाल, गोरे रंग और धुएं के छल्ले भी आनंद के शिखर पर हैं. एक तरफ़ साधू की जटाएं हैं तो दूसरी तरफ़ सामूहिक मुंडन. सूर्यभानु गुप्त याद आते हैं–
कंघियां टूटती हैं लफ़्ज़ों की
साधुओं की जटा है खामोशी

इस खामोशी को तोड़ रही है प्रेम, आस्था और करुणा की त्रिवेणी. महाकुम्भ लगातार छलक रहा है. इस छलकने में अपने देश भारत के कई-कई रंग सराबोर हो रहे हैं. शायद अब कवि एहतराम इस्लाम को यह नहीं कहना पड़ेगा–

हैं सभी कश्मीर केरल आंध्र से परिचित मगर
कितने लोगों को पता है नाम भारत वर्ष का

सच बात है, अखंड भारत देखना हो तो इस मौके पर इलाहाबाद चले आइए, अखिल विश्व महसूस करना हो तो भी महाकुम्भ के मंगल पर्व पर इलाहाबाद चले आइए. इलाहाबाद आज भी गहरी भागदौड़ और आपाधापी के गलाकाट समय में, एक भरे- पूरे इत्मीनान को मन में संजोए जागा हुआ और भरपूर ज़िंदा शहर है. हालांकि कर्मयोगी हनुमान भी बांध के नीचे आकर यहां पर लेट गये हैं, न हो यकीन तो आकर उनके दर्शन कर लीजिए. दुनिया में कहीं भी लेटे हुए हनुमान जी नहीं मिलेंगे. जगह-जगह वीरासन मुद्रा में विराजने वाले हनुमान जी की यह मूर्ति गंगा के विशाल पाट से ही मिली थी. उन्हें विधिवत स्थापित करने की बहुत कोशिशें की गयीं पर जब वह टस से मस न हुए तो वहीं घेरा बनाकर उन्हें रहने दिया गया. हर बरसात में गंगा उन्हें अपने आप में समो लेती है, लगभग महीने भर अर्चना-आरती स्थगित रहती है और फिर महीने भर बाद शुरू हो जाता है आरती का यह गान, ‘आरती कीजे हनुमान लला की, दुष्ट दलन रघुनाथ कला की’.

मेरी छत से रसूलाबाद की गंगा दिखाई देती हैं. इस तरह कह सकते हैं कि गंगा मेरी मां है और मेरी पड़ोसन भी. कहते हैं न, ‘न सौ गोती, न एक पड़ोसी.’ यानी सौ कुल गोत्र वाले एक तरफ़ और एक पड़ोसी एक तरफ़. गंगा के तट से लगा हुआ ही साहित्यकार संसद का भवन है, जहां से गंगा को देखते हुए कभी महाप्राण ने कहा था-

बांधो न नाव इस ठांव बंधु
पूछेगा सारा गांव बंधु!
पिता जब इस इलाके में घर बनवा रहे  थे तो गंगा की ओर देखते हुए कहा था,

“यह पेड़ों-मकानों के ओट अवगुण्ठन से गंगा का जो आधा-तीहा चेहरा दिख रहा है, तुम्हारी दादी जब सिर पर धोती का पल्ला रख लेती थी तो उसका भी गोरा और तरल चेहरा ऐसा ही दिखाई देता. यह गंगा मुझे मां जैसी ही दिख रही है जो बेटे का बनता हुआ मकान देखकर खुश हो रही है और आशीष दे रही है.”

यह महाकुम्भ एक बार फिर स्मृतियों का कभी न खत्म होने वाला बैंकड्राफ़्ट लेकर आ गया है. ‘कनुप्रिया’ को यमुना की सांवली लहरें भी कनु की ज़बान में टेर रही हैं. इस टेर में धर्मवीर भारती की उद्दामराग चेतना भी मुखर है. कितनी-कितनी बार बलुवाघाट के इस घाट से भारती जी ने संगम के लिए नावें ली हैं. कितनी-कितनी  बार अपने पिता बच्चन जी का ‘छोरा गंगा किनारे वाला’ उनके साथ यहां पर नावों पर बैठा है और जाड़े में आने वाले साइबेरियाई पंछियों को लइया और रामदाने चुगाकर आह्लादित हुआ है.

सारे आध्यात्मिक संदर्भ दरकिनार भी कर दिये जाएं तो भी जब हम गंगा में एक डुबकी लगाते हैं तो हमारा अपने पूर्वजों-पुरखों से तादात्म्य-सा स्थापित होता है, क्योंकि हज़ारों-हज़ार सालों से हमारे पुरखों के राख, फूल और अस्थियां गंगा में प्रवाहित होते रहे हैं. राम, मां और गंगा, यह तीन विशेष संवेदनशील बिंदु थे पिता के. वह कहते थे, “पहली दफ़ा जो आंखें राम की याद में डबडबा रही होंगी, शायद वही गंगोत्री है, गंगा वहीं से निकली है.”

महाकुम्भ आ गया है. ऐसा लग रहा है जैसे गंगा मुझमें होकर बह रही है, शिराओं में रक्त की तरह. गंगा की सुरधनु मुद्राओं में सजीव हो रहा है जीवन. लहरों पर रोशनी की आड़ी-तिरछी रेखाओं से कवि जगन्नाथ दास रत्नाकर, जैसे ‘गंगावतरण’ के छंद लिख रहे हैं. स्मृतिशेष सुकवि भारत भूषण की पंक्तियां याद आ रही हैं–

साड़ी की सिकुड़न-सिकुड़न में
किसने लिख दी गंगा लहरी?

जगनायक भूपेंद्र हजारिका के स्वर के आरोह-अवरोह में समय ही जैसे निनादित है. उनकी प्रश्न भरी टेर में ही जैसे उत्तर की अनुगूंज है, हजारिका टेर रहे हैं, ‘गंगा बहती हो क्यूं?’

गोमुख से गंगा सागर तक की विकास यात्रा में इलाहाबाद एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है. यूं तो उज्जैन, नासिक और हरिद्वार के महाकुम्भ में भी अमृत स्नान का अवसर मुझे मिला है, पर ‘कण-कण बसते तीर्थ करोड़ों, क्षण-क्षण पर्व यहां है, कोई बतलाए धरती पर ऐसा शहर कहां है?’ वाली स्थिति तीर्थराज प्रयाग में ही है. इतने बड़े क्षेत्र में मेला और कहीं नहीं लगता. अभी पिछले दिनों ही संगम जाना हुआ था. नाव पर बैठे बूढ़े मल्लाह की नन्हीं पौत्री ने सवाल कर दिया था, “बाबा! गंगा अलग से दिख रही है, यमुना अलग से दिख रही है, इममें सरस्वती मइया कहां है?” बूढ़ा मल्लाह नन्हीं बिटिया का सवाल सुनकर वत्सल हो आया था, उसने बिटिया को अपनी ओर खींच लिया था और सिर पर हाथ फेरते हुए उसकी चुटिया खोल दी थी और बोला था.

“देखो बेटा! जब तुम चोटी गूंथती हो तो तीन लरें रहती हैं, चोटी जब बनकर तैयार होती है तो दो ही लरें रह जाती हैं. बीच की लर, दो बड़ी लरों के बीच ही कहीं छुप जाती है, वह कहीं जाती नहीं, वहीं रहती है. सरस्वती भी दोनों धाराओं के बीच ही इसी तरह से रहने वाली गुप्त अंतर्धारा है, जिसके कारण ही संगम को त्रिवेणी भी कहा जाता है.”

मल्लाह का सीधा सरल समाधान सुनकर बिटिया तो मगन हो ही गयी थी, मैं भी सुखद विस्मय से भर गया था. इलाहाबाद में नदियों का ही नहीं संस्कृतियों का भी संगम हुआ है. यहां की गंगा जमुनी तहजीब और सभी विरासत की पूरी दुनिया में एक मिसाल है. निराला हैं तो अकबर इलाहाबादी भी हैं, महादेवी हैं तो फिराक गोखपुरी भी हैं, मौलवी लियाकत अली हैं, तो महामना मदन मोहन मालवीय भी हैं. जनाब अकबर इलाहाबादी ने एक बार कहा था–

लाख शेख ने दाढ़ी बढ़ायी सन की सी
मगर वो बात कहां मौलवी मदन की सी.

सहज ही यह बात कही जा सकती है कि गंगा यमुना के बीच लुप्त हुई सरस्वती ही इलाहाबाद में साहित्य के रूप में स्थापित हुई है. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की कालजयी पत्रिका ‘सरस्वती’ में भी उसी लुप्त सरस्वती के दर्शन होते हैं. इलाहाबाद के सदी के इस महत्त्वपूर्ण महाकुम्भ के अवसर पर इन सारे संदर्भों का स्मरण आना स्वाभाविक है. जादू वो क्या जो सिर पर चढ़कर न बोले, वाकई महाकुम्भ का महाजादू सिर पर चढ़कर बोल रहा है. अमृतकुम्भ की राह में पलकें बिछाये गंगा-यमुना अविरल भाव से बह रही हैं. पिता उमाकांत मालवीय के शब्दों में देवव्रत की टेर कानों में पड़ रही है–

भूखा कहीं देवव्रत टेरे
दूध भरी है छाती
दौड़ पड़ी ममता की मारी
तजकर संग-संगाती
गंगा नित्य रंभाती बढ़ती
जैसे कपिला गइया
सारा देश क्षुधातुर बेटा
वत्सल गंगा मइया.

(Feb  2013)

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