मनुष्य के बौद्धिक विकास का शंखनाद

♦  प्रेम जनमेजय   >

भा रतीय समाज में बाज़ारवाद ने चाहे पिछले दस-पंद्रह वर्ष में अपनी ‘सशक्त’ उपस्थिति दर्ज करायी हो परंतु हिंदी साहित्य में तभी से उपस्थित है जब यह देश परतंत्र था. तब हम अंग्रेज़ी राज्य के तंत्र में और आज बाज़ारवाद के तंत्र में हैं. आज आम आदमी भी बाज़ार के गिरफ्त में है, आज़ादी से पूर्व आम आदमी पर लिखने वाले आम लेखक की खास विधा, हास्य-व्यंग्य, बाज़ार की गिरफ्त में थी. आज बाय वन, गेट वन फ्री की शैली में, हास्य के साथ जो ‘बिकना’ आरम्भ हुआ, दिनोंदिन ‘प्रगति’ करता गया. हास्य के बिना व्यंग्य की पहचान ही स्वीकार नहीं की गयी. यहां तक कि व्यंग्य से यह अपेक्षा की गयी कि वह हास्य का मुखौटा लगा प्रगट हो. व्यंग्य का चेहरा ही बदल दिया गया, उसके लक्ष्य ही बदल दिये गये. व्यंग्य से अपेक्षा की गयी कि वह अपनी मूल प्रहारक शक्ति को भोथरा कर दिल बहलाव का साधन बने, मनोरंजन करे. यही कारण है व्यंग्यकार की ‘प्रशंसा’ करते हुए कहा जाने लगा कि हल्की-फुल्की शैली में बड़ी मज़ेदार बात करे. यही कारण है कि व्यंग्यकार के लिए जब कहा जाता कि अब ये रचनापाठ करेंगे तो श्रोता  हंसने को तैयार हो जाते. व्यंग्य को हास्य का पर्याय बना दिया गया. व्यंग्य लिखने वाले गम्भीर साहित्यकार ‘व्यंग्यकार’ कहलाने से बचने लगे. विशेषकर पद्य के क्षेत्र में व्यंग्य रचनाएं लिखने वाले ने मंचीय ‘हास्य-व्यंग्य’ रचनाकारों के साथ जुड़ने के भय से व्यंग्य का नाम लेना ही बंद कर दिया. हास्य त्याज्य नहीं है, उसका अनावश्यक अतिरेकपूर्ण हस्तक्षेप एवं उसकी फूहड़ता त्याज्य है.

स्वतंत्रता के पश्चात व्यंग्य हिंदी गद्य में निरंतर ऊंचाइयों की ओर बढ़ा है, जबकि पद्य में स्थिति इसके विपरीत है. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, धूमिल आदि ने कविता में व्यंग्य को जो प्रखरता प्रदान की थी वह धीरे-धीरे तिरोहित होती गयी थी. व्यंग्य कविता हाशिए पर आ गयी. कुछ कवियों की रचनाओं में व्यंग्य का स्वर सुनाई देता है, परंतु जैसे गद्य में परसाई, शरद जोशी या श्रीलाल शुक्ल ने व्यंग्य रचनाएं लिखी हैं वैसी रचनाएं कविता में देखने को नहीं मिलती हैं. जबकि व्यंग्य लेखन की परिस्थितियां कविता के लिए भी वही हैं जो गद्य के लिए हैं. मेरे विचार से इसका मूल कारण व्यावसायिक कविता-मंचों द्वारा तैयार किया गया तथाकथित हास्य-व्यंग्य कविता का भ्रष्ट स्वरूप है जो कविता को गम्भीर कर्म मानकर रचना करने वाले रचनाकारों को इससे विमुख किये हुए है. गद्य और पद्य व्यंग्य के बीच एक विभाजक रेखा-सी खिंच गयी. ऐसा नहीं कि गद्य व्यंग्य में प्रदूषण नहीं आया, परंतु सशक्त व्यंग्य के समक्ष प्रदूषण का प्रतिशत बहुत कम रहा.

व्यंग्य-चेतना मनुष्य के पूर्ण बौद्धिक विकास का शंखनाद है. आदि मानवीय मस्तिष्क ने जब पशुत्व से सभ्य, सुसंस्कृत विवेकशील मस्तिष्क तक की यात्रा तय कर ली तो व्यंग्य की उपस्थिति दर्ज हुई. आदि मानव हंसना, रोना, क्रोध, प्रेम आदि जैसी अनेक मानीवय भावनाओं को धीरे-धीरे सहज स्वभाविक रूप से व्यक्त करने लगा, परंतु व्यंग्य उसके व्यवहार में तभी आया जब उसकी विवेकयुक्त बौद्धिक चेतना का विकास हुआ. व्यंग्य मूलतः सुशिक्षित मस्तिष्क के प्रयोजन की विधा है. यह एक सायास अभिव्यक्ति है. अपने आदिकाल से मानव-मन को विसंगतियों पर हंसी आती थी पर धीरे-धीरे विसंगतियां उसे उद्वेलित करने लगीं और उसके विवेकशील मस्तिष्क ने व्यंग्य का हथियार के रूप में प्रयोग किया. हास्य एक सहज स्वाभाविक मनोभावना है, जबकि व्यंग्य बौद्धिक प्रक्रिया का सायास प्रयास. हास्य में निश्छलता, मृदुलता, सहजता आदि अपेक्षित है, जबकि व्यंग्य अपने स्वभाव में आक्रामक, सायास एवं बौद्धिक आधार ग्रहण किये हुए होता है. दोनों का आधार विसंगति है, परंतु प्रभाव और प्रक्रिया भिन्न है. दोनों की विधागत आवश्यकताएं एवं ‘टूल’ भिन्न हैं. मानव जीवन में पहले हास्य तथा तत्पश्चात व्यंग्य प्रविष्ट हुआ. व्यंग्य की सामयिक स्थिति यह है कि वह समकालीन परिस्थितियों तथा अपनी प्रकृति के कारण एक लोकप्रिय विधा है. पर अधिक लोकप्रियता के मोह में अक्सर इसमें हास्य का हस्यास्पद मिश्रण किया जाता है. आवश्यकता है कि व्यंग्य की गम्भीरता को बनाये रखने के लिए हास्य का हास्यास्पद मिश्रण न किया जाए तथा व्यंग्य को सुशिक्षित मस्तिष्क की विधा ही रहने दिया जाए. व्यंग्य और हास्य तथा हास्य और भौंडे हास्य के अंतर को समझा जाए.

व्यंग्य का आधार विसंगतियां हैं. जब भी समाज में विसंगतियों का आधिक्य होता है, व्यंग्य अपनी भूमिका के साथ उपस्थित हो जाता है. स्वतंत्रता के बाद उपजे अवसाद, मोहभंग आदि से लड़ने के लिए एक हथियार के रूप में व्यंग्य साहित्यिक परिदृश्य में स्थापित हुआ. व्यंग्य विवशता जन्य हथियार है. व्यंग्य आज की नहीं हर समय की आवश्यकता है. मानवीय समाज अपने जन्म से विसंगतिपूर्ण रहा है. विसंगतियों ने गम्भीर रचनाकार को निरंतर व्यंग्य लेखन की ओर विवश किया है. कुछ ऐसी ही परिस्थिति कमलेश्वर के सामने उपस्थिति हुई थीं. इलाहाबाद से दिल्ली जैसे महानगर में आने पर उन्हें लगा कि जिस फार्म और ट्रीटमेंट को वे अपना रहे हैं वह कहीं मिसफिट है. यही कारण है कि उन्होंने 1970 में प्रकाशित ‘ज़िंदा मुर्दे’ संकलन की भूमिका में लिखा था- मैं इलाहाबाद छोड़कर दिल्ली आया था और दिल्ली आते ही एक रचनात्मक शून्य में फंस गया था, क्योंकि तब तक लिखी कहानियों की भाषा, गति और फार्म आदि मेरे काम नहीं आ रहे थे. सच्चाइयां इतनी उलझी हुई लग रही थीं कि उनका छोर समझ नहीं आ रहा था, ऐसे में विडम्बनाओं पर ही दृष्टि टिकती है. अब मुझे लगता है कि अपने समय और परिवेश को समझने में प्राथमिक दृष्टि व्यंग्य की ही हो सकती है. इस संग्रह की कहानियां मेरे लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनके सहारे ही मैंने पहली बार महानगर की उलझी हुई ज़िंदगी के छोर सुलझाये थे.’

हमारा वर्तमान भी अनेक विसंगतियों से भरा हुआ है. पिछले डेढ़ दशक में पूंजी के बढ़ते प्रभाव, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की ‘संस्कृति’ के भारतीय परिवेश में चमकदार प्रवेश ने हमारी मौलिकता का हनन किया है. आज नयी पीढ़ी पैकेजीय दृष्टि के साथ अपने कैरियर पर केंद्रित बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के ‘निर्देशाधीन’ कार्यरत रही है और बदले में अपनी संवेदना एवं सामाजिक पारिवारिक सम्बंध खो रही है. वर्तमान व्यवस्था नयी पीढ़ी को कैरियरिस्ट बना रही है. परिवार का विघटन हो रहा है. व्यक्तिवाद हर क्षेत्र में पैर पसार रहा है. नंगई की मार्केटिंग का धंधा जोरों पर चल रहा है और साहित्य में भी ऐसे धंधेबाजों का समुचित विकास हो रहा है. कुटिल-खल-कामी बनने का बाज़ार गर्म है. एक महत्त्वपूर्ण प्रतियोगिता चल रही है- तेरी कमीज़ मेरी कमीज़ से इतनी काली कैसे? इस क्षेत्र में जो जितना काला है उसका जीवन ही उजला है. अचानक दूसरों का कबाड़ हमारी सुंदरता और हमारी सुंदरता दूसरों का कबाड़ बन रही है. सौंदर्यीकरण के नाम पर, चाहे वह भगवान का हो या शहर का, मूल समस्याओं को दरकिनार किया जा रहा है. धन के बल पर आप किसी भी राष्ट्र को श्मशान में बदलने और अपने श्मशान को मॉल की तरह चमका कर बेचने की ताकत रखते हैं. पिछले डेढ़ दशक में पूंजी के प्रभाव से भारतीय समाज में विसंगतियां बढ़ी हैं तथा वर्तमान व्यवस्था आपको हताश-निराश एवं अवसाद में अकेला महसूसने को विवश कर रही है.

वर्तमान विसंगतियों पर हंसना पलायन होगा और इनपर आक्रमण करना बेहतर मानवीय समाज की दिशा में उठाया गया सार्थक कदम. इन विसंगतियों से लड़ने का एक मात्र हथियार व्यंग्य ही है. आज व्यंग्य, बदलते सामाजिक परिवेश में उत्पन्न विसंगतियों के विरुद्ध लड़ाई का एक सार्थक हथियार बन गया है. सामाजिक परिवेश में अवसाद, मूल्यहीनता, एकाकीपन आदि की उत्पन्न स्थिति का सामना करने के लिए व्यंग्य ही एक उपयुक्त माध्यम है. आज राजनीति, समाज, धर्म, साहित्य आदि में जो मूल्यहीनता की स्थिति है तथा जिस प्रकार हमारी वर्तमान व्यवस्था आक्रोश के स्थान पर पलायन के भाव को भरना चाहती है, आर्थिक प्रगति के नाम पर विरोध के प्रजातांत्रिक अधिकार को कुंद करना चाहती है उसके चलते व्यंग्य की भूमिका अत्यधिक   महत्वपूर्ण हो जाती है.

हिंदी साहित्य में पिछले कुछ समय में व्यंग्य की स्वीकार्यता बढ़ी है. अब तक, अधिकांशतः हिंदी व्यंग्य एक सीमित दायरे तक ही सिमटा हुआ था और उसपर बातचीत का माहौल बहुत कम था. लेकिन व्यंग्य के गाम्भीर्य को स्थापित करने एवं आलोचना में उसकी उपस्थिति को रेखांकित करने के लिए कुछ व्यंग्यकार निरंतर प्रयत्नशील हैं. यह सम्मिलित प्रयास का ही परिणाम है कि हिंदी व्यंग्य पर न केवल व्यवस्थित बातचीत आरम्भ हुई अपितु उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ी है. वरिष्ठ आलोचक डॉ. नामवर सिंह सामयिक परिस्थितियों में व्यंग्य को आमजन का सबसे बड़ा हथियार कह रहे हैं तो डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी व्यंग्य की व्यापकता और विधा के रूप में उसकी स्वीकार्यता की चर्चा कर रहे हैं. प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नित्यानंद तिवारी ने स्पष्ट घोषणा कर दी है कि हिंदी व्यंग्य ने निश्चित ही विधा का स्वरूप धारण कर लिया है और इसका आलोचना शात्र विकसित हो रहा है. निश्चित ही व्यंग्य की स्वीकार्यता बढ़ रही है. व्यंग्य अपने सीमित दड़बे से बाहर निकलकर एक व्यापक रूप ग्रहण कर रहा है. उपेक्षित दृष्टियां अब उसकी ओर स्नेह से देख रही हैं. यह एक बहुत बड़ा बदलाव है. हिंदी व्यंग्य की सबसे बड़ी सफलता यह है कि उसने स्वातंत्र्योत्तर साहित्य में आयी अपठनीयता को समाप्त किया. लोकप्रिय होने के अपने खतरे हैं परंतु इन खतरों से जूझते हुए परसाई, जोशी और श्रीलाल आदि ने एक चिंतनशील बौद्धिक विमर्श को सहज रूप से प्रस्तुत किया.

व्यंग्यकार पर अक्सर आरोप लगाया जाता है कि वह जीवन को ऋणात्मक दृष्टिकोण में देखता है. उसे जीवन में कुछ भी सुंदर नहीं दिखाई देता है. वह तो हर समय आक्रोश के इंजन से भरा, सांप की तरह फुंफकारता चलता है. यह सच है कि व्यंग्यकार की दृष्टि सौंदर्य की वायवी दुनिया में नहीं विचरती है, वह तो एक चिकित्सक की तरह मेज पर पड़ी सुंदरी के मुखड़े को नहीं, उसके शरीर के सड़े फोड़े को देखता है जिससे मवाद बह रहा है. वह उस फोड़े पर चीरा लगाता है, जिससे घाव ठीक होने पर वह पुनः सुंदरी हो जाएगी. वह नैतिकता का पाठ नहीं पढ़ाता है, अपितु नैतिकता का पाठ पढ़ाने की आड़ में अनैतिकता का खेल खेलने वालों के मुखौटे उतारता है. वह मानवीय सभ्यता में आ रही सड़ांध को रोकने के लिए जुटा रहता है. व्यंग्य प्रघात-चिकित्सा में विश्वास करता है न कि अपने ही समाज के एक अंग को विच्छिन्न कर देने में. उसकी दृष्टि, जीवन को सुंदर बनाने के लिए असुंदर पर ही टिकती है. व्यंग्यकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि कैसे वह आलोचनात्मक तथा आक्रोशपूर्ण भाव को प्रघात चिकित्सा में परिणत करे. व्यंग्यकार इस अर्थ में विशिष्ट है कि वह प्रेमगीत नहीं लिखता है और न ही चांदनी  रात में नौका विहार करता है. उसका सोच सामाजिक सरोकारों से जुड़ा होता है.

व्यंग्यकार भी साहित्यकार है और उसके वही सामाजिक सरोकार हैं जो साहित्य के होते हैं. व्यंग्यकार के लेखन के संदर्भ में प्रश्न उठना चाहिए कि क्या वह सामाजिक विसंगतियों का चित्रण मात्र कर अपने कर्म की इति मान रहा है अथवा अपने वैचारिक प्रतिबद्ध परिप्रेक्ष्य में कोई दिशा भी दे रहा है. उसका वैचारिक दृष्टिकोण क्या है? उसके सामाजिक सरोकार, किसी भी ईमानदार रचनाकार की तरह मानव की बेहतरी से जुड़े होने चाहिए. व्यंग्य अगर हथियार है तो इसके प्रयोग में सावधानी की आवश्यकता भी है. तलवार को लक्ष्यहीन हाथ में पकड़कर घुमाने से वह किसी का भी गला काटकर अराजक स्थिति पैदा कर सकता है एवं स्वयं की हत्या का कारण भी बन सकता है. निर्भर करता है कि व्यंग्य नामक इस हथियार का प्रयोग आप किसी सैनिक की तरह कर रहे हैं अथवा हत्यारे की तरह!

(मार्च 2014)

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